भारतीय संविधान में दोहरी सरकार की व्यवस्था है| यह केंद्र में तथा विभिन्न राज्यों में कार्यरत है| संविधान के भाग- VI. में राज्य शासन के लिए एक समान संरचना वर्णित की गई है। केंद्र तथा राज्य सरकारें संसदीय प्रणाली की है| जिसके प्रत्येक स्तर पर दो तरह के कार्यपालिका प्रमुखों की व्यवस्था है, एक नाममात्र की और दूसरी वास्तविक अर्थों की । जिस प्रकार केंद्र में नाममात्र का कार्यपालिका प्रमुख राष्ट्रपति होता है और वास्तविक अर्थों में कार्यपालिका अधिकार प्रधानमंत्री के नेतृत्व वाली मंत्रिपरिषद के पास होते हैं जो सामूहिक रूप से संसद के प्रति जबाबदेह होती है। इसके समरूप ही राज्य स्तर पर राज्यपाल नाममात्र का कार्यपालिका प्रमुख होता है, जबकि वास्तविक अधिकार मुख्यमंत्री के नेतृत्व वाली मंत्रिपरिषद के पास होते हैं जो सामूहिक रूप से राज्य विधायिका के प्रति जिम्मेदार है। राज्यपाल के काम करने का ढंग राज्य की राजनीतिक स्थिति पर निर्भर करता है। सामान्य समय में जब राज्य में बहुमत वाली स्थायी सरकार होती है, तब राज्यपाल नाममात्र का प्रमुख होता है। लेकिन असामान्य परिस्थितियों में जब राज्य में राजनीतिक अस्थिरता रहती है तब राज्यपाल महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है क्योंकि राज्यपाल के विशेष विवेकाधिकार होते हैं और असामान्य परिस्थितियों में वह अपने कार्यों को सही ढंग से करने के लिए इनका प्रयोग कर सकता है [अनुच्छेद 163(1)]।
राज्य विधान मंडल
प्रत्येक राज्य में एक विधान मंडल है। कुछ राज्यों में द्विसदनीय विधान मंडल है, जिनमें प्रथम सदन को विधान सभा और द्वितीय सदन को विधान परिषद् कहा जाता है।
राज्यपाल
राज्य का राज्यपाल विधान मंडल का आवश्यक अंग होता है। वह विधान मंडल के सत्र की शुरुआत तथा सत्र का अवसान करता है। विधान सभा को विघटित कर सकता है। विधान मंडल द्वारा पारित कोई विधेयक उसकी सहमति के बिना अधिनियम नहीं बन सकता । विधान मंडल के पास लंबित किसी विधेयक के संबंध में वह संदेश भेज सकता है तथा विधान मंडल को उस पर विचार करना होता है। विधान सभा के चुनाव के बाद पहले सत्र में तथा प्रत्येक वर्ष के पहले सत्र में राज्यपाल विधान मंडल को संबोधित करता है, जिसमें वह अधिवेशन को बुलाने के कारणों से सदन को अवगत करवाता है। राज्यपाल के संबोधन में जिन विषयों का उल्लेख होता है उन पर विधान मंडल को विचार करना पड़ता है। जब विधान मंडल का सत्र नहीं चल रहा हो और राज्यपाल को ऐसा लगे कि तत्काल कार्यवाही की आवश्यकता है तो वह अध्यादेश जारी कर सकता है, जिसे वही स्थान प्राप्त है जो विधान मंडल द्वारा पारित किसी अधिनियम को है। ऐसे अध्यादेश का 6 सप्ताह के भीतर विधान मंडल के सम्मुख रखा जाना तथा उसके द्वारा स्वीकृत होना आवश्यक है। यदि विधान मंडल 6 सप्ताह के भीतर उसे अपनी स्वीकृति नहीं देता है तो उस अध्यादेश की वैधता समाप्त हो जाती है।
विधान परिषद्
यदि किसी राज्य की विधान सभा अपने कुल सदस्यों के पूर्ण बहुमत तथा उपस्थित मतदान करने वाले सदस्यों के दो तिहाई बहुमत से प्रस्ताव पारित करे तो संसद उस राज्य में विधान परिषद् स्थापित कर सकती है अथवा उसका लोप कर सकती है। इस समय केवल छ: राज्यों (आंध्र प्रदेश, बिहार, कर्नाटक, महाराष्ट्र, तेलंगाना और उत्तर प्रदेश) में विधान परिषद् विद्यमान हैं। इसके अलावा असम, ओडिशा में विधान परिषद बनाने को भारत की संसद ने मंजूरी दे दी है| विधान परिषद् राज्य विधान मंडल का उच्च सदन होता है। विधान परिषद् के कुल सदस्यों की संख्या, उस राज्य की विधान सभा के कुल सदस्यों की संख्या की एक तिहाई से अधिक नहीं हो सकती है किंतु किसी भी अवस्था में विधान परिषद् के सदस्यों की कुल संख्या 40 से कम नहीं हो सकती।
जब तक संसद विधि द्वारा अन्य व्यवस्था नहीं कर देती तब तक विधान परिषद् के कुल सदस्यों के एक तिहाई सदस्य, नगर पालिकाओं, जिला पंचायतों तथा राज्य की अन्य स्थानीय स्वशासी संस्थाओं के एक निर्वाचक मंडल द्वारा निर्वाचित होते हैं, एक तिहाई सदस्य राज्य की विधान सभा के सदस्यों द्वारा निर्वाचित होते हैं; 1/12 सदस्य उन स्नातकों द्वारा निर्वाचित होते हैं जिन्होंने कम से कम 3 वर्ष पूर्व स्नातक की उपाधि प्राप्त कर ली हो। 1/12 सदस्य उन अध्यापकों द्वारा निर्वाचित होते हैं जो कम से कम 3 वर्षों से माध्यमिक पाठशालाओं अथवा उनसे ऊँची कक्षाओं में शिक्षण कार्य कर रहे हों; तथा 1/6 सदस्यों का राज्यपाल उन व्यक्तियों में से मनोनीत करता है जिन्हें साहित्य, कला, विज्ञान, सहकारिता आंदोलन या सामाजिक सेवा के संबंध में विषय ज्ञान हो अथवा व्यवहारिक अनुभव हो। ये समस्त निर्वाचन आनुपातिक प्रतिनिधित्व की एकल संक्रमणीय मत पद्धति द्वारा किए जाते हैं।
