कामायनी में निरूपित आधुनिक भावबोध / अस्तित्ववादी दर्शन का प्रभाव / कामायनी की पुराकथा में आधुनिकता।
कामायनी में अस्तित्ववादी दर्शन कथ्य की माँग है। कामायनी में अकेलापन कुंठा, संत्रास, निर्वासन जैसे अस्तित्ववादी मूल्य मनु का दूर तक पीछा करते हैं। ये कहीं परिस्थितिजन्य हैं तो कहीं आत्मारोपित।
कामायनी में शुरू से लेकर आखिर से कुछ पहले तक मनु अकेलेपन से जूझ रहे हैं। शुरू में जो अकेलापन मनु की विवशता और निराशा का सर्जक है, अन्ततः वह आध्यात्मिक तुष्टि में परिणत हो जाता है। चिंता सर्ग में मनु पर्वत की छाया में अकेले बैठे हुए हैं। नीचे जल प्रलय प्रवाह है। वे महा एकान्त की पृष्ठभूमि में दिखायी पड़ते हैं।
दूर दूर तक विस्तृत था हिम, स्तब्ध उसी के हृदय समान,
निरवता सी शिला चरण से टकराता फिरता पवमान।
निरवता और स्तव्ध जैसे शब्दों के जरिए मनु की जड़ता और रिक्तता मूर्तिमान हो जाती है। मनु की जड़ता उनके अकेलेपन को त्रासद बना देती है। मनु एक क्षण तो अपनी चेतना को खोने की बात करने लगते हैं। अनस्तित्व बोध उन्हें आक्रान्त करने लगता हैः
चेतनता चल जा जड़ता से आज शुन्य मेरा भर दे
मनु आशा सर्ग में अकेलेपन के आक्रामक प्रभाव से मुक्त होने के लिए ‘पाक यज्ञ, करते हैं यहाँ अकेलापन उतना घातक नहीं लगता। उषा के जागरण के कारण मनु के मन में चेतना जगी है। यहाँ अकेलेपन की भय की चिंता उतनी नहीं है जितनी उसे दूर करने की चिंता।
कब तक और अकेले कह दो हे मेरे जीवन बोलो।
मनु प्रकृति के मुख पर मुस्कान देखने के लिए विकल हो जाते हैं। वे अपने अकेलेपन को छांटने के लिए बन गुहा कुंज मरु अंचल में, अपना विकास ढूँढने निकल पड़ते हैं।
मनु का अकेलापन श्रद्धा से मुलाकात के बाद खंडित हो जाता है। मनु श्रद्धा से रूपाकर्षण के कारण करीब होते है। परिचय के बाद निकटता बनती है। फिर मिलकर गृहस्थी बसाते हैं। मनु के भीतर काम भावना उदित होती है। कर्म सर्ग में मनु का अकेलापन बिलकुल खंडित है। मनु अर्न्तमुख अकेला और घायल पड़ा है। मनु के मन में विरक्ति का भाव जगता है। मनु सारस्वत प्रदेश, छोड़कर कहीं अन्यत्र निकल जाना चाहते है। श्रद्धा उन्हें सहारा देती है। मनु कहते भी हैं ले चल इस छाया के बाहर मुझको दे न यहां रहने
लेकिन आगे मनु पता नहीं क्यों यह सोंचने लगते हैं। श्रद्धा के रहते की संभव नहीं की कुछ कर पाऊँ, पहले तो ‘मनु श्रद्धा के प्रति किए अपने व्यवहार पर गलती का अनुभव करते हैं और फिर उसके प्रति वही पुरानी शंका दुहराते है। मनु श्रद्धा को अकेले छोड़कर फिर निकल पड़ते हैं। अपने अकेलेपन को छाँटने के लिए ही मृग आदि का शिकार करते हैं, पशु यज्ञ करते है। जब उन्हें लगता है कि वे श्रद्धा पर एकाधिकार कायम नहीं रख पाएंगे तो श्रद्धा को यह कहकर- ‘ तुम अपने सुख से सुखी रहो, मुझको दुःख पाने दो स्वतंत्र- अकेले अनिश्चित की ओर निकल पड़ते हैं। यहां मनु का अकेलापन बिल्कुल मांसिक है। दर्शन सर्ग में श्रद्धा मनु को चाँदनी रात में एक गुफा के द्वार पर पाती है। वह उन्हें कैलाश ले जाती है और यहीं उनके अकेलेपन का अंत अध्यात्मिक तृप्ति की रहस्य भूमि में होता है।
