
भारत में मंदिर वास्तुकला
भारत की मंदिर वास्तुकला आध्यात्मिक प्रतीकवाद, कलात्मक अभिव्यक्ति और इंजीनियरिंग चमत्कारों का एक अनूठा मिश्रण प्रस्तुत करती है। जहाँ तक कला और स्थापत्य का संबंध है, यह काल निस्संदेह उनके उत्कर्ष का काल था, जिसका पता उन असंख्य मंदिरों से चलता है जो पिछले 1,200 वर्षों से खड़े हैं। ये मंदिर उस काल के सर्वोत्कृष्ट भवनों में हैं और स्थापत्य कला की अधिकतर शैलियों का प्रतिनिधित्व करते हैं।
भारत में मंदिर निर्माण की परंपरा धीरे-धीरे विकसित हुई, जो वैदिक काल की वेदियों से शुरू होकर गुप्त काल में भव्य मंदिरों के रूप में उभरकर आई। समय के साथ मंदिर न केवल धार्मिक स्थल बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक केंद्र भी बने।
मंदिर निर्माण की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
- वैदिक काल (1500-600 ईसा पूर्व)
- देवताओं की पूजा प्रकृति के रूप में की जाती थी, जैसे – सूर्य, वायु, अग्नि, वरुण आदि।
- इस काल के बाद के दिनों में मूर्ति पूजा का स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता, बल्कि यज्ञ, हवन और अग्नि पूजन प्रमुख थे।
- स्थायी मंदिरों का प्रचलन नहीं था, बल्कि यज्ञ वेदियाँ ही पूजा स्थल मानी जाती थीं।
- मौर्य और शुंग काल (321-185 ईसा पूर्व)
- इस काल में बौद्ध स्तूपों और मठों का विकास हुआ, जैसे – साँची स्तूप और बाराबर गुफाएँ।
- हिन्दू मंदिरों के प्रमाण ज्ञात नहीं हैं, लेकिन कुछ स्थानीय पूजा स्थलों का उल्लेख मिलता है।
- गुप्त काल एवं गुप्तोत्तर काल (4वीं-8 वीं शताब्दी)
- इसे "मंदिर निर्माण की स्वर्ण युग" कहा जाता है।
- इस काल में शिखरयुक्त मंदिर बनने लगे।
- प्रारंभिक मंदिरों में ईंट और पत्थर का प्रयोग हुआ।
- उदाहरण: देवगढ़ (उत्तर प्रदेश) का दशावतार मंदिर, उज्जैन का महाकालेश्वर मंदिर।
- पूर्व मध्य काल (8वीं-12वीं शताब्दी)
- इस काल में मंदिर स्थापत्य कला ने चरम विकास प्राप्त किया।
- नागर (उत्तर भारत), द्रविड़ (दक्षिण भारत) और वेसर (मिश्रित शैली) स्थापत्य विकसित हुई।
- खजुराहो, कोणार्क, एलोरा, और दक्षिण भारत में तंजावुर का बृहदेश्वर मंदिर प्रसिद्ध उदाहरण हैं।
मंदिर निर्माण के प्रमुख कारण
- भक्ति आंदोलन का विकास – मूर्तिपूजा और मंदिर केंद्रित पूजा पद्धति को बढ़ावा मिला।
- राजाओं का संरक्षण – मंदिर निर्माण से शासकों को धार्मिक और राजनीतिक प्रतिष्ठा प्राप्त होती थी।
- कला एवं वास्तुकला का विकास – मंदिर स्थापत्य ने भारतीय कला को उच्चतम स्तर पर पहुँचाया।
- सांस्कृतिक केंद्रों का निर्माण – मंदिर केवल पूजा स्थल नहीं, बल्कि शिक्षा, नृत्य, संगीत और समाजिक गतिविधियों के केंद्र भी थे।
मंदिर वास्तुकला की विशेषताएँ
·गर्भगृह (गर्भगृह): देवता की छवि या मूर्ति रखने वाला केंद्रीय कक्ष।
·शिखर (अधिरचना): गर्भगृह के ऊपर ऊँची छत, जो पौराणिक ब्रह्मांडीय पर्वत मेरु पर्वत का प्रतीक है।
·मंडप (असेंबली हॉल): सामूहिक पूजा या अनुष्ठानों के लिए एक स्तंभयुक्त हॉल।
·विमान: दक्षिणी मंदिरों में गर्भगृह के ऊपर की मीनार, जो उत्तरी मंदिरों में शिखर के बराबर है।
·प्रदक्षिणा पथ: गर्भगृह के चारों ओर एक परिक्रमा पथ।