विधान परिषद् का सदस्य बनने के लिए किसी भी व्यक्ति को निम्न लिखित योग्यता प्राप्त होनी चाहिए: वह भारत का नागरिक हो, कम से कम 30. वर्ष की आयु प्राप्त कर चुका हो तथा संसद द्वारा निर्धारित अन्य योग्यताओं से युक्त हो। उसे विकृत चित्त तथा अनुन्मोचित दिवालिया नहीं होना चाहिए और वह भारत सरकार अथवा राज्य सरकार के अधीन किसी लाभ के पद को धारण न करता हो।
विधान परिषद् के प्रत्येक सदस्य का कार्यकाल 6 वर्ष होता है किंतु प्रति दूसरे वर्ष एक तिहाई सदस्य अवकाश ग्रहण करते हैं तथा उनके स्थान पर नवीन सदस्य निर्वाचित होते हैं।
सदन की किसी भी बैठक के लिए कम से कम 10 या विधान परिषद् के कुल सदस्यों का दसमांश, के इनमें जो भी अधिक हो, गण पूर्ति होगा।
विधान परिषद् अपने सदस्यों में से दो को क्रमशः सभापति एवं उपसभापति चुनती है। जब कभी सभापति अथवा उपसभापति सदन का सदस्य नहीं रहता तो वह अपने पद से मुक्त हो जाता है। वह अपने पद से त्यागपत्र दे सकता है अथवा परिषद् के सदस्यों के बहुमत से पारित प्रस्ताव द्वारा उसे अपदस्थ भी किया जा सकता है। किंतु ऐसे किसी प्रस्ताव को लाने के लिए 14 दिनों की पूर्व सूचना आवश्यक है। सभापति एवं उपसभापति को विधान मंडल दुवारा निर्धारित वेतन एवं भत्ते प्राप्त होते हैं।
विधान सभा
प्रत्येक राज्य की विधान सभा में कम से कम 60 और अधिक से अधिक 500 सदस्य होते हैं। ये सदस्य राज्य के विभिन्न निर्वाचन क्षेत्रों से प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित होते हैं। प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र का गठन समानता के सिद्धांत पर आधारित होता है। संविधान द्वारा विधान सभा में अनुसूचित जातियों तथा जन जातियों के लिए, उनकी जनसंख्या के अनुपात में, स्थान आरक्षित रखे गए हैं। यदि विधान सभा के आम चुनाव के बाद राज्यपाल को ऐसा लगे कि विधान सभा में आंग्ल भारतीय समुदाय को समुचित प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं है तो वह इस समुदाय के एक व्यक्ति को के विधान सभा का सदस्य मनोनीत कर सकता है।
विधान सभा के सदस्य पूर्ण वयस्क मताधिकार के आधार पर निर्वाचित होते हैं। किसी मतदाता के लिए भारत का नागरिक होना, कम से कम 18 वर्ष की आयु का होना तथा मतदाता सूची में उसके नाम का होना आवश्यक है।
विधान सभा में निर्वाचित होने के लिए किसी व्यक्ति का भारतीय नागरिक होना, कम से कम 25 वर्ष की आयु का होना तथा उन सब योग्यताओं से युक्त होना आवश्यक है, जिन्हें संसद विधि द्वारा निर्धारित करे।
कोई व्यक्ति जो भारत सरकार, राज्य सरकार अथवा किसी स्थानीय स्वशासी संस्था के अंतर्गत लाभ के पद को धारण करता हो अथवा जो विकृत मस्तिक अथवा अनुन्मोचित दिवालिया हो, विधान सभा की सदस्यता के लिए अयोग्य होता है। विधान सभा का कार्यकाल 5 वर्ष है, किंतु राज्यपाल को यह अधिकार है कि वह इससे पूर्व भी उसको विघटित कर सकता है।
सदन की अध्यक्षता करने के लिए एक अध्यक्ष का चुनाव करने का अधिकार सदन को प्राप्त है, जो इसकी बैठकों का संचालन करता है। विधानसभा की किसी बैठक में अध्यक्ष के अनुपस्थित रहने पर सदन की बैठकों की अध्यक्षता उपाध्यक्ष करता है, जिसका निर्वाचन भी सदन करता है।
जब कभी अध्यक्ष को उसके पद से हटाने का प्रस्ताव विचाराधीन हो, उस समय वह सदन की बैठकों की अध्यक्षता नहीं करता है। वह सदन का कार्यक्रम निर्धारित करता तथा सदस्यों के भाषणों की सीमा निर्धारित करता है। वह सदन में व्यवस्था तथा अनुशासन बनाए रखता तथा सदन में असंसदीय भाषा के प्रयोग को रोकता है। यदि कोई सदस्य उसकी बात नहीं मानता अथवा उसकी उपेक्षा करता है तो वह उसे सदन से बाहर चले जाने के लिए कह सकता, उसकी सदस्यता को कुछ काल के लिए स्थगित कर सकता अथवा सदन के मार्शल को उस सदस्य को सदन से बाहर करने का आदेश दे सकता है। जब कभी सदन में व्यवस्था बनाए रखना संभव न हो तो वह सदन की कार्यवाही को स्थगित कर सकता है। जब कभी किसी प्रश्न पर सदन में मत विभाजन हो जाए तो वह मतों की गणना के आधार पर परिणाम को घोषित करता है। साधारणतया वह सदन में मतदान नहीं करता किंतु यदि सदन के मत बराबरी में बँट जाएँ तो वह निर्णायक मत देता है। वह यह निर्णय भी करता है कि किसी कार्य स्थगन प्रस्ताव को विचारार्थ स्वीकार किया जाए अथवा नहीं। किसी विधेयक को धन विधेयक माना जाए अथवा नहीं, इसका निर्णय भी अध्यक्ष ही करता है। सदन की बैठकों के लिए सदन के कुल सदस्यों के 1/10 सदस्यों की उपस्थिति गणपूर्ति हेतु आवश्यक है।
