महाभोज के कथ्य या प्रतिपाद्य / महाभोज अपराध के राजनीतिकरण एवं राजनीति के अपराधीकरण की कथा है| / महाभोज में दलित उत्पीड़न को विषय बनाकर रचनाकर ने एक ओर जहाँ दलितों की त्रासदी को निरूपित किया है वहीं दूसरी ओर आज की मुखौटाधर्मी राजनीति को बेनक़ाब भी किया है।/ महाभोज का मूल्यांकन
महाभोजः मन्नू भंडारी
मुख्य पात्र -
हिन्दी में राजनीति से जुड़े उपन्यास बहुत कम हैं। महाभोज राजनीति और राजैनेतिक व्यक्तित्व को विषय बनाकर लिखे गये उपन्यासों में एक साहसिक प्रयास है। महाभोज उपन्यास का ताना-बाना उत्तर प्रदेश के सरोहा नामक गाँव के इर्द-गिर्द बुना गया है जहाँ विधान सभा की एक सीट के लिए चुनाव होने वाला है। कहानी बिसेसर उर्फ़ बिसू की मौत की घटना से आरंभ होती है। सरोहा गाँव की हरिजन बस्ती में आगजनी की घटना में दर्जनों व्यक्तियों की निर्मम हत्या हो चुकी थी। बिसू के पास इस हत्याकाण्ड के प्रमाण थे, जिन्हें वह दिल्ली जाकर सक्षम प्राधिकारियों को सौंपना और बस्ती के लोगों को न्याय दिलाना चाहता था। किंतु राजनीतिक षडयंत्र के कारण जोरावर ने बिसू की चाय में दो लोगों को भेज जहर मिलवा दिया, जिसके चलते उसकी मृत्यु हो जाती है। बिसू का साथी बिंदेश्वरी उर्फ़ बिंदा उसकी मौत के पश्चात इस प्रतिरोध को ज़िंदा रखता है। बिंदा को भी राजनीति और अपराध के चक्रव्यूह में फँसाकर सलाखों के पीछे पहुँचा दिया जाता है। अंततः पुलिस अधीक्षक सक्सेना, वंचितों के प्रतिरोध को जारी रखते हैं।
जातिगत समीकरण किस प्रकार भारतीय स्थानीय राजनीति का अनिवार्य अंग बन गये हैं, उपन्यास की केंद्रीय चिंता है। यह कर्मयोग और गाँधीवाद की रामनामी ओढ़े हुए दा साहब की सतरंजी राजनीतिक चालो की गाथा नहीं है यह गाथा है आज की मुखौटा धर्मी राजनीति के नीचे पीसती हुई दलित जनता की। आजादी बाद अन्याय के विरूद्ध दलितों में सजगता आयी है। उनमें अपने हकों और हितों के लिए संघर्ष करने का माद्दा भी हैं दलितों और पीछड़ों में बिसू और बिंदा जैसे चरित्र निश्चय हीं इन वर्गों की ऐतिहासकि उपलब्धियाँ हैं| नवसामंती सत्ता और राजसत्ता के गठजोड़ एवं कुटनीतिक चालों से अनभिज्ञ इस दलित नेतृत्व में न तो जुझने की रणनीति है और न ही इस नेतृत्व की त्रासद परिणति को देखकर सहमें हुए दलित वर्ग में लड़ने और टकराने का साहस। राजनीति मानो नियति का निर्धारक है और नई शक्ति का श्रोत भी है।
आज की भारतीय राजनीति दलितों को एक वोट बैंक समझकर उनके पास आयी तो है लेकिन उन्हें समर्थ बनाने के लिए नहीं, उन्हें उनका न्याय और हक दिलाने के लिए भी नहीं, वह आयी है दलितों की मार खायी हुयी संवेदनाओं को सहलाते, जोड़ते हुए, सत्ता केन्द्र तक पहुँचने के लिए। मुख्यमंत्री दा साहब और प्रतिपक्ष के नेता सुकुल बाबू दोनों शक्ति संचय की हीं फिराक में दलितों की राजनीति करते हैं| दोनों बिसू की हत्या