·गोपुरम (प्रवेश द्वार): स्मारकीय प्रवेश द्वार, विशेष रूप से दक्षिण भारतीय मंदिरों में प्रमुख।
·अलंकरण: मंदिरों को देवताओं की नक्काशी, पुष्प पैटर्न और पौराणिक कहानियों से समृद्ध रूप से सजाया गया है।
मंदिर वास्तुकला का विकास
1. प्रारंभिक चरण (गुप्त काल): सपाट छतों वाली सरल और मामूली संरचनाएँ। उदाहरण: दशावतार मंदिर, देवगढ़।
2.मध्यकालीन चरण: ऊंचे शिखर, गोपुरम और विस्तृत नक्काशी का परिचय।
3.उत्तर मध्यकालीन चरण: क्षेत्रीय शैलियों का उत्कर्ष, नागर, द्रविड़ और वेसर तत्वों का सम्मिश्रण।
मंदिर वास्तुकला की शैलियाँ
सांस्कृतिक, भौगोलिक और ऐतिहासिक कारकों द्वारा संचालित क्षेत्रीय शैलियों में विविधता के परिणामस्वरूप तीन प्राथमिक शैलियाँ सामने आईं: नागर, द्रविड़ और वेसर, साथ ही विभिन्न क्षेत्रीय अनुकूलन।
1. नागर शैली (उत्तरी भारत)
·भौगोलिक विस्तार: भारत-गंगा के मैदानों, उड़ीसा, राजस्थान, मध्य प्रदेश और गुजरात में पाया जाता है।
·मुख्य विशेषताएँ:
- वक्रीय शिखर जिसके उत्तरोत्तर छोटे प्रतिरूप (उरुशृंग) हैं।
- शीर्ष पर एक विशिष्ट अमलका (गोलाकार धारीदार पत्थर) और कलश (कलश)।
- बड़ी चारदीवारी का अभाव।
·उदाहरण:
- उड़ीसा, विशेष रूप से भुवनेश्वर के सुप्रसिद्ध मंदिर नागर शैली अथवा उत्तर भारतीय शैली के सर्वोत्तम नमूने हैं। प्रत्येक मंदिर में एक विमान (शिखर) और एक जगमोहन (पूजा मंडप) और उसके अलावा एक नट मंडप (नृत्य मण्डप) और भोग मंडप है। इस किस्म के सबसे बढ़िया उदाहरण भुवनेश्वर का लिंगराज मंदिर और कोणार्क का सूर्य मंदिर हैं।
- एक अन्य स्थान, जहाँ पर नागर शैली के अनेक मंदिर अभी भी विद्यमान हैं, बुंदेलखंड में खजुराहो है। ये मंदिर चंदेल राजाओं द्वारा बनवाए गए थे; ये ऊँचे उठे आसन (प्लिंथ) पर निर्मित हैं और अपनी नक्काशी और कामोत्तेजक मूर्तियों के लिए प्रसिद्ध हैं। कंदरिया महादेव मंदिर इसका एक सर्वोत्तम उदाहरण है।
- कश्मीर में ललितादित्य मुक्तापीड द्वारा लगभग आठवीं शताब्दी ई. में निर्मित सूर्य मंदिर, जिसे मार्तण्ड मंदिर कहा जाता है, यह स्थापत्य की कश्मीर शैली का सर्वोत्तम उदाहरण है।
2. द्रविड़ शैली (दक्षिणी भारत)
·भौगोलिक विस्तार: मुख्य रूप से तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना में।
·मुख्य विशेषताएँ:
क्षैतिज स्तरों के साथ पिरामिड के आकार का विमान।
- प्रवेश द्वारों पर बड़े गोपुरम (प्रवेश द्वार)।
- मंदिर परिसर के भीतर पानी की टंकियाँ।
- मंदिर शिव अथवा विष्णु को समर्पित हैं।
उदाहरण:
- बृहदेश्वर मंदिर (तंजावुर): एक विशाल विमान वाला यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल।
- मीनाक्षी मंदिर (मदुरै): अपनी मूर्तिकला सुंदरता और विशाल गोपुरम के लिए प्रसिद्ध।
- विरुपाक्ष मंदिर (हम्पी): विजयनगर साम्राज्य का एक प्रमुख स्मारक।
- दक्षिण में बिना सहारे के खड़े मंदिरों के अलावा, ऐसे मंदिर भी हैं, जो ठोस चट्टान काटकर बनाए गए हैं। एलोरा का कैलाश मंदिर, जो शिव को समर्पित है और जो राष्ट्रकूट वंश के राजा कृष्ण प्रथम के शासनकाल में बनाया गया था, संसार में स्थापत्य कला का एक अद्भुत नमूना माना जाता है।
- दक्षिण में पल्लवों ने कला को बहुत अधिक गति प्रदान की और दलवनूर (अरकाट जिला), पल्लवरम, वल्लम (चिंगलपेट जिला), मामल्लपुरम् के रथ और समुद्रतटवर्ती मंदिर, कांची स्थित कैलाशनाथ मंदिर आज उन पल्लवों की कलात्मक प्रतिभा के पवित्र स्मारकों के रूप में खड़े हैं।