अधिकार और कार्य
विधान मंडल के अधिकारों और कार्यों का अध्ययन निम्नलिखित शीर्षकों के अंतर्गत किया जा सकता है:
विधान मंडल में प्रस्तुत विधेयक दो प्रकार के होते हैं: साधारण अथवा गैर धन विधेयक तथा धन विधेयक धन विधेयकों को पारित करने की प्रक्रिया साधारण विधेयकों की प्रक्रिया से भिन्न होती है।
सदन इस रिपोर्ट की पृष्ठभूमि में विधेयक पर विस्तार से प्रत्येक धारा, उपधारा पर चर्चा कर मतदान करता है। यदि सदन विधेयक को स्वीकार कर लेता है तो यह मान लिया जाता है कि द्वितीय वाचन में विधेयक पारित हो गया।
यदि दोनों सदनों में मतभेद उत्पन्न हो जाए तो उसका निपटारा निम्नलिखित विधि से किया जाता है: विधान परिषद्, विधान सभा द्वारा पारित विधेयक को या तो अपनी संस्तुतियों के साथ विधान सभा के पास वापस भेज देती है या तीन महीनों तक उस पर चुप्पी साध लेती है। यदि विधान सभा उस विधेयक को मूल रूप में अथवा संशोधनों के साथ पुनः पारित कर देती है तो विधान परिषद् उसे अस्वीकार नहीं कर सकती। यदि विधान परिषद् विधेयक को अस्वीकार करती है तो भी एक महीने के बाद यह मान लिया जाता है कि विधेयक दोनों सदनों द्वारा पारित हो गया।
यदि विधेयक विधान मंडल के दोनों सदनों द्वारा (यदि उस राज्य में द्विसदनीय विधान मंडल हो तो ) अथवा विधान सभा द्वारा (यदि उस राज्य में एक सदनीय विधान मंडल हो तो) पारित हो जाए तो उसे राज्यपाल के पास उसकी सहमति के लिए भेज दिया जाता है। राज्यपाल या तो उस विधेयक पर अपनी सहमति दे देता है या विधान मंडल के पास पुनर्विचार के लिए भेज देता है।
यदि विधान मंडल पुनर्विचार के उपरांत उसे मूल रूप में अथवा संशोधित रूप में पुनः पारित कर राज्यपाल के पास भेज देता है तो राज्यपाल को उस पर अपनी सहमति देनी पड़ती है। पत्पश्चात् वह विधेयक अधिनियम बन जाता है। किंतु राज्यपाल के पास एक विकल्प और भी है। वह उस विधेयक को राष्ट्रपति के विचारार्थ सुरक्षित रख सकता है। राष्ट्रपति उस पर अपनी स्वीकृति दे सकता, उसे अस्वीकृत कर सकता अथवा अपने सुझावों के आधार पर पुनर्विचार के लिए उसे विधान मंडल के पास वापस भेज सकता है। यदि विधेयक को मूल रूप में अथवा संशोधित रूप में पुनः पारित कर देता है तो विधेयक राष्ट्रपति के पास विचारार्थ पुनः भेज दिया जाता है।
राज्य विधान मंडल राज्य सरकार की वित्तीय व्यवस्था को पूर्णतया नियंत्रित करता है। प्रत्येक वित्तीय वर्ष के प्रारंभ में विधान मंडल के सम्मुख वार्षिक वित्तीय विवरण अथवा बजट प्रस्तुत किया जाता है, जिसमें शासन की आय और व्यय का विवरण रहता है। बजट वित्तमंत्री द्वारा रखा जाता है। बजट में उस खर्च को अलग से दिखाया जाता है जिसे राज्य की संचित निधि से वसूल किया जाता है तथा जिस पर विचार विमर्श तो होता है किंतु जिस पर सदन मतदान नहीं करता। दूसरे प्रकार का खर्च वह होता है जिसे राज्य की संचित निधि से निकाला तो जाता है किंतु जिस पर सदन न केवल विचार विमर्श करता वरन् उस पर मतदान भी करता है।
बजट प्रस्तुत करते समय वित्तमंत्री विधान सभा के सम्मुख एक भाषण देता है, जिसमें वह राज्य की वित्तीय स्थिति की विवेचना करता है तथा शासन की वित्तीय नीति की व्याख्या करता है। बजट के साथ एक वित्त विधेयक भी प्रस्तुत किया जाता है, जिसमें नए करों को लगाने अथवा पुराने करों में वृद्धि अथवा कमी के प्रस्ताव सम्मिलित होते हैं।
वित्तमंत्री के बजट भाषण के उपरांत पूरे बजट पर एक सामान्य चर्चा होती है। चर्चा के उपरांत सदन के सम्मुख बजट के प्राक्कलनों को अनुदानों की माँगों के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। प्रत्येक विभाग का मंत्री अपने विभाग से संबंधित माँगों को सदन के सम्मुख रखता है। सदन इन माँगों पर चर्चा करता तथा उन्हें स्वीकृत अथवा अस्वीकृत करता है। वह उनमें कटौती भी कर सकता है।
