राष्ट्रीय आन्दोलन का पहला चरण: राष्ट्रीयता का जागरण
वास्तविक रूप से कांग्रेस की स्थापना के वर्ष 1885 से राष्ट्रीयता के जागरण की शुरुआत मानी जाती है| 1885-1905 AD के काल में राष्ट्रीयता के जागरण कई कारण रहे है –
सामाजिक धार्मिक सुधार आन्दोलन
पाश्चात्य शिक्षा
प्रेस/संचार साधन का विकास
मध्यम वर्ग का उदय
ब्रिटिश शासन के आर्थिक परिणाम
कांग्रेस के स्थापना के पूर्व की राजनीतिक संस्थाओं में भी जागरण की चिनगारी दिखती है जिनमें कुछ प्रमुख संस्थाएँ निम्न हैं-
1838
लैंड होल्डर्स सोसायटी
कलकत्ता
प्रसन्न कुमार ठाकुर, राधाकांत देव
1843
बंगाल ब्रिटिश एशोसियेशन
कलकत्ता
द्वारकानाथ टैगोर
भारतीय जनता के वास्तविक स्थिति जानने का प्रयास
1851
ब्रिटिश इंडिया एशोसिएशन
28 अक्टूबर 1851
कलकत्ता
राजेन्द्र लाल मिश्र, राधाकांत देव, देवेन्द्र नाथ टैगोर तथा हरिश्चंद्र मुखर्जी
राजनैतिक अधिकारों की मांग को लेकर स्थापित
1866
ईस्ट इण्डिया एशोसियेशन
लंदन
दादा भाई नौरोजी
भारतीयों की समस्या से ब्रिटिश जनमत को प्रभावित करना
1875
इंडिया लीग
बंगाल
शिशिर कुमार घोष
राष्ट्रवाद और राजनैतिक शिक्षा
1876
इंडियन एशोसियेशन
26 जुलाई 1876
कलकत्ता
सुरेन्द्र नाथ बनर्जी, आनंद मोहन बोस
काग्रेस के पूर्व अखिल भारतीय स्तर की संस्था
सिविल सेवा परीक्षा सुधार एवं इल्वर्ट बिल को लेकर आंदोलन
1883 में नेशनल कॉन्फ्रेंश नामकरण
1877
पूना सार्वजनिक सभा
पूना
महादेव गोविन्द रानाडे
1884
मद्रास महाजनसभा
मद्रास
राघव चेटियार, सुब्रमण्यम अय्यर, आनंद चारलू
1885
बम्बई प्रसीडेंसी एसोशिएशन
फिरोजशाह मेहता, बद्दरुद्दीन तैयबजी एवं के० टी० तैलंग
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस
पहला सम्मलेन
कांग्रेस - लोगों का समूह (शाब्दिक अर्थ)
ए० ओ० ह्युम द्वारा 1884 में भारतीय राष्ट्रीय संघ की स्थापना की
संघ का पहला अधिवेशन पूणे में प्रस्तावित परन्तु अकाल के कारण आयोजन स्थल परिवर्तित कर बम्बई निर्धारित
वायसराय लार्ड डफरीन के काल में संघ का पहला अधिवेशन बम्बई के गोकुल दास तेजपाल संस्कृत विद्यालय में
दादा भाई नैरोजी के सुझाव पर भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस नाम
72 सदस्यों का सम्मलेन (कलकत्ता में आयोजित नेशनल कान्फ्रेंस की बैठक के कारण सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने भाग नहीं लिया)
महासचिव – ए० ओ० ह्युम
अध्यक्ष – व्योमेश चंद्र बनर्जी
अफ्रीका और एशिया में ब्रिटेन के हितों की रक्षा करने के लिए भारतीय सेना और भारत के संसाधनों का प्रयोग न करने की बात
दूसरा सम्मलेन
1886 कलकत्ता
434 सदस्यों के सम्मलेन की अध्यक्षता दादाभाई नैरोजी ने की
सुरेन्द्रनाथ बनर्जी के नेशनल कान्फ्रेंस का कांग्रेस में विलय
तीसरा सम्मलेन
1887 मद्रास
607 सदस्यों के सम्मलेन की अध्यक्षता बदरूद्दीन तैयबजी (पहले मुसलमान) ने की
चतुर्थ सम्मलेन
1888 इलाहाबाद
1248 सदस्यों के सम्मलेन की अध्यक्षता जार्ज युल (पहले विदेशी) ने की
कुछ लोगो का मानना है कि डफरीन के निर्देश पर ह्युम द्वारा सुरक्षा वाल्व के रूप की गयी
लाला लाजपत राय ने यंग इंडिया (1916) में कांग्रेस को डफरीन के दिमाग की उपज बताया
1885 -1905 तक कांग्रेस पर उदारवादी कहे जानेवाले नेताओं का वर्चस्व (दादाभाई नैरोजी, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, गोपाल कृष्ण, फिरोजशाह, दीनशावाचा, मदनमोहन)
1887 अपनी माँग मनवाने के लिए दादाभाई नैरोजी की अध्यक्षता भारतीय सुधार समिति का गठन
1890 कलकत्ता विश्वविद्यालय की पहली महिला स्नातक कादम्विनी गांगुली ने कांग्रेस अधिवेशन को संबोधित किया|
उपलब्धि
1886 –लोक सेवा आयोग की स्थापना – भारतीयों की भर्ती के तरीके के जांच के लिए
1892 – वैवलाई आयोग –भारतीय व्यय की समीक्षा
1892 – भारतीय परिषद अधिनियम- निर्वाचित स्थानीय निकायों को कुछ अधिकार दिये गए
आर्थिक मुद्दों पर चर्चा के कारण आर्थिक राष्ट्रीयतावादी युग
दादाभाई नैरोजी – धन के निष्कासन का सिद्धांत
रानाडे – आधुनिक औद्योगिक विकास का महत्व समझाया
रमेश चंद्र दत्त – Economic History of India
राष्ट्रीय आन्दोलन का दूसरा चरण: नवराष्ट्रवाद/उग्रराष्ट्रवाद के उदय का युग 1905-1919
स्वदेशी आन्दोलन तथा क्रांतीकारी आन्दोलन का युग
उग्रवादी नेता
बालगंगाधर तिलक (महाराष्ट्र) – केसरी
अरविन्द घोष (बंगाल) -भवानी मंदिर
विपिनचंद्र पाल (बंगाल) – न्यू इंडिया
लाला लाजपतराय (पंजाब)- पंजाबी
प्रेरणा श्रोत
विवेकानंद – कामजोडी पाप है, कमजोडी मृत्यु है, हे भगवान हमारा राष्ट्र कब स्वतंत्र होगा|
तिलक -1884 - गणपति महोत्सव
1886 – शिवाजी महोत्सव
स्वराज, स्वदेशी और वहिसकार का नारा सर्वप्रथम दिया
हमारा राष्ट्र एक वृक्ष की तरह है जिसका मूल तना स्वराज है और स्वदेशी तथा वहिष्कारआदि उसकी शाखाएँ हैं
1904, 05 एवं 06 के कांग्रेस अधिवेशन में सांवैधानिक सुधार तथा स्वराज के उद्देश्य की घोषणा
बंगाल विभाजन (1905 –कर्जन)
करण – प्रशासनिक सुव्यवस्था, राष्ट्रीय चेतना को बाटना, धार्मिक विभाजन
निर्णय की घोषणा -20 जुलाई 1905
स्वदेशी आंदोलन की घोषणा एवं वहिष्कार का प्रस्ताव - 07 अगस्त 1905
योजना प्रभावी- 16 अगस्त 1905
16 अक्टूबर 1905 –शोक दिवस – उपवास, वंदेमातरम् का गायन, राखी बांधी गयी
गोखले ने कहा यह एक निर्मम भूल है|
1905 बनारस कांग्रेस अधिवेशन (गोखले)- स्वदेशी और वहिष्कार का अनुमोदन
पूरे देश में तिलक, लाजपत राय , अरविन्द घोष ने प्रसारित किया
विदेशी वस्त्र, स्कूल, अदालत, उपाधि, नौकरी आदि का बहिस्कार
स्वदेश बांधव समिति की स्थापना बारीसाल के अध्यापक अश्विनी कुमार दत्त ने की
15 अगस्त १९०६ को राष्ट्रीय शिक्षा परिषद की स्थापना
पी०सी० राय ने बंगाल केमिकल्स एंड फार्मास्यूटिकल्स की स्थापना की
टैगोर ने अम्मार सोनार बांगला गीत लिखा
पहली बार महिलाओं ने सशक्त भागीदारी की
किसान और बहुसंख्यक मुसलमान आन्दोलन से बाहर रहे
1908 में तिलक, दत्त और कृष्ण कुमार के गिरफ्तार कर निर्वासित किये जाने के कारण आन्दोलन धीमा
पहला सशक्त राष्ट्रीय आन्दोलन
गाँधी - “भारत का वास्तविक जागरण बंगाल विभाजन के उपरान्त
1906 –कांग्रेस अधिवेशन - कलकत्ता
अध्यक्ष के पद को लेकर हुए विवाद का निपटारा दादाभाई को अध्यक्ष बनाकर दूर हुआ
स्वदेशी, बहिष्कार, राष्ट्रीय शिक्षा और शासन से जुड़े प्रस्ताव पारित
दादाभाई नैरोजी ने पहली बार स्वराज शब्द का उल्लेख किया
तिलक ने कांग्रेस को चापलूसों का सम्मेलन और उसके अधिवेशन को छुट्टियों का मनोरंजन बताया| यदि हम इसी तरह वर्ष में एक बार मेढ़क की भाँती टर्र –टर्र करेंगे तो हमें कुछ नहीं मिलेगा
लाला लाजपत राय ने कांग्रेश सम्मेलनों को शिक्षित भारतीयों का वार्षिक राष्ट्रीय मेला कहा
मुस्लिम लीग की स्थापना (1906)
बंगाल बिभाजन की घोषणा के बाद 1 अक्टूबर 1906 को आगा खां के नेतृत्व मे वायासराय लार्ड मिंटों से शिमला में मिल कर मुसलामानों के राजनीतिक अधिकार की रक्षा का आश्वासन प्राप्त किया
ढाका के नवाब सलीमुल्लाह (संरक्षक अध्यक्ष) के नेतृत्व में 30 दिसम्बर 1906 को ढाका में अखिल भारतीय मुस्लिम लीग की स्थापना की
पहले अध्यक्ष- बकार उल मुल्क मुस्ताक हुसैन
लीग के 1908 में आयोजित अमृतसर अधिवेशन में मुसलमानों के लिए पृथक निर्वाचन मंडल की मांग जिसे 1909 के मार्ले मिन्टो सुधार में शामिल किया गया
1907 –कांग्रेस अधिवेशन – सूरत
उग्रवादी लाला लाजपत राय को एवं उदारवादी रास बिहारी घोष को अध्यक्ष बनाना चाह रहे थे
तिलक द्वारा याचिका एवं याचना की नीति का विरोध, गरम दलवाले स्वदेशी में सभी वर्गों की भागीदारी एवं स्वदेशी का विस्तार पुरे देश में करना चाहते है, नागपुर में अधिवेशन आयोजित करना चाहते थे
गहरा वादविवाद
1908 –कांग्रेस अधिवेशन – इलाहावाद उग्रवादी सात वर्ष के लिए निष्काशित
1909 मार्ले मिन्टो सुधार
गोखले की सलाह को स्थान
उद्देश्य
उदारवादी को खुश करना
सांप्रदायिकता की भावना को दृढ़ करना –सांप्रदायिक निर्वाचन पद्धति की सुविधा
क्रांतिकारी राष्ट्रवाद का दमन करना
वायसराय मिन्टो –याद रखना कि पृथक निर्वाचन क्षेत्र बनाकर हम ऐसे घातक बिष के वीज बो रहे हैं जिसकी फसल बड़ी कड़वी होगी
दिल्ली दरवार
12 दिसम्बर 1911
सम्राट जार्ज पंचम और महारानी मेरी ने भाग लिया
बंगाल विभाजन रद्द
दिल्ली नई राजधानी घोषित
उड़ीसा बंगाल को बिहार से अलग करने का निर्णय
हार्डिंग बम काण्ड
23 दिसंबर 1912
लम्बे जुलुस में समारोह पूर्वक हाथी पर सबार होकर हार्डिंग का दिल्ली में प्रवेश
चांदनी चौक से जुलुस गुजरने के क्रम में महिला के वेशधारी बसंत कुमार विश्वास ने पंजाब नेशनल बैंक के उपर की छत से बम फेका
वायसराय घायल
रासबिहारी बोस प्रणेता
दीनानाथ सरकारी गबाह बन गया
दिल्ली षड्यंत्र केस के तहत बसंत कुमार विश्वास, बाल मुकुंद, अवध बिहारी एवं मास्टर अमीर चंद को फाँसी जबकि रासबिहारी गिरफ्तारी से बचते हुए प्रियनाथ ठाकुर का छद्म नाम लेकर जापान फ़रार
4 अगस्त 1914 को प्रथम विश्वयुद्ध की शुरुआत
केन्द्रीय शक्तियाँ –जर्मनी, आस्ट्रिया, हंगरी और उस्मानिया
मित्र देश ब्रिटेन, फ्रांस, रूस, इटली एवं जापान
भारतीय कांग्रेस ने ब्रिटेन का समर्थन किया
हकीम अजमल खां, मोहम्मद अली,हसन इमाम – मुसलमानों को राष्ट्रीय आन्दोलन में शामिल होना चाहिये
1912 में कांग्रेस का अधिवेशन बांकीपुर (पटना) में हुआ जिसके अध्यक्ष आर० एन० मुधोलकर थें
कामागाटामारु (1914)
कनाडा सरकार ने भारतीयों को भारत से सीधा (किसी अन्य देश के माध्यम से नहीं) कनाडा आने की अनुमति दी
नवम्बर 1913 कनाडा के सर्वोच्च अदालत द्वारा 35 भारतीयों को प्रवेश की अनुमति दी
सिंगापुर के एक भारतीय मूल के व्यवसायी ने इस निर्णय से प्रभावित होकर भाप शक्ति से चलने वाले एक जापानी समुद्री जहाज कामागाटामारु को लिया और उसपर 376 यात्रियों को बैठाकर 4 अप्रैल 1914 को वेंकूवर के लिए रवाना हुए|
23 मई को जहाज वेंकूवर पहुँची
कनाडा सरकार का प्रतिबंध/ पुलिस की घेराबंदी
यात्रियों के अधिकार हेतु शोर कमिटी का गठन – हुसैन रहीम,बलबंत सिंह, सोहन लाल