- चोल राजाओं ने पल्लवों की स्थापत्य परंपराओं को आगे बढ़ाया और दक्षिण में अनेक मंदिरों का निर्माण किया। द्रविड़ मंदिर वर्गाकार विमानों, मंडपों, गोपुरम, अत्यधिक सज्जित स्तंभों वाले विशाल कक्षों, अलंकरणों के पारंपरिक सिंहों (याली), कोष्ठकों (ब्रैकेट) और संयुक्त स्तंभों, आदि के उपयोग के लिए उल्लेखनीय हैं। उत्तोक्त ढांचों में केंद्रीयगुंबद उन अत्यंत सुंदर नक्काशी वाले गोपुरम के समक्ष, जो बहुत ऊँचे होते हैं, छोटे पड़ जाते हैं। इस शैली का सर्वोत्तम उदाहरण मदुरै स्थित मीनाक्षी मंदिर है, जहाँ इस शैली का चरमोत्कर्ष दिखता है। अधिकतर हिंदू
3. वेसर शैली (दक्कन क्षेत्र)
·भौगोलिक विस्तार: नागर और द्रविड़ शैलियों का मिश्रण, जो कर्नाटक और महाराष्ट्र के कुछ हिस्सों में पाया जाता है।
·मुख्य विशेषताएँ:
- इसकी अधिरचना में वक्रीय और पिरामिडीय आकृतियों का संयोजन है।
- जटिल मूर्तियों के साथ समृद्ध नक्काशीदार मंदिर।
·उदाहरण:
- चेन्नाकेशव मंदिर (बेलूर, कर्नाटक): विस्तृत नक्काशी के लिए जाना जाता है।
- होयसलेश्वर मंदिर (हलेबिदु): अपनी घुंघरूओं के लिए प्रसिद्ध है।
- पट्टाडकल मंदिर (कर्नाटक): यूनेस्को विश्व धरोहर स्थल।
- दक्कन में वातापी (बादामी) और पट्टडकल (बीजापुर जिला) के मंदिर शैली की दृष्टि से भिन्न हैं। ये मंदिर व्यापक रूप से सजाए गए आसन (प्लिंथ) पर खड़े हैं। इनके कुछ उत्तम उदाहरण हैं, हेलेबिड में स्थित होयसलेश्वर मंदिर,हलेबिड यद्यपि अपूर्ण निर्मित है, किंतु अपनी संरचना और अलंकरण की दृष्टि से किसी भारतीय मंदिर से कम नहीं है।
क्षेत्रीय विविधताएँ
·ओडिशा मंदिर: रेखा देउला (वक्रीय मीनार) और जगमोहन (पोर्च) की विशेषता। उदाहरण: लिंगराज मंदिर, भुवनेश्वर।
केरल मंदिर: भारी मानसून के कारण ढलान वाली छतें और लकड़ी की नक्काशी। उदाहरण: वडक्कुनाथन मंदिर, त्रिशूर।
हिमालयी मंदिर: ढलान वाली छतों वाली सरल लकड़ी की संरचनाएँ। उदाहरण: हडिम्बा मंदिर, मनाली।
·जैन मंदिर: सफ़ेद संगमरमर से अलंकृत डिज़ाइन। उदाहरण: दिलवाड़ा मंदिर, माउंट आबू।
मंदिर वास्तुकला में प्रतीकात्मकता
ब्रह्मांडीय प्रतिनिधित्व: मंदिर ब्रह्मांड का प्रतिनिधित्व करता है, जिसमें गर्भगृह ब्रह्मांड के मूल का प्रतीक है।
आध्यात्मिक मार्ग: डिज़ाइन भक्तों को बाहरी अपवित्र दुनिया (मंडप) से दिव्य (गर्भगृह) के आंतरिक गर्भगृह तक ले जाता है।
मेरु पर्वत: शिखर या विमान पौराणिक मेरु पर्वत, ब्रह्मांड की धुरी का प्रतिनिधित्व करता है।
निष्कर्ष
भारतीय मंदिर वास्तुकला केवल एक दृश्य या संरचनात्मक घटना नहीं है; यह एक आध्यात्मिक और सांस्कृतिक अभिव्यक्ति है जो सहस्राब्दियों से विकसित हुई है। अपनी क्षेत्रीय शैलियों और कलात्मक पेचीदगियों के साथ, यह भारत की समृद्ध विरासत की विविधता में एकता का प्रतिनिधित्व करता है। ये मंदिर देश के इतिहास और आध्यात्मिकता के जीवंत स्मारकों के रूप में कार्य करते हुए, विस्मय और भक्ति को प्रेरित करना जारी रखते हैं।
बिहार के प्राचीन मंदिर: एक ऐतिहासिक दृष्टि
