अंधेर नगरी की संवाद योजना
किसी आलोचक ने कहा है कि ‘‘संवाद किसी भी नाटक का शरीर है। इसी में उसकी आत्मा स्थित होती है। इसके द्वारा नाटक गतिशील होता है। इसी के हाथो से उसके विभिन्न कार्य प्रयोजनों की सिद्धि होती है। इसी की भंगिमाओं में चरित्रों की विशिष्टताएँ परिलक्षित होती है और इसी की वाणी में नाटक मुखरित होता है।’’ यह संवाद ही नाटक को अन्य विधाओं से अलग करने वाला तत्व है। अन्य विधाओं में अभिव्यक्ति के संवादेत्तर माध्यम भी होते हैं लेकिन नाटक में संवाद ही अभिव्यक्ति का अनिवार्य माध्यम है। नाटककार को जो कुछ कहना है वह अपनी ओर से नहीं कहेगा, कहेगा पात्रों के संवादों के जरिए। नाटक का संवाद सब कुछ नहीं तो बहुत कुछ अवश्य है। इस संवाद के भीतर से ही नाटक के चरित्र कथानक, उद्देश्य शिल्प और अभिनय (अभिनेयती) के गुण पैदा होते हैं।
संवाद तीन तरह के हैं - सर्वश्राव्य, नियत श्राव्य, अश्राव्य। सर्व श्राव्य संवाद सबके सुनने के लिए है किसी भी नाटक में सर्व श्राव्य संवादों की ही बहुलता होती है। नियत श्राव्य संवाद एक या कुछ एक को सुनाने के लिए होता है। अंधेर नगरी में महंत गोबरधन दास को प्यादों से अलग ले जाकर कान में कुछ कहता है। यह संकेत प्रधान संवाद है। चुंकि यह संवाद सबको सुनाने के लिए नहीं है इसलिए नियत श्राव्य है। स्वगत कथन अश्राव्य संवाद है। पॉंचवे दृश्य में गोबर्धन दास अंधेर नगरी गीत गाता हुआ मटक मटक कर मिठाई बना रहा है। यह पूरा का पूरा अंधेर नगरी गीत अश्राव्य संवाद है। इसमें उद्देश्य दूसरों को सुनाना नहीं है।
नाटक के संवाद के निम्न गुण हैं:
1. यह कथा गति प्रेरक है
2. चरित्रों के वैशिष्ट्य को खोलता है और
3. अभिनेयता सृजित करता है
अंधेर नगरी में असम्बद्ध दृश्यों को भी परस्पर जोड़ देने का काम संवाद ही करते हैं। भीक्षाटन के लिए जा रहे चेलों में लोभपरक उल्लास देखकर महंत जी उपदेश देते हैं ‘‘लोभ कभी नहीं कीजिए या मैं नरक निदान’’। पाठक इस उपदेश को गुरू जी का निर्थक उपदेश समझता है। उसे लगता है कि अपनी चरित्रगत प्रवृत्ति के कारण उन्होंने यह उपदेश यौं ही उछाल दिया है। आगे चलकर मिठाई खाने के लोभ की वजह से जब गोवर्धन दास फांसी के लिए ले जाया जा रहा है तो पाठक को इस संवाद की सार्थकता नजर आती है। इतना ही नहीं राजा भी बैकुंठ जाने के लोभ में फांसी पर चढ़ता है। राजा प्रजा दोनों लोभाविष्ट है। यह देखकर गुरू जी के इस उपदेश के व्यापक महत्व का पता चलता है। गुरू जी अंधेर नगरी के अनिष्टकारी समतावाद को भांप कर जब अंधेर नगरी छोड़ रहे हैं तो वे गोवर्धन दास से कहते हैं "मैं तो जाता हूँ पर इतना कहे जाता हूँ कि कभी संकट पड़ै तो हमारा स्मरण करना।" आगे सचमुच में गोवर्धन दास जब संकट में पड़ता है तो गुरूजी अपने कहे अनुसार गोवर्धन की पुकार पर तुरंत उपस्थित हो जाते हैं। इस नाटक का एक भी संवाद ऐसा नहीं है जिसे अनावश्यक कहा जाए। प्रत्येक संवाद अगले संवाद की प्रस्तावना/भूमिका/पीठिका सा लगता है।
अंधेर नगरी के संवाद से ही विभिन्न चरित्रों के रहस्य उजागर होते हैं। महंत में यदि नैतिकता, ईमानदारी, मानवता और निस्पृहता का भाव है, तो गोवर्धन दास में मिठाई खाने का अनियोजित लोभ। नारायणदास का व्यक्तित्व संतोष, सेवा और आज्ञाकारिता से बना है। बाजार दृश्य के पात्रों में भी अलग अलग विशिष्टताएँ हैं। कुछ पात्र वस्तु के विज्ञापन तक अपने को रोके रखते हैं जैसे कबाब वाला, जातवाला तो कुछ पात्र अपनी वस्तुओं के विज्ञापन के साथ-साथ समाज और देश के हालात पर टिप्पणियाँ करते हैं। ये पात्र इन टिप्पणियों को नागरिक कर्म के रूप में सामने लाते हैं। राजा के चरित्र में शौर्य और विवेक शुन्यता है। वह बाहर से जितना आतंककारी है भीतर से उतना कमजोर है। कमजोर इस अर्थ में कि वह पान खाइए महराज को सूर्पनखा आयी है महाराज सुनकर भागने लगता है। राजा की भाषा में यदि निर्भय असतर्कता है तो वादियों प्रतिवादियों की भाषा में भयाक्रान्त सर्तकता।
नाटक के संवाद अभिनेयता से लैश हैं। पद्यात्मक संवादों में नृत्य और संगीत के तत्वों के समावेश की पूरी संभावना है। गद्यात्मक संवादों में आंगिक चेष्टाओं, मुख मुद्राओं, हस्त संकेतों के उपयोग की संभावना रखकर नाटक को अधिक अभिनयात्मक बनाने की कोशिश हुयी। नाटक की भाषा भी इसे अभिनयात्मक बनाए रखने में समर्थ हुयी।
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