चंदा इकठ्ठा कर कानूनी लड़ाई
अमेरिका में भी प्रवासी भारतीयों द्वारा विरोध
जहाज को वेंकूवर की जल सीमा को छोड़ना पड़ा| इस बीच प्रथम विश्वयुद्ध छिड़ जाने के कारण जहाज को सीधे कलकत्ता पहुचने का आदेश
27 सितम्बर 1914 को जब जहाज कोलकाता के बजबज घाट पहुँचा तो पुलिस यात्रियों के बीच संघर्ष| फायरिन्ग में 19 लोगों की मौत
लखनऊ समझौता (1916)
दिसम्बर 1916 में मुस्लिम लीग एवं भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में समझौता
मुसलामानों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्रों तथा जिन प्रान्तों में वे अल्पसंख्यकथे, वहाँ अधिक आनुपातिक प्रतिनिधित्व देने पर समझौता
कांग्रेस ने 29 दिसंबर एवं लीग ने 31 दिसम्बर 1916 को इसे अपनाया
अम्बिका चरण मजुमदार की अध्यक्षता में हुए इस कांग्रेस अधिवेशन में उग्रवादी एवं उदारवादी पुन: मिल गए
मोहम्मद अली जिन्ना और बाल गंगाधर तिलक की समझौते में अहम भूमिका
होमरूल (स्वशासन) लीग आन्दोलन
16 जून 1914 – तिलक आठ वर्ष बाद रिहा
तिलक ऐनी बेसेंट एवं एस० सुब्रमण्यम अय्यर के साथ मिलकर आयरलैंड की तर्ज पर होमरुल आन्दोलन शुरू
दोनों होमरूल लीगों ने पुरे भारत में इस मांग को प्रचारित किया कि युद्ध के बाद भारत को होम रुल या स्वशासन दिया जाए
तिलक- होम रुल मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर रहूँगा|
21 जनवरी 1914 – कौमनवील में ऐनी बेसेंट- ब्रिटिश राष्ट्रमंडल के अंतर्गत स्वशासन के उद्देश्य को ध्यान में रखकर धार्मिक स्वतंत्रता, राष्ट्रीय शिक्षा, सामाजिक और राजनीतिक सुधारों का अपना कार्यक्रम प्रस्तुत किया|
28 अप्रैल 1916 को तिलक ने वेलगांव (पूना) में होमरूल लीग के स्थापना की
तिलक के पाँच माह बाद सितम्बर 1916 में ऐनी बेसेंट द्वारा मद्रास में होमरूल लीग के स्थापना की गयी| अडयार (मद्रास) – मुख्यालय| जार्ज अरुंडेल को सचिव बनाया
तिलक - कर्नाटक, महाराष्ट्र (बम्बई को छोड़कर), मध्य प्रान्त , बरार
गोपाल कृष्ण गोखले- सर्वेन्ट ऑफ इंडिया सोसायटी के सदस्यों को सदस्यता की अनुमति नहीं
जून 1917 में ऐनी वेसेन्ट, जार्ज अरुंडेल, बी० पी० वाडिया गिरफ्तार
विरोध में सर एस० सुव्रमनयम अय्यर ने नाईट की उपाधि वापस की
जन दबाव में ऐनी वेसेन्ट को स्वतंत्र करना पड़ा
1920 में अखिल भारतीय होम रुल लीग ने महात्मा गाँधी को अध्यक्ष के रूप मे निर्वाचित किया| कालान्तर में होमरूल (स्वशासन) लीग का कांग्रेस में विलय
1917 के कलकत्ता अधिवेशन में पहली महिला अध्यक्ष ऐनी वेसेन्ट - भारत अब अनुग्रहों के लिए अपने घुटने पर नहीं बल्कि अधिकारों के लिए अपने पैरो पर खड़ा है|
1918 में मांटेग्यू चेम्सफोड सुधार की घोषणा के बाद वेसेन्ट समर्थक आन्दोलन वापस ले लिए | तिलक को इंडियन अनरेस्ट के लेखक चिरोल वेलेंटाईन पर मानहानि के मुकदमा हेतु लंदन जाना पड़ा
मांटेग्यू (भारत सचिव) घोषणा
शिक्षित भारतीयों की मांग निसंदेह उनका अधिकार है तथा उन्हें उत्तरदायित्व संभालने और आत्म निर्णय का अवसर दिया जाना चाहिए|
भारत सरकार अधिनियम 1919
मांटेग्यू चेम्सफोड की घोषणा आधार
प्रान्तों में द्वैध शासन प्रणाली
प्रांतीय विषय आरक्षित और हस्तांतरित में विभाजित
पहली बार भारतीय विधानमंडल को बजट पास करने का अधिकार
पहली बार भारत में लोक सेवा आयोग की स्थापना का प्रावधान
पृथक निर्वाचन का विस्तार कर सिख और गैर ब्राह्मणों को इसमें शामिल किया गया
10 वर्ष बाद समीक्षा हेतु आयोग ( साइमन कमीशन)
क्रांतिकारी आन्दोलन
महाराष्ट्र
महाराष्ट्र से शुरुआत -22 जून 1897 को दामोदर तथा बालकृष्ण चापेकर ने पुणे के प्लेग कमिश्नर रैंड तथा एमहर्स्ट की ह्त्या कर दी
महाराष्ट्र में तिलक की प्रेरणा से आर्य बांधव समिति क्रांतीकारी संस्था स्थापित हुई|1899 में विनायक दामोदर सावरकर ने मित्र मेला की स्थापना की| 1904 में इसका नामकरण अभिनव भारत समाज के नाम किया गया| महाराष्ट्र के क्रांतीकारी में इसका प्रथम स्थान है|अन्य सहयोगी उनके भाई गणेश दामोदर सावरकर व नारायण दामोदर सावरकर
अभिनव भारत समाज के मुख्य सदस्य लक्ष्मण
करकरे ने नासिक के जिला मजिस्ट्रेट जैक्सन की हत्या कर दी| नासिक षडयंत्र केस के तहत गणेश एवं अन्यों को आजीवन कारावास
बंगाल
अनुशीलन समिति 1902
मिदनापुर में ज्ञानेन्द्र नाथ वसु द्वारा
कलकत्ता में जतींद्रनाथ बनर्जी, बारीन्द्र नाथ घोष
बंगाल विभाजन के बाद क्रांतिकारी समाचार पत्र –
संध्या- ब्रह्म बांधव उपाध्याय
वन्दे मातरम – अरविन्द घोष
युगांतर –भूपेन्द्र नाथ दत्त
हेमचन्द्र कानूनगो ने 1908 में मानिकतल्ला में बम बनाने का कारखाना खोला| मानिकतल्ला पर छापे में 34 लोगों की गिरफ्तारी| बारीन्द्र को आजीवन कारावास तथा साक्ष्य के अभाव में अरविंद को छोड़ा गया
मुजफ़्फ़रपुर बमकांड
30 अप्रैल, 1908 को मुजफ़्फ़रपुर के तत्कालीन ज़िलाधीश किंग्सफ़ोर्ड की हत्या के उदेश्य से खुदीराम बोस और उनके साथी प्रफुल्ल चाकी ने बम फेंका था, जो असफल रहा।
हमले में श्रीमति केनेडी और उनकी बेटी मारी गयी
प्रफुल्ल चाकी ने गिरफ्तारी से बचने हेतु आत्महत्या कर ली
महज 18 साल के खुदीराम बोस को 11 अगस्त 1908 में के दिन फांसी दी गई |
जतीन्द्र नाथ मुखर्जी बाघा जतिन 1915 में बालासोर में पुलिस मुठभेर में मारे गए
ढाका में अनुशीलन समिति की सर्वाधिक शाखा
अरविन्द सन्यासी होकर पांडीचेरी में आश्रम बना लिए
1915 में एक असफल क्रांतिकारी प्रयास में जतीन मुखर्जी, जिन्हें 'बाघा जतीन' कहा जाता था, बालासोर में पुलिस से लड़ते हुए मारे गए।
पंजाब
अजीत सिंह, सूफी अंबा प्रसाद , लाला लाजत राय की मुख्य भूमिका
England's Debt to India , Unhappy India , Young India: An Interpretation and A History of the Nationalist Movement from within, Our Educational Problem आदि लाला लाजत राय की प्रमुख पुस्तके हैं
अजीत सिंह ने लाहौर में अंजुमन मोहिब्बाने वतन नामक संस्था बनायी तथा भारत माता अखबार निकाला
भारत के बाहर
रासबिहारी पीस, राजा महेंद्रप्रताप, लाल हरदयाल, अब्दुर्रहीम, मौलाना उबैदुल्लाह सिंधी, चंपक रमन पिल्लै, सरदार सिंह राणा और मादाम भीकाजी कामा कुछ ऐसे प्रमुख भारतीय थे जिन्होंने भारत से बाहर क्रांतिकारी गतिविधियां चलाई, क्रांतिकारी प्रचार किया, और समाजवादियों तथा दूसरे साम्राज्यवाद विरोधियों का समर्थन भारत की स्वाधीनता के लिए। प्राप्त किया।
इंडिया होम रुल सोसायटी (1905)
लंदन में श्यामजी कृष्ण वर्मा द्वारा
प्रमुख सदस्य –सावरकर, हरदयाल, मदन लालधींगरा
उद्देश्य - स्वशासन
इंडियन सोसियोलोजीट पत्रिका निकाली
लंदन में इंडिया हाउस की स्थापना
1 जुलाई 1909 को लंदन में एक कार्यक्रम के बाद मदन लाल ढींगरा ने भारत सचिव के राजनितिक सलाहकार कर्जन वायली की गोली मारकर हत्या कर दी| मदन लाल ढींगराको फासी|
ह्त्या काण्ड के बाद सावरकर को गिरफ्तार कर नासिक षड़यंत्र केस के तहत मुक़दमा चलाने हेतु भारत भेजा गया
1907 में स्टुटगार्ड (जर्मनी) में आयोजित दूसरे अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस में मैडम भीखाजी कामा नें हिस्सा लिया | सम्मेलन में पहली बार राष्ट्रीय तिरंगा (हरा, पीला, लाल) झंडा फहराया
अजीत सिंह ने लाहौर में अंजुमन मोहिब्बाने वतन नामक संस्था बनायी तथा भारत माता अखबार निकाला
ग़दर पार्टी (1913)
अमरीका और कनाडा में बसे भारतीय क्रांतिकारियों ने 1913 में गदर पार्टी की स्थापना की।
अधिकांश सदस्य पंजाब के सिख किसान और भूतपूर्व सैनिक थे जो वहां रोजी-रोटी की तलाश में गए थे और उन्हें खुले नस्ली और आर्थिक भेदभाव का सामना करना पड़ता था।
लाल हरदयाल, मुहम्मद बरकतुल्लाह, भगवान सिंह, रामचंद्र और सोहनसिंह भखना गदर पार्टी के कुछ प्रमुख नेताओं में से थे।
साप्ताहिक पत्र ‘ग़दर' था जिसके सिरे पर "अंग्रेजी राज का दुश्मन" शब्द लिखे होते थे।
'गदर' ने एक विज्ञापन छापा: "भारत में विद्रोह फैलाने के लिए बहादुर सिपाहियों की आवश्यकता है। तनख्वाह मौत; इनाम- शहादत; पेंशन आजादी लड़ाई का मैदान भारत है। "
वर्ष 1914 में जैसे ही प्रथम विश्वयुद्ध फूटा, गदरपंथी हथियार और धन भारत भेजने लगे कि यहां के सैनिकों और स्थानीय क्रांतिकारियों की सहायता से विद्रोह आरंभ किया जाए|
गदरपंथियों ने सुदूर-पूर्व, दक्षिण-पूर्वी एशिया और पूरे भारत में सैनिकों से संपर्क किया और अनेक रेजीमेंटों को विद्रोह के लिए तैयार कर लिया। अंततः पंजाब में सशस्त्र विद्रोह के लिए 21 फरवरी, 1915 को तारीख निश्चित हुई।
दुर्भाग्य से अधिकारियों को इन योजनाओं का पता चल गया और उन्होंने तत्काल कार्रवाई की। विद्रोही रेजीमेंटों को तोड़ दिया गया और उनके नेताओं को जेल या फांसी की सजाएं दी गई।
उनमें से अनेक ने रिहा होने के बाद पंजाब में किरती (मजदूर) और कम्युनिस्ट आंदोलनों की स्थापना की।
कुछ प्रमुख गदरी नेता इस प्रकर थे: बाबा गुरमुख सिंह, करतार सिंह सराभा, सोहन सिंह भखना, रहमत अली शाह, भाई परमानंद और मौलवी बरकतुल्लाह।
गदर पार्टी से प्रेरित होकर सिंगापुर में पांचवीं लाइट इन्फैंट्री के 700 लोगों ने जमादार चिश्ती खान और सूबेदार डुंडे खान के नेतृत्व में विद्रोह किया।
राष्ट्रीय आंदोलन का तीसरा चरण 1919-1947
विशाल जन आन्दोलन के कारण
विश्वयुद्ध में कुछ जीतें हासिल कर देश लौटे भारतीय सैनिकों में आत्मविश्वास आया एवं दुनिया के बारे में अपना ज्ञान ग्रामीण क्षेत्रों में फैलाया।
ब्रिटेन युद्ध में समर्थन पाने के लिए सभी के लिए जनतंत्र तथा राष्ट्रीय आत्मनिर्णय का एक नया युग आरंभ करने का वचन दिया परन्तु युद्ध के बाद वे अपना उपनिवेशवाद खत्म करने में कोई मंशा नहीं दिखाई।
रूसी क्रांति के प्रभाव से भी राष्ट्रीय आंदोलनों को बहुत बल मिला।
भारत मंत्री एडविन मांटेग्यू तथा वायसराय लार्ड चेम्सफोर्ड ने 1918 में संविधान सुधारों की एक योजना सामने रखी जिनके आधार पर 1919 का भारत सरकार कानून बनाया गया।
प्रांतीय विधायी परिषदों का आकार बढ़ा दिया गया तथा निश्चित किया गया कि उनके अधिकांश सदस्य चुनाव जीतकर आएंगे।
दुहरी शासन प्रणाली के तहत प्रांतीय सरकारों को अधिक अधिकार दिए गए।
