बौद्ध धर्म के महायान सम्प्रदाय की परिणति बज्रयान, मंत्रयान कालचक्रयान, सहजयान, तंत्रयान आदि रूप में हुई। इसी महायान सम्प्रदाय की विभिन्न अनुचेतनाओं पर रचित साहित्य को सिद्ध साहित्य की संज्ञा से अभिहित किया जाता है। शुक्ल जी ने सिद्ध रचनाओें को साहित्य कोटि में नहीं माना है क्योकि उनके अनुसार उनमें योगधारा के तत्व नजर आते हैं। हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार चूकि ये रचनाकार आगे के भक्तिकालीन साहित्यकार को प्रभावित करते है तथा उनकी रचनाओं में सामाजिक असंतोष और आध्यात्मिक प्रवृति का मिश्रण है, अत: वे उन्हें साहित्य कोटि में रखते है। राहुल सांकृत्यायन सिद्धों की रचनाओं के सामाजिक प्रभाव को देखकर इस काल को ही सिद्ध सामन्त काल कहते हैं। राहुल सांकृतयायन ने 84 सिद्धों के नाम का उल्लेख किया है जिसमें साहित्य का आरंभ वे सरहपा से मानते हैं। सरहपा की रचनाएँ सामाजिक है, भाषा सरल है तथा काव्य में भावों का प्रवाह है। इनकी रचनाओं पर यत्र-तत्र अपभ्रंश का प्रभाव भी देखा जा सकता है। यह सिद्ध साहित्य का बीज रूप है जो आगे शवरपा, लुइपा, डोम्भीपा, कनहपा आदि में नजर आता है। ये सभी उस समय की ब्राह्मण हिन्दू धर्म की वर्ण, जाति तथा अन्य विसंगतियों पर प्रहार करते थे। कनहपा के शब्दों में
आगम वेअ पुराणे, पंडित मान बदंति
पक्क सिरिफल अलिअ, जिम वाहेरित भ्रमयंति।
इन्होंने जन भाषा में अपना प्रचार किया। इनकी कृत्तियाँ हिन्दी साहित्य के लिए गौरव का विषय हैं। इन्होंने हिन्दी में कविता की। इन्होने जिन काव्य प्रवृत्तियों का आरम्भ किया उनका प्रभाव भक्तिकाल पर भी पड़ा। रूढि़यों के विरोध का अक्खड़पन जो कबीर आदि में मिलता है, इन सिद्ध कवियों की देन है। योग साधना के क्षेत्र में भी इन्होने गहरा प्रभाव डाला है। सामाजिक जीवन के जो चित्र इन्होंने उभारे, वे भक्त्किालीन काव्य के लिए सामाजिक चेतना की पीठिका बन गये। उनकी जन भाषा की रचनाएँ काफी कम उपलब्ध हो पाई हैं। फिर भी ये अंधकार को दूर कर युग को प्रकाशित करने के लिए चिंगारी जैसी है।
सिद्धों के पंचमकार पर लौकिक विश्वास से ऊब कर मच्छन्दर नाथ और गोरख नाथ ने नाथपंथ को जन्म दिया जो सरल जीवन पर आधारित पंथ था। राहुल जी इसे सिद्धों की परम्परा का हिस्सा मानते हैं जबकि हजारी प्रसाद द्विवेदी इनकी ख्याति की ओर ध्यान आकर्षित करते है। गोरखनाथ और मच्छन्दर नाथ सिद्ध और नाथ दोनो गिने जाते हैं। इस कारण यह भ्रम होता है कि सिद्ध और नाथ एक ही है परन्तु सिद्ध और नाथ में मूल अन्तर नारी भोग विश्वास को लेकर है। नाथ आदिनाथ को शिव मानते हैं यह भी बड़ा अन्तर है। अत: इसे हम शैव और बौद्ध् के बीच की धारा मान सकते हैं। नाथों द्वारा जन भाषा में दिए गए उपदेश एक ओर जहाँ ब्राह्मण हिन्दू धर्म की कुरितियों के खिलाफ हैं तो दूसरी ओर सिद्धों के भोग विश्वास के। ये साहित्य कोटि में रखी जाए या नही यह विवाद का विषय है। एक ओर जहाँ शुक्ल जी इसे साहित्य कोटि में नहीं मानते वहीं दूसरी ओर द्विवेदी जी ने इसे साहित्य श्रेणी में माना है। द्विवेदी जी का विचार अधिक न्याय संगत है चूँकि ये रचनाएँ तत्कालीन समय के समाज का सही परिचय देती है। इनमें उस समय की सामान्य जनता की आकांक्षाए, सपने और दुख दर्द प्रतिबिम्वित होते हैं। इनमें सिर्फ उपदेशात्मक, धार्मिक, सांप्रदायिक विचार ही व्यक्त नहीं हुए हैं लोक चेतना की भी अभिव्यक्ति हुयी है। ये रचनाकार जनता को सजग करने के लिए है। गोरखनाथ सहज जीवन की सीख देते है।
''हवकि न बोलिवा हवकि न चलिवा धिरे धरिवा पाँव
गर्व न करिवा सहजे रहिवा भनत गौरख रॉव''
ये अपने समय में सामाजिक, आर्थिक, धर्मिक भेदो को मिटा सामाजिक समरसता लाना चाहते हैं। इसी तरह ये कविताएँ तत्कालीन समाज के हिन्दू, मुस्लिम तनाव पर भी प्रहार करते हैं। गोरखनाथ के शब्दों में,