बिहार भारतीय संस्कृति और सभ्यता का एक महत्वपूर्ण केंद्र रहा है। यह राज्य हिंदू, बौद्ध और जैन धर्मों की उत्पत्ति और विकास में प्रमुख भूमिका निभाता है। ऐतिहासिक रूप से, बिहार में मंदिर निर्माण की परंपरा वैदिक काल से शुरू हुई और विभिन्न राजवंशों के संरक्षण में विकसित होती गई।
1. वैदिक काल और मंदिर निर्माण (1500-600 ईसा पूर्व)
- इस काल में स्थायी मंदिरों का प्रचलन नहीं था।
- पूजा यज्ञ वेदियों और प्रकृति पूजन के माध्यम से होती थी।
- गंगा, सोन और कोसी नदियों के किनारे कई पवित्र स्थानों का उल्लेख मिलता है।
2. मौर्य काल (321-185 ईसा पूर्व)
- सम्राट अशोक ने बौद्ध धर्म को बढ़ावा दिया और बिहार में कई बौद्ध स्तूपों का निर्माण करवाया।
- इस काल में पत्थर के स्तंभ और गुफाओं का विकास हुआ।
- बिहार के बराबर और नागार्जुनी गुफा का निर्माण आजीवकों के लिए किया गया; जो इस काल के महत्वपूर्ण उदाहरण हैं।
- महाबोधि मंदिर (बोधगया) का प्रारंभिक निर्माण इसी समय हुआ, जिसे बाद में गुप्त शासकों ने पुनर्निर्मित किया।
3. शुंग और कुषाण काल (185 ईसा पूर्व - 300 ईस्वी)
- इस काल में हिंदू और बौद्ध दोनों धार्मिक स्थापत्य का विकास हुआ।
- इस काल में कई गुफाओं का निर्माण हुआ।
- ये गुफाएँ बौद्ध और जैन के लिए निर्मित की गई थीं।
4. गुप्त काल एवं गुप्तोत्तर काल (4वीं-8 वीं शताब्दी)
गुप्त शासकों ने हिंदू धर्म के पुनरुत्थान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इस काल में मंदिर निर्माण शैली विकसित हुई और स्थायी मंदिरों का निर्माण हुआ। इस युग में मंदिर निर्माण की प्रवृति का भी विकास देखने को मिलता है। देव का सूर्य मंदिर, नालंदा का विशाल मंदिर, बोधगया का ईंटों से बना महाबोधि मंदिर, भभुआ (रोहतास) का मंडलेश्वर मंदिर (मुण्डेश्वरी मंदिर) इस काल के प्रमुख मंदिर हैं।
- पूर्व मध्य काल (8वीं-12 वीं शताब्दी)
इस काल में मंदिर स्थापत्य कला ने चरम विकास प्राप्त किया। नागर (उत्तर भारत), द्रविड़ (दक्षिण भारत) और वेसर (मिश्रित शैली) स्थापत्य विकसित हुई। उत्तर भारत के बंगाल एवं बिहार पर पाल शासकों का आधिपत्य था| पालो के बाद सेन यहाँ शासन किए| पाल शासक बौद्ध धर्म के संरक्षक थे, लेकिन इस काल में हिंदू मंदिरों का भी निर्माण हुआ।
- पाल कालिन मंदिर स्थानीय वंग शैली को व्यक्त करने के लिए जाने जाते हैं।
- महिपाल ने काशी में सैकड़ों मंदिर और भवन बनवाए।
- गया में अर्धगोलाकार मंडप जैसे छत्र के साथ विष्णुपद मंदिर।
- गया जिले के कोंच का शिव मंदिर अपने शिखर और जालीदार खिड़की के कारण महत्वपूर्ण है।
- 9 वीं शताब्दी का कहलगाँव (भागलपुर) का पत्थर काट कर बनाया गया मंदिर दक्षिण भारतीय वास्तुकला का प्रभाव है।
- 9वीं शताब्दी में निर्मित बर्दवान जिले के बराकर का सिद्धेश्वर महादेव मंदिर में लंबे घुमावदार शिखर के ऊपर बड़ा आमलक प्रारंभिक पाल शैली का एक उदाहरण है।
- नौवीं से बारहवीं शताब्दी तक कई मंदिर पुरुलिया जिले के तेलकुपी में स्थित थे। जब क्षेत्र में बांध बनाए गए तो वे जलमग्न हो गए थे। ये उस क्षेत्र में प्रचलित स्थापत्य शैली के महत्वपूर्ण उदाहरणों में से थे।
- हालांकि, पुरुलिया जिले में अभी भी कई मंदिर मौजूद हैं जो इस काल के हैं। मंदिरों में काले से ग्रे बेसाल्ट और क्लोराइट पत्थर के खंभे और धनुषाकार किनारे का इस्तेमाल किया गया था।