सदन को माँगों में वृद्धि करने का अधिकार प्राप्त नहीं है। जब विधान सभा माँगों पर मतदान पूर्ण हो जाता है तब दोनों प्रकार के (राज्य की संचित निधिः से वसूले गए तथा उससे निकाले गए) खर्चों को एक साथ मिलाकर उन्हें एक वार्षिक विनियोग विधेयक के रूप में विधान सभा के सम्मुख प्रस्तुत किया जाता है तथा विधान सभा उसे उसी प्रकार पारित करती है जैसे कोई अन्य विधेयक पारित किया जाता है। तत्पश्चात् विधान सभा का अध्यक्ष उसे धन विधेयक के रूप में प्रमाणित करता है।
कोई धन विधेयक प्रारंभ में विधान परिषद् में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता। जब विधान सभा किसी धन विधयेक को पारित कर देती है तब वह विधान परिषद् के पास भेज दिया जाता है। विधान परिषद् को उसे 14 दिनों के भीतर विधान सभा को लौटाना पड़ता है। विधान परिषद् उस विधेयक के संबंध में अपनी संस्तुतियाँ तो दे सकती है किंतु वह न तो उसे अस्वीकार कर सकती और न उसमें संशोधन ही कर सकती है। विधान सभा द्वारा पारित किए जाने के 14 दिनों के बाद विधेयक को दोनों सदनों द्वारा पारित समझ लिया जाता तथा राज्यपाल के पास उसकी सहमति के लिए भेज दिया जाता है तथा राज्यपाल को उस पर अपनी सहमति देनी पड़ती है।
उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि राज्य के प्रशासन में राज्य के विधान मंडल की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। यह न केवल राज्य सूची तथा समवर्ती सूची से संबद्ध विषयों में विधि निर्माण करती वरन् मंत्रिपरिषद् पर नियंत्रण भी रखती है। मंत्रिपरिषद् उसी समय तक सत्तारूढ़ रह सकती है जब तक राज्य की विधान सभा का विश्वास उसे प्राप्त हो ।
राज्यपाल
राज्य की कार्यपालिका संबंधी समस्त शक्तियाँ राज्यपाल में सन्निहित होती हैं। वह प्रत्यक्ष रूप से अथवा अधीनस्थ अधिकारियों के माध्यम से उसका उपयोग करता है।
उसकी नियुक्ति 5 वर्षों के लिए राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। वह राष्ट्रपति के प्रसाद पर्यंत अपने पद पर आरूढ़ रहता है। राष्ट्रपति न केवल उसे उसके पद से हटा सकता है वरन् उसे एक राज्य से दूसरे राज्य में भी स्थानांतरित कर सकता है।
राज्यपाल की योग्यताओं सम्बंधी सरकारिया आयोग की सिफारिशें: केंद्र तथा राज्यों के परस्पर संबंधों के ढांचे को विचारने के लिए जून 1983 में एक आयोग नियुक्त किया गया था, जिसकी अध्यक्षता न्यायमूर्ति आर.एस. सरकारिया ने की थी जिसे आमतौर पर 'सरकारिया आयोग' कहा जाता है। इस आयोग ने अक्टूबर 1987 में अपनी रिपोर्ट में राज्यपाल की योग्यता सम्बंधी निम्नलिखित सिफारिशें की थीं:
कुल मिलाकर इतने वर्षों में दो प्रथाएं प्रचलित हुई हैं- पहली, राज्यपाल नियुक्त किया जाने वाला व्यक्ति उसी राज्य से सम्बंधित न हो, जिसमें उसे राज्यपाल नियुक्त किया जाना है। दूसरी, राज्यपाल पद के लिए व्यक्ति की नियुक्ति के सम्बंध में निर्णय लेते समय राज्य के मुख्यमंत्री को विश्वास में लेना चाहिए। साधारणतः किसी भी व्यक्ति की राज्यपाल पद पर नियुक्ति के बारे में अंतिम निर्णय लेने से पूर्व केंद्रीय गृह मंत्री संबंधित राज्य के मुख्यमंत्री से विचार-विमर्श करता है. लेकिन अनेक उदाहरण हैं जब ऐसा नहीं किया गया। इस प्रथा का पालन विशेष रूप से उम राज्यों के मामले में नहीं किया गया, जिन राज्यों में केंद्र से पृथक् किसी अन्य दल की सरकार है।
राज्यपाल संसद का तथा राज्य विधान मंडल के किसी भी सदन का सदस्य नहीं हो सकता। यदि कोई ऐसा सांसद अथवा विधायक राज्यपाल नियुक्त किया जाता है तो यह मान लिया जाता है कि जिस दिन वह राज्यपाल का पद ग्रहण करता है, उस दिन से उसने संसद अथवा विधान परिषद् अथवा विधान मंडल की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया है।
पद ग्रहण करने से पूर्व वह उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश अथवा वरिष्ठतम न्यायाधीश के सम्मुख अपने पद की शपथ लेता है। इस शपथ में वह संविधान की रक्षा और परिरक्षा का वायदा करता है।
शक्तियाँ