और दलितों की वस्ती में लगी हुयी आग के प्रति अपनी संवेदना का इजहार चुनाव की हवा को अपने पक्ष में करने के लिए करते हैं। सुकुल बाबू बिसू के गाँव आते हैं दलितों के दुःख में हिस्सा लेने के लिए लेकिन जल्दी ही उनकी सभा चुनावी सभा का रंग ले लेती है और वे दलितों के बहाने सरकार पर निशाना साधने लगते हैं। उनके भाषण के बीच में हीं एक दलित कहता है’’ का बताई हमार दुःख मूलक कोई नहीं जानत।’’ यह सुनते ही सुकुल बाबू का एक लठैत लाठी ढोकता है और इस दलित की बुदबुदाहट शुन्य में खो जाती है। यदि सुकुल बाबू अपनी सभा के लिए अपराधियों का सहयोग लेते हैं तो मुख्यमंत्री दा साहब अपराधियों को संरक्षण देते हैं। मुख्यमंत्री दा साहब अपने प्रांत के गाँव को गाँधी के सपनों का गाँव बनाना चाहते हैं लेकिन व्यवहारतः अपने विरोधियों को मार देने के लिए वे नौकरशाही, प्रेस और अपराधी तत्वों को मिलाकर गाँव के दलितों को उजाड़ने की पक्की व्यवस्था भी करते चलते हैं। उनका यह दोहरापन ही दलितों की समस्याओं और अधिक असाध्य बनाता चला जाता है।
महाभोज राष्ट्र के ज्वलंत सवालों से महाभोज की लेखिका मन्नु भण्डारी का साहित्यिक साक्षात्कार है। इस उपन्यास में उन्होंने समकालिन राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में सामान्य आदमी की घट रही हैसियत और उसकी त्रासद स्थिति का उद्घाटन किया है। यह उपन्यास एक मध्यावधि चुनाव को एक राजनीतिक सरगर्मी का केन्द्र बिन्दु बनाकर व्यवस्थागत खोट, मानवीय विडम्बना और अन्याय जनित दलित पीड़ा को उजागड़ करता है। इस उपन्यास में राजनीतिज्ञों के छद्म औदात्य एवं गांभिर्य के मुखौटे के भीतर से झांकती वास्तविकता की घिनौनी तस्वीर को सूक्ष्मता से पकड़ा गया है।
महाभोज आजाद भारत के राजनीति का एक साहित्यिक दस्तावेज है। इसमें ग्रामीण जनता की आवाज को दबाने वाली राजनीति अपने दूहरेपन के साथ बेपर्दा होती है। बिसू एक जागरूक दलित है| उसकी क्रान्ति चेतना स्थानीय सत्ता पक्ष के लिए सिरदर्द बन जाती है। गाँव का भूपति वर्ग जोरावर सिंह के नेतृत्व में दलितों की बस्ती में आग लगाते हैं जिसमें कई दलित-जल कर मरते हैं। बिसू अन्यायी को सजा दिलाने के लिए संघर्ष कर रहा है लेकिन उसकी हत्या कर दी जाती है। हत्या के बाद फिर शुरू होती है राजनीतिक शतरंज। यह उपन्यास राजनीति के उस विभत्स रूप को उजागर करता है जिसमें आदमी को जीने का हक भी नहीं रह गया हैं| वह राजनीति अपने दुश्मनों को जीने नहीं देती। ईर्ष्या के बाद भी उसे छोड़ती नहीं है। उसकी लाश को शतरंज का मोहरा बनाकर राजनीतिक लड़ाई में जीत तक पहुँचना चाहती है। जिस तरह बिसू की लाश लाश नहीं रह जाती, प्रतिपक्षियों को परास्त करने का मोहरा बन जाती है उसी तरह बिसू की चिता भी चिता नहीं रह जाती है, वह राजनीतिक स्वार्थ की रोटियां सेकने का तंदूर बन जाती है। बिंदा, सरमा और सक्सेना बिसू की क्रान्तिकारी चेतना को जलाये रखने की कोशीश करते हैं। उनकी कोशीश है क्रान्ति की दहकती चिंगारियों को सुलगाये रखने की।