बिहार के प्रमुख मंदिर
- देव का सूर्य मंदिर (औरंगाबाद, बिहार)
देव सूर्य मंदिर, बिहार के औरंगाबाद जिले में स्थित एक प्राचीन और पौराणिक मंदिर है, जो भगवान सूर्य को समर्पित है। यह मंदिर न केवल धार्मिक आस्था का केंद्र है, बल्कि अपनी अद्भुत वास्तुकला और ऐतिहासिक महत्व के कारण भी प्रसिद्ध है।
1. मंदिर का ऐतिहासिक महत्व
- माना जाता है कि यह मंदिर त्रेतायुग में राजा अयोध्या के वंशजों द्वारा बनवाया गया था।
- ऐतिहासिक रूप से, इस मंदिर का निर्माण गुप्तकाल (4वीं-6वीं शताब्दी) माना जाता है।
- मुगल काल में जब भारत में कई मंदिरों को ध्वस्त किया गया, तब भी यह मंदिर सुरक्षित रहा।
2. मंदिर की वास्तुकला
- इस मंदिर की खासियत यह है कि यह मंदिर पश्चिममुखी है, जबकि अधिकतर हिंदू मंदिर पूर्वमुखी होते हैं।
- मंदिर की संरचना उत्तर भारत की नागर शैली में बनी है, जिसमें ऊँचा शिखर और जटिल नक्काशी शामिल है।
- मंदिर में सूर्य देव की तीन मूर्तियाँ हैं:
- बाल सूर्य
- युव सूर्य
- वृद्ध सूर्य
- मूर्तियाँ काले पत्थर से बनी हैं और इनमें सूर्य देव को रथ पर सवार दिखाया गया है, जिसमें सात घोड़े जुते हुए हैं।
- यहाँ एक सूर्यकुंड भी है, जिसका जल औषधीय गुणों से भरपूर माना जाता है।
3. धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व
- यह मंदिर छठ पूजा के लिए विशेष रूप से महत्वपूर्ण है।
- छठ पर्व के दौरान हजारों श्रद्धालु यहाँ स्नान करके सूर्य भगवान की उपासना करते हैं।
- सूर्योपासना के कारण इसे "मिनी कोणार्क" भी कहा जाता है।
- यहाँ सालभर श्रद्धालु दर्शन के लिए आते हैं, लेकिन छठ महापर्व और मकर संक्रांति के समय भीड़ सबसे अधिक होती है।
4. पौराणिक मान्यता
- एक कथा के अनुसार, अयोध्या के एक राजा की बेटी को कुष्ठ रोग हो गया था। जब उन्होंने देव सूर्य मंदिर में आकर पूजा की और मंदिर के जल से स्नान किया, तो वह स्वस्थ हो गईं।
- इस घटना के बाद राजा ने इस मंदिर का पुनर्निर्माण कराया।
5. सूर्य मंदिर से जुड़े अन्य तथ्य
- यह भारत के गिने-चुने सूर्य मंदिरों में से एक है, जैसे कोणार्क (ओडिशा) और मोढेरा (गुजरात)।
- कई पुरातत्वविद इसे प्राचीनतम सूर्य मंदिरों में से एक मानते हैं।
- इस मंदिर के बारे में कई ऐतिहासिक और धार्मिक ग्रंथों में उल्लेख मिलता है।
निष्कर्ष
देव का सूर्य मंदिर केवल एक धार्मिक स्थल नहीं, बल्कि भारतीय इतिहास, वास्तुकला और संस्कृति का एक अनमोल धरोहर है। इसकी संरचना, धार्मिक महत्व और इससे जुड़ी पौराणिक मान्यताएँ इसे बिहार के सबसे महत्वपूर्ण तीर्थ स्थलों में से एक बनाती हैं।
- मुंडेश्वरी देवी मंदिर (कैमूर)
- निर्माण काल: लगभग 4वीं शताब्दी
- महत्व: भारत के सबसे पुराने जीवित मंदिरों में से एक।
- शैली: अष्टकोणीय संरचना, जो मंदिर स्थापत्य की प्रारंभिक शैली को दर्शाती है।
- समर्पित: भगवान शिव और शक्ति (माँ मुंडेश्वरी)।
- विशेषता: इसमें चारमुखी शिवलिंग स्थापित है और यह मंदिर नागर शैली का प्रारंभिक उदाहरण है।
- महाबोधि मंदिर (बोधगया)
- निर्माण काल: प्रारंभिक संरचना मौर्य काल की, गुप्त काल में पुनर्निर्माण।
- महत्व: यह वह स्थान है जहाँ गौतम बुद्ध ने ज्ञान प्राप्त किया था।
- शैली: विशिष्ट ईंट निर्माण और बौद्ध वास्तुकला का उत्कृष्ट उदाहरण।