राज्य के समस्त कार्यपालिका कार्य राज्यपाल के नाम से किए जाते हैं। वह मुख्यमंत्री की नियुक्ति करता है सुस्थापित रूढ़ि के अनुसार राज्यपाल उसी व्यक्ति को इस पद पर नियुक्त करता है जिसके बारे में उसको विश्वास हो कि वह विधान सभा के सदस्यों के बहुमत का विश्वास प्राप्त करने में समर्थ होगा। यह सुस्थापित रूढ़ि है कि विधान सभा में जिस दल का अथवा दल समूह का (किसी एक दल को पूर्ण बहुमत प्राप्त नहीं है तो) पूर्ण बहुमत है, उसी के नेता को वह मंत्रिपरिषद् के निर्माण के लिए आमंत्रित करता है। वह मुख्यमंत्री की सलाह से अन्य मंत्रियों को नियुक्ति करता तथा उनमें पद वितरण करता है। इसके अतिरिक्त, वह राज्य के महाधिवक्ता तथा राज्य लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष और अन्य सदस्यों की नियुक्ति करता है। राज्यपाल को राज्य सरकार के समस्त क्रियाकलापों की सूचना करने का अधिकार है।
चूँकि राज्यपाल विधान मंडल का अभिन्न अंग है अतः उसे कुछ विधायी शक्तियाँ प्राप्त हैं, जैसे वह विधान मंडल का सत्र का आह्वान करता, उसका सत्रावसान करता, विधान सभा को विघटित करता, विधान सभा के अधिवेशन अथवा दोनों सदनों के संयुक्त अधिवेशन को संबोधित करता है। वह किसी भी सदन अथवा दोनों सदनों को संदेश भेज सकता, विधान मंडल द्वारा पारित विधेयकों पर स्वीकृति देता तथा अध्यादेश जारी कर सकता है। यदि आम चुनाव के बाद उसको ऐसा लगता है कि विधान सभा में आंग्ल भारतीय समुदाय को पर्याप्त प्रतिनिधित्व नही प्राप्त है तो वह उस समुदाय के एक व्यक्ति को विधान सभा का सदस्य मनोनीत कर सकता है।
राष्ट्रपति एवं राज्यपाल की अध्यादेश निकालने की शक्ति की तुलनाः राष्ट्रपति एवं राज्यपाल की अध्यादेश निकालने सम्बन्धी शक्ति का तुलनात्मक अध्ययन इस प्रकार से किया जा सकता है:
राष्ट्रपति |
राज्यपाल |
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वह प्रत्येक वित्तीय वर्ष में वित्तमंत्री को विधान मंडल के सम्मुख वार्षिक वित्तीय विवरण प्रस्तुत करने के लिए कहता है। राज्यपाल की संस्तुति के बिना कोई धन विधेयक विधान सभा प्रस्तुत नहीं किया जा सकता। ऐसा कोई विधेयक जो राज्य की संचित निधि से खर्च निकालने की व्यवस्था करता हो, उस समय तक विधान मंडल द्वारा पारित नहीं किया जा सकता जब तक राज्यपाल इसकी संस्तुति न कर दे। राज्यपाल की संस्तुति के बिना अनुदान की किसी माँग को विधान मंडल के सम्मुख नहीं रखा जा सकता।
राज्यपाल को उस विषय संबंधी, जिस विषय पर उस राज्य की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार है, किसी विधि के विरुद्ध किसी अपराध के लिए सिद्ध दोष ठहराये गए किसी व्यक्ति के दंड को, क्षमा, उसका प्रविलंबन, विराम या परिहार करने की अथवा दंडादेश के निलंबन, परिहार या लघुकरण की शक्ति प्राप्त है।
संविधान में राज्यपाल के कुछ विशेष अधिकारों का भी वर्णन है, जिनका उपयोग वह विशेष परिस्थितियों में करता है। राज्यपाल के विवेकाधिकार दो तरह के होते हैं प्रथम विधान में प्रत्यक्ष तौर पर लिखे हुए संवैधानिक विवेकाधिकार दूसरे, अप्रत्यक्ष विवेकाधिकार, जो कि तात्कालिक राजनीतिक परिस्थितियों से उत्पन्न होते हैं। इन्हें पारिस्थितिकीय विवेकाधिकार कहा जा सकता है। पहले मामले में संविधान में राज्यपाल को अपने विवेक का उपयोग करने की छूट दी गई है, जबकि दूसरे मामले में वह इनका उपयोग राज्य की राजनीतिक परिस्थितियों को देखते हुए करता है।
अतः राज्यपाल सामान्य स्थिति में संवैधानिक मुखिया तथा कुछ विशेष परिस्थितियों में विवेक शक्तियों का प्रयोग करने वाला राज्य का महत्वपूर्ण अधिकारी है।
जब कोई विधेयक राज्यपाल को विधान मंडल के दोनों सदनों द्वारा पारित किए जाने के पश्चात् प्रस्तुत किया जाता है, तब राज्यपाल निम्नलिखित में से कोई कदम उठा सकता है:
इस प्रकार आरक्षित धन विधेयक की दशा में राष्ट्रपति अपनी अनुमति देने या विधारित करने की घोषणा कर सकेगा। किंतु धन विधेयक से भिन्न विधेयक की दशा में राष्ट्रपति उस पर अनुमति देने या अस्वीकार करने की घोषणा करने के स्थान पर राज्यपाल को यह निर्देश दे सकता है कि वह विधेयक को पुनर्विचार के लिए विधान मंडल को वापस कर दे। ऐसे लौटाए जाने पर विधान मंडल छह मास के भीतर उस विधेयक पर पुनर्विचार करेगा और यदि वह पुनः पारित किया जाता है तो विधेयक राष्ट्रपति को पुनः प्रस्तुत किया जाएगा किंतु इस पर भी राष्ट्रपति के लिए उसे अनुमति देना अनिवार्य नहीं है (अनुच्छेद 201 ) ।