वित्त कानून और व्यवस्था आदि कुछ विषय 'आरक्षित' घोषित करके गवर्नर के प्रत्यक्ष नियंत्रण में रखे गए तथा शिक्षा, जन-स्वास्थ्य तथा स्थानीय स्वशासन जैसे कुछ विषयों को हस्तांतरित घोषित करके उन्हें विधायिकाओं के सामने उत्तरदायी मंत्रियों के नियंत्रण में दे दिया गया।
केंद्र में दो सदनों लेजिस्लेटिव असेंबली एवं कॉसिल ऑफ स्टेट्स की व्यवस्था
निचले सदन अर्थात लेजिस्लेटिव असेंबली में कुल 144 सदस्यों में 41 सदस्य नामजद
ऊपरी सदन अर्थात कॉसिल ऑफ स्टेट्स में 26 नामजद तथा 34 चुने हुए सदस्य
गवर्नर जनरल और उसकी एक्जीक्यूटिव कॉसिल पर विधानमंडल का कोई नियंत्रण नहीं
वोट का अधिकार बहुत अधिक सीमित
सुधार के प्रस्तावों पर विचार हेतु अगस्त 1918 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने बम्बई में एक विशेष अधिवेशन बुलाया जिसके अध्यक्ष हसन इमाम थे। इस सत्र ने इन प्रस्तावों को "निराशाजनक और असंतोषजनक" बतलाकर इनकी जगह प्रभावी स्वशासन की मांग रखी।
सुरेंद्रनाथ बनर्जी के नेतृत्व में कुछ वयोवृद्ध कांग्रेस नेता सरकार के प्रस्ताव को स्वीकार करने के पक्ष में । उन्होंने कांग्रेस छोड़कर इंडियन लिवरल एसोसिएशन की स्थापना की। ये “उदारवादी" आगे चलकर नगण्य भूमिका में आ गये ।
सरकार ने केंद्रीय विधान परिषद के सभी भारतीय सदस्य के विरोध के बावजूद मार्च 1919 में रोलट एक्ट बनाया।
किसी भी भारतीय पर अदालत में मुकदमा चलाए और दंड दिए बिना जेल में बंद रखने का प्रावधान
नागरिक स्वाधीनताओं को निलंबित करने का अधिकार
मोहनदास करमचंद गाँधी
2 अक्टूबर 1959 को गुजरात के पोरबंदर में जन्म
ब्रिटेन में कानून की शिक्षा
वकालत करने के लिए दक्षिण अफ्रीका चले गए
1893-94 में दक्षिण अफ्रीका के नस्लवादी अधिकारियों के खिलाफ संघर्ष
लगभग दो दशक लम्बे इस संघर्ष के दौरान उन्होंने सत्य और अहिंसा पर आधारित सत्याग्रह नामक तकनीक का विकास किया। जिसके अनुसार -
एक आदर्श सत्याग्रही सत्यप्रेमी और शांतिप्रेमी होता है, मगर वह जिस बात को गलत समझता है उसे अस्वीकार कर देता है।
वह गलत काम करने वालों के खिलाफ संघर्ष करते हुए हंसकर कष्ट सहन करता है।
एक सच्चे सत्याग्रही की प्रकृति में घृणा के लिए कोई स्थान नहीं होता।
वह एकदम निडर होता है। चाहे जो परिणाम हो, वह बुराई के सामने नहीं झुकता।
गाँधीजी की दृष्टि में अहिंसा कायरों और कमजोरों का अस्त्र नहीं है। केवन निडर और बहादुर लोग हो इसका उपयोग कर सकते हैं।
वर्ष 1920 में अपने साप्ताहिक पत्र “यंग इंडिया" में वे लिखते हैं कि “अहिंसा हमारी प्रजाति का धर्म है जैसे हिंसा पशु का धर्म है" परन्तु “ अगर केवल कायरता और हिंसा के किसी एक को चुनना हो तो मैं हिंसा को चुनने को सलाह दूंगा कायरतापूर्वक असहाय होकर अपने सम्मान का अपहरण होते देखता रहे, इसके बजाए में उसे अपने सम्मान की रक्षा के लिए हथियार उठाते देखना पसंद करू”
गाँधीजी के दृष्टिकोण में विचार और कर्म में अन्तर नहीं । उनका सत्य-अहिंसा दर्शन रोजमर्रा के जीवन के लिए था।
साधारण जनता की संघर्ष की क्षमता पर गाँधीजी को अटूट भरोसा था। जब उसने 1942 में पूछा गया कि वे “साम्राज्य की शक्ति का सामना" कैसे कर सकेंगे तो उन्होंने उत्तर दिया -"लाखों-लाख मूक जनता की शक्ति के द्वारा।"
मोहनदास करमचंद गाँधी दक्षिण अफ्रीका में नस्लवाद से लड़ते हुए उन्होंने संघर्ष का एक नया रूप असहयोग और एक नई तकनीक सत्याग्रह का विकास किया था।
गाँधीजी 46 वर्ष की आयु में 1915 में भारत लौटे। पूरे एक वर्ष तक उन्होंने देश का किया और भारतीय जनता की दशा को समझा।
1916 में अहमदाबाद के पास सावरमती आश्रम की स्थापना की
चम्पारन सत्याग्रह
गांधीजी ने सत्याग्रह का अपना पहला बड़ा प्रयोग बिहार के चंपारन जिले में 1917 में किया।
यहाँ नील के खेतों में काम करने वाले किसानों पर यूरोपीय निलहे बेहद अत्याचार करते थे। किसानों की अपनी जमीन के कम से कम 3/20 भाग (तीन कठिया) पर नील की खेती करना तथा निलहों द्वारा तय दामों पर नील बेचना पड़ता था।
इसी तरह को परिस्थितियां पहले बंगाल में भी रही थीं मगर 1859-61 के काल में एक बड़े विद्रोह के द्वारा वहां के किसानों ने निलहे साहबों से मुक्ति पा ली थी।
गाँधीजी बाबू राजेंद्र प्रसाद, मजहरुल-हक, जे.बी. कृपलानी, नरहरि पारिख और महादेव देसाई के साथ 1917 में वहां पहुंचे और किसानों की हालत की विस्तृत जांच-पड़ताल करने लगे।
जिले के अधिकारियों ने उन्हें चंपारन छोड़ने का आदेश दिया, मगर उन्होंने आदेश का उल्लंघन किया और जेल- के लिए तैयार रहे।
सरकार ने मजबूर होकर पिछला आदेश रद्द कर दिया और एक जांच समिति बिठाई जिसके एक सदस्य स्वयं गाँधीजी थे।
अंततः किसान जिन समस्याओं से पीड़ित थे उनमें कमी हुई। इस तरह भारत में सविनय अवज्ञा आंदोलन की पहली लड़ाई गांधीजी ने जीत ली।
अहमदाबाद मिल मजदूर आन्दोलन
सन 1918 में गांधीजी ने अहमदाबाद के मजदूरों और मिल मालिकों के एक विवाद में हस्तक्षेप किया।
उन्होंने मजदूरों की मजदूरी में 35 प्रतिशत वृद्धि की मांग करने तथा इसके लिए हड़ताल पर जाने की राय दी।
मजदूरों के हड़ताल जारी रखने के संकल्प को बल देने के लिए उन्होंने आमरण अनशन किया।
उनके अनशन ने मिल मालिकों पर दबाव डाला और वे नरम पड़कर मजदूरी 35 प्रतिशत बढ़ाने पर सहमत हो गए।
खेड़ा सत्याग्रह
सन 1918 में गुजरात के खेड़ा जिले के किसानों को फसल चौपट हो गई।
सरकार ने लगान छोड़ने से एकदम इनकार कर दिया और पूरा लगान वसूलने पर उतारू हो गई।
गाँधीजी ने किसानों का साथ दिया और उन्हें राय दी कि जब तक लगान में छूट नहीं मिलती, वे लगान देना बंद कर दें।
जब यह खबर मिली कि सरकार ने केवल उन्हीं किसानों से लगान वसूलने के आदेश दिए हैं जो लगान दे सकते हों, तभी यह संघर्ष वापस लिया गया।
सरदार वल्लभभाई पटेल उन्हीं नौजवानों में से एक थे जो खेड़ा के किसान संघर्ष के दौरान गाँधीजी के अनुयायी बने थे।
गाँधीजी को तीन अन्य लक्ष्य
हिंदू-मुसलमान एकता,
छुआछूत विरोधी संघर्ष और
देश की स्त्रियों की सामाजिक स्थिति को सुधारना।
उन्होंने लिखा है : “भारतीय संस्कृति न तो पूरी तरह हिन्दू है न ही इस्लामी और न ही कोई और संस्कृति। यह सबका समन्वय है।"
गाँधी ने कहा कि भारत की मुक्ति तभी सम्भव है जब जनता नींद से जाग उठे और राजनीति में सक्रिय हो ।
रोलट कानून से गाँधाजी को भी धक्का लगा। फरवरी 1919 में उन्होंने एक सत्याग्रह सभा बनाई जिसके सदस्यों ने इस कानून का पालन न करने तथा गिरफ्तारी और जेल जाने सामना करने की शपथ ली।
गाँधीजी ने 6 अप्रैल, 1919 को एक शक्तिशाली हड़ताल का आहवान किया। सरकार ने इस जन-प्रतिरोध का सामना, खासकर पंजाब में, दमन से करने का निश्चय किया।
जलियांवाला बाग काण्ड
पंजाब में अमृतसर में 13 अप्रैल, 1919 को एक निहत्थी मगर भारी भीड़ अपने लोकप्रिय नेताओं डाक्टर सैफुद्दीन किचलू और डाक्टर सत्यपाल की गिरफ्तारी का विरोध करने के लिए जलियांवाला बाग में जमा हुई।
अमृतसर के फौजी कमांडर जनरल डायर ने अपने फौजियों को राइफलों और मशीनगनों द्वारा अंदर घिरी भीड़ पर गोली बरसाने का हुक्म दिया। वे तब तक गोली बरसाते रहे जब तक कि गोलियां खत्म न हो गई।
हजारों लोग मरे और घायल हुए।
इस हत्याकांड के बाद पूरे पंजाब में मार्शल लॉ लगा दिया गया और लोगों पर अत्यन्त जंगली किस्म के अत्याचार ढाए गए।
एक उदारवादी वकील शिवस्वामी अय्यर ने, जिन्हें सरकार ने नाइट की उपाधि दी थी, पंजाब के अत्याचारों के बारे में लिखा।
रवींद्रनाथ ठाकुर ने इसके विरोध में अपनी 'नाइट' की उपाधि लौटा दी थी। उन्होंने घोषणा की कि... वह समय आ गया है जब सम्मान के प्रतीक अपमान अपने बेमेल संदर्भ में हमारी शर्म को उजागर करते हैं और मैं, जहां तक मेरा सवाल है, सभी विशिष्ट उपाधियों से रहित होकर अपने उन देशवासियों के साथ खड़े होना चाहता हूं जो अपनी तथाकथित क्षुद्रता के कारण मानव जीवन के अयोग्य अपमान को सहने के लिए बाध्य हो सकते हैं।
खिलाफत आंदोलन
हिन्दू मुसलमान एकता की मिसाल - आर्यसमाजी नेता स्वामी श्रद्धानन्द को दिल्ली की जामा मस्जिद से अपना उपदेश देने के लिए आमंत्रित किया गया| इसी तरह अमृतसर में सिखों ने स्वर्ण मंदिर की चाभियां एक मुसलमान नेता डा. किचलू को सौंप दी थी।
मुसलमानों के बीच राष्ट्रवादी प्रवृत्ति ने खिलाफत आंदोलन की शक्ल ले ली।
ब्रिटेन तथा उसके सहयोगियों द्वारा तुर्की की उस्मानिया सल्तनत के टुकड़े करके थ्रेस को हथिया लिया गया एवं खलीफा की सता का अंत कर दिया गया जिसके मुसलमान आलोचक थे।
शीघ्र ही अली भाइयों (मुहम्मद अली और शौकत अली), मौलाना आजाद, हकीम अजमल खान और हसरत मोहानी के नेतृत्व में एक खिलाफत कमेटी गठित हो गई और देशव्यापी आंदोलन छेड़ दिया गया।
दिल्ली में नवंबर 1919 में आयोजित अखिल भारतीय खिलाफत सम्मेलन ने फैसला किया कि अगर उनकी मांगें न मानी गई तो वे सरकार से सहयोग करना बन्द कर देंगे।
इस समय मुस्लिम लीग पर राष्ट्रवादियों का नेतृत्व था उसने राजनीतिक प्रश्नों पर राष्ट्रीय कांग्रेस और उसके आंदोलन का पूरा-पूरा समर्थन किया।
गाँधीजी ने खिलाफत आंदोलन को "हिन्दुओं और मुसलमानों में एकता स्थापित करने का ऐसा अवसर जाना जो कि आगे सौ वर्षों तक नहीं मिलेगा।"
उन्होंने 1920 के आरम्भ में घोषणा की कि खिलाफत का प्रश्न सांविधानिक सुधारों तथा पंजाब के अत्याचारों से अधिक महत्त्वपूर्ण है।
जून 1920 में इलाहाबाद में सभी दलों का एक सम्मेलन हुआ जिसमें स्कूलों, कालेजों और अदालतों के बहिष्कार का एक कार्यक्रम किया गया। खिलाफत आन्दोलन ने 31 अगस्त, 1920 को एक असहयोग का आरम्भ किया।
असहयोग आंदोलन
सितम्बर 1920 में कलकत्ता में कांग्रेस की एक विशेष अधिवेशन हुआ।
1 अगस्त को 64 वर्ष की आयु में लोकमान्य तिलक का निधन हो गया था।
कांग्रेस ने गांधीजी की इस योजना को स्वीकार कर लिया कि जब तक पंजाब तथा खिलाफत सम्बन्धी अत्याचारों की भरपाई नहीं होती और स्वराज्य स्थापित नहीं होता, सरकार से असहयोग किया जाए।
