संतकाव्य की विशेषताएँ/ प्रवृत्तियाँ
भक्ति काव्य की शुरूआत संत कवियों की रचनाओ से हुई। संत निर्गुणवादी है, अवतारवाद में आस्था नहीं रखते। संतो के लिए पृष्ठभूमि बनाने का काम सिद्धों-नाथों ने किया था। उनके भाव, भाषा, छंद सब पर पूर्ववर्ती सिद्धो - नाथों का ही प्रभाव है। इस प्रभाव की वजह से ही संतो के साहित्य को प्रभावोत्पन्न साहित्य कहा जाता है। सिद्धो- नाथों की परम्परा के कारण ही संत काव्य धारा में प्रायः निम्न कही जानी वाली जातियों से संत आए है। संतो के काव्य के निम्लतिखित विशेषताएँ है:-
संत अनुभव सम्मत बाते ही कहना पसंद करते थें। कबीर दास जी ने दो शब्दों का प्रयोग किया है -‘‘अनभैसाँचा और पारख पद।’’ इसमें साँचा के दो अर्थ है एक अनुभव साँचा और दूसरा अनभय साँचा। संत निर्भय होकर सच्चे अनुभव सत्य का संग्रह करते है फिर निर्भय होकर उसे व्यक्त करते हैं। बिना साहस और जोखिम के सत्य का अवगाहन नहीं किया जा सकता है। ये योगी देखी जानी हुई अनुभूतियों को चुनते हैं और फिर पारख पद पर कस कर उन्हें परखते है। उनके खडे़पन की थाह लेते है। कबीर की आस्था आँखिन देखी सच्चाई में है कागद लेखी में नही।
तू कहता कागद की लेखी, मै कहता आंखन की देखी।
मैं कहता सुरझावनहारी, तू राख्यो अरुझोई रे।।
पंडित वर्ग शास्त्र का सहारा लेकर अपना उल्लू सीधा करता है। वह तो पढ़ा हुआ तोता है। मुक्ति भला वह क्या जाने - पढ़त पढ़त केते दिन बीते, गति एकै नहिं जानी। वे तो झुठे वाद का प्रचार करते हैं।
संतो का मार्ग अनुभूतियों के निचोड़ की राह है और देखा, जाना, समझा हुआ है। उसमें अनुभूति और अभिव्यक्ति की एकता है, विचार और कर्म का तादात्म्य है।
संत ज्ञान मार्गी कहे जाते हैं लेकिन उनका पूरा काव्य ज्ञान से अधिक प्रेम पर बल देता है। संतों ने हीन कुलोत्पन्न होने के कारण जातीय धृणा के दंश को झेला था। उन्होनें धृणा से जो चोट खाई थी, उस चोट पर प्रेम का मरहम लगाया। संतो का प्रेम टूटे हुए हृदयों को जोड़ने का सेतु है। संतों का प्रेम समानता की भूमि पर बराबरी का प्रेम है। यह न केवल मनुष्यों की समानता बल्कि ईश्वर और मनुष्य के बीच की समानता है। रैदास कहते है ‘तु मोहि देखे हौं तोहिं देखौं प्रीति परस्पर होयी’।
संतो ने देखा था कि जो लोग समाज में नीच हैं, नीचा कर्म करते हैं, वे भी ईश्वर से उस बराबरी के व्यवाहार के कारण, उसके प्रति सच्चे स्नेह और निष्ठा के कारण समाज में अपना ऊँचा स्थान बना लेते हैं। रैयदास कहते है -
जाति भी ओछी, कर्म भी ओछा, ओछा कसब हमारा।
नीचे से फिर ऊँचा किन्हा, कह रैदास चमारा।।
संतों का प्रेम ‘ढाई आखर का प्रेम’ है। उस ढाई आखर के प्रेम को पढ़ने से ही कोई पंडित हो जाता है तो फिर पोथी पढ़ने की क्या जरूरत। यह प्रेम जितना सरल सीधा दिखाता है उतना है नहीं। संतो के प्रेम का मार्ग बड़ा कठिन मार्ग है । कोई भी व्यक्ति अपने को देकर ही अपने को पा सकता है। संतो के प्रेम का सबसे बड़ गुण है आत्म समर्पण।