'' हिन्दू ध्यावे देहुरा, मुसलमान मसीत,
जोगी ध्यादवे परमपद, जहां देहरा न मसीत
हिन्दु आखें राम को मुसलमान खोदाई
जोगी आखे अलाव को तह राम अछै न खोदाई''
ये रचानाकार आगे के भक्तिकालीन कवियों को प्रभावित करते हैं और ऐसा लगता है कि इन्हीं रचनाओं के आगे की कड़ी कबीर आदि की रचनाएँ हैं। नाथ साहित्य में चौरंगीनाथ, गोपीचन्द भरथरी आदि के योगदान है और सब ने गुरू महिमा, इन्द्रिय निग्रह, प्राण साधना, कुंडलिनी आदि पर रचनाएँ दी। रचनाएँ काफी कम उपलब्ध हो पाती हैं फिर भी इनकी रचनाओं में सामान्य जनता की तकलीफें बोलती हैं उनके दुख दर्द के साथ-साथ इन्हीं में उनके सपने कुलबुलाते हैं।
जैनों की रचनाओं में उस समय के सामान्य जनता की आकांक्षाएं, सपने और दुःख दर्द प्रतिबिंबित होते हैं। इन रचनाओं में सिर्फ उपदेशात्मक, धार्मिक सांप्रदायिक विचार ही व्यक्त नहीं हुए हैं लोक चेतना की भी अभिव्यक्ति हुई है। हिन्दू धर्म के बाह्य आडम्बरो, जातिभेद के विरूद्ध ये रचनाएँ सामान्य जनता को सजग करती हैं। धार्मिक रासो काव्यो की रचना जैन कावियों द्वारा अपने धर्म के प्रचार के लिए की गयी। जिसमें जिनदत्त सूरि रचित ‘उपदेश रसायन रास’, शालिभद्र सूरि कृत ‘भरतेश्वर बाहुबलि रास’ उल्लेखनीय है। जैन कवि अपने रासो ग्रंथो में जैन धर्म संबंधी विश्वासो की अभिव्यक्ति करते है। इनकी रचनाओं में नैतिक शिक्षा का भरमार है।
हेमचंद्र 12वीं शताब्दी के श्वेताम्बर आचार्य थें। ये गुजरात के चौलुक्य शासक जयसिंह सिद्ध्राज और कुमार पाल के समकालीन तथा दोनो शासक के आश्रय संरक्षण में रहें। ये संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश के विद्वान थे और तीनों का समावेश अपनी रचनाओं में करते हैं। इन्होनें कई रचनाएँ दी आदिपुराण, त्रिशष्ठीश्लाका पुरूष सिद्ध्हेम, कुमारपालचरित्र, प्राकृत व्याकरण आदि। हेमचन्द की रचनाओं में साहित्य की विभिन्न प्रवृत्तियों का मेल है। हेमचन्द्र के व्याकरण में जो अपभ्रंश के दोहे संकलित है, उनमें श्रृंगार और वीर काव्य का परिचय मिलता है। हेमचन्द्र के अपभ्रंश के उद्धरणों में लोक भावनाएँ भरी पड़ी है। नायिका वीर पति की कामना करती है यहाँ तक कि वह पति के युद्ध् में वीर गति को प्राप्त होने पर गर्व करती है -
भल्ला हुआ जु मारिया बहिणि महारा कंतु।
लज्जेजं तु वयसिअहु जइ भग्गा घरु एंतु॥
ये रचनाएँ उस समय लिखी जा रही थी जब देश बाहरी आक्रमण झेल रहा था और भारतीय रजवारे सामन्तवाद की विकृतियों से ग्रस्त थे। इन रचनाओं में ऐसी नायिका का वर्णन है, जो युद्ध् में अपने प्रिय के वीरगति प्राप्त करने पर आँसू नहीं बहाती बल्कि इसे अपना सौभग्य मानती है। उनका मन युद्ध् विहीन माहौल में नही रमता है। दूसरी तरफ ये प्रेमिकाएँ अपने प्रिय के वियोग में दुवली भी होती है और प्रिय के न आने पर उनकी अंगुलियों दिन गिनते-गिनते जर्जरित हो जाती है। हेमचन्द्र ने पौराणिक कथाओं, धार्मिक रूढियों, ऐतिहासिक चरित्रों को भी अपनी कविताओं में ढाला। वे धार्मिक रूढि़यों पर भी प्रहार करते है :
'' लाइव मुनि है वि भंतडी ते मणिअडा गणपति
अखई निर्मल परम-पइ अज्जहवि त्य ड न लहंति''
प्राय: मुनियों को भी भ्रांति हो जाती है, वे मनका गिनते हैं। अक्षय निराभय परम पद में आज भी लौ नहीं लगा पाते। हेमचन्द्र के नीति के दोहे भी अद्वितीय हैं और अन्य दोहों अलावा ये दोहे भी ऐसे प्रतीत होते हैं मानों ये भक्त्किालीन कवियों की रचनाओं के पहले के अध्याय हैं। हेमचंद्र के अपभ्रंश पर लोक तत्व का काफी अधिक प्रभाव पड़ा और इस कारण हेमचंद्र की भाषा अवहट्टा भी है। काव्य में चमत्कार के उदाहरण भी हेमचंद्र की कविताओं में मिलते हैं। इन दोहों की अभिव्यक्ति इतनी निश्छल और सहज है कि इसे लोक साहित्य की कोटि में रखा जाता है।
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