लोगों से आग्रह किया गया कि वे सरकारी शिक्षा संस्थाओं, अदालतों और विधानमंडलों का बहिष्कार करें, विदेशी वस्त्रों को त्याग करें, सरकार से प्राप्त उपाधियां और सम्मान वापस करें, तथा हाथ से सूत कात कर और बुन कर खादी का इस्तेमाल करें बाद में सरकारी नौकरी से इस्तीफा तथा कर चुकाने से इनकार करने को भी इस कार्यक्रम में शामिल कर लिया गया।
इस निर्णय को दिसम्बर 1920 में नागपुर में आयोजित कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन में अनुमोदित भी कर दिया गया। गांधीजी ने नागपुर में घोषणा की कि "ब्रिटिश जनता यह बात चेत ले कि अगर वह न्याय नहीं करना चाहती तो साम्राज्य को नष्ट करना प्रत्येक भारतीय का परम कर्तव्य होगा।“
नागपुर अधिवेशन में कांग्रेस के संविधान में परिवर्तन –
प्रांतीय कांग्रेस कमेटियों भाषायी आधार पर पुनर्गठित
कांग्रेस का नेतृत्व अब 15 सदस्यों की एक वर्किंग कमेटी को सौंपा गया जिसमें अध्यक्ष और सचिव शामिल थे।
कांग्रेस का संगठन अब गांवों, छोटे कस्बों और मुहल्लों तक भी फैलने वाला था।
सदस्यता शुल्क घटाकर प्रति वर्ष चार आने (आज के 25 पैसे) कर दिया गया ताकि निर्धन ग्रामीण और नगर के निर्धन लोग भी उसके सदस्य बन सकें
वर्ष 1921-22 में भारतीय जनता एक अभूतपूर्व हलचल के दौर से गुजरी। हजारों की संख्या में छात्रों ने सरकारी स्कूल-कालेज छोड़कर राष्ट्रीय स्कूलों और कालेजों में प्रवेश ले लिया।
अलीगढ़ के जामिया मिलिया इस्लामिया (राष्ट्रीय मुस्लिम विश्वविद्यालय), बिहार विद्यापीठ, काशी विद्यापीठ और गुजरात विद्यापीठ का जन्म इस समय हुआ। जामिया मिलिया बाद में दिल्ली चला गया।
इन राष्ट्रीय कालेजों और विश्वविद्यालयों में आचार्य नरेंद्र देव..डॉ. ज़ाकिर हुसैन, और लाला लाजपतराय जैसे विख्यात व्यक्ति शिक्षक का कार्य करते थे।
सैकड़ों वकीलों ने अपनी मोटी कमाई वाली वकालतें छोड़ दी। इनमें देशबन्धु चितरंजन दास, मोतीलाल नेहरू, राजेंद्र प्रसाद, सैफुद्दीन किचल, सी. राजगोपालाचारी, सरदार पटेल, टी. प्रकाशम और आसफ अली जैसे लोग शामिल थे।
असहयोग आंदोलन चलाने के लिए तिलक स्वराज्य कोष स्थपित किया गया और छह माह के अंदर इसमें एक करोड़ रुपया जमा हो गया।
जुलाई 1921 में एक प्रस्ताव पारित करके खिलाफत आंदोलन ने घोषणा की कि कोई मुसलमान ब्रिटिश भारत की सेना में नहीं भरती होगा। सितंबर में 'राजद्रोह' का आरोप लगाकर अली भाइयों को कैद कर लिया गया।
नवंबर 1921 में ब्रिटिश सिंहासन के उत्तराधिकारी, प्रिंस ऑफ वेल्स जब भारत भ्रमण पर आए तो उनका स्वागत बड़े-बड़े विरोध प्रदर्शनों द्वारा किया गया। सरकार ने उनसे निवेदन किया था कि जनता और राजा-महाराजाओं में वफादारी की भावना जगाने के लिए वे भारत की यात्रा पर आए।
दिसंबर 1921 में अहमदाबाद में कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन में एक प्रस्ताव पारित किया गया। इस प्रस्ताव में कांग्रेस ने अपना "यह दृढ़ मत दोहराया कि जब तक पंजाब और खिलाफत की गलतियों की भरपाई नहीं की जाती और स्वराज्य स्थापित नहीं होता.. वह पहले से भी अधिक जोरदार ढंग से अहिंसक असहयोग का आंदोलन जारी रखेगी।"
पंजाब में गुरुद्वारों पर भ्रष्ट महंतों का कब्जा खत्म करने के लिए सिख अकाली आंदोलन नामक एक अहिंसक आंदोलन चला रहे थे।
असम में चाय बागानों के मजदूरों ने हड़ताल को। मिदनापुर के किसानों ने यूनियन बोर्ड के कर देने से इनकार कर दिया था। चिराला की पूरी जनता नगरपालिका के कर चुकाने से इंकार करके शहर छोड़ चुकी थी।
मेडन्नापाडु में गांवों के सारे अधिकारियों ने इस्तीफा दे दिया था।
डुग्गीराला गोपालाकृष्णय्या के नेतृत्व में गुंटूर जिले में एक शक्तिशाली आंदोलन उठ खड़ा हुआ था।
उत्तरी केरल के मालाबार क्षेत्र में मोपला कहे जाने वाले मुस्लिम किसानों ने एक शक्तिशाली जमींदार विरोधी आंदोलन छेड़ रखा था।
1 फरवरी, 1922 को महात्मा गाँधी ने घोषणा की कि अगर सात दिनों के अंदर राजनीतिक बंदी रिहा नहीं किए जाते और प्रेस पर सरकार का नियंत्रण समाप्त नहीं होता तो वे करों की गैर- अदायगी समेत एक सामूहिक नागरिक अवज्ञा आन्दोलन छेड़ेंगे।
संयुक्त प्रांत के गोरखपुर जिले में 5 फरवरी को चौरी चौरा नामक गांव में 3000 किसानों के एक कांग्रेसी जुलूस पर पुलिस ने गोली चलाई। क्रुद्ध भीड़ ने पुलिस थाने पर हमला करके उसमें आग लगा दी जिससे 22 पुलिसकर्मी मारे गए।
गांधीजी को भय था कि जन उत्साह और जोश के इस वातावरण में आंदोलन आसानी से एक हिंसक मोड़ ले सकता है। उन्हें यह भी विश्वास था कि अंग्रेज आसानी से किसी भी हिंसक आंदोलन को कुचल सकते हैं, क्योंकि जनता में भारी सरकारी दमन के प्रतिरोध की शक्ति अभी भी विकसित नहीं हो सकी थी। इसलिए उन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन को रोक देने का फैसला किया।
कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने 12 फरवरी को गुजरात के बारडोली नामक स्थान पर अपनी मीटिंग की और एक प्रस्ताव द्वारा उन सभी गतिविधियों पर रोक लगा दी जिनसे कानून का उल्लंघन हो सकता था।
उसने कांग्रेसजन से आग्रह किया कि वे अपना समय चरखा को लोकप्रिय बनाने, राष्ट्रीय विद्यालय चलाने, छुआछूत मिटाने तथा हिंदू-मुसलमान एकता को प्रोत्साहित करने के रचनात्मक कार्यों में लगाएं।
युवक राष्ट्रवादियों ने आंदोलन रोके जाने के निर्णय का विरोध किया।
सुभाषचंद्र बोस कांग्रेस के एक अत्यन्त लोकप्रिय युवक नेता थे, उन्होंने अपनी आत्मकर्था “दि इंडियन स्ट्रगल" में लिखा है: जिस समय जनता का उत्साह अपनी चरम सीमा को छूने वाला था, उस समय पीछे हट जाने का आदेश देना राष्ट्रीय अनर्थ से कम नहीं था।
जवाहरलाल नेहरू जैसे दूसरे युवक नेताओं ने भी ऐसी ही प्रतिक्रिया व्यक्त की। -
सरकार ने 10 मार्च, 1922 को महात्मा गांधी को गिरफ्तार करके उन पर सरकार के प्रति असंतोष भड़काने का आरोप लगाया। गांधीजी को छः वर्षों की कैद की सजा सुनाई गई।
अभियोग पक्ष के आरोपों को स्वीकार करते हुए उन्होंने अदालत से निवेदन किया कि कानून मैं जिस बात को स्वेच्छापूर्वक किया गया अपराध समझा जाता है और जो मुझे किसी नागरिक का परम कर्तव्य लगता है, उसके लिए मुझे जितनी कड़ी सजा दी जा सकती है, दी जाए। उन्होंने ब्रिटिश शासन के एक कट्टर आलोचक के रूप में आगे कहाः निहत्थे भारत के पास किसी भी आक्रमण के प्रतिरोध की शक्ति नहीं है... वह इतना निर्धन हो चुका है कि अकालों के प्रतिरोध के लिए उसमें शायद ही कोई शक्ति बची है।
गाँधीजी ने यह मत व्यक्त किया कि "बुराई के साथ असहयोग उतना ही पुनीत कर्त्तव्य है जितना कि भलाई के साथ सहयोग।"
न्यायाधीश ने कहा कि वह गांधीजी को वही दंड दे रहा है जो 1908 में लोकमान्य तिलक को दिया गया था।
खिलाफत का प्रश्न भी बहुत जल्द अप्रासंगिक हो गया। तुर्की की जनता मुस्तफा कमाल पाशा के नेतृत्व में उठ खड़ी हुई और उसने नवंबर 1922 में सुल्तान को सत्ता से वचित कर दिया। उसने खिलाफत (खलीफा का पद) समाप्त कर दिया और संविधान से इस्लाम को निकालकर राज्य को धर्म से अलग कर दिया।
असहयोग आंदोलन में खिलाफत के आंदोलन के कारण नगरों के मुसलमान राष्ट्रीय आंदोलन से जुड़े।
कमाल पाशा ने 1924 में खिलाफत को समाप्त कर दिया तो भारत में कोई प्रतिरोध नहीं हुआ।
जवाहरलाल नेहरू (भारत एक खोज)- गांधीजी की शिक्षा का मूल तत्व निर्भीकता थी। शारीरिक साहस ही नहीं बल्कि मन में भी भय का अभाव। असहयोग आंदोलन का एक प्रमुख परिणाम यह हुआ कि भारतीय जनता के मन से भय की भावना उड़ गई। जनता में ऐसा वेपनाह आत्मविश्वास और आत्मसम्मान जागा जो किसी भी हार या धक्के से नष्ट न हो। इसे गांधीजी ने इस घोषणा के द्वारा व्यक्त किया कि 1920 में जो संघर्ष आरंभ हुआ वह एक समझौता विहीन संघर्ष है चाहे वह एक माह चले या एक साल, या कई माह या कई साल। "
स्वराज्य पार्टी
चितरंजन दास और मोतीलाल नेहरू ने बदली हुई परिस्थितियों में राष्ट्रवादियों को विधानमंडलों में भाग लेकर सरकारी की कमजोरियों को सामने लाने, राजनीतिक संघर्ष का क्षेत्र बनाने तथा इस प्रकार जन-उत्साह जगाने का कार्य करना चाहिए।
अपरिवर्तनवादी" (सरदार वल्लभभाई पटेल, डा. अंसारी, बाबू राजेंद्र प्रसाद इत्यादि) ने विधानमंडल में जाने का विरोध किया। जिसके निम्न कारण थे –
संसदीय राजनीति में भाग लेने से जनता के बीच काम की उपेक्षा, राष्ट्रवादी उत्साह में ह्रास और नेताओं के बीच प्रतिद्वंद्विता पैदा होगी।
ये लोग चरखा चलाने, चरित्र निर्माण, हिंदू मुस्लिम एकता, छुआछूत का खात्मा तथा गांवों में और गरीबों के बीच निचले स्तरों पर कार्य, जैसे रचनात्मक कार्यों पर जोर देते रहे।
दिसम्बर 1922 में चितरंजन दास और मोतीलाल नेहरू ने कांग्रेस खिलाफत स्वराज्य पार्टी का स्थापना की।
अध्यक्ष - चितरंजन दास
सचिव - मोतीलाल नेहरू
नई पार्टी को कांग्रेस के अंदर ही एक समूह के रूप में
कौंसिल के चुनावों में भाग लेने को छोड़ कर सभी एजेंडे कांग्रेस के
5 फरवरी, 1924 - गांधीजी स्वास्थ्यगत कारणों से को रिहा
गांधीजी की सलाह पर दोनों समूहों ने कांग्रेस में ही रहकर अलग-अलग ढंग से काम करने का फैसला किया।
स्वराज्यवादियों की उपलब्धि –
नवंबर 1923 के चुनावों में उन्हें अच्छी सफलता मिली। केंद्रीय घारा-सभा की चुनाव से भरी जाने वाली 101 सीटों में से 42. उन्होंने जीत ली।
मार्च 1925 में विठ्ठलभाई पटेल को केंद्रीय घारा-सभा का अध्यक्ष (स्पीकर) चुनवाने में भी स्वराजी सफल रहे।
उन्होंने राजनीतिक शून्य को भरा।
उन्होंने 1919 में सुधार कानून के खोखलेपन को भी उजागर किया।
पहले मार्च 1926 और फिर जनवरी 1930 में उन्हें केंद्रीय धारा- सभा का बहिष्कार करना पड़ा।
जून 1925 में चितरंजन दास के निधन से राष्ट्रीय आंदोलन और स्वराज्यवादियों को एक और गहरा धक्का लगा।
1923 के बाद देश में एक के बाद एक कई सांप्रदायिक दंगे हुए।
मुस्लिम लीग और दिसम्बर 1917 में स्थापित हिंदू महासभा फिर सक्रिय हो उठी।
स्वराजवादी पार्टी के नेता मोतीलाल नेहरू और दास कट्टर राष्ट्रवादी थे, मगर सांप्रदायिकता ने इस पार्टी को भी विभाजित कर दिया