कहे कबीर प्रेम का मारग सिर देना तो रोना क्या रे
संतो का ब्रह्म गुणो से अतीत अर्थात निर्गुण है। यह अमूर्त, अनादि और अनन्त है। यह अद्धैत ब्रह्म है और यह अद्धैत होकर भी प्रेम या भक्ति का विषय बनाया जा सकता है। संतो का अद्वैत ब्रह्म कही एक और अनेक से परे है, तो कहीं वह दो का समाहार है। कबीर कहते हैं -
‘नाति - स्वरूप - वरण नहिं जाके धटि-धटि रह्यौ समाइ’
यहाँ अद्वैत ब्रह्म ही कल्पित है जो रूप रंग, रेखा विहिन होकर भी सब में समाया हुआ है। दूसरी तरफ कबीर अपने अद्वैत ब्रह्म को दो के समाहार के रूप में भी व्याख्यायित करते हैं।
‘‘जल में कुंभ, कुंभ में जल है बाहर भीतर पानी
फुटा कुंभ जल, जल ही समाना यह तत्व कथो गियानी’’
संतो ने बाह्य भेद के आधार पर बने हुए वर्णभेद, जाति भेद, सम्प्रदाय भेद को खत्म करने के लिए ही ईश्वर के अद्वैत रूप की परिकल्पना की । इस ब्रह्म को साधने के लिए संतो ने नाम सेवा को महत्व दिया है। दरिया साहब कहते है -
सकल कवित्त का अर्थ है सकल बात की बात।
दरिया सुमिरन राम का कर लिजै दिन रात।।
संत योग साधना से होकर भक्ति साधना की ओर बढ़ते है। संतों ने अनुभव किया था कि योग जीवात्मा को परमात्मा से अत्यान्तिक रूप से जोड़ नहीं पाता है। समाधि टूटते ही जीवात्मा फिर पूर्व दशा में आ जाती है। इस विच्छेद को भावनात्मक सामिप्य देने के लिए ही संतो ने भक्ति मार्ग से प्रेम तत्व लिया । इस तरह योग और प्रेम भक्ति को जोड़कर अपनी निरापद साधना पद्धति विकसित की। इनका साधना मार्ग योग समन्वित भक्ति है। संतो ने योगियों से अक्खड़पन और भक्तो से सरलता लेकर अपने व्यक्तिव निर्मित किये इसलिए उनकी साधना में अकड़ भी है और पीघल जाने की तरला भी।
उलटबाँसी का सामान्य अर्थ है उल्टा कथन। इसे संधा भाषा भी कहते है संधा भाषा का अर्थ है अभिप्राय युक्त या अभिसंधि सहित। उलटबाँसियाँ दरअसल अध्यात्मिक मार्ग को इस जगत मार्ग से विपरीत बताने के लिए हैं। बिना प्रतीकों का अर्थ जाने इन उलटवासियों का अर्थ नहीं लगाया जा सकता। कबीर की एक उलटबाँसी हैः
एक अचम्भ देखा रे भाई, ठाड़ा सिंह चरावै गाई।
पहले पूत पीछे भई माई, चेला के गुरू लगै पाई।।
मैने एक अचम्भा देखा। सिंह खड़ा खड़ा गाय चरा रहा था। पहले पुत्र जन्मा, बाद में माता ने जन्म लिया। गुरू चेला के पैर लग रहा था। तात्पर्य - स्वभाव संस्कार एक प्रकार का सिंह है बुरी आदतों का अभ्यस्त हो जाने पर सब कुछ चीर फाड़ कर रख देता है पर यदि उसे साध लिया जाय तो गाय चरा लेने जैसा भोलापन प्रदर्शित करता है। फिर हानि के स्थान पर लाभ ही लाभ करता है। आत्मा माता है मन पुत्र। पर आत्मबोध मन को सुसंस्कृत बनाने के बाद होता है। इस प्रकार पुत्र पहले जन्मा और माता पीछे। आत्म ज्ञान गुरू है और संसार ज्ञान चेला। संसार ज्ञान के उपरांत आत्म ज्ञान होता है। इस प्रकार चेला का पैर गुरू नमन करता है।
ये संत अपने निर्धन श्रोताओं को विश्वास में लेने के लिए, उनपर से पंडित वर्ग के ज्ञान के आतंक को खत्म करना चाहते थें। इसलिए उनके लिए जरूरी था पंडित वर्ग को निरूतरित करना।