- युनेस्को विश्व धरोहर स्थल।
- विष्णुपद मंदिर (गया)
- निर्माण काल: मूल मंदिर प्राचीन काल का, पाल काल में पुनर्निर्माण।
- महत्व: यहाँ भगवान विष्णु के चरण चिह्न स्थित हैं।
- संरक्षण: वर्तमान मंदिर 18वीं शताब्दी में अहिल्याबाई होल्कर ने बनवाया।
- ओदंतपुरी और विक्रमशिला महाविहार (भागलपुर)
- निर्माण काल: 8वीं-9वीं शताब्दी
- महत्व: ये बौद्ध विश्वविद्यालय थे, जहाँ से तंत्र और योग की शिक्षा दी जाती थी।
- विशेषता: बौद्ध शिक्षा के प्रमुख केंद्र और तिब्बती बौद्ध धर्म के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका।
6. मध्यकाल (12वीं-17वीं शताब्दी): मंदिर निर्माण में गिरावट
- इस काल में मुस्लिम आक्रमणों के कारण कई मंदिर नष्ट कर दिए गए।
- नालंदा और विक्रमशिला जैसे बौद्ध विश्वविद्यालयों को ध्वस्त कर दिया गया।
- हिन्दू मंदिरों का पुनर्निर्माण धीरे-धीरे मराठों और स्थानीय राजाओं के संरक्षण में हुआ।
निष्कर्ष:
बिहार में मंदिर निर्माण की परंपरा गुप्त काल से लेकर आधुनिक काल तक जारी रही। गुप्त काल में स्थापत्य कला ने उन्नति प्राप्त की, जबकि पाल काल में बौद्ध और हिंदू मंदिरों का मिश्रित विकास हुआ। मध्यकाल में मंदिरों को क्षति पहुँची, लेकिन आधुनिक काल में पुनर्निर्माण हुआ। आज भी बिहार के प्राचीन मंदिर न केवल धार्मिक स्थल हैं, बल्कि ऐतिहासिक धरोहर के रूप में भी महत्वपूर्ण हैं।
डॉ. भीमराव अंबेडकर
जीवन-वृत्त (Biography)
प्रारंभिक जीवन (1891-1912)
डॉ. भीमराव रामजी अंबेडकर का जन्म 14 अप्रैल 1891 को मध्य प्रदेश के महू (अब डॉ. अंबेडकर नगर) में एक गरीब महार परिवार में हुआ था। उनके पिता रामजी सकपाल ब्रिटिश सेना में सूबेदार थे। अंबेडकर का बचपन सामाजिक भेदभाव और छुआछूत की कठिनाइयों में बीता।
हालाँकि वे मेधावी छात्र थे, लेकिन जातिगत भेदभाव के कारण उन्हें स्कूल में बेंच पर बैठने या पानी तक छूने की अनुमति नहीं थी। उनके जीवन के शुरुआती अनुभवों ने उन्हें सामाजिक न्याय की लड़ाई के लिए प्रेरित किया।
शिक्षा एवं विदेश यात्रा (1913-1923)
- 1913 में वे उच्च शिक्षा के लिए अमेरिका गए और कोलंबिया विश्वविद्यालय (न्यूयॉर्क) से 1915 में एम.ए. तथा 1916 में पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की।
- इसके बाद वे लंदन गए और लंदन स्कूल ऑफ इकॉनॉमिक्स से डी.एससी. (डॉक्टर ऑफ साइंस) की डिग्री ली।
- उन्होंने ग्रेज़ इन लॉ से बार-एट-लॉ की उपाधि भी प्राप्त की।
सामाजिक संघर्ष एवं राजनीतिक जीवन (1924-1956)
1. दलित आंदोलन और अस्पृश्यता उन्मूलन
1924 में उन्होंने बहिष्कृत हितकारिणी सभा की स्थापना की, जो दलितों की शिक्षा और अधिकारों के लिए कार्यरत थी।
- 1927 में उन्होंने महाड़ सत्याग्रह किया, जिससे दलितों को सार्वजनिक जल स्रोतों से पानी लेने का अधिकार मिला।
- 1930 में कालाराम मंदिर सत्याग्रह किया, जिससे मंदिरों में दलितों को प्रवेश का अधिकार मिले।
2. भारतीय संविधान निर्माण (1947-1950)
स्वतंत्र भारत के पहले कानून मंत्री बने और संविधान सभा की प्रारूप समिति के अध्यक्ष के रूप में भारतीय संविधान का निर्माण किया।
- संविधान में समानता, स्वतंत्रता, धर्मनिरपेक्षता, सामाजिक न्याय और आरक्षण की नीति अपनाई गई।