"प्रत्युत्तरवादी" (रिस्पॉसिविस्ट) - मदनमोहन मालवीय, लाला लाजपतराय और एन.सी. केलकर ने हिंदू हितों की रक्षा हेतु सरकार को अपना सहयोग करने का प्रस्ताव रखा। उन्होंने मोतीलाल नेहरू पर हिंदुओं को धोखा देने, हिंदू विरोधी होने, गौ हत्या का पक्ष लेने तथा गौमांस खाने का आरोप लगाया।
गांधीजी - हिंदू-मुस्लिम एकता हर काल में और सभी परिस्थितियों में हमारी आस्था होनी चाहिए। सांप्रदायिक दंगों के प्रायश्चित के लिए उन्होंने दिल्ली में मौलाना मुहम्मद अली के घर में सितंबर 1924 में 21 दिनों का उपवास किया।
1924 के बेलगाम अधिवेशन में गाँधी जी अध्यक्ष बने |
मई 1927 में गांधीजी ने लिखा: “प्रार्थना और प्रार्थना का प्रत्युत्तर मेरी अकेली आशा है। "
नवंबर 1927 में जब साइमन कमीशन के गठन की घोषणा हुई तो भारत इस अंधेरे से फिर बाहर निकला और राजनीतिक संघर्ष का एक नया युग आरंभ हुआ।
वामपंथ का उदय एवं विकास
वामपंथी आंदोलन के उदय के कारण
भारत में आधुनिक उद्योगों के विकास
दो विश्व युद्धों के मध्यकाल में भयंकर आर्थिक मंदी तथा
रुस में बोल्शेविक क्रांति
मानवेन्द्र नाथ राय (नरेन्द्र नाथ भट्टाचार्य) ने सोवियत संघ की यात्रा कर रुसी कम्युनिस्ट पार्टी से सम्बन्ध स्थापित किया।
अक्टूबर, 1920 में मानवेन्द्र नाथ ने ताशकन्द में 'भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी' की स्थापना की। सदस्य -मानवेन्द्रनाथ, ए० टी० राय, अवनी मुखर्जी, रोजा फिटिग्राफ, मोहम्मद अली, मोहम्मद शफीक आदि।
राजा महेन्द्र प्रताप के नेतृत्व में भारतीयों का पहला प्रतिनिधि मण्डल लेनिन से मिला, लेनिन से इस प्रतिनिधि मंडल को वर्ग संघर्ष की प्रेरणा मिली।
1921 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का कम्युनिस्ट इंटरनेशनल से सम्पर्क हुआ।
भारत में कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना के उद्देश्य से मानवेन्द्र नाथ राय अप्रैल, 1922 को भारत आये।
भारत में मार्क्सवादी विचारधारा का प्रचार-प्रसार करने वाली पत्रिकायें— दी सोशलिस्ट (श्री पाद अमृत डांगे), नव युग (मुजफ्फर अहमद), बंगाल (काजी नजरूल), इन्कलाब ( गुलाम हुसैन पंजाब), लेबर किसान गजट (सिंगारवेलु चेट्टियार मद्रास) वर्तमान (कानपुर), प्राणवीर (नागपुर, महाराष्ट्र) आदि।
भारत में साम्यवादी पार्टी की स्थापना की दिशा में प्रयासरत नेताओं को 1924 में सरकार ने गिरफ्तार कर उन पर कानपुर षड्यंत्र केस के अन्तर्गत मुकदमा चलाया।
कानपुर षड्यंत्र केस के अन्तर्गत साम्यवादी नेता मानवेन्द्र नाथ राय, सिंगारवेलु चेट्टियार, मुजफ्फर अहमद, श्री पाद अमृत डांगे, गुलाम हुसैन, रामचरण लाल शर्मा आदि पर सरकार के विरुद्ध षड्यंत्र रचने, क्रांतिकारी गतिविधियों को संचालित करने, भारत में साम्राज्ञी की सत्ता को उखाड़ने का आरोप
1921 से 1925 के बीच भारत में अनेक स्थानों पर औपचारिक साम्यवादी गुटों की स्थापना हुई, अंतिम रूप से 1 दिसम्बर, 1925 को भारत में साम्यवादी दल की स्थापना की घोषणा हुई।
27 दिसम्बर, 1925 को कानपुर में सत्यभक्त के नेतृत्व में 'अखिल भारतीय साम्यवादी दल' का गठन हुआ।
भारत के लिए पूर्ण स्वाधीनता की मांग करने वाली 'अखिल भारतीय साम्यवादी दल' पहली पार्टी थी। इस पार्टी ने घोषणा की कि 'राजनीतिक स्वतंत्रता एक साधन है और आर्थिक स्वतंत्रता एक लक्ष्य।'
1923-27 के बीच भारत में मजदूर किसान पार्टियों की स्थापना की दिशा में प्रयास किया गया, जिसका प्रमुख उद्देश्य था मजदूरों, किसानों एवं नौजवानों में प्रगतिशील राजनीतिक विचारों का प्रचार-प्रसार करना।
लेबर स्वराज्य पार्टी नाम से भारत की पहली मजदूर किसान पार्टी की स्थापना बंगाल में की गई।
मजदूर किसान पार्टी ने कांग्रेस के अंदर एक शक्तिशाली वामपक्ष बनाने में तथा भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को वामपक्ष की ओर झुकाने तथा मजदूरों के संघर्ष को उभारने में उल्लेखनीय योगदान दिया।
1927 में भारत में पहलीबार 1 मई को मई दिवस
साम्यवादी प्रभाव को समाप्त करने के उद्देश्य से सरकार ने 1928 में पब्लिक सेफ्टी बिल पेश किया। पब्लिक सेफ्टी बिल के कानून बनने पर 1929 में लगभग 31 साम्यवादी नेताओं जिनमें तीन ब्रिटिश नागरिक फिलिप स्प्रेट, बेन ब्रैडले, लेस्टर हचिन्सन भी शामिल को गिरफ्तार कर सरकार ने उन पर मेरठ षड्यंत्र केस के अन्तर्गत मुकदमा चलाया।
मेरठ षड्यंत्र केस के अभियुक्तों के लिए राष्ट्रवादी नेता जवाहर लाल नेहरू, एम० ए० अंसारी, कैलाश नाथ काटजू, एम० सी० छागला आदि ने पैरवी की।
1929 के अंतिम चरण में भारतीय साम्यवादियों ने अपने को राष्ट्रीय कांग्रेस से पृथक कर उसे पूंजीपतियों की पार्टी घोषित किया तथा जवाहरलाल नेहरू को पूंजीपतियों का एजेन्ट कहा।
12 मार्च, 1930 को गांधी द्वारा शुरु किये गये 'सविनय अवज्ञा आंदोलन' को साम्यवादियों ने भारत में सशस्त्र क्रांति का उचित मार्ग समझा और आंदोलन जो अहिंसक था उसे कई स्थानों पर हिंसक रूप प्रदान कर दिया।
सविनय अवज्ञा आंदोलन को हिंसात्मक होता देख कर गांधी ने आंदोलन को स्थगित कर इरविन से समझौता किया।
साम्यवादियों ने गांधी-इरविन समझौते को 'राष्ट्रवाद के साथ कांग्रेसी विश्वासघात कहा
साम्यवादियों के भारत में बढ़ रहे प्रभाव से चिंतित ब्रिटिश सरकार ने 1934 में 'भारतीय साम्यवादी दल' पर प्रतिबंध लगा दिया। यह प्रतिबंध 1942 तक लगा रहा।
अक्टूबर, 1934 में सुभाष चंद्र बोस और जवाहरलाल नेहरु के समर्थन के बाद कांग्रेस के भीतर कांग्रेस समाजवादी दल का गठन हुआ। इस दल के प्रमुख सदस्य-जय प्रकाश नारायण, आचार्य नरेन्द्र देव, अच्युत पटवर्धन, अशोक मेहता, मीनू मसानी, डॉ० राम मनोहर लोहिया, कमलादेवी चट्टोपाध्याय, गंगा शरण सिंह, युसुफ मेहराले आदि थे।
1935 में साम्यवादी दल एक बार फिर कांग्रेस के समीप आया और यह बात मानी कि ' कांग्रेस भारत की जनता का केन्द्रीय जन संगठन है जो साम्राज्यवाद के विरोध में खड़ा है।'
समाजवाद ही क्यों? (पुस्तक) - जयप्रकाश नारायण तथा समाजवाद एवं राष्ट्रीय आंदोलन (पुस्तक)- रचना आचार्य नरेन्द्र देव ने किया।
1937 में मानवेन्द्र नाथ राय ने 'लीग ऑफ रेडिकल कांग्रेस मैन' तथा सौम्येन्द्रनाथ टैगोर ने 'क्रांतिकारी साम्यवादी दल' की स्थापना की।
भारतीय बोल्शेविक दल की स्थापना 1939 में बंगाल में मजदूर नेता एच० दत्त मजूमदार, अजीत राय, शिशिर राय तथा विश्वनाथ दूबे आदि के द्वारा की गई
द्वितीय विश्वयुद्ध (1939) शुरु होने पर भारतीय साम्यवादियों ने इसे 'लोकयुद्ध' (People's War) की संज्ञा दी।
रामगढ़ में हुए कांग्रेस के अधिवेशन (1940) में एक क्रांतिकारी समाजवादी दल का गठन किया गया। यह संगठन अंग्रेजों के बाद भारत में समाजवाद की स्थापना करना चाहता था।
1942 के भारत छोड़ो आंदोलन का प्रारम्भ में साम्यवादियों द्वारा समर्थन लेकिन कांग्रेस द्वारा सरकार के युद्ध (द्वितीय विश्व युद्ध) प्रयासों का समर्थन न करने पर साम्यवादियों ने अपने को आंदोलन से अलग कर लिया।
1946 में हुए नौसेना विद्रोह का साम्यवादियों द्वारा समर्थन किया गया।
कांग्रेस के अंदर वामपंथ का उदय - जवाहरलाल नेहरु और सुभाषचंद्र बोस
इस वामपंथ ने अपना ध्यान साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष तक ही सीमित नहीं रखा। साथ ही साथ उसने पूंजीपतियों और जमींदारों के आंतरिक वर्गीय शोषण का सवाल भी उठाया।
अगस्त 1928 में आयोजित पहला अखिल-बंगाल छात्र सम्मेलन की अध्यक्षता जवाहरलाल नेहरू ने की।
मानवेंद्रनाथ राय कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के नेतृत्व वर्ग में चुने जाने वाले पहले भारतीय थे।
मुजफ्फर अहमद और श्रीपाद अमृत डांगे को वर्ष 1924 में सरकार ने गिरफ्तार कर उन पर कम्युनिस्ट विचारों के प्रचार का आरोप लगाया और उन्हें तथा कुछ और लोगों को लेकर कानपुर षड्यंत्र का मुकदमा चलाया।
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना मानवेंद्रनाथ राय के द्वारा कानपूर में 26 दिसम्बर 1925 की गयी।
वर्ष 1928 में एक लम्बी हड़ताल खड़गपुर को रेलवे वर्कशाप में दो माह तक चली। दक्षिण भारतीय रेल मजदूरों ने भी हड़ताल की। जमशेदपुर में टाटा के लोहा-इस्पात कारखाने में भी एक हड़ताल हुई। इस हड़ताल के समाधान में सुभाषचंद्र बोस की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। इस काल की सबसे प्रमुख हड़ताल बम्बई की कपड़ा में हुई, जहां लगभग डेढ़ लाख मजदूर पांच महीनों से अधिक समय तक हड़ताल पर रहे। यह हड़ताल कम्युनिस्टों के नेतृत्व में हुई।
मार्च 1929 में 31 प्रमुख मजदूर और कम्युनिस्ट नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया; इनमें तीन अंग्रेज भी थे। फ़िर इन पर चार वर्षों तक मुकदमा चलाया गया, जिसे मेरठ षड्यंत्र का मुकदमा कहा जाता है। यह 4 वर्षों तक चला और मुकदमे की समाप्ति पर इनको लम्बी-लम्बी जेल सजाएं दी गई ।
बारदोली सत्याग्रह
बारदोली का प्रसिद्ध सत्याग्रह इसी समय हुआ। वर्ष 1928 में सरदार वल्लभभाई पटेल के नेतृत्व में किसानों ने टैक्स न देने का आंदोलन चलाया और अंत में अपनी मांगें मनवाने में सफल रहे।
क्रांतिकारी राष्ट्रवाद
उत्तर भारत के क्रांतिकारी आन्दोलन
क्रांतिकारी आन्दोलन के दूसरे चरण के मार्गदर्शन में शचीन्द्र सान्याल की रचना बंदी जीवन ने अहम भूमिका निभायी
हिंदुस्तान प्रजातंत्र संघ
अक्टूबर 1924 में एक अखिल भारतीय सम्मेलन के बाद सशस्त्र क्रांति के उद्देश्य गठित
9 अगस्त 1925 को उत्तर रेलवे के लखनऊ सहारनपुर संभाग के काकोरी नामक स्थान पर ‘8 डाउन’ ट्रेन पर डकैती डाल सरकारी खजाने को लुट लिया गया
क्रांतिकारी युवकों को बड़ी संख्या में गिरफ्तार करके उन पर काकोरी षड्यंत्र केस (1925)/ नामक मुकदमा चलाया गया।
रामप्रसाद बिस्मिल और अशफाकुल्ला समेत चार लोगों को फांसी दे दी गई।
नौजवान भारत सभा
वर्ष 1926 में पंजाब में गठित|
भगत सिंह इसके प्रथम सचिव बने थे।
भगतसिंह ने सभा के जो नियम तैयार किए थे उनमें दो नियम इस प्रकार थे : 1. सांप्रदायिक विचार फैलाने वाले सांप्रदायिक संगठनों या अन्य पार्टियों से कोई संबंध न रखना।" और 2. लोगों को यह समझाना कि धर्म व्यक्तिगत आस्था का विषय है तथा इस प्रकार उनमें सामान्य सहिष्णुता की भावना जगाना, तथा इसी विचार के अनुसार कार्य करना।"