महाभोज किसी गाँव या शहर की कहानी नहीं है यह वर्तमान राजनीति के दुषित प्रभाव को व्यापकता से उजागर करने की कहानी है इसलिए इसे गाँव बोध का नहीं राजनीति बोध का उपन्यास मानना चाहिए। विचारशील व्यक्ति की पीड़ा इसमें इन शब्दों में व्यक्त हुयी हैः ‘‘आज तो परिवर्तन का नाम लेने वाले की आवाज घोंट दी जाती है- उसे काटकर फेक दिया जाता है, घुटे गले और रूंधी आवाजों से क्रान्ति का स्वर फूट सकेगा कभी। यह स्वर लेखिका का ही नहीं वरन उन समस्त संवेदनशील प्राणियों का है जो इस व्यवस्था में जी रहे हैं| बिसू की लाश पुरे उपन्यास में एक आवज की तरह गुंजती रहती है। बिंदा इस आवाज को बंद होने नहीं देता। वह बिसू की लड़ाई को आगे बढ़ाता है। वह दा साहब की जनसभा में अपने साथियों के साथ विरोध प्रदर्शन करता है। वह एस0पी0 सक्सेना के समक्ष गवाही देता हुआ कहता है कि “बिसू की हत्या हुयी है और जो जिंदा हैं वे जी नहीं सकते अपने इस देश में, मार दिए जाते हैं कुत्ते की मौत।“ बिंदा अपने मित्र की हत्या करने वाले हत्यारों को पकड़वाने की लड़ाई छेड़ता है लेकिन दा साहब के इसारे पर पुलिस उसे बिसू की हत्या का आरोपी बनाकर जेल भेज देती है। बिंदा चिखता चिल्लाता है और बार-बार दुहराता है कि बिसू की इच्छा को कोई मार नहीं सकता। इस उपन्यास का अन्त ध्वनित करता है कि एक बिसू की हत्या की जा सकती है, एक बिंदा को जेल में बन्द किया जा सकता है, एस0पी0 सक्सेना को सच कहने के अपराध में निलंबित किया जा सकता है लेकिन न्याय एवं सत्य निष्ठा की आवाज हमेशा के लिए दबाई नहीं जा सकती।
महाभोज 1979 में प्रकाशित हुयी। इसका प्रकाशन काल 1977 की जनता पार्टी सरकार का काल है। इसमें आपात काल के बाद बनने वाली सरकार का भी हवाला है। उपन्यास का एक पात्र बोलता भी है कि “एक वह शराबी सरकार थी और यह पिशावी सरकार।“ इस कथन के आधार पर सहज ही यह भान होता है कि इसारा मुरारजी भाई की सरकार की ओर है। दा साहब की सादगी और साफ सुथरापन मोरारजी भाई की सादगी और साफ सुथरेपन के मेल में है। लेकिन दा साहब एक व्यक्ति नहीं एक विशेष प्रकार के उभरते हुए राजनीतिज्ञों के जमात के प्रतीक हैं तो कहना पड़ेगा कि यह उपन्यास 8वें, 9वें दशक के राजनीति और राजनैतिक व्यक्तित्व को सामने नहीं लाता। आजाद भारत के पहले दूसरे दशक की राजनीति और राजनैतिक व्यक्तित्व को सामने लाता है| तब की राजनीति में भी राजनीतिक कुत्साएँ पैदा होने लगी थीं जिन्हें ढ़कने के लिए राजनीतिक खिजाब आवश्यक होता था, तब राजनीति में खुल कर नगई नहीं आयी थी और न हीं अपाराधियों के पीठ थपथपाने की निर्लज्जता आयी थी। दा साहब स्वयं अपराध नहीं करते वे तो सिर्फ अपराधियों को बचाने का