हिन्दी साहित्य की प्रासंगिकता और महत्व तथा हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन की परम्परा
· हिन्दी साहित्य की प्रासंगिकता और महत्व
साहित्य में स-हित का भाव होता है। उन रचनाओं को जो स-हित भाव से रमणीय शैली में लिखी जाती है, साहित्य में सम्मलित की जाती है। साहित्य मूल रूप में सत्यम, शिवम, और सुंदरम को समाहित करता है। किसी भी देश या भाषा का साहित्य कई कारणों से प्रासंगिक तथा महत्वपूर्ण होता है। हिन्दी साहित्य ने भी प्रायः इन सभी दृष्टियों से प्रासंगिकता का निर्वाह किया है।
साहित्य का सबसे बड़ा योगदान यह होता है कि वह पाठक को संवेदनशील बनाता है। संवेदनशीलता भावुकता का पर्याय नहीं है। संवेदनशीलता का अर्थ है उसके प्रति भावात्मक संबंध महसूस करना जो पीड़ा में है। साहित्य की शक्ति इसमें है कि वह पाठक को भी इस समस्या या पीड़ा के प्रति संवेदनशील बना देता है। उदाहरण के लिए निराला की भिक्षुक कविता गरीब के प्रति संवेदनशीलता पैदा करती है -
वह आता
दो टूक कलेजे के करता
पछताता पथ पर आता
पेट-पीठ दोनों मिलकर हैं एक
चल रहा लकुटिया टेक
मुठ्ठी भर दाने को
भूख मिटाने को
साहित्य का दूसरा महत्वपूर्ण योगदान समाज को सही दिशा देना है। साहित्यकार अपनी विसंगतियों की पहचान कर लेता है तथा उसके खिलाफ आम आदमी को तैयार करने में सक्रिय रूप से हिस्सा लेता है। उदाहरण के लिए स्वाधीनता आंदोलन के दौर में हिन्दी कविता न सिर्फ आजादी के लिए वैचारिक उर्जा प्रदान करती है बल्कि सामान्य जन को जोश से भरने का कार्य भी करती है।
देशभक्त वीरों, मरने से नेक नहीं डरना होगा,
प्राणों का बलीदान देश की वेदी पर करना होगा।
(नाथूराम शर्मा)
हिन्दी साहित्य का एक और महत्वपूर्ण प्रदेय यह भी है कि उसने समय के अनुकूल नये-नये विचारों को उत्पन्न करने में सक्रिय भूमिका निभाई है। तुलसी ने भक्तिकाल में पहली बार गरीबी, जैसी समस्या पर विस्तृत चिंतन किया है। भारतेन्दु ने साम्राज्यवाद के खिलाफ और प्रगतिवाद ने पूँजीवाद के खिलाफ वैचारिक लड़ाई लड़ी है। हिन्दी कविता पाठक को विचारों की उर्जा से सम्पन्न करना चाहती है। गुप्त जी लिखते हैं: -
हम कौन थे, क्या हो गये हैं और क्या होंगे अभी,
आओ मिलकर आज विचारें ये समस्याएँ सभी।
साहित्य का एक अनिवार्य महत्व भी है कि वह स्वस्थ्य मनोरंजन के माध्यम से पाठक के मन में रागात्मकता का संचार करता है तथा सुंदर जीवन जीने की ललक पैदा करता है। जीवन के रागात्मक प्रसंगों के साधारणीकरण के माध्यम से साहित्य पाठक के जीवन को भी सुंदरता और रमणीयता से भर देता है।
बिहारी का निम्नलिखित दोहा ऐसा ही एक प्रसंग प्रस्तुत करता है -
कहत नटत रीझत खिझत मिलत खिलत लजियात
भरे भौन में करत हैं नैननु ही सौ बात
· हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन की परम्परा