यह स्पष्ट है कि कोई विधेयक जो राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित किया जाता है। तभी प्रभावी होगा जब राष्ट्रपति उसे अनुमति प्रदान कर दे। किंतु संविधान ने राष्ट्रपति द्वारा अनुमति दिए जाने या विधारित किए जाने की कोई समय-सीमा अधिरोपित नहीं की है। परिणामस्वरूप राष्ट्रपति चाहे तो राज्य विधान मंडल के विधेयक को बिना अपना मत व्यक्त किए अनिश्चितकात तक लम्बित रख सकता है। उल्लेखनीय है कि राष्ट्रपति के पास एक तीसरा अनुकल्प भी है, जिसका केरल शिक्षा विधेयक के बारे में प्रयोग किया गया था अर्थात् जब आरक्षित विधेयक राष्ट्रपति को प्रस्तुत किया जाता है और राष्ट्रपति के मस्तिष्क में कोई विधेयक की सांविधानिकता के बारे में कोई संदेह उत्पन्न होता है तो वह यह विनिश्चिय करने के लिए कि उस विधेयक को अनुमति दे सकता है या उसे लौटा लौटा सकता है अथवा उच्चतम न्यायालय को अनुच्छेद 143 के अधीन उसकी राय जानने के लिए भेज सकता है।
राज्यपाल की स्थिति
यदि हम राज्यपाल के उपर्युक्त अधिकारों पर दृष्टिपात करें तो ऐसा लगता है कि राज्यपाल एक बहुत शक्तिशाली अधिकारी है। किंतु वास्तविकता इससे सर्वथा भिन्न है। हमने संसदीय शासन प्रणाली को अपनाया है, जिसमें मंत्रिपरिषद् विधान मंडल के प्रति उत्तरदायी होती है, अतः वास्तविक शक्तियाँ मंत्रिपरिषद् को प्राप्त होती हैं, न कि राज्यपाल को। किंतु असाधारण स्थितियों में राज्यपाल को अपने विवेक से काम करना पड़ सकता है। उदाहरणार्थ, यदि विधान सभा में किसी एक दल अथवा दल समूह को स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं है तथा मुख्यमंत्री पद के लिए दो दावेदार हों तो वह इस पद पर किसे नियुक्त करेगा? इसी प्रकार, यदि कोई सत्तारूढ़ पक्ष विधान सभा में अल्प मत में आ जाए तथा मुख्यमंत्री राज्यपाल को विधान सभा को विघटित करने की सलाह देता है तो क्या राज्यपाल उक्त सलाह को मानने के लिए बाध्य है? इस प्रकार, यह स्पष्ट है कि साधारणतया तो राज्यपाल को एक संवैधानिक प्रमुख के रूप में कार्य करना पड़ता है किंतु असाधारण स्थितियों में उसे इच्छानुसार कार्य करने के अवसर प्राप्त हो सकते हैं।
इसके बावजूद राज्यपाल की शक्तियों को लेकर काफी विवाद उठ खड़े हुए। चूँकि वह राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त किया जाता तथा उसके प्रसाद पर्यन्त सत्तारूढ़ रहता है, अतः साधारणतया धारणा यह है कि उसे राष्ट्रपति की सलाह के अनुसार आचरण करना पड़ता है और वह उसकी उपेक्षा नहीं कर सकता। किंतु साथ ही उसे मंत्रिपरिषद् की सलाह के अनुसार भी कार्य करना पड़ता है। इस प्रकार उसे दो स्वामियों की सेवा करनी पड़ती है। यदि दोनों की सलाहों में परस्पर विरोध हो तो वह किसकी सलाह मानेगा ? मोटे तौर पर अधिकांश राज्यपालों ने राष्ट्रपति की सलाह के अनुसार काम किया। इसके कारण राज्य सरकारों के समर्थकों में विरोध की भावना उत्पन्न हो गई। प्रायः यह देखा गया है कि समान स्थितियों में भिन्न भिन्न निर्णय लिए गए और उन सबका परिणाम सदैव केंद्र में सत्तारूढ़ दल के पक्ष में रहा। उदाहरणार्थ, चौथे आम चुनाव के बाद उत्तर प्रदेश तथा राजस्थान की विधान सभाओं में किसी दल को पूर्ण बहुमत नहीं मिला। दोनों राज्यों में मुख्यमंत्री पद के दो दावेदार थे : एक कांग्रेसी था एवं दूसरा विरोध पक्ष के एक दल समूह (संयुक्त विधायक दल) का। दोनों राज्यों के राज्यपालों ने इस समस्या का समाधान अलग-अलग ढंग से किया। राजस्थान के राज्यपाल संपूर्णानंद ने विधान सभा में सबसे बड़े दल के नेता को मुख्यमंत्री पद के लिए आमंत्रित किया तथा कहा कि यदि विरोध पक्ष बहुमत में है तो विधान मंडल में मंत्रिपरिषद् के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पारित कर सकता है। वे इस बात के लिए तैयार नहीं थे कि स्वयं सदस्यों की गणना कर यह निर्णय करें कि किसको विधान सभा में बहुमत प्राप्त है। इसके ठीक विपरीत, उत्तरप्रदेश के राज्यपाल विश्वनाथ दास ने दोनों दावेदारों से अपने अपने समर्थकों की सूची माँगी और जब उन्होंने देखा कि कुछ नाम दोनों सूचियों में हैं तो उन्होंने उन व्यक्तियों को बुलाकर स्वतः यह पता लगाया कि वह किस दल अथवा समूह के पक्ष में है और इस प्रकार यह निर्णय किया कि किस दावेदार को विधान सभा में बहुमत प्राप्त है। दोनों ही राज्यों में यह देखा गया कि राज्यपालों का निर्णय कांग्रेस के पक्ष में रहा जो उस समय केंद्र में सत्तारुढ़ थी। इसका जमकर विरोध हुआ और माँग उठी कि राज्यपालों के दिग्दर्शन के लिए स्पष्ट नियम होने चाहिए। किंतु केंद्रीय सरकार ने इस माँग को मंजूर नहीं किया। इतना ही नहीं, जब संसद ने 1976 में 42वाँ संविधान अधिनियम पारित किया तो उसमें राष्ट्रपति के लिए तो यह नियम बना दिया कि वह मंत्रिपरिषद् की सलाह मानने के लिए बाध्य है किंतु राज्यपाल के लिए ऐसा नहीं किया गया। राज्यपाल की स्थिति को जानबूझ कर अस्पष्ट रखा गया ताकि राज्य सरकार पर केंद्र की पकड़ मजबूत रहे।
