हमारे साहित्य का मध्यकाल दो भागो में विभक्त है। भक्तिकाल और रीतिकाल मध्यकाल के दो हिस्से हैं। भक्तिकाल के आध्यात्यिक प्रेम की मिटती हुई छाया ने मानवीय प्रेम को प्रस्तावित किया। प्रेम और भक्ति की अद्वैत अनुभूति के बीच से प्रेम का संबंध श्रृंगारिक मनोवृत्ति से जुड़ता गया। रीतिकाल में साहित्य और दरबारी संस्कृति के बीच बड़ा गहरा संबंध है। इस काल के कवि अपने आश्रयदाता सामंतो के यहाँ रहते थे। उन्हीं के मनोरंजन के लिए साहित्य रचना करते थे। कवि अब सहज अनुभूति की प्रेरणा से काव्य रचना नहीं करते थे। साहित्य कवियों के अर्थ प्राप्ति का साधन हो गया था। इस स्थिति में रीतिकाव्य में रसिकता और शास्त्रीयता का योग हुआ जो समांतो द्वारा पोषित थी और शास्त्र द्वारा रक्षित। इन कवियों के मानसिक गठन में किसी प्रकार का कोई द्वन्द्व नहीं मिलता है। उन्होंने जीवन के प्रश्न से अलग हटकर विशुद्ध कला के प्रश्नों को अपने साहित्य की बुनियाद में रखा।
हिन्दी साहित्य के ‘‘उत्तरमध्यकाल’’ के नाम को लेकर विद्वानों में विवाद है। इस काल को नामांकित करने के लिए तीन चार नाम सुझाए गए हैं। रीतिकाल के लिए विभिन्न विद्वानों द्वारा सुझाएँ गए नाम निम्नवत् हैं -
मिश्रबंधु - अलकृंत काल
आचार्य रामचंद्र शुक्ल - रीतिकाल
रामकुमार वर्मा - कलाकाल
डॉ रसाल - काव्यकला काल
आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र - श्रृंगार काल
सर्वप्रथम ‘‘मिश्रबंधु’’ ने उस काल को ‘‘अलकृंत काल’’ कहा। मिश्रबंधु के बाद आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने व्यवस्थित इतिहास अध्ययन और इतिहास दृष्टि के आधार पर उत्तर मध्यकाल को रीतिकाल नाम से संबोधित किया। शुक्ल जी के बाद के इतिहासकारों में रामकुमार वर्मा ने उस युग की संवेदना के मूल में कलात्मक गौरव को रेखांकित करते हुए ‘कलाकाल’ की संज्ञा दी, डॉ रसाल ने इस युग को ‘काव्यकला काल’ कहना अधिक उपयुक्त माना है। आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र इस काल को श्रृंगार काल नाम से संबोधित करते है।
‘अलंकृत काल’, ‘कलाकाल’ जितने भी नाम दिए गए हैं, वे सभी नाम रीतिकाल की अपेक्षा सीमित अर्थ देने वाले हैं। यदि अलंकृत काल कहते हैं, तो इससे मात्र अलंकार का संकेत मिलता है। अलंकृत शब्द से युग की कविता का ही विश्लेषण हो सकता है। उससे लक्षण ग्रंथों का विश्लेषण नहीं हो सकता, जो इस काल में उपलब्ध होते हैं। यह नाम पूरे युग की मानसिक बनावट का प्रतिनिधित्व नहीं कर पाता है। कलाकाल से मात्र साहित्य कला का नहीं, कला के विभिन्न रूपों का बोध होता है। इस नाम से कोई साहित्यिक प्रवृत्ति नहीं उभरती है। साहित्य सृजनात्मक कर्म है लेकिन वह कलाकर्म की कोटि तक इस युग में ही पहुँचता है। किन्तु यह नाम उस काल खंड के साहित्य की आंतरिक या बाह्य संवेदना की मूलभूत विशेषताओं को प्रतिपादित नहीं करता। ‘‘काव्य कला काल’’ एक समान्य नाम है। कला काल नाम में काव्य को जोड़कर साहित्य और कला की विभिन्नता की ओर संकेत किया गया है।