- महिलाओं को समान अधिकार देने के लिए हिंदू कोड बिल का प्रारूप प्रस्तुत किया।
3. धर्म परिवर्तन और बौद्ध धम्म दीक्षा (1956)
- उन्होंने महसूस किया कि जातिवादी भेदभाव से मुक्त होने के लिए धर्म परिवर्तन आवश्यक है।
- 14 अक्टूबर 1956 को उन्होंने बौद्ध धर्म स्वीकार किया और अपने अनुयायियों को भी बौद्ध बनने की प्रेरणा दी।
मृत्यु (1956)
डॉ. अंबेडकर का 6 दिसंबर 1956 को दिल्ली में निधन हो गया। उनकी मृत्यु के बाद, उन्हें भारत रत्न (1990) से सम्मानित किया गया।
समीक्षा (Critical Analysis of His Life and Work)
1. सामाजिक सुधारक के रूप में योगदान
डॉ. अंबेडकर ने भारतीय समाज में समता और बंधुत्व की नींव रखी। उनके संघर्षों के कारण ही दलितों को समाज में न्याय मिला और उन्हें समान अधिकार प्राप्त हुए।
2. भारतीय संविधान में भूमिका
भारतीय संविधान को एक आधुनिक, लोकतांत्रिक और समावेशी दस्तावेज बनाने में उनका योगदान अतुलनीय है। उन्होंने विशेष रूप से दलितों, महिलाओं और पिछड़े वर्गों के लिए कानूनी सुरक्षा सुनिश्चित की।
3. आर्थिक और शिक्षा सुधारों में योगदान
- वे मानते थे कि शिक्षा ही असली शक्ति है, जिससे समाज में बदलाव लाया जा सकता है।
- उनके विचारों के कारण ही आरक्षण नीति लागू की गई, जिससे दलितों और पिछड़ों को समान अवसर मिल सके।
4. धर्म और सामाजिक पुनरुत्थान
बौद्ध धर्म को अपनाकर उन्होंने यह संदेश दिया कि शोषणमुक्त समाज के लिए धर्म की भूमिका महत्वपूर्ण है।
निष्कर्ष (Conclusion)
डॉ. अंबेडकर केवल एक दलित नेता नहीं, बल्कि राष्ट्र निर्माता थे। उनका जीवन संघर्ष, शिक्षा और न्याय की मिसाल है। आज भी उनके विचार सामाजिक समानता, मानवाधिकार और लोकतंत्र के लिए प्रेरणादायक हैं।
डॉ भीमराव अंबेडकर के विचार
डॉ. भीमराव अंबेडकर के विचार सामाजिक न्याय, समानता, शिक्षा, महिला सशक्तिकरण और आर्थिक सुधारों पर केंद्रित थे। उनके प्रमुख विचार इस प्रकार हैं:
1. सामाजिक न्याय और जाति व्यवस्था
- अंबेडकर जाति प्रथा के घोर विरोधी थे और उन्होंने इसे सामाजिक असमानता का मूल कारण बताया।
- उन्होंने दलितों और शोषित वर्गों के अधिकारों के लिए संघर्ष किया और "अस्पृश्यता" को खत्म करने की वकालत की।
- उनका मानना था कि सामाजिक समानता के बिना राजनीतिक स्वतंत्रता का कोई मूल्य नहीं है।
2. शिक्षा और आत्मनिर्भरता
- अंबेडकर ने शिक्षा को सबसे बड़ा हथियार बताया और कहा, "शिक्षित बनो, संगठित रहो और संघर्ष करो।"
- उनका मानना था कि शिक्षा ही वह माध्यम है जिससे शोषित वर्ग अपने अधिकारों को पहचान सकते हैं और समाज में सम्मान प्राप्त कर सकते हैं।
3. महिला सशक्तिकरण
- अंबेडकर महिलाओं की स्वतंत्रता और अधिकारों के प्रबल समर्थक थे।
- उन्होंने हिंदू कोड बिल का मसौदा तैयार किया, जिसमें महिलाओं को संपत्ति में अधिकार, विवाह और तलाक के मामले में समानता देने की बात थी।
4. धर्म और मानवता
- वे मानते थे कि धर्म का उद्देश्य मानव कल्याण होना चाहिए, न कि किसी विशेष वर्ग का वर्चस्व।
- उन्होंने 1956 में बौद्ध धर्म को अपनाया और लाखों अनुयायियों को भी इसके लिए प्रेरित किया।
5. राजनीतिक दृष्टिकोण
- उन्होंने भारतीय संविधान का मसौदा तैयार किया और लोकतंत्र, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के सिद्धांतों को इसमें शामिल किया।