हिंदुस्तान समाजवादी प्रजातंत्र संघ
सितम्बर 1928 में दिल्ली के फिरोजशाह कोटला मैदान में चंद्रशेखर आजाद के नेतृत्व में हिंदुस्तान प्रजातंत्र संघ का नाम बदला
30 अक्टूबर, 1928 को साइमन कमीशन विरोधी एक प्रदर्शन पर पुलिस के बर्बर लाठी चार्ज के कारण पंजाब के महान नेता लाला लाजपतराय शहीद हो गए।
17 दिसम्बर, 1928 को भगतसिंह, चंदशेखर आजाद और राजगुरु ने लाठीचार्ज का नेतृत्व करने वाले ब्रिटिश पुलिस अधिकारी को गोलियों से भून दिया।
8 अप्रैल, 1929 - भगतसिंह और बटुकेश्वर दत्त ने केंद्रीय धारा-सभा में एक बम फेंका। बम "बहरों को सुनाने" के लिए था। उन्होंने जान-बुझकर अपने को गिरफ्तार कराया क्योंकि वे क्रांतिकारी प्रचार के लिए अदालत को एक मंच के रूप में उपयोग करना चाहते थे।
एक भूख हड़ताल में 63 दिनों की ऐतिहासिक भूख हड़ताल के बाद एक दुबले पतले युवक क्रांतिकारी जतीनदास शहीद हुए।
जनता के देशव्यापी विरोध के बावजूद भगतसिंह, सुखदेव, और राजगुरु को 23 मार्च, 1931 को फांसी दे दी गई।
फांसी से कुछ दिन पहले जेल सुपरिटेंडेंट को लिखे गए एक पत्र में इन तीनों क्रांतिकारी ने कहा था "बहुत जल्द ही अंतिम संघर्ष की दुदुभि बजेगी। इसका परिणाम निर्णायक होगा। हमने इस संघर्ष में भाग लिया है और हमें इस पर गर्व है।"
अपने अंतिम दो पत्रों में 23 वर्षीय भगतसिंह ने समाजवाद में अपनी आस्था भी व्यक्त की। वे लिखते हैं : किसानों को केवल विदेशी शासन ही नहीं बल्कि जमींदारों और पूज्जीपतियों के जुए से भी स्वयं को मुक्त कराना होगा।
3 मार्च, 1931 को भेजे गए अपने अंतिम संदेश में उन्होंने घोषणा की कि भारत में संघर्ष तब तक जारी रहेगा जब तक कि "मुट्ठी भर शोषक अपने स्वार्थ के लिए साधारण जनता की मेहनत का शोषण करते रहेंगे। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि ये शोषक शुद्ध रूप से ब्रिटिश पूंजीपति हैं, ब्रिटिश और भारतीय मिलकर शोषण करते हैं, या ये शुद्ध रूप से भारतीय हैं।"
2 फरवरी, 1931 को लिखे गए अपने राजनीतिक वसीयतनामे में उन्होंने घोषणा की: " में मैंने एक आतंकवादी की तरह कार्य किया है। लेकिन मैं आतंकवादी नहीं हूं..... मैं अपनी पूरी शक्ति से यह घोषणा करना चाहूंगा कि में आतंकवादी नहीं हूं और शायद अपने क्रांतिकारी जीवन के आरंभिक दिनों को छोड़कर में कभी आतंकवादी नहीं था। और मुझे पूरा विश्वास है कि इन विधियों से कुछ भी हासिल नहीं कर सकते। "
चंद्रशेखर आजाद 27 फरवरी, 1931 को इलाहाबाद के एक पार्क में पुलिस से मुकाबला करते हुए मारे गए।
बंगाल के क्रांतिकारी आंदोलन
अप्रैल 1930 चटगांव के सरकारी शस्त्रागार पर क्रांतिकारियों ने योजनाबद्ध में ढंग से मास्टर सूर्यसेन के नेतृत्व में एक बड़ा छापा मारा।
बंगाल के क्रांतिकारी आंदोलन की एक उल्लेखनीय विशेषता उसमें युवतियों की भागीदारों के थी।
सूर्यसेन फरवरी 1933 में गिरफ्तार कर लिए गए और कुछ समय बाद उन्हें फांसी दे दी गई।
साइमन कमीशन
नवम्बर 1927 में ब्रिटिश सरकार ने साइमन की अध्यक्षता में इंडियन स्टेटयूटरी कमीशन का गठन किया, जिसे आमतौर पर साइमन कमीशन कहा जाता है।
उद्देश्य- आगे सांविधानिक सुधार के प्रश्न पर विचार करना था।
इस कमीशन के सभी सदस्य अंग्रेज थे साथ ही स्वशासन के लिए भारतीयों के मत की अनदेखी के कारण भारतीयों ने इस घोषणा का विरोध किया। ।
वर्ष 1927 के कांग्रेस के मद्रास अधिवेशन की अध्यक्षता डा. अंसारी कर रहे थे, उसमें राष्ट्रीय कांग्रेस ने "हर कदम पर और हर रूप में" इस कमीशन के बहिष्कार का निर्णय किया।
मुस्लिम लीग और हिंदू महासभा ने भी कांग्रेस के फैसले का समर्थन किया।
राष्ट्रवादियों के साथ एकजुटता जतलाने के लिए मुस्लिम लीग ने मिले-जुले चुनाव मंडलों के सिद्धांत को स्वीकार कर लिया, इस शर्त के साथ कि मुसलमानों के लिए कुछ सीटें आरक्षित रखी जाएं।
सभी महत्त्वपूर्ण भारतीय नेताओं और दलों ने परस्पर एकजुट होकर तथा सांविधानिक सुधारों की एक वैकल्पिक योजना बनाकर साइमन कमीशन की चुनौती का जवाब देने का प्रयास किया। इसका परिणाम नेहरू रिपोर्ट के रूप में सामने आया जिसके प्रमुख निर्माता मोती लाल नेहरू थे। इसे अगस्त 1928 में अंतिम रूप दिया गया।
दुर्भाग्य से कलकत्ता में दिसंबर 1928 में आयोजित सर्वदलीय सम्मेलन रिपोर्ट को स्वीकार न कर सका। मुस्लिम लोग, हिंदू महासभा और सिख लीग के कुछ सांप्रदायिक रुझान वाले नेताओं ने इसे लेकर आपत्तियां कीं।
3 फरवरी को कमीशन के बम्बई पहुंचने पर एक अखिल भारतीय हड़ताल की गई। कमीशन जहां जहां भी गया, वहाँ हड़तालों और काले झंडे दिखाकर तथा "साइमन, वापस जाओ" के नारे के साथ उसका स्वागत किया गया। इस अवसर पर जनता के विरोध को कुचलने के लिए सरकार ने निर्मम दमन तथा पुलिस कार्यवाहि का सहारा लिया।
फरवरी 1927 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की ओर से जवाहरलाल नेहरू ने ब्रुसेल्स में आयोजित उत्पीडित जातीयताओं के सम्मेलन में भाग लिया। इस सम्मेलन का उद्देश्य इन सबके साझे साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष में तालमेल बिठाना और उन्हें योजनाबद्ध रूप देना था। नेहरू जी सम्मेलन में स्थापित "लीग अगेंस्ट इंपीरियलिज्म" की एक्जीक्यूटिव कौंसिल के भी सदस्य चुने गए।
वर्ष 1927 में राष्ट्रीय कांग्रेस के मद्रास अधिवेशन में सरकार को चेतावनी दी गई कि ब्रिटेन अपने साम्राज्यवादी उद्देश्यों की पूर्ति के लिए अगर कोई युद्ध छेड़ेगी तो भारत की जनता उसका समर्थन नहीं करेगी।
गाँधीजी सक्रिय राजनीति में वापस लौट आए और दिसंबर 1928 में कांग्रेस के कलकत्ता सम्मेलन में शामिल हुए।
वर्ष 1929 के ऐतिहासिक लाहौर अधिवेशन में जवाहरलाल नेहरु को कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया। इस घटना का एक रोमानी पहलू भी था। मोतीलाल नेहरू 1928 में कांग्रेस के अध्यक्ष थे और राष्ट्रीय आंदोलन के आधिकारिक प्रमुख के रूप में उनका स्थान अब उनके पुत्र ने ले लिया था।
कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन में पूर्ण स्वराज्य कांग्रेस का उद्देश्य घोषित । 31 दिसम्बर, 1929 को स्वाधीनता का नया नया स्वीकृत तिरंगा झंडा लहराया गया। 26 जनवरी, 1930 को पहला स्वाधीनता दिवस घोषित किया गया।
इस अधिवेशन ने एक नागरिक अवज्ञा आंदोलन भी छेड़ने की घोषणा की। लेकिन इसने संघर्ष का कोई कार्यक्रम नहीं तैयार किया। यह काम महात्मा गांधी पर छोड़ दिया गया और पूरे कांग्रेस संगठन को उनकी आज्ञा के अधीन कर दिया गया।
सविनय अवज्ञा आन्दोलन
12 मार्च, 1930 को दूसरे नागरिक अवज्ञा आंदोलन का आरंभ गाँधीजी के प्रसिद्ध दांडी मार्च के साथ हुआ।
78 चुने हुए अनुयायियों को साथ लेकर गांधीजी साबरमती आश्रम से लगभग 375 किलोमीटर दूर, गुजरात के समुद्र तट पर स्थित दांडी गांव पहुंचे।
गाँधीजी 6 अप्रैल को दांडी पहुंचे, समुद्र तट से मुट्ठी भर नमक उठाया और इस प्रकार नमक कानून को तोड़ा।
यह इस बात का प्रतीक था कि भारतीय जनता अब ब्रिटिश कानूनों और ब्रिटिश शासन के अंतर्गत जीने के लिए तैयार नहीं है।
गाँधीजी ने घोषणा की: भारत में ब्रिटिश शासन ने इस देश को नैतिक, भौतिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक विनाश के कगार तक पहुंचा दिया है। मैं इस शासन को एक अभिशाप मानता हूं। मैं इस शासन प्रणाली को नष्ट करने पर आमादा चुका है। हमारा संघर्ष एक अहिंसक युद्ध है। अब राजद्रोह मेरा धर्म बन गया है|
पूरे देश में नमक कानून तोड़े गए। फिर उसके बाद महाराष्ट्र, कर्नाटक और मध्य भारत में जंगल कानून तोड़े गए, और पूर्वी भारत में ग्रामीण जनता ने चौकीदारी कर अदा करने से इनकार कर दिया।
इस आंदोलन की एक प्रमुख विशेषता स्त्रियों की भागीदारी थी। हजारों स्त्रियां घरों के अंदर से बाहर निकली और सत्याग्रह में भाग लिया। विदेशी वस्त्र या शराब बेचने वाली दुकानों पर धरना देने में उनकी सक्रिय भूमिका रही। जुलूसों में वे पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलीं।
आंदोलन बढ़कर भारत के एकदम उत्तर पश्चिमी छोर तक भी पहुंचा। "सीमांत गांधी" के नाम से जाने जाने वाले खान अब्दुल गफ्फार खान के नेतृत्व में पठानों ने खुदाई खिदमतगार गफ्फार (ईश्वर के सेवक) नामक संगठन बना लिया, जो जनता के बीच "लाल कुर्ती वाले" कहलाते थे। ये लोग अहिंसा और स्वाधीनता संघर्ष को समर्पित थे।
पेशावर में गढ़वाली सिपाहियों के दो प्लाटूनों ने अहिंसक प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाने से मना कर दिया इसके नेता चंद्र सिंह गढ़वाली थे। इसके बदले में सिपाहियों का कोर्ट मार्शल किया गया और लंबी जेल सजाऐं दी गई।
नागालैंड ने रानी गिडालू जैसी वीरांगना को जन्म दिया। इस वीरवाला ने मात्र 13 वर्ष की आयु में कांग्रेस और गांधीजी के आह्वान पर विदेशी शासन के खिलाफ विद्रोह का झंडा उठा लिया। वर्ष 1932 में यह युवा रानी पकड़ी गई और उसे आजीवन कारावास की सजा मिली। उसे मुक्ति 1947 में स्वतंत्र भारत की सरकार द्वारा मिली। उसके बारे में जवाहरलाल नेहरू ने 1937 में लिखा था: "एक दिन आएगा जब भारत उसे याद करेगा और उसका सम्मान करेगा।"
गांधीजी तथा दूसरे कांग्रेसी नेताओं समेत 90,000 से अधिक सत्याग्रही गिरफ्तार किए गए। कांग्रेस को गैर-कानूनी घोषित कर दिया गया। समाचारों पर कड़ा सेंसर लगाकर राष्ट्रवादी प्रेस का गला घोंट दिया गया।
पहला गोलमेज सम्मेलन
1930 में ब्रिटिश सरकार ने लंदन में भारतीय नेताओं और सरकारी प्रवक्ताओं का पहला गोलमेज सम्मेलन आयोजित किया।
इसका उद्देश्य साइमन कमीशन की रिपोर्ट पर विचार करना था। ले
कांग्रेस ने सम्मेलन का बहिष्कार किया और उसकी कार्यवाहियां बेकार गई।
इर्विन और गांधीजी समझौता
लार्ड इर्विन और गांधीजी के बीच मार्च 1931 में एक समझौता हुआ।
सरकार अहिंसक रहने वाले राजनीतिक बंदियों को रिहा करने पर तैयार
उपयोग के लिए नमक बनाने का अधिकार तथा विदेशी वस्त्रों तथा शराब की दुकानों पर धरना देने का अधिकार भी मान लिए गए।