मुख्य विवाद रीतिकाल और श्रृंगार काल को लेकर है। आचार्य शुक्ल के मन में रीतिकाल नामकरण करते हुए भी श्रृंगार काल का विकल्प उपलब्ध था। उन्होंने लिखा है ‘‘ वास्तव में श्रृंगार और वीर इन्हीं दो रसो की कविता इस काल में हुई। प्रधानता श्रृंगार की ही रही। इससे उस काल को रस के विचार से कोई श्रृंगार काल कहे तो कह सकता है।
रीति शब्द का प्रयोग संस्कृत काव्यशास्त्र में एक विशिष्ट मूल्यांकन पद्धति के लिए हुआ था। हिंदी में रीतिकाव्य के पूर्व इस शब्द का प्रयोग बहुत कम मिलता है। जगदीश गुप्त के अनुसार रीति शब्द का प्रयोग तुलसीदास के पार्वती मंगल में पद्धति के अर्थ में हुआ है। भिखारीदास ने ‘‘काव्य की रीति सिखौ सुकबीन सों’’ में काव्य सिद्धात या काव्य रचना के नियम या पद्धति के अर्थ में इस शब्द का प्रयोग किया है। शुक्ल जी ने उन सारे अर्थों को रीतिकाल में समाहित कर दिया है।
रीति शब्द से शास्त्रीय मार्ग या पद्धति के अतिरिक्त रचनात्मक कौशल एवं काव्य के विभिन्न घटकों का भी बोध होता है। साहित्य और साहित्य से परे पद्धति, कौशल, श्रृंगारिकता, नायिका भेद, कलात्मकता आदि के अर्थ में रीतिकाल नाम लिया जाता है। सारांश रूप में कह सकते हैं, रीतिकाल शब्द में अर्थ विस्तार हुआ है। यह मात्र शास्त्र का पर्याय न होकर श्रृंगारिक संवेदना को भी सूचित करता है।
आधुनिक युग के रीतिवादी आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र के द्वारा प्रस्तावित नाम श्रृंगार काल युग संवेदना की दृष्टि से उस काल की प्रधान मनोवृत्ति को व्यक्त करता है, लेकिन यह नाम साहित्य की सीमाओं से आगे नहीं जा पाता। आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने श्रृंगार काल कहने के पीछे यह तर्क दिया है कि रीतिकाल कहने से रीतिमुक्त कवियो की उपेक्षा होती है। रीतिकाल की जो स्वच्छंदतावादी धारा है जिसमें धनानंद, बोधा, आलम, ठाकुर जैसे कवि हैं, रीतिकाल कहने से इन कवियों की रचनाधारा उसमें समाहित नहीं होती। लेकिन श्रृंगार काल कहने से भी सभी कवियो को उचित प्रतिनिधित्व नहीं मिलता। भूषण जैसे वीर रस के कवि और कुछ भक्त कवि फिर भी छूट जाते है। इसके अतिरिक्त काव्यांग विवेचन की दृष्टि से लिखित अनेक महत्वपूर्ण और प्रसिद्ध लक्षण ग्रंथ उसकी सीमा में नहीं आ पाते। काव्यांग विवेचन रीतिकाल की एक प्रमुख प्रवृत्ति है।
आचार्य शुक्ल की इतिहास दृष्टि, एक युग समीक्षक और संस्कृति समीक्षक की दृष्टि है। शुक्ल जी रीतिकाल के विश्लेषण में साहित्य के साथ उस युग की राजनीतिक, समाजिक, आर्थिक और धार्मिक परिस्थिति पर भी विचार करते हैं। वे नामकरण के द्वारा पूरे युग और समूची सामंती संस्कृति की विशेषता को एक नाम में बाँधना चाहते है। इसलिए उनके यहाँ शब्दों का अर्थ विस्तार होता है। रीति मात्र पद्धति का पर्याय नहीं होकर एक युग की सोच और उस युग के मानसिक ढाँचे को प्रतिबिम्बित करता है। उनके द्वारा दिए गए नाम रीतिकाल में व्यापक अर्थ की व्यंजना है। जिसमें जीवन और समाज की कई विशिष्टताओं को प्रतिपादित करने की शक्ति है। साथ ही रीतिकाल नाम हिन्दी के पाठकों की पाठकीय संवेदना का हिस्सा बन गई है।
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