साहित्य का इतिहास साहित्यिक रचनाओं का ऐतिहासिक दृष्टि से किया गया अध्ययन एवं मूल्यांकन है। फ्रांसीसी विद्वान तेन साहित्य के प्रवृतियों के निर्धारण में यदि जातीय परम्पराओं, राष्ट्रीय सामाजिक वातारण और सामयिक परिस्थितियों की अहम भूमिका मानता है तो हडसन रचनाकार की प्रतिभा और जीवन दर्शन को कम महत्व नहीं देता।
साहित्य वही रहने पर भी साहित्य का नया-नया इतिहास लिखा जाता है। कारण यह है कि परिप्रेक्ष्य बदलने पर इतिहास लेखन की दृष्टि भी बदलती है। इतिहास लेखन की परम्परा को अध्ययन की सुविधा हेतु तीन भागों में बाँटा जा सकता है – (क) रामचन्द्र शुक्ल के पूर्व की रचनाएँ, (ख) रामचन्द्र शुक्ल की रचना एवं (ग) रामचन्द्र शुक्ल के लेखन के उपरांत साहित्य का इतिहास।
(क) रामचन्द्र शुक्ल के पहले छः इतिहासनुमा पुस्तकें लिखी गई -
1. गार्सा-द-तासी: इस्त्वार द ल लितरेत्यूर ऐंदुई ऐ ऐंदुस्तानी (फ्रेंच भाषा, 1839)
इतिहास लेखन की परम्परा यहीं से प्रारंभ होती है। यह तीन भागों में विभक्त है। इसमें कवियों का विवरण और ब्यौरा वर्णानुक्रम से है। न तो इसमें काल विभाजन किया न ही प्रवृतियाँ निदृष्ट की गई है।
उपनिवेशवादी एवं हिन्दी विरोधी दृष्टिकोण के साथ लिखी गई है, जिसमें तिथि और तथ्य प्रामाणिक नहीं है। इसमें हिन्दी के अन्तर्गत दूसरी भाषा का इतिहास भी समेट लिया गया है।
2. शिव सिंह सेंगर कृत शिव सिंह सरोज
इस पुस्तक में लगभग 1000 कवियों का वर्णानुक्रम से इतिवृत लिखा गया है। यह हिन्दी साहित्य संबंधी सामान्य ज्ञान को सामने लाती है। इसमें तिथियाँ अविश्वसनीय है।
3. जॉर्ज ग्रियर्सन कृत द मार्डन वर्नाकुलर लिटरेचर ऑफ नार्दन हिन्दुस्तान (1888)
इस पुस्तक में सबसे पहले काल विभाजन मिलता है। शुक्लजी का काल विभाजन भी इस पुस्तक से ही प्रभावित है। किसी भी काल की खास प्रवृतियों से जुड़े हुए रचनाकारों का कालक्रमानुसार विवेचन किया गया है। उस काल की गौण कवियों को अध्याय के अंत में स्थान दिया गया है। उस सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक परिस्थितियों एवं प्रेरणा स्त्रोतों का भी उल्लेख किया है जिसके भीतर से कोई रचना प्रवृति जन्म लेती है।
साहित्य के विकास को चारण काव्य, धार्मिक काव्य, प्रेम काव्य, दरबारी काव्य आदि में क्रमिक रूप से बाँटा गया है। ग्रियर्सन पहले इतिहासकार जिन्होने 16वीं, 17वी शताब्दी के कालखंड को स्वर्ण युग की संज्ञा दी है।
प्रशासक इतिहासकार होने के कारण इनकी ब्रिटिश शासन के प्रति पक्षधरता है। भाषाविद होकर भी हिन्दी ओर उर्दू को कृत्रिम और अलग-अलग भाषाएँ मानते हैं। भक्तिकाल को ईसाईयत की देन माहा है। साथ ही रामचरितमानस को इसाई धर्म के निकट होने के कारण प्रसंसनीय बताया गया है।
4. मिश्र वंधु कृत मिश्र बंधु विनोद (1913 ई0)
यह चार भागों में विभक्त है। इसमें 5000 कवियों का जीवनवृत और उनकी रचनाओं का विवरण है। साहित्यिक आधार पर रचनाकार को विभिन्न श्रेणियों में बांटा गया है।
काल विभाजन में वैज्ञानिकता और व्यवस्था का अभाव है। रीतिवादी नजरिए के कारण तुलसी और सूर के साथ न्याय नहीं किया गया है। इसमें हिन्दूवादी इतिहास दृष्टि मिलती है। काव्यों का मूल्यांकन कम किया है और जीवनवृत संग्रह अधिक है।