अपराध करते है। अपराधियों को बचाने के लिए भी वे नियम कानून की आड़ लेना जरूरी समझते हैं वे हमेशा सिद्धान्तों का मुखौटा लगाए रहते हैं। उनके व्यक्तित्व से राजनैतिक पेच जुड़ अवश्य गए हैं, पर उसके कारण उनकी सच्चाई उद्घाटित नहीं होती। उनसे छूटे हुए राजनीतिज्ञ उनके मंत्री राव, मेहता आदि हैं जो अपने स्वार्थें को छिपा नहीं पाते। दा साहब का अपराध यह है कि जहाँ शोला भरकता है वे उसपर पानी डालने का काम करते हैं। पूरी उठा पटक के बीच उनकी भूमिका अपराधियों को संरक्षण देने और अपने राजनीतिक विरोधियों को मात देने की है। उनके चरित्र में कुछ मूल्य अभी बचे हुए हैं। वे जो वायदा करते हैं उसे निभाते है। काम हो जाने पर न तो मुकड़ते है न सीढ़ी को लात मार कर गिराते हैं। वे कहते हैं- “मैं बहुत ऊँचे तक नहीं ले सकता पर जहाँ तक ले जाता हूँ वहाँ खड़े होने के लिए कम से कम पाँव के नीचे जमीन जरूर देता हूँ। मेरे साथ चलने वालों के सामने ओंधे मुँह गिरने का खतड़ा कतई नहीं रहता।“ इससे भी स्पष्ट है कि आज के राजनीतिज्ञों की तरह दा साहब ने सारे मूल्य तिरोहित नहीं कर दिए हैं। उनमें राजनीतिक लम्पटता कहीं नहीं दिखायी पड़ती। जबकि 80 के बाद के प्रायः राजनीतिज्ञों के व्यक्तित्व से लम्पटता उसी तरह लिपटी हुयी है जिस तरह दूध से मक्खन। दा साहब का सीधा जुड़ाव किसी आपराधिक घटना से नहीं है वे तो सिर्फ अपने पद का उपयोग जोरावर सिंह के बचाव के लिए करते हैं। उनका गीता ज्ञान उन्हें कृष्ण के रास्त पर चलने के लिए प्रेरित करता है। कृष्ण ने अपने मित्र पांडवों के लिए एक-एक करके कौरवों का संघार किया। द्रोणाचार्य की हत्या करवाई, छल से दूर्योधन की जंघा तोड़वायी। दा साहब भी अपने शुभ चिंतक सहयोगी जोरावर सिंह के लिए सब कुकर्म करते हैं। दोनों में अन्तर सिर्फ इतना हीं है कि कृष्ण का छल और षडयंत्र अपराधियों के नाश के लिए है जबकि दा साहब का छल और षडयंत्र अपराधी के बचाव के लिए।
यह उपन्यास अपराध के राजनीतिकरण और राजनीति के अपराधीकरण की कथा है। इसमें राजनेता, अपराधी नौकरशाही और प्रेस के खतरनाक मानवघाती गठबंधन को बेनकाब किया गया है। बिसू की हत्या करने वाले जोरावर सिंह का बचाव अपराध को संरक्षण है। बिसू की हत्या में बिंदा को हत्या का आरोपी बनाकर उसे जेल भेजने वाले डी0आई0जी0 सिंहा की प्रोन्नति अपराध के लिए पुरस्कार है। सच पुलिस रपट तैयार करने वाले एस0पी0 सक्सेना का निलंबन अच्छे काम के लिए पुरस्कार के बदले दंड है। जोरावर सिंह को टिकट न देना लेकिन सजा से बचाना अपराधी को राजनीति से दूर रखकर उसे राजनीति के लिए उपयोगी बनाये रखने की रणनीति है| लेखिका ने राजनीति और राजनीति के उभरते रंग की शिनाख्त व्यंग के साथ की है लेकिन इससे जो स्वरूप उभरता है वह आज की राजनीति का हुलिया नहीं है बल्कि वह तो आज की लम्पटता से भड़ी हुयी राजनीति की महज पीठिका है। अपराधी को संरक्षण देने वाले सत्तादल का चुनाव में जीत जाना आतंक, प्रशासनिक साजिस, बूथ नियंत्रण और जातीय ध्रुवीकरण का परिणाम है। यह उपन्यास राजनीति के मूल्यहीनता की ओर बढ़ने के शुरूआती दौर की कथा है। यह इस बात से भी प्रमाणित होता है कि जोरावर सिंह को टिकट नहीं दिया जाता।
