कबीर की भाषा / वाणी के डिक्टेटर
डॉ॰ हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है ‘‘भाषा पर कबीर का जबरदस्त अधिकार था। वे वाणी के डिक्टेटर थे। जिस बात को उन्होंने जिस रूप में प्रकट करना चाहा है, उसे उसी रूप में भाषा से कहलवा लिया - बन गया तो सीधे-सीधे, नहीं तो दरेरा देकर।’’
कबीर की भाषा जनता के टकसाल से निकली है उसमें व्याकरण और शास्त्र का आग्रह नहीं था और शायद इसीलिए कबीर अपनी भाषा के साथ हर तरह की मनमानी कर लेते थे। भाषा की सार्थकता का सवाल वहाँ पैदा होता है, जहाँ भाव दुर्बल हों। जहाँ भाव और विचार अनन्त से क्रियाएँ कर रहे हैं वहाँ भाषा की क्या बिसात। कबीर ने अपनी भाषा जनता से उठायी थी। कबीर जनता की भाषा के कवि है, वे अपनी आम फहम भाषा में जनता के बीच प्रचलित प्रतीक, रूपक और उपमाओं को जगह देकर अपने पदों को जीवंत बनाते हैं। यही वजह है कि जनता उनके प्रतीकों की दुर्बोधता के बीच से ही बोध की भूमि तलाश लेते हैं:
आगि जु लागी नीर महिं, कादौ जरिया झारि।
उत्तर दखिन के पंडिता, मुए विचारि-विचारि।।
(ज्ञान विरह को अंग)
ज्ञान विरह की आग जब मन रूपी नीर में लगती है, तब उसमें निहित विकार या वासनाएँ (कीचड़) पूर्णयतया भस्म हो जाती है तथा उत्तर दक्षिण के पंडित लाख विचार करने पर भी इसका अर्थ नहीं समझ पाते हैं। यहाँ कबीर ने आग, जल, कीचड आदि प्रतीकों के जरिए जिस कथन को सम्प्रेषित किया है- वह किसी साधारण जनता के लिए दुर्बाेध्य नहीं है। कबीर की इस उलटबाँसी में असंगति अलंकार (पानी में आग लगने) की सहायता से विरहाग्नि के धधकने एवं उसमें वासनाओं के कीचड़ जलने की गम्भीर चर्चा करते है। किन्तु जैसे ही मौका मिलता है, वे उत्तर दक्षिण के पंडितों के बहाने उन शास्त्र मर्मज्ञों पर व्यंग प्रहार करते हैं जिनका ज्ञान केवल पोथी तक सीमित है।
‘अकह’ कहानी को मनोग्राही वाणी देने में, ताजा अनुभूतियों का प्रवाह होगा, तेजोमय ब्रह्म को शब्द देने वाली मौलिकता होगी। यह कबीर के वश की बात थी कि उन्होंने ब्रह्म मिलन के अनंत खेल को ‘बेहद्दी मैदान में रहा कबीरा’ से मूर्त्तिमान कर दिया है।
कबीर के मस्तमौलेपन की छाप उनकी भाषा पर भी है। कबीर रमता योगी थे। भाषा की टाट को उन्होंने जब चाहा ओढ़ा, जब चाहा लतिया दियाः
कहना था सौ कह दिया, अब कछु कहना नाहिं।
एक रही दूजी गई, बैठा दरिया माँहि।।
कबीर की भाषा का अक्खड़पन ही उनके व्यंग का प्राण है। वे जब व्यंग पर उतर आते हैं तब पंडित और मुल्ला, अबधूत और योगी सभी उनके व्यंग से कटकर रह जाते हैं। उनकी भाषा की मार सहना और खड़ा रहना दोनो संभव नहीं रहता।
मन न रंगाए रंगाए जोगी कपड़ा
कनवा फरैले जोगी जटवा बढैले
दाढ़िया बठैले जोगी हो गइल बकरा