5. ग्रीब्ज कृत ए स्केच ऑफ हिन्दी लिटरेचर (1918 ई0)
6. पादरी एफ ई॰के॰ कृत ए हिन्दी ऑफ हिन्दी लिटरेचर (1920)
ये दोनों रचनाएँ अंग्रेजी में है। ब्रिटिश शासन के प्रति पक्षधरता दोनों रचनाएँ में मिलती है। पादरी एफ ई॰के॰ मानते हैं कि हिन्दी साहित्य में बुद्धिवादी चेतना यूरोपीय प्रभाव के कारण आई। उनके अनुसार पुर्नजागरण अंग्रेजी प्रभाव की देन है।
(ख) रामचन्द्र शुक्ल का इतिहास लेखन (हिन्दी साहित्य का इतिहास 1929)
शुक्ल जी के पास एक आलोचक की ऐतिहासिक चेतना है साथ ही एक इतिहासकार की आलोचनात्मक चेतना भी। शुक्ल जी के इतिहास लेखन में उनका इतिहास संबंधी दृष्टिकोण भी उजागर होता है। उन्होंने अपने इतिहास ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही लिखा है कि “जबकि प्रत्येक देश का साहित्य वहाँ की जनता के चित्रवृत्ति का संचित प्रतिबिम्ब होता है, तब यह निश्चित है कि चित्रवृत्तियों में परिवर्तन के साथ जनता के स्वरूप में भी परिवर्तन होता है। आदि से अंत तक चित्रवृत्तियों की परम्परा के साथ साहित्यिक परम्परा का सामंजस्य बिठाना साहित्य का इतिहास कहलाता है।“ जीवन एवं समाज में हुआ परिवर्तन साहित्य के स्वरूप को परिवर्तन करता है। दूसरी बात यह है कि शुक्ल जी जनता और शिक्षित जनता के बीच के द्वंद्व और तनाव से उत्पन्न विवेक लेकर इतिहास लेखन को अंजाम देते हैं। यही कारण है कि वे साहित्य में साहित्यिकता और सामाजिकता का द्वंद्व और तनाव ढूँढते हुए दिखाई पड़ते हैं। साहित्यिकता का संबंध अनुभूतिवाद और अभिव्यक्तिवाद से है तथा सामाजिकता का संबंध लोकमंगल की प्रवृत्ति से है। साहित्य शिक्षित जनता की चित्र वृत्ति है तो सामाजिकता सामान्य जनता की।
शुक्ल जी हिन्दी साहित्य के इतिहास का प्रारंभ देशभाषा काव्य से मानते हैं। वे अपभ्रंश को पुरानी हिन्दी कह कर भी उसे साहित्य की पृष्ठभूमि में ही रखते हैं। उन्होंने हिन्दी के व्यापक जनस्वरूप को पहचानकर हिन्दी के अंतर्गत मैथली, राजस्थानी, अवधी, ब्रजभाषा और खड़ी बोली के साहित्य का विवेचन किया। रामचन्द्र शुक्ल के इतिहास की दो विशेषताएँ हैं - काल विभाजन और साहित्यिक मूल्यांकण। अर्थात शुक्ल जी का काल विभाजन वैज्ञानिक इतिहास दृष्टि लेकर किया गया काल विभाजन है। वे काल विभाजन के लिए दो आधार अपनाते हैं - कालक्रम का आधार और प्रवृत्ति का आधार।
कालक्रम के आधार पर उन्होंने हिन्दी साहित्य के इतिहास को – आदिकाल, पूर्वमध्यकाल, उत्तर मध्यकाल और आधुनिक काल में बाँटा है तथा प्रवृत्तियों के आधार पर उन्होंने वीरगाथा काल, भक्ति काल, रीति काल और गद्य काल जैसे वर्ग बनाए हैं। प्रवृत्तियों की प्रधानता के आधार पर ही उन्होंने विभिन्न कालों के नाम रखे हैं। प्रवृत्ति के निर्धारण के लिए भी उन्होंने दो कसौटियाँ निर्मित की हैं -
1. प्रवृत्ति विशेष से सम्बद्ध रचनाओं की प्रचुरता और