राज्यपाल के स्वविवेक संबंधी अधिकारों के बारे में भी काफी विवाद है। कुछ आलोचकों का यह कहना है कि नागालैण्ड के राज्यपाल (जिले का प्रशासन करते समय) अथवा उस राज्यपाल को जिसे किसी संघीय क्षेत्र का प्रशासन करना है (जिसमें वह अपने राज्य की मंत्रिपरिषद् की सलाह नहीं लेता है) को छोड़, किसी भी अन्य राज्यपाल को स्वविवेक संबंधी कोई अधिकार प्राप्त नहीं है। किंतु आलोचकों के दूसरे वर्ग का कहना है कि राज्यपाल को स्वविवेक संबंधी कुछ अधिकार निश्चित रूप से प्राप्त हैं। राज्यपाल अपने विवेक से यह निश्चित करता है कि किन-किन विषयों में उसे स्वविवेक से काम लेना है। तथा किन-किन विषयों में उसे मंत्रिपरिषद् की सलाह के अनुसार काम करना है। इस प्रकार, राज्यपाल को स्वविवेक संबंधी अधिकारों को निर्णीत करने का व्यापक अधिकार प्राप्त है। स्वयं राज्यपालों, न्याय विदों, संविधान विशेषज्ञों तथा विशिष्ट राज नेताओं के बार-बार प्रयत्न करने पर भी कोई निश्चित सिद्धांत निर्धारित नहीं किए गए कि राज्यपाल किस प्रकार आचरण करे।
राज्य की मंत्रिपरिषद्
भारतीय संविधान राज्य की कार्यपालिका शक्तियों को राज्यपाल में सन्निहित करता है किंतु राज्यपाल वास्तव में एक संवैधानिक प्रमुख होता है। उसकी शक्तियों के उपयोग में राज्य मंत्रिपरिषद् उसकी सहायता करती एवं उसे परामर्श देती है। मंत्रिपरिषद् का अध्यक्ष राज्य का मुख्यमंत्री होता है।
राज्यपाल पहले मुख्यमंत्री को नियुक्त करता है तत्पश्चात् उसके परामर्श से अन्य मंत्रियों को नियुक्त करता है। राज्यपाल किसी ऐसे व्यक्ति को मुख्यमंत्री नियुक्त करता है जिसके बारे में उसकी यह धारणा है कि वह विधानसभा के सदस्यों के बहुमत का समर्थन प्राप्त कर सकेगा । यदि विधान सभा में किसी एक दल को पूर्ण बहुमत प्राप्त है तथा वह अपना नेता निर्वाचित कर लेता है तो राज्यपाल को उस नेता को ही मुख्यमंत्री नियुक्त करना पड़ता है। यदि विधान सभा में किसी एक दल को पूर्ण बहुमत प्राप्त नहीं है तथा दो या दो से अधिक दल मिलकर, समान कार्यक्रम के आधार पर, एक संयुक्त विधायक दल बना लेते हैं तथा अपना एक नेता भी चुन लेते हैं तो राज्यपाल उस नेता को मुख्यमंत्री के लिए आमंत्रित करता है।
तत्पश्चात् राज्यपाल मुख्यमंत्री से उन व्यक्तियों के नामों की सूची माँगता है जिन्हें वह मंत्री पद पर नियुक्त करना चाहता है। राज्यपाल को ऐसे व्यक्तियों को, जिनकी संस्तुति मुख्यमंत्री ने की है, मंत्री पद पर नियुक्त करना पड़ता है।
मंत्रियों के तीन वर्ग होते हैं: 1. केबिनेट मंत्री, 2. राज्य मंत्री तथा 3. उप मंत्री । केबिनेट मंत्रियों की एक छोटी समिति होती है जिसमें वे मंत्री नियुक्त किए जाते हैं जिनका दल में महत्त्वपूर्ण स्थान है तथा जो महत्त्वपूर्ण पदों को धारण करते हैं। इसकी बैठके प्रायः होती हैं तथा शासन के महत्त्वपूर्ण निर्णय इसी के द्वारा लिए जाते हैं । केबिनेट मंत्री एक अथवा अधिक विभागों का अध्यक्ष होता है। राज्य मंत्री दो प्रकार के होते हैं । कुछ राज्य मंत्रियों को अपने मंत्रालय का स्वतंत्र कार्य भार दिया जाता है तथा कुछ राज्य मंत्री किसी केबिनेट मंत्री की देख रेख में कार्य करते हैं । जब कभी उनके मंत्रालय से संबद्ध किसी विषय पर केबिनेट में मंत्रणा होती है तो राज्य मंत्री को केबिनेट की उक्त बैठक में बुलाया जा सकता है। उपमंत्री या तो किसी केबिनेट मंत्री अथवा किसी राज्य मंत्री की देखरेख में कार्य करता है। उसका प्रमुख कार्य केबिनेट मंत्री अथवा राज्य मंत्री को, जैसी भी स्थिति हो, उनके कार्यों को संपादित करने में सहायता देना होता है।
मुख्यमंत्री