यदि उपन्यासकार ने अन्याय के नीचे दलितों की सिसकती हुयी तकलीफ की सिर्फ कथा कही होती तो निश्चय ही यह उपन्यास एक सफल कृति प्रमाणित होता। इस उपन्यास की मूल समस्या दलित उत्पीड़न ही है। उस समस्या का जनक है जोरावर सिंह। उसी का चरित्र समस्या मूलक है। दा साहब का चरित्र पूरक या सपोर्टिंग चरित्र ही हो सकता है। यदि ऐसा होता तो यह उपन्यास शोषित जनता के उठ रहे फन को कुचलने की केन्द्रीय समस्या की भयावहता को और बेहतर ढंग से उजागर करता और तब यह उपन्यास दलित चेतना और उसमें से फूटते हुए वर्ग संघर्ष की सफल कथा बन जाता। लेखिका जो कहना चाहती है वह दा साहब के व्यक्तित्व के आकर्षण के कारण बहुत कुछ अनकहा रह जाता है। दा साहब का व्यक्तित्व उपन्यास में इतना कद्दावर बन गया है कि मूल समस्या उसके नीचे अपना हाथ पाँव नहीं फैला सके। इसी कारण बिसू और बिंदा की त्रासदी पूरी तरह उभर नहीं पाती। इसलिए यह उपन्यास दलित यातना की मर्मभेदी कथा नहीं बन पाता। दूसरी बात यह कि यदि बिसू और बिंदा के पास प्रमाण थे तो वे प्रमाणों को दबाये बैठे किस बात का इंतजार करते रहे? दिल्ली जाना था तो गये क्यों नहीं? या तो इनका दिल्ली पर विश्वास नहीं था या ये भ्रमित थे। यदि दिल्ली नही हीं जाना था तो फिर ये उन प्रमाणों को जनता की अदालत में रख सकते थें तब शायद जिस खतरे के ये शिकार हुये वे खतरे उन्हें इस तरह लील नहीं पाते। इसे देख लगता है कि उपन्यासकार की अर्न्तदृष्टि में कुछ धुंधलापन है। यह धुंधलापन तब और महसूस होता है जब रुक्मा और सक्सेना उन प्रमाणों को लेकर दिल्ली रवाना होते हैं। सक्सेना के दिल्ली प्रस्थान से लगता है बिसू और बिंदा की अपेक्षा समस्या से कहीं अधिक जुड़ा है सक्सेना। क्या सक्सेना का जुड़ना प्रतिशोध जैसा नहीं लगता क्योंकि सरकार से यह सक्सेना पहले भी प्रताड़ित होता रहा है सक्सेना का व्यक्तित्व निश्चय ही मानवीय है। वह इमानदार एवं अपने कर्त्तव्य के प्रति निष्ठावान है। आज के शातिर नौकरशहों के बीच वह बिल्कुल भिन्न दिखता है। उसका आचरण या चरित्र ही इस बात का प्रमाण है कि अब भी नौकरशाही से कुछ आशा की जा सकती है। रूक्मा भी एक कर्मठ चरित्र है। बिसू से उसे लगाव रहा है| बिंदा उसका पति है| यही बिंदा को एस0पी0 के सामने बयान देने से पहले रोक रही थी लेकिन अब बिंदा की गिरफ्फतारी से उसका सारा भ्रम टूट चुका है| लेकिन उसका और सक्सेना का दिल्ली जाना, दिल्ली से बिना कोई आश्वासन पाए आना क्या हास्यास्पद नहीं लगता? दा साहब एक प्रभावशाली