2. विशेष प्रकार की रचनाओं की प्रसिद्धि
शुक्ल जी रचना विशेष की प्रसिद्धि को लोक रूचि की प्रतिघ्वनि मानते हैं। उन्होने भक्तिकाल को निर्गुण और सगुण धारा में बाँटकर अध्ययन की सुविधा उपलब्ध करायी है। वे निर्गुण धारा से भी दो धारा ज्ञानेश्रयी धारा और प्रेमाश्रयी धारा तथा सगुण धारा को भी रामाश्रयी धारा औरा कृष्णाश्रयी धारा जैसे दो विभागों में बाँटते हैं। आधुनिक काल के भी उन्होंने कई उत्थान निर्धारित किए जैसे – भारतेन्दु युग, द्विवेदी युग तथा छायावाद आदि।
आचार्य शुक्ल के इतिहास दृष्टि को समझने के लिए उनके भक्तिकाल के विवेचन को समझने के लिए उनके भक्ति काल संबंधी विवेचन को समझना आवश्यक है। शुक्ल जी मानते हैं कि भक्तिकाल जनसंस्कृति का उत्थान है। जनसंस्कृति से जुड़ी हुई जनता ने जनभाषा में अपनी जनभावनाओं को भक्ति काव्य के रूप में अभिव्यक्त किया है। भक्तिकाव्य आध्यात्मिक आवरण में सामाजिक जागरण का काव्य है। उसमें आम आदमी की अपेक्षाएँ, उनके सपने, उनकी आकांक्षाएँ मुद्रित हैं। शुक्ल जी के इतिहास संबंधी दृष्टिकोण को समझने के लिए भारतेन्दु युग, द्विवेदी युग और छायावाद भी मददगार सिद्ध होते हैं। उन्होंने ठीक लिखा है कि भारतेन्दु जनता और साहित्य के विच्छेद को खत्म किया है। उन्होंने द्विवेदी युग में हृदय के खुलकर व्यक्त ना होने पर चिंता जताई है। जबकि भारतेन्दु युग की कवियों की जिंदादिली की उन्होंने मुक्तकंठ से प्रशंसा की है। वे साहित्य के मूल्यांकन के लिए अनुभूति को सबसे बड़ी कसौटी मानते हैं। अनुभूतिवाद के सहारे वे आध्यात्मवाद और रहस्यवाद से लोहा लेते हैं और उन्हें साहित्य के क्षेत्र से बहिष्कृत करते हैं। अनुभूतिवादी आग्रह की वजह से ही सिद्धो-नाथों की उपदेशपरक रचनाओं को वे साहित्य कोटी में नहीं मानते हैं। रीतिकाल के कवि बिहारी की अनुभूति शून्य शब्दक्रीड़ा की वे कड़ी निंदा करते हैं। लेकिन उसी काल के घनानंद को वे साक्षात रसमूर्त्ति कहकर उनकी सराहना करते हैं। वे कहते हैं कि जो अंतः स्थल पर मार्मिक प्रभाव चाहते हैं उन्हें बिहारी से संतोष नहीं हो सकता। वे भाषा में वक्रता, उक्तिवैचित्र्य, चमत्कारावाद आदि के विरोधी हैं।
(ग) रामचन्द्र शुक्ल के लेखन के उपरांत साहित्य का इतिहास लेखन
1. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी – (हिन्दी साहित्य का उद्भव और विकास, आदिकाल, हिन्दी साहित्य की भूमिका)
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपने इतिहास ग्रंथों में परम्परा के पुर्नमूल्यांकण के साथ साथ नयी साहित्यिक परम्पराओं की खोज की है। हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार मुनष्य ही साहित्य और समाज के इतिहास का मुख्य विषय है। वे मनुष्य से अधिक महत्व न इतिहास को देते हैं न परम्परा को।
द्विवेदी जी शुक्ल जी द्वारा निर्धारित साहित्यिक प्रवृत्ति के निर्धारण की कसौटी को अस्वकार करते है। उनके अनुसार किसी काल की प्रवृत्ति के निर्धारण के लिए ग्रंथों की बहुसंख्या उतना महत्व नहीं है जितना की प्रेरणादायक वस्तु का महत्व है। हिन्दी साहित्य की भूमिका में द्विवेदी जी ने माना है कि आदि काल में दो प्रकार की रचनाएँ रची गयी -