राज्य की मंत्रिपरिषद का प्रधान मुख्यमंत्री होता है। मुख्यमंत्री की नियुक्ति राज्यपाल करता है (अनुच्छेद 164)। राज्यपाल उस व्यक्ति को मुख्यमंत्री नियुक्त करता है, जिसको राज्य विधान सभा में बहुमत दल का समर्थन प्राप्त हो अर्थात् मुख्यमंत्री राज्य विधान सभा में बहुमत दल का नेता हो। ऐसी परम्परा का पालन करना संवैधानिक दृष्टि से भी अनिवार्य है क्योंकि मंत्रिपरिषद सामूहिक रूप से विधान सभा के प्रति उत्तरदायी है। इसका अभिप्राय यह है कि विधान सभा किसी भी समय सम्पूर्ण मंत्रिपरिषद या किसी एक मंत्री के विरुद्ध अविश्वास का प्रस्ताव पारित करके सम्पूर्ण मंत्रिपरिषद को त्यागपत्र देने के लिए विवश कर सकती है, इसलिए यह अनिवार्य है कि उस व्यक्ति को ही मुख्यमंत्री नियुक्त किया जाए जिसको राज्य विधान सभा में बहुमत प्राप्त हो। जिस व्यक्ति को मुख्यमंत्री पद पर नियुक्त किया जाता है उसके लिए राज्य विधान मंडल का सदस्य होना अनिवार्य है। मुख्यमंत्री के कार्यः मुख्यमंत्री राज्य सरकार का प्रधान होता है। राज्य के प्रशासन का कोई ऐसा क्षेत्र नहीं है जो मुख्यमंत्री के नियंत्रण से बाहर हो। उसकी महत्वपूर्ण शक्तियाँ इस प्रकार है:-
अतः मुख्यमंत्री ही राज्य का वास्तविक शासक होता है।
मुख्यमंत्री की स्थिति
मंत्रिपरिषद् में मुख्यमंत्री को अद्वितीय स्थान प्राप्तः रहता है। वही अन्य मंत्रियों का चयन करता है। जब कभी मुख्यमंत्री तथा मंत्री में किसी विषय पर मतभेद उत्पन्न हो जाए तो उस मंत्री को मुख्यमंत्री की बात माननी पड़ती है। मुख्यमंत्री किसी भी मंत्री से त्यागपत्र माँग सकता है। यदि वह त्यागपत्र नहीं देता है तो मुख्यमंत्री के परामर्श पर राज्यपाल उसे मंत्रिपरिषद् से हटा सकता है।
मुख्यमंत्री मंत्रिपरिषदों की बैठकों की अध्यक्षता करता है। मंत्रिपरिषद् के निर्णयों को वही राज्यपाल तक पहुँचाता है। जब कभी राज्यपाल कोई बात मंत्रिपरिषद् तक पहुँचाना चाहता है तो वह मुख्यमंत्री के द्वारा ही यह कार्य करता है। मुख्यमंत्री ही शासन का प्रमुख प्रवक्ता है। इस प्रकार, यह स्पष्ट है कि अन्य मंत्रियों की तुलना में मुख्यमंत्री अत्यधिक शक्तिशाली है। किंतु मुख्यमंत्री सर्व शक्तिमान नहीं है। अपनी मंत्रिपरिषद् का निर्माण करते समय उसे कई बातों का ध्यान रखना पड़ता है, जैसे, समाज के विभिन्न वर्गों, विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों तथा दल के विभिन्न विचार समूहों का प्रतिनिधित्व ।
इन सब बातों के परिणाम स्वरूप मंत्रियों के चयन में मुख्यमंत्री की पसंद अत्यंत सीमित हो जाती है। मोटे तौर पर यह कहा जा सकता है कि मंत्रिपरिषद् में लगभग आधे सदस्य ऐसे होते हैं जिन्हें मुख्यमंत्री चाहता है तथा लगभग आधे ऐसे होते हैं जिन्हें मुख्यमंत्री को लेना पड़ता है क्योंकि उसके पास कोई और विकल्प नहीं होता । यही कारण है कि मुख्यमंत्री को समकक्षों में प्रथम कहा जाता है। इसका अर्थ यह हुआ कि सभी मंत्री बराबर हैं किंतु मुख्यमंत्री को उनमें प्रथम स्थान प्राप्त है।
मंत्रिपरिषद् का सामूहिक उत्तरदायित्व समूची मंत्रिपरिषद् की बैठक यदा-कदा ही होती है। कैबिनेट की बैठकें प्रायः होती रहती हैं। सभी महत्त्वपूर्ण निर्णय केबिनेट की बैठकों में लिए जाते हैं । परंतु उन सब निर्णयों का उत्तरदायित्व मंत्रिपरिषद् ले लेती है। ऐसा हो सकता है कि कोई एक मंत्री, केबिनेट के निर्णय से सहमत न हो किंतु वह इसे सार्वजनिक रूप से प्रकट नहीं कर सकता, जब तक कि वह मंत्रिपरिषद् से त्यागपत्र नहीं दे दे । मंत्रिपरिषद् सामूहिक रूप से विधान सभा के प्रति उत्तरदायी है। इसका अभिप्राय यह हुआ कि यदि किसी एक मंत्री के विरुद्ध अविश्वास व्यक्त किया जाए तो वह समूची मंत्रिपरिषद् के विरुद्ध अविश्वास माना जाएगा । ऐसी स्थिति में मुख्यमंत्री सहित सभी मंत्रियों को अपदस्थ होना पड़ता है। विधान मंडल के दोनों सदनों के सदस्य मंत्रिपरिषद् पर, प्रश्न पूछ कर, पूरक प्रश्न पूछ कर, कार्य स्थगन प्रस्ताव ला कर, ध्यान आकर्षण की सूचना देकर तथा विभिन्न संसदीय समितियों, जैसे लोक लेखा समिति, प्राक्कलन समिति, शासकीय आश्वासन समिति, लोक उद्यम समिति, विशेषाधिकार समिति, प्रदत्त विधान समिति इत्यादि के द्वारा नियंत्रण रखते हैं ।
प्रशासन से संबंधित सभी नीतिगत निर्णय मंत्रिपरिषद् लेती है। यह सभी नीतिगत निर्णयों के कार्यान्वयन की देख रेख भी करती है। यह विधेयकों को तैयार करती तथा विधान मंडल में उन्हें पारित करवाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है ताकि वे अधिनियम बन सकें । यह बजट तैयार करती तथा राज्य शासन की आय और व्यय का नियमन करती है। यथार्थ में, मंत्रिपरिषद् ही राज्य का वास्तविक शासन करती है।
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