संत्रास भी अस्तित्ववादी दर्शन का ही शब्द है। मनु में स्वातंत्र्य की जो अदम्य चाह है उसके मूल में है संत्रास और अकेलेपन की मांसिकता। चिंता सर्ग में मनु संत्रस्त है। संत्रास की स्थितियाँ परिस्थिति ने रची है। यह संत्रास उनमें मृत्युबोध या अनस्तित्व बोध पैदा करता है। मनु को लगता है कि चारो ओर से सांप फन फैलाए चले आ रहे हैं, अनस्तित्व का तांडव नृत्य हो रहा है:
धू धू करता नाच रहा था अनस्तित्व का तांडव नृत्य।
मनु हर क्षण मृत्यु के खतरे के सामने हैं। उन्हें लगता है ज्वालामुखियाँ उन्हें निगल लेंगी –
धंसती धरा धधकती ज्वाला ज्वालामुखियों के निःस्वास।
सम्पूर्ण चिंता सर्ग संत्रस्त मनु के मानस का ही अवगाहन है। मनु में संत्रास फिर ईष्या सर्ग में दिखायी पड़ता है। मनु आत्म सम्मोहित व्यक्ति है। वे अपने अधिकार में किसी की भागीदारी स्वीकार नहीं कर सकते। श्रद्धा में द्वैत भाव के आगमन के अनुमान से ही मनु संत्रस्त हो जाते हैं। उनका यह संत्रास बिल्कुल मांसिक वैचारिक है।
श्रद्धा सर्ग के पहले वह भी मनु की तरह अकेली है। जहाँ जहाँ भटक रही है वह अकेलेपन के संबंध में मनु से कहती है-
अकेला यह जीवन निरूपाय आज तक घूम रहा विश्रव्ध
जिसका था उल्लास निरसना वही अलग जा बैठी
स्वप्न सर्ग में श्रद्धा मनु की वजह से संत्रास की दशा में आती है। मनु सारस्वत प्रदेश में जनता के हमले से घायल हो जाते हैं। संघर्ष का सारा घटनाक्रम श्रद्धा स्वप्न में देखती है। कामायनीकार ने आत्मीय जनों के कारण उत्पन्न संत्रास को श्रद्धा की चेतना में संक्रमण के रूप में दिखाया है। चिंता सर्ग में जो संत्रास परिस्थितियों के कारण वैचारिक स्तर पर था वहीं स्वपन सर्ग में बिलकुल व्यवहारिक स्तर पर प्रस्तुत है।
इड़ा अकेलेपन या संत्रास जैसे मूल्यों से कभी नहीं टूटती। मनु जब नहीं थे तब भी वह प्रजा के साथ थी और मनु जब सारस्वत प्रदेश छोड़ देते हैं तब भी वह मनु के पुत्र मानव और अपनी प्रजा के साथ है। श्रद्धा के लिए अकेलापन परिस्थिति की देन है वैसे वह स्वभाव से अकेलापन प्रस्तुत नहीं करती। मनु जब उसका साथ छोड़ देते है तब भी वह अपने गर्भस्थ शिशु के कारण अकेलेपन का अनुभव नहीं करती।
अस्तित्ववादी दर्शन का तीसरा मूल्य निर्वासन कामायनी में उपलब्द्ध है। मनु एक मात्र चरित्र है जिन्होंने कामायनी में निर्वासन को अनुभव किया है। उनके निर्वासन और अकेलेपन में अन्तर करना कठिन हो जाता है। देव सभ्यता के विनष्ट हो जाने के कारण मनु निर्वासन की मनोदशा में हैं। वे अपने अहंवादी, भोगवादी प्रवृत्ति के कारण श्रद्धा पर चाहते हैं एकाधिकार। श्रद्धा में कोई द्वैत भाव नहीं है लेकिन मनु संभावित पुत्र को लेकर अपने अस्तित्व के प्रति संकालु हो उठते है तथा स्वातंत्र्य की अदम्य चाह लिए श्रद्धा को सुरक्षित निवास छोड़ स्वयं को निर्वासित कर लेते है। यहाँ निर्वासन पलायन के रूप में सामने आता है। संघर्ष सर्ग में मनु संघर्ष में घायल होने के बाद मैदान छोड़ने का मन बना लेते हैं।
अकेलापन हो या संत्रास या निर्वासन इन सब का अंत कैलाश पर आध्यात्मिक यूटोपिया में ही हुआ। मनु का निर्वासन भी कहीं परिस्थिति की देन है तो कहीं प्रकृति की और कहीं यह शुद्ध वैचारिक स्तर पर स्वीकृत है।
Read More ...
© 2021 saralmaterials.com. | Designed & Developed by saralmaterials.com Contact us at 7909073712 / 9386333463