i. राज्य स्तुति परक ऐहिक्तामूलक काव्य
ii. सिद्धो-नाथों की शास्त्र निर्पेक्ष उग्र विचारधारा
द्विवेदी जी दूसरे प्रकार की रचनाओं को शुद्ध साहित्यिक कोटि में तो नहीं मानते लेकिन उसमें निहित सामाजिकता के कारण उसका अध्ययन आवश्यक मानते हैं। राजस्तुति परक काव्यों का संबंध जहाँ समाज के समस्त वर्ग से था वहीं सिद्धो-नाथों एवं जैनों की रचनाओं का सम्बंध सामान्य जनता से। एक दूसरा भी कारण है सिद्धो-नाथों एवं जैनों की रचनाओं को साहित्य के अंतर्गत रखने का। उस काल की बहुत कम रचनाएँ उपलब्ध है या हो रही है। शुद्ध साहित्य के आग्रह के कारण उनकी उपेक्षा, साहित्य और इतिहास के लिए हितकर नहीं है। द्विवेदी जी कहते हैं कि उस अंधकार युग को प्रकाशित करने के लिए कोई चिंगारी भी मिल जाए तो उसे जिलाए रखना कर्त्तव्य है क्योंकि वह बहुत बड़े आलोक की संभावना लिए हुए होती है।
द्विवेदी जी का भक्ति काव्य संबंधी चिंतन उनकी प्रगतिशील चेतना की झलक देता है। वे भक्ति काव्य को हत दर्प हिन्दु जनता का काव्य नहीं मानते हैं। वे भक्ति आंदोलन को इस्लाम की प्रतिक्रिया भी नहीं मानते हैं। उनके अनुसार भक्ति आंदोलन भारतीय चिन्ता धारा का ही स्वाभाविक विकास है।
हजारी प्रसाद द्विवेदी आधुनिक काल के मूल्यांकन में भी अपनी प्रगतिशील अन्तदृष्टि का परिचय देते हैं। जिस तरह वे रीति काव्य के मूल्यांकन के क्रम में यह स्थापना देते है कि रूढ़ीबद्ध रसज्ञता से भरे हुए रीतिबद्ध काव्य की तुलना में वे गीत हजार गुणा अच्छे हैं, जो सामान्य जनता की आकांक्षाओं को अभिव्यक्त करते हैं। उसी तरह वे छायावाद के रूढ़ी विरोधी तेबर की मुक्त कंठ से प्रशंसा करते हैं। प्रगतिवादी आंदोलन के प्रति उनमें सहानुभूति है। वे कहते हैं कि अब ईश्वर का स्थान मानवता ने ले लिया है। द्विवेदी जी रूढ़ी और कर्मकांड के सख्त विरोधी थे। रूढ़ियाँ चाहे समाज की हों या काव्य की वे हमेशा उनके विरोध मे खड़े रहें।
2. डा॰ रामकुमार वर्मा: हिन्दी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास
यह आलोचनात्मक कम और विवरणात्मक अधिक है। यह एक अधुरा इतिहास है, क्योंकि इसमें 693 ई0 से 1613 ई0 तक के ही साहित्यिक विकास को विवेचित किया गया है। उन्होंने स्वयंभू को हिन्दी का पहला कवि कहा है जबकि यह अपभ्रंश की एक चर्चित कृति है। वे 693 ई0 से 1000 ई0 के काल को संधि काल कहते हैं। संधिकाल से मतलब है अपभ्रंश और हिन्दी की भाषायी संधि का काल। वे 1000 से 1200 ई0 तक के काल को चारण काल नाम देते है जो नाम बाद में स्वीकृत नहीं हुआ। वर्मा जी ने विभिन्न काव्य धाराओं के नामाकरण में मौलिकता दिखायी है। वे ज्ञानाश्रयी शाखा को संत काल तथा प्रेमाश्रयी शाखा को प्रेम काव्य नाम देते हैं।
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