- वे मानते थे कि केवल चुनावी अधिकार देना पर्याप्त नहीं है, बल्कि दलितों और पिछड़ों को उचित प्रतिनिधित्व और अधिकार मिलने चाहिए।
6. आर्थिक सुधार और श्रमिक अधिकार
- उन्होंने भूमि सुधारों, मजदूरों के अधिकारों और औद्योगिक विकास की वकालत की।
- वे चाहते थे कि समाज आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भर बने और सभी को समान अवसर मिले।
डॉ. अंबेडकर के विचार आज भी प्रासंगिक हैं और समाज में समानता, न्याय और शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए प्रेरणा देते हैं।
जननायक कर्पूरी ठाकुर की उपलब्धियाँ एवं योगदान
कर्पूरी ठाकुर (1924-1988) बिहार के एक प्रखर समाजवादी नेता, स्वतंत्रता सेनानी और गरीबों के मसीहा माने जाते हैं। उन्होंने अपने राजनीतिक जीवन में समाज के वंचित तबके, पिछड़ों और दलितों के उत्थान के लिए महत्वपूर्ण योगदान दिया।
मुख्य उपलब्धियाँ एवं योगदान
1. स्वतंत्रता संग्राम में भागीदारी
- कर्पूरी ठाकुर स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय रूप से शामिल हुए और 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष किया।
- इस दौरान वे जेल भी गए और अपना युवा जीवन राष्ट्र सेवा में समर्पित किया।
2. बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में योगदान
- 1970-71 और 1977-79 में दो बार बिहार के मुख्यमंत्री बने।
- उन्होंने अपने कार्यकाल में सामाजिक न्याय और पिछड़ों के हक में कई ऐतिहासिक फैसले लिए।
3. पिछड़ा वर्ग आरक्षण (Mandal Commission से पहले OBC आरक्षण लागू करने वाले पहले मुख्यमंत्री)
- 1978 में बिहार में पिछड़ा वर्ग के लिए 26% आरक्षण लागू किया।
- यह निर्णय समाज में समता और न्याय की दिशा में एक क्रांतिकारी कदम था।
- उनके आरक्षण फैसले के कारण उन्हें भारी विरोध का सामना करना पड़ा, लेकिन वे अपने सिद्धांतों से पीछे नहीं हटे।
4. शिक्षा सुधार
- मुख्यमंत्री रहते हुए स्कूलों और कॉलेजों में छात्रों को मुफ्त शिक्षा देने की व्यवस्था लागू की।
- उन्होंने गरीब एवं पिछड़े वर्ग के छात्रों को विशेष छात्रवृत्ति देने का निर्णय लिया।
- बिहार में मैट्रिक की परीक्षा से अंग्रेजी की अनिवार्यता खत्म की, जिससे हजारों गरीब बच्चों को उच्च शिक्षा प्राप्त करने का अवसर मिला।
5. शराबबंदी लागू करना
- मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने बिहार में पूर्ण शराबबंदी लागू की, ताकि गरीब एवं मजदूर वर्ग का शोषण रोका जा सके।
- यह फैसला उनके समाजवादी और नैतिक मूल्यों को दर्शाता है।
6. सामाजिक समरसता और सादगी
- वे एक बहुत ही सादगीपूर्ण जीवन जीते थे। मुख्यमंत्री रहते हुए भी उनके पास अपना खुद का मकान नहीं था।
- उन्होंने कभी कोई संपत्ति नहीं बनाई और अपनी पूरी जिंदगी समाज सेवा को समर्पित की।
निष्कर्ष
कर्पूरी ठाकुर गरीबों, पिछड़ों और दलितों के सच्चे नेता थे। उनकी नीतियों और फैसलों ने बिहार और भारत की राजनीति में सामाजिक न्याय की मजबूत नींव रखी। आज भी उन्हें "जननायक" के रूप में याद किया जाता है, और उनकी विचारधारा समाजवादी राजनीति के लिए प्रेरणास्रोत बनी हुई है।

विविध
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