मुख्यमंत्री हैं। दलितों की वस्ती में आग लगने की इतनी बड़ी घटना घट जाती है लेकिन विरोधी दल का एक सांसद उस क्षेत्र में घुंस नहीं पाता। यह दा साहब अपने दल के विक्षुब्दों को मनाने या दंडित करने का निर्देष आलाकमान से नहीं प्राप्त करते बल्कि विक्षुब्द पाँच मंत्रियों में से चार को अपने पक्ष में मिलकार और एक लोचन बाबू को बर्खास्त कर विक्षुब्दों के सारे आंदोलन को खत्म कर देते हैं। फिर ऐसे मुख्यमंत्री जो स्वयं प्रधानमंत्री की तरह लगता है दिल्ली उसका क्या बिगाड़ लेगी। इसलिए रुक्मा और सक्सेना का प्रमाणों के साथ दिल्ली जाना यह संकेत देता है कि दोनों में राजनैतिक समझ बहुत कम है। यह प्रस्थान रचना में कोई आश्वासन नहीं छोड़ता बल्कि क्षीण आशा का संचार करता है। उनके प्रस्थान से यह विश्वास नहीं जगता कि दलित उत्पीड़न समाज से खत्म हो जाएगा और अन्यायी सत्ता भी रफा दफा हो जाएगी। इसलिए यह उपन्यास महज एक क्षीण आशा का संचार करके रह जाता है। यह मौजूदा राजनैतिक हालात और उसमें निहित स्वार्थपरकता के परदे को सिर्फ झीना करता है उसे उठाता नहीं। यह धारणा दा साहब के चरित्र के कारण बनती है। दा साहब के चरित्र में एक खास ढंग की अनुशासन प्रियता दिखायी पड़ती है। वे कभी भी अपने निष्पृहता में भाई-बहनों, साले- बहनोइयों, बेटे-बेटियों के संबंध में कुछ पुछते नहीं दिखते। उन्हें बैंक बैलेंस बढ़ाने और अकूत चुनाव फंड निर्मित करने की भी खास शौख नहीं है। यदि दा साहब का परिवार भरा-पूरा है फिर वे उससे उतने हीं अलग हैं जितना अन्यों से तो फिर दा साहब के व्यक्तित्व की तुलना गिद्ध से कैसे की जा सकती है? वे अपनी पत्नी जमुना बहन से भी उसी तरह बात करते हैं जिस तरह बाहर के लोगों से। जमुना बहन कहती है कि ‘‘आज की राजनीति में घटिया तरह का जो घालमेल है उसे देखते हुए लगता है कि तुम जैसे संत आदमी को संयास ले लेना चाहिए।’’ निष्चय ही जमुना बहन का यह कथन व्यंग नहीं है। दा साहब कहते हैं कि ‘गीता पढ़कर भी तुम ऐसी बात करती हो। चुनौती स्वीकारना तो कर्मयोगी का सबसे बड़ा धर्म होता है।’ दा साहब का सरकारी बंगला भी चमक-दमक से मुक्त है| वहाँ ड्राईंग रूम में कालिन की जगह दरी बिछी है और उनका विस्तर पलंग पर नहीं फर्स पर है। उनके हर कमरे में गीता की कोई न कोई प्रति मिल जाती है। दा साहब की राजनीति भी भाई भतिजावाद से बिल्कुल मुक्त है। इसलिए उनकी छवि गिद्ध की नहीं उभरती है। हालांकि रचनाकार का उद्देश्य यह दिखाना नहीं था। लेखिका तो आज के राजनीतिज्ञों के उस कुरूप चेहरे को दिखाना चाहती थीं ताकि दलित त्रासदी मर्म को सीधे छू सके। लेकिन दा साहब के व्यक्तित्व मंडण का मोह न छोड़ पाने के कारण इस उपन्यास में लेखिका का अभिप्राय कुछ है और अभिव्यक्ति कुछ और।