आगि जो लागा नीर मे कादो जलईया झाई।
उत्तर दक्षिण के पंडिता मुए विचारी विचारी।।
संतो की साधना पद्वति रहस्यमय है। इस अंधेरे मार्ग को आलोकित करने, अनदेखे मार्ग को जानने के लिए इन्हें गुरू पर निर्भर करना ही था। इन्हें गुरू संबंधि आस्था भी सिद्धों - नाथों की परम्परा से मिली है।
गुरु गोबिन्द दोउ खडे काके लागूँ पाँय ।
बलिहारी गुरु आपने गोबिन्द दियो बताय।।
कबीर आदि मार्ग दर्शक को गुरू कहते हैं और ईश्वर से अभिन्न दिखने वाले गुरू को सत् गुरू कहते है। इस संतगुरू ने ही रंगरेज बनकर कबीर के मन की चुनऱी रंगी है।
सतगुरू हैं रंगरेज, चुनर मोरी रंग डारी।
संतो ने पंचमकार का आध्यात्मिक अर्थ में प्रयोग किया है। संतो के यहाँ पंच मकार सिद्धों-नाथों की परम्परा से प्राप्त हुआ है। पंच मकार योग साधना के तत्व है, जिनमें मांस, मतस्य, मुद्रा, मदिरा और मैथुन के आध्यात्मिक अर्थ है। वैसे तो संतो ने सभी मकारों पर लिखा है लेकिन सबसे अधिक उन्होंने मदिरा की चर्चा की है। कबीर की मदिरा इस भाव की भठ्ठी में ज्ञान रूपी गुड़ और ध्यान रूपी महुए के चुआने से तैयार हुई है।
अवधू मेरा मन मतवारा।
उन्मुनि चढ़ा गगन -रस पीवै, त्रिभुवन भया अजियारा
गुड़करि ज्ञान ध्यान करि महुआ, पीवै पावन हारा।।
संत काव्य शास्त्रीय ज्ञान से वंचित थे। उन्होंने समस्त जीवन को ही अपने काव्य का विषय बनाया था इसलिए जीवों से संबंधित समस्त भाव और रस उनकी कविता में स्वतः आ जाते हैं। साधारणीकरण इनकी एक खास विशेषता है। इनके यहाँ श्रृंगार, शांत, अदभुत, वीर तथा व्यंग आदि रस मिल जाते है।
सुन्दरदास को छोड़कर अन्य संत छंद ज्ञान से भी रिक्त थे। सुन्दर दास ने दोहा के अतिरिक्त सोरठा, चौपाई, हरिपद, कवित्त, कुंडलियाँ आदि में भी अच्छी रचना की है। संतो ने अपनी साखियाँ दोहा छंद में लिखी और सबद की रचना गेय छंद में की है। उनका मानना है कि पुरा संसार सबद में बंधा है। चूकि ये छंदो का शास्त्रीय ज्ञान नहीं रखते थे इसलिए मात्राओं का निर्वाह नहीं हो पाया। संतों के लिए छंद साध्य नहीं थे, साधन मात्र थे।
भाषा के प्रयोग विस्तार से यह ज्ञात होता है कि संत कवि इस देश की भाषिक विविधता से परिचित थे तथा वे व्यापक समाज से जुड़ने को इच्छुक थे। इसलिए संतो ने संस्कृत के अभिजात्य रूप को नकार कर जनभाषा के सहज रूप को अपनाया। संतों की भाषा मूलतः जन भाषा है। इनका मानना हैं-
संसकिरत है कूप जल भाखा बहता नीर
आम जनों की भाषा में ये ऐसे प्रतीकों का निर्माण करते हैं ताकि इनका गुह्य अर्थ सहज बोधगम्य हो जाए। ये भाषा का मनचाहा व्यवहार करते हैं। उनकी भाषा अभिव्यंजना के हर ढंग से परिचित है। संतो ने मुक्तक काव्य रूप का ही इस्तेमाल किया है। मुक्तक काव्यरूप के छोटे से दायरे में भी असीम भाव को पीड़ो देना संतो की भाषा की सबसे बड़ी उपलब्धि हैं।
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