कांग्रेस ने नागरिक अवज्ञा आंदोलन रोक दिया और दूसरे गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने पर तैयार हो गई।
अनेक कांग्रेसी नेता और खासकर युवक वामपंथी गांधी- इर्विन समझौते के विरोधी थे, क्योंकि सरकार ने भगतसिंह तथा उनके दो साथियों की फांसी की सजा को आजीवन कारावास में बदल देने के मांग को नहीं मानी थी|
गांधीजी ने बरावरी के आधार पर बातचीत की थी और इस प्रकार कांग्रेस की प्रतिष्ठा को सरकार की प्रतिष्ठा के बराबर ला दिया था। इसलिए वे कांग्रेस के कराची अधिवेशन में इस समझौते का अनुमोदन कराने में सफल रहे।
दूसरे गोलमेज सम्मेलन
गांधीजी सितंबर 1931 में दूसरे गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने इंग्लैंड गए। लेकिन उनकी जोरदार वकालत के बावजूद सरकार ने डोमिनियन स्टेटस तत्काल देकर उनके आधार पर स्वतंत्रता की बुनियादी राष्ट्रवादी मांग को मानने से इंकार कर दिया।
दिसंबर 1930 में कांग्रेस ने "न लगान, न टैक्स" का अभियान चलाया।
वायसराय लार्ड वेलिंगडन का मत था कि कांग्रेस के साथ समझौता करना बहुत बड़ी गलती थी।
गांधी इर्विन समझौते पर हस्ताक्षर के फौरन बाद आंध्र के पूर्वी गोदावरी जिले में गांधीजी का एक चित्र लगाने के करण एक भीड़ पर गोली चली थी और चार लोग मारे गए थे
4 जनवरी, 1932 को गांधीजी तथा दूसरे कांग्रेसी नेता फिर घर लिए गए और कांग्रेस गैर-कानूनी घोषित कर दी गई।
सामान्य कानून निलंबित कर दिए गए और प्रशासन विशेष अध्यादेशों के सहारे चलने लगा।
राष्ट्रवादी समाचार पत्रों पर दोबारा सेंसरशिप लागू कर दी गई।
नागरिक अवज्ञा आंदोलन धीरे-धीरे बिखर गया। कांग्रेस ने आधिकारिक रूप में मई 1933 में इसे निलंबित कर दिया और मई 1934 में इसे वापस ले लिया।
1933 में ही सुभाषचन्द्र बोस और विट्ठलभाई पटेल ने घोषणा कर दी थी कि "एक राजनीतिक नेता के रूप में महात्माजी असफल रहे हैं। "
ब्रिटिश पत्रकार एच.एन. बेल्सफोर्ड ने लिखा है, हाल के संघर्ष के फलस्वरूप भारतीयों ने “अपने मन को मुक्त कर लिया है और अपने दिलों में स्वाधीनता प्राप्त कर ली है। "
साम्प्रदायिक पंचाट और पूना समझौता (1932 )
साम्प्रदायिक पंचाट (कम्युनल एवार्ड)- ब्रिटिश प्रधानमंत्री रैम्जे मैकडोनाल्ड ने 16 अगस्त, 1932 को जारी किया
हिन्दुओं को विभाजित करने हेतु पृथक निर्वाचक पद्धति को मुसलमानों के साथ साथ दलित वर्गों पर भी लागू
मुसलमानों, इसाइयों, सिखों, आंग्ल भारतीयों तथा महिलाओं के लिए पृथक निर्वाचन पद्धति की सुविधा केवल प्रांतीय विधान मण्डलों पर लागू
दलित वर्ग के पृथक निर्वाचक मण्डल की सुविधा के विरोध में 20 सितम्बर 1932 को महात्मा गांधी ने जेल में ही आमरण अनशन शुरू किया
टैगोर ने गांधी के बारे में कहा कि "भारत की एकता और उसकी सामाजिक अखण्डता के लिये यह एक उत्कृष्ट बलिदान है। हमारे व्यथित हृदय आपकी महान तपस्या का आदर और प्रेम के साथ अनुसरण करेंगे।"
मदनमोहन मालवीय, डा० राजेन्द्र प्रसाद, पुरूषोत्तम दास, सी० राजगोपालाचार आदि के अथक प्रयत्नों से गांधी के उपवास के 5 दिन बाद 26 सितम्बर, 1932 को गांधी जी और दलित नेता अम्बेडकर में पूना समझौता हुआ।
पूना पैक्ट के अनुसार दलितों के लिए पृथक निर्वाचन व्यवस्था समाप्त तथा दलितों के लिए विभिन्न प्रांतीय विधान मण्डलों में 148 सीटें तथा केन्द्रीय विधान मण्डल में 18 प्रतिशत सीटें आरक्षित
तीसरे गोलमेज सम्मेलन
नवंबर 1932 में लंदन में एक बार फिर कांग्रेस के बिना तीसरे गोलमेज सम्मेलन का आयोजन किया गया था।
इसमें हुए विचार-विमर्श का परिणाम अंतत: 1935 के भारत सरकार कानून के रूप में सामने आया। भीमराव अम्वेदकर
सविनय अवज्ञा आंदोलन का स्थगन
पूना समझौते के बाद गांधी जी की रुचि अस्पृश्यता विरोधी आंदोलन के प्रति अधिक - हरिजन सेवक संघ की स्थापना
गांधी जी द्वारा हरिजन कल्याण हेतु सितम्बर, 1932 में 'अखिल भारतीय छुआछूत विरोधी लीग' की स्थापना तथा हरिजन नामक साप्ताहिक पत्र का प्रकाशन
8 मई, 1933 को गांधी जी अछूतों के प्रति हिन्दुओं के दुर्व्यवहार पर पश्चाताप तथा देश से अस्पृश्यता को जड़ से समाप्त करने हेतु शुद्धि के लिए 21 दिन का उपवास जेल में शुरू की।
जेल में शुद्धि के लिए 21 दिन के उपवास से पूर्व गांधी जी ने कहा कि "या तो छुआछूत को जड़ से समाप्त करो या तो मुझे अपने बीच से हटाए यह मेरी अंतरात्मा की पुकार है, चेतना का निर्देश है।"
सरकार ने उपवास शुरू होने के शीघ्र बाद गांधी को जेल से रिहा कर दिया
रिहाई के बाद गांधी जी ने मई, 1933 में सविनय अवज्ञा आंदोलन को स्थगित कर दिया।
गांधी जी ने 7 नवम्बर, 1933 को वर्धा से 'हरिजन यात्रा' प्रारम्भ की, इस यात्रा के दौरान गांधी जी ने करीब 12,500 मील की यात्रा की
जनवरी 1934 को गांधी ने बिहार में आये भूकम्प पर कहा कि "यह 15 सवर्ण हिन्दुओं के पापों का दैवी दंड है।"
हरिजन यात्रा के दौरान गांधी जी को कई स्थानों पर काले झंडे दिखाये गये, इनकी सभाओं में उत्पात मचाया गया, उनके विरूद्ध पर्चे बांटे गये । 15 जून, 1934 को पूना में गांधी जी की कार पर बम फेंका गया।
1935 के भारत सरकार कानून
इस कानून में एक नए अखिल भारतीय संघ की स्थापना तथा प्रांतों में प्रांतीय स्वायत्तता के आधार पर एक नई शासन प्रणाली की व्यवस्था थी।
यह सघ (फेडरेशन) ब्रिटिश भारत के प्रांतों तथा रजवाड़ों पर आधारित था।
केंद्र में दो सदनों वाली एक संघीय विधायिक की व्यवस्था थी जिसमें रजवाड़ों को भिन्न-भिन्न प्रतिनिधित्व दिया गया था।
ब्रिटिश भारत की केवल 14 प्रतिशत जनता को मताधिकार प्राप्त था।
कांग्रेस ने “पूरी तरह निराशाजनक" कहकर इस कानून की निंदा की।
इस कानून के संघीय पक्ष को कभी लागू नहीं किया गया, पर प्रांतीय पक्ष जल्द ही लागू कर दिया गया।
इस 1935 के नए कानून का कड़ा विरोध करने के बावजूद कांग्रेस ने इसके अंतर्गत होने वाले चुनावों में भाग लेने का निर्णय किया और इस घोषित लक्ष्य के साथ कि वह इस कानून की लोकप्रियता सिद्ध करेगी।
कांग्रेस ने अधिकांश प्रांतों में भारी जीत हासिल की। ग्यारह में से पाँच प्रान्तों (मद्रास, बिहार, उड़ीसा, मध्य प्रान्त एवं संयुक्त प्रान्त) में पूर्ण बहुमत के साथ सात प्रांतों में जुलाई 1937 में कांग्रेसी मंत्रिमंडल बने। कांग्रेस ने दो प्रांतों में साझी सरकारें भी बनाई। बाद में केवल बंगाल और पंजाब प्रांत में ही गैर- कांग्रेसी मंत्रिमंडल बन सके। पंजाब में यूनियनिस्ट पार्टी ने और बंगाल में कृषक प्रजा पार्टी और मुस्लिम लीग ने मिलकर सरकार बनाई।
कांग्रेस मंत्रिमंडल 1935 के कानून के अंतर्गत उन्हें जो सीमित अधिकार प्राप्त थे उनके सहारे उन्होंने जनता की दशा सुधारने के सचमुच प्रयास किए। कांग्रेसी मंत्रियों ने अपना वेतन खुद घटाकर 500 रुपये प्रति माह कर दिया।
अनेक क्षेत्रों में उन्होंने सकारात्मक निर्णय लिए। उन्होंने नागरिक स्वतंत्रता को बढ़ावा दिया, प्रेस और अतिवादी संगठनों पर लगे प्रतिबंध हटाए, मजदूर संघों और किसान सभाओं को उन्होंने काम करने और बढ़ने की छूट दी, पुलिस के अधिकार कम किए, और क्रांतिकारी राष्ट्रवादियों समेत दूसरे राजनीतिक कैदियों को बड़ी संख्या में रिहा कर दिया। बंटाईदारों के अधिकारों और बंटाईदारों की सुरक्षा के लिए उन्होंने अनेक कृषि कानून बनाए। मजदूर संघों ने पहले से अधिक मुक्त महसूस किया और मजदूरों की मजदूरी बढ़वाने में सफल रहे।
संप्रदायिक दंगों से सख्ती से निपटना कांग्रेस मंत्रिमंडल की एक प्रमुख उपलब्धि थी।
कांग्रेस के अंदर वामपंथी प्रवृत्ति के मजबूत होने का प्रमाण यह था कि 1929, 1936 और 1937 में जवाहरलाल नेहरू तथा 1938 और 1939 में सुभाषचन्द्र बोस कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए विजयी हुए।
1934 में आचार्य नरेंद्र देव तथा जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में कांग्रेस समाजवादी पार्टी की स्थापना हुई।
1935 के बाद पूरनचंद जोशी के नेतृत्व में कम्युनिस्ट पार्टी का प्रसार हुआ।
वर्ष 1936 में कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन के अध्यक्षीय भाषण में नेहरू समाजवाद को अपना लक्ष्य बनाने तथा खुद को किसान और मजदूर वर्गों के और भी पास लाने का आग्रह किया । उन्होंने विश्व की समस्याओं और भारत की समस्याओं का एकमात्र समाधान समाजवाद को माना।
मौलिक अधिकारों और आर्थिक नीति पर 1931 के कांग्रेस के कराची अधिवेशन में जवाहरलाल नेहरू के आग्रह पर घोषणा की गई कि
जनता के शोषण को समाप्त करने के लिए राजनीतिक स्वाधीनता में लाखों लाख भूखे लोगों की वास्तविक आर्थिक स्वाधीनता भी सम्मिलित होनी चाहिए।
जनता को मूल नागरिक अधिकारों, जाति-पंथ लिंग के भेद के बिना कानून के आगे सबको समानता
सार्वभौमिक बालिग मताधिकार के आधार पर चुनाव, तथा
मुक्त और अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा की जमानत
कांग्रेस के 1936 में नेहरू की अध्यक्षता में हुए फैजपुर अधिवेशन के प्रस्तावों व 1936 के चुनाव घोषण-पत्र के वायदे
कृषि प्रणाली का मूलगामी रूपांतरण करना,
लगान और मालगुजारी में काफी कमी करना ,
ग्रामीण ऋण कम करने तथा आसान शर्तों पर ऋण देना
वर्ष 1945 में कांग्रेस वर्किंग कमेटी ने एक प्रस्ताव पारित करके जमींदारी उन्मूलन का भी अनुमोदन किया था।
वर्ष 1938 में कांग्रेस के अध्यक्ष सुभाषचंद्र बोस थे। इस समय कांग्रेस ने आर्थिक योजना का विचार अपनाया और जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में एक राष्ट्रीय योजना समिति बनाई।
वर्ष 1938 में गांधीजी के विरोध के बावजूद सुभाषचंद्र बोस दोबारा कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए।
कांग्रेस वर्किंग कमेटी के अंदर गांधीजी और उनके समर्थकों के विरोध के कारण बोस अप्रैल 1939 में कांग्रेस के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र देने को मजबूर
उन्होंने अनेक वामपंथी समर्थकों के साथ फॉरवर्ड ब्लॉक की स्थापना की।
चौथे दशक में आल इंडिया स्टूडेंटस फेडरेशन तथा अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ की भी स्थापना हुई।