दा साहब इस उपन्यास में जनता की लाश का महामहोत्सव मनाने वाले राजनीतिक गिद्ध नहीं लगते, वे तो अनुशासन प्रिय संरक्षक के रूप में दिखायी पड़ते हैं या अधिक से अधिक अपने जुड़े सहयोगी के हित चिंतक के रूप में। वे अंतरंग बातचीत में भी अन्याय का समर्थन नहीं करते और न ही दलितों के प्रति अपनी वितृष्णा का इजहार करते हैं। जोरावर सिंह उनसे कहता है कि “वे जो हरिजनों को माथे चढ़ाने के सारे धंधे जो आपने शुरू किये हैं, जड़ खोदना ही हुआ हमारी एक तरह से यह।“ दा साहब बहुत संजीदगी से कहते हैं, ‘‘जमाना बदल रहा है जोरावर जमाने के साथ बदलना सीखो, जो चीजे आज से 30 साल पहले होनी चाहिए थी। वे आज भी पूरी तरह नहीं हो रही है। दुर्भाग्य है इस देश का।’’ दा साहब के व्यक्तित्व में एक छद्म है लेकिन इन छद्म को छद्म न दिखने देने के लिए कठोर अनुशासन भी है। दूसरी बात यह कही दा साहब उपन्यास के सारे घटना चक्र में कहीं भी प्रथम पुरूष नहीं दिखते वे तो द्वितीय पुरूष हैं। उनका अपराध उनके कुशल प्रबंधन में है जिसे आज की राजनीति को देखते हुए पूरी तरह अपराध भी कहना ठीक नहीं लगता। जैसे वे दत्ता साहब के प्रेस के लिए कागज का कोटा बढ़ा देते हैं दूसरे दिन अखबार दा साहब के बिल्कुल अनुकूल छपा मिलता है। जबकि दा साहब ने ऐसा आदेश दिया नहीं था। वे डी0आइ0जी0 सिंहा से रिपोर्ट बदलने के लिए नहीं कहते। बिसू की हत्या पर दा साहब जो राय जाहिर करते हैं उसी राय को डी0आइ0जी0 सिंहा आदेश मानकर सक्सेना की तैयार रपट का निष्कर्ष बदल देते हैं। बदले में डी0आई0जी0 सिंह की प्रोन्नति हो जाती है। लालची विक्षुब्धों को आतंकित कर और सिद्धान्तवादी विक्षुब्द को बर्खास्त कर दा साहब अपना मंत्री मंडल बना लेते हैं अब यह तो नहीं होगा कि वे अवसरवादी विक्षुब्दों के ख्वाब में आकर अपनी सरकार गिर जाने देते। यह घटनाक्रम दा साहब के कुशल प्रबंधन का संकेत देता है, उनके अपराधी होने का नहीं। गाँव में भूपतियों द्वारा दलितों पर अत्याचार, विरोध का हिंसक रूप् सिर्फ मौजूदा राजनीति की देन नहीं है बल्कि यह जातीय और धनग्रत श्रेष्ठता को बनाए रखने की प्रवृति की उपज है। लेखिका ने इन वर्चस्ववादी शक्तियों का गठजोड़ सत्ता की राजनीति के साथ दिखाकर सामाजिक ध्रुवीकरण का भी पता दिया है। एक ओर है दा साहब, लखन, जोरावर सिंह, डी0आई0जी0 सिंहा और मसाल के ‘सम्पादक’ दत्ता बाबू जैसे लोग तो दूसरी ओर है बिसू बिंदा, हीरा, रूक्मा, सक्सेना जैसे लोग। लेखिका ने इन दोनों को यदि समान आत्मीयता दी होती तो यह उपन्यास एक कालजयी कृति के रूप में उभरता लेकिन दा साहब के व्यक्तित्व के प्रति लेखिका के आकर्षण ने समस्या का रूख हीं मोड़ दिया है। दा साहब की व्यक्तित्व प्रतिष्ठा मुख्य धारा बन गयी है तथा दलित उत्पीड़न की मुख्य समस्या पतनाले की पतली धारा की तरह खो गयी है। दा साहब के व्यक्तित्व ने समस्या का गला घोंट दिया है।
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