कबीर सादगी और सहज भाव पर निरंतर जोड़ देते हैं, वाह्याचारांे की आलोचना करते हैं और इसलिए अगम अगोचर की बात करते हुए भी साधारण जनता के लिए दुर्बोध्य नहीं है। कबीर अपने इसी गुण के कारण पाँच सौ वर्षाें से जनता के कंठाहार बने हुए हैं। सम्बंधों का ओछापन भी कबीर की भाषा के लिए रूकावट नहीं बनता।
कबीर कूता राम का, मूतिया मेरा नाऊँ।
गलै राम की जेवड़ी, जित खैंचे तित जाऊँ।।
कबीर की भाषा में लापरवाही और सजगता एक साथ देखने को मिलती है। पंडित या शेख के प्रति आक्रमण के दौरान लापरवाह होते हैं तो अवधूत या योगी के प्रति सजग। पंडित या शेख उनके लिए नगण्य या अदने से जीव हैं, जिनपर तेज आक्रमण करना वे आवश्यक नहीं मानते। यही लापरवाही कबीर के व्यंगो की जान है।
कबीर की भाषा में बिना कहे भी बहुत कुछ कह देने एवं बिना मारे ही प्राण लेने की आमोघ शक्ति वाला तेवर है। उनका व्यंग भीतर तक उतर जाता है। आचार्य द्वि द्विवेदी ने लिखा है ‘‘व्यंग वह है, जहाँ कहने वाला ‘अधरोष्ठों में हँस रहा हो और सुननेवाला तिलमिला उठा हो।’’ कबीरदास ऐसे ही व्यंगकर्त्ता थे:
पंडित होय के आसन मारे, लम्बी माला जपता है।
अंदर तेरे कपट कपटनी, सो भी साहब लखता है
X X x
हीरा पाय परख नहिं जाने, कौड़ी परखन करता है।
कहत कबीर सुनो भई साधो, हरि जैसे को तैसा है।।
इस भाषा में चोट करने का ढ़ंग बहुत ही सहज है। कहने वाले ने क्रोध और गुस्से की मदद नहीं ली है। कथन में निश्चितता है और है एक सहज प्रवाह जो व्यंग को धार देता है।
आक्रमण की भाषा तो सिद्धों-नाथों के पास भी थी पर आत्मविश्वास नहीं था। कबीर दंभी नहीं है, उनमें यदि दंभ जैसा कुछ दिखता है तो वह है उनका अखंड विश्वास।
कबीर माया पापनि, फंद ले बैठी हाटि।
सब जग तौ फन्दे परा, गया कबीरा काटि।।
कबीर के प्रचण्ड स्वभाव के समक्ष भाषा विवश हो जाती है। कबीर जो कहते थे, अनुभव के आधार पर कहते थे। इसलिए उनकी उक्तियाँ बंेधनेवाली एवं व्यंग चोट करने वाले होते थे। उन्होंने ‘सहज का दुलिचा’ डालकर ’ज्ञान के हाथी पर चढ़ने का सुख’ प्राप्त किया था। इसलिए उनके आक्रमण में सोद्देश्यता है। उनकी भाषा जब कुंडलिनि से लेकर ब्रह्म रंध्र तक, पंचतत्व से लेकर शून्य तक की बात करती है, तो इसका मतलब साफ है कि वह कबीर के व्यापक अनुभवों को बॉधने का प्रयास कर रही है। चूँकी भाषा उनके इशारों पर थिरकती है, उनके हर अनुभव को शब्दों में बाँधने के लिए आतुर रहती है, इसलिए कबीर को ‘वाणी का डिक्टेटर’ कहा गया है। कबीर की भाषा माध्यम नहीं है, मुलाजिम है। उनके अनुभव का ज्वार उसके सारे नेम नियमो को छिन्न-भिन्न कर देता है। कबीर को बंधन से परहेज था। वे बंधन को बाह्माचार मानते थे इसीलिए कबीर भाषा के प्रकृत-स्वरूप को लेकर अपने अनुभव-संसार की यात्रा पर निकले थे।
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