वर्ष 1936 में स्वामी सहजानंद सरस्वती की अध्यक्षता में पहला अखिल भारतीय किसान संगठन अखिल भारतीय किसान सभा के नाम से बना।
वर्ष 1938 में कांग्रेस ने डा. एम. अटल के नेतृत्व में डाक्टरों का एक दल भी चीनी सेनाओं के साथ काम करने के लिए भेजा।
रजवाड़ों के राजनीतिक संघर्ष
1921 महाराजाओं के मिल-बैठे कर ब्रिटिश मार्गदर्शन में अपने साझे हित के विषयों पर विचार के लिए चंबर ऑफ प्रिंसेज की स्थापना
दिसम्बर 1927 में विभिन्न रजवाड़ों में राजनीतिक गतिविधियों के तालमेल के लिए ऑल इंडिया स्टेट्स पीपुल्स कांफ्रेंस की स्थापना
अनेक रजवाड़ों - राजकोट, जयपुर, कश्मीर, हैदराबाद और दावनकोर में जन संघर्ष| राजाओं द्वारा इन संघर्षों का निर्मम दमन, कुछ ने सांप्रदायिकता का सहारा भी लिया।
हैदराबाद के निजाम ने जन आंदोलन को मुस्लिम विरोधी और कश्मीर के महाराजा ने उसे हिंदू विरोधी घोषित किया, जबकि ट्रावनकोर के राजा का दावा था कि जन आंदोलन के पीछे ईसाइयों का हाथ है।
राष्ट्रीय कांग्रेस ने रजवाड़ों की जनता के संघर्ष का समर्थन किया और राजाओं से आग्रह किया कि वे जनतांत्रिक प्रतिनिधि सरकार स्थापित करें और जनता को मूलभूत नागरिक अधिकार दें।
वर्ष 1938 में जब कांग्रेस ने अपने स्वाधीनता के लक्ष्य को परिभाषित किया तो इसमें रजवाड़ों की स्वाधीनता को भी शामिल किया।
बोस की अध्यक्षता 1939 के त्रिपुरी अधिवेशन में रजवाड़ों की जनता के आंदोलनों में और भी सक्रिय रूप से भाग लेने का कांग्रेस ने फैसला किया।
ब्रिटिश भारत तथा रजवाड़ों के राजनीतिक संघर्षों के साझे राष्ट्रीय लक्ष्यों को सामने रखने के लिए जवाहरलाल नेहरू को 1939 में ऑल इंडिया स्टेट्स पीपुल्स कांफ्रेंस का अध्यक्ष चुना गया।'
पाकिस्तान की मांग
वर्ष 1940 में मुस्लिम लीग ने एक प्रस्ताव पारित करके मांग की कि स्वाधीनता के बाद देश के दो भाग कर दिए जाएं और पाकिस्तान नाम का एक अलग राज्य बनाया जाए।
चौथे दशक में मुस्लिम लीग वहीं मजबूत थी, जहां मुस्लिम अल्पसंख्यक थे। इसके विपरीत पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत, पंजाब, सिंघ और बंगाल में जहां मुसलमान बहुसंख्यक थे और इसलिए अपने को कुछ सुरक्षित महसूस करते थे।
पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत, पंजाब, सिन्ध और बंगाल में हिंदू संप्रदायवादियों ने कांग्रेस के विरोध में मुस्लिम लीग तथा दूसरे सांप्रदायिक संगठनों मंत्रिमंडल बनवाने में सहायता की।
दूसरा विश्वयुद्ध और भारत
दूसरा विश्वयुद्ध सितंबर 1939 में आरंभ
भारत की सरकार राष्ट्रीय कांग्रेस या केंद्रीय धारा सभा के चुने हुए सदस्यों से परामर्श किए बिना फौरन युद्ध में शामिल हो गई।
भारत को स्वाधीन घोषित करने या कम से कम भारतीयों को समुचित अधिकार दिए जाने की मांग युद्ध में सक्रिय भागीदारी हेतु कांग्रेस के नेताओं द्वारा की गयी।
ब्रिटिश सरकार के इस मांग को मानने से इनकार के बाद कांग्रेस ने अपने मंत्रिमंडलों को त्यागपत्र देने का आदेश दिया।
व्यक्तिगत सत्याग्रह
अक्तूबर 1940 में गांधीजी का कुछ चुने हुए व्यक्तियों को साथ लेकर सीमित पैमाने पर सत्याग्रह चलाने का निर्णय
सत्याग्रह को सीमित रखने के कारण
देश में व्यापक उथल-पुथल न हो और
ब्रिटेन के युद्ध प्रयासों में बाधा न पड़े।
विनोबा भावे पहले एवं नेहरू व्यक्तिगत सत्याग्रही
15 मई, 1941 तक 25,000 से अधिक सत्याग्रही गिरफ्तार
क्रिप्स मिशन
कैबिनेट मंत्री सर स्टैफोर्ड क्रिप्स के नेतृत्व में मार्च 1942 में भारत आया एक मिशन
क्रिप्स पहले लेबर पार्टी के उग्र सदस्य और भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के पक्के समर्थक थे।
क्रिप्स की घोषणा - भारत में ब्रिटिश नीति का उद्देश्य, यहां जितनी जल्दी संभव हो स्वशासन की स्थापना करना"
कांग्रेस की वास्तविक शक्ति तत्काल भारतीयों को सौंपे जाने के मांग मानने से इनकार के कारण उनके तथा कांग्रेसी नेताओं की लंबी बातचीत टूट गई।
जापानी आक्रमणकारियों से भारत के लिए हुए खतरे को देखते हुए कांग्रेस युद्ध प्रयासों में सहयोग के लिए तैयार
भारत छोड़ो आन्दोलन
8 अगस्त, 1942 को बम्बई के ग्वालिया टैंक मैदान में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की मीटिंग में प्रसिद्ध " भारत छोड़ो" प्रस्ताव स्वीकार किया गया
जिसमें इस उद्देश्य को पाने के लिए गांधीजी के नेतृत्व में एक अहिंसक जन-संघर्ष चलाने का फैसला किया गया।
8 अगस्त की रात में कांग्रेसी प्रतिनिधियों को संबोधित करते हुए गांधीजी ने कहा मैं अगर हो सके तो तत्काल इसी रात, प्रभात से पहले स्वाधीनता चाहता हूँ.. आज मैं पूर्ण स्वाधीनता से कम किसी चीज से संतुष्ट होने वाला नहीं हूं... अब मैं आपको एक छोटा सा मंत्र दे रहा हूं: आप इसे अपने दिलों में संजोकर रख लें और हर एक सांस में इसका जाप करें वह मंत्र यह है 'करो या मरो!' हम या तो भारत को स्वतंत्र कराएंगे या इस प्रयास में मारे जाएंगे, मगर हम अपनी पराधीनता को रहना देखने के लिए जीवित नहीं रहेंगे।
9 अगस्त 1942 - गांधी जी तथा अन्य चोटी के कांग्रेस नेता गिरफ्तार|
गांधी जी एवं सरोजनी नायडू को आगा खां पैलेस में रखा गया
कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्य नेहरू गोविन्द बल्लभ पंत, डा० प्रफुल्ल चंद्र घोष, डा० पट्टाभि सीतारमैय्या, डा० सैय्यद महमूद, आचार्य कृपलानी आदि को गिरफ्तार कर अहमद नगर में कैद कर रखा गया।
राजेन्द्र प्रसाद को पटना में नजरबन्द कर दिया गया
जय प्रकाश नारायण को गिरफ्तार कर हजारीबाग सेन्ट्रल जेल में रखा गया। 9 अक्टूबर 1942 को हजारीबाग जेल के दीबार को कमीज फारकर बनाई रस्सी से फांद कर जयप्रकाश नारायण 17 स्वतंत्रता सेनानियों के साथ भागने में सफल रहे तथा 42 के आंदोलन में भूमिगत होकर 'आजाद दस्ता' का गठन किया।
वरिष्ठ नेताओं की गिरफ्तारी के बाद आंदोलन का नेतृत्व युवाओं ने संभला, आंदोलन अहिंसक न रह सका।
अहमदाबाद, मद्रास, बंगलौर, सहारनपुर आदि में मजदूरों की हड़तालों से फैक्ट्रियां बंद हो गई, संचार साधनों को नष्ट किया गया, रेल लाइने उखाड़ी गई, बिजली के तार काटे गये, पुलिस स्टेशन, रेलवे स्टेशन, डाकखाने, सरकारी इमारते जलायी गई।
1942 के आंदोलन का सर्वाधिक प्रभाव बंगाल, बिहार, यू०पी०, मद्रास और बम्बई में
सितम्बर, 1942 के बाद गिरफ्तारी से बचे नेता जय प्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया, अच्युत पटवर्धन, अरूणा आसफ अली आदि ने भूमिगत रहते हुए नेतृत्व प्रदान किया
भारत छोड़ो आंदोलन के समय बम्बई, अहमदाबाद और जमशेदपुर में लम्बी मजदूरों की हड़तालें चली। अहमदाबाद की कपड़ा मिलों में तीन महीने लगातार हड़ताल चली।
गिरफ्तारी से बचे नेता वी० एम०खाकर, राममनोहर लोहिया, उषा मेहता, नादिमान अब्रवाद आदि ने भूमिगत कांग्रेस रेडियो का संचालन किया।
रेडियों स्टेशन बम्बई और नासिक में स्थापित थे, उनका मुख्य कार्य कांग्रेस की सूचनाओं का प्रसारण करना होता था, 12 नवम्बर, 1942 को रेडियों स्टेशन सरकार द्वारा जब्त कर लिये गये।
आंदोलन के प्रति सरकार के दमन के विरूद्ध गांधी जी ने आगा खां पैलेस में 10 फरवरी, 1943 को 21 दिन के उपवास की घोषणा के। उपवास शुरू करने के बाद उन्हें रिहा करने के लिए दबाव पड़ने लगा।
खराब स्वास्थ्य के कारण सरकार ने 6 मई 1944 को उन्हें कैद से रिहा कर दिया।
भारत छोड़ो आंदोलन के समय देश के कई इलाकों में ब्रिटिश शासन समाप्त हो गया और समनान्तर सरकारे स्थापित की गई। बलिया में गांधीवादी चित्तूपांडे के नेतृत्व में पहली समनांतर सरकार स्थापित हुई। बंगाल के मिदनापुर जिले के तामलुक नामक स्थान पर 17 दिसम्बर 1942 को तामलुक जातीय सरकार की स्थापना की गई। यहां की सरकार ने एक सशस्त्र विद्युत वाहिनी का गठन किया। यहां की समनांतर सरकार 1 सितम्बर 1944 तक चली। सतारा (महाराष्ट्र) में इस समय की सर्वाधिक दीर्घजीवी समनांतर सरकार की स्थापना हुई जिसके नेताओं में वाई० पी० चव्हाण, नाना पाटिल प्रमुख नेता थे, यहां की सरकार 1945 तक चली।
भारत छोड़ों आंदोलन अपने पूर्ववर्ती सभी आंदोलनों असहयोग, सविनय अवज्ञा, व्यक्तिगत सत्याग्रह आदि की तुलना में स्वतः स्फूर्त अधिक था।
1942 का आंदोलन मूल रूप से युवा वर्ग का, मजदूरों और विद्यार्थियों का विद्रोह था।
वायसराय लार्ड लिनलिथगों 15 अगस्त, 1942 को आंदोलनकारियों पर हवाई जहाज से मशीनगन के उपयोग का आदेश
कांग्रेस को फिर एक बार गैर-कानूनी घोषित कर दिया गया।
मुस्लिम लीग का जिन्ना गुट आंदोलन का विरोधी
23 मार्च 1943 को मुस्लिम लीग ने 'पाकिस्तान दिवस' मनाने का आह्वान
दिसम्बर 1943 के करांची अधिवेशन में मुस्लिम लीग ने, 'विभाजन करो और छोड़ो' (Divide and Quit) का नारा दिया।
अति उदारवादी नेता तेज बहादुर सप्रू ने भारत छोड़ों आंदोलन को अकल्पित तथा असामाजिक माना
भीमराव अम्बेडकर ने आंदोलन के बारे में कहा कि 'कानून और व्यवस्था को कमजोर करना पागलपन है जब कि दुश्मन हमारी सीमा पर है।'
वर्ष 1943 में बंगाल में आधुनिक इतिहास का सबसे बड़ा अकाल फूट पड़ा। कुछ ही महीनों में तीस लाख से अधिक लोग भूख से मर गए।
सी० राजगोपालाचारी फार्मूला (मार्च 1944)
मुस्लिम लीग को तुरंत भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन का समर्थन करते हुए अंतरिम सरकार को सहयोग प्प्रदान करना चाहिए
युद्ध के बाद मुस्लिम बहुसंख्यक क्षेत्रों को आत्म्निर्मान का अधिकार प्रदान किया जाए
विभाजन की स्थिति में रक्षा, वाणिज्य एवं दूरसंचार इत्यादि मुद्दों का संचालन एक ही केंद्र से किया जाए
वेवल योजना तथा शिमला सम्मेलन (1945)
अक्टूबर, 1943 को लिनलिथगो के बाद लार्ड वेवल भारत के वायसराय बने। वेवल ने तनावपूर्ण स्थिति को सामान्य बनाने की दिशा में प्रयास करते हुए सर्वप्रथम भारत छोड़ो आन्दोलन के समय गिरफ्तार कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्यों को रिहा किया।
14 जून, 1945 को प्रस्तुत बेवल योजना की प्रमुख तथ्य-
1. केन्द्र में एक नई कार्यकारी परिषद का गठन हो जिसमें वायसराय तथा कमाण्डर इन चीफ के अलावा शेष सदस्य भारतीय हों।
2. कार्यकारी परिषद एक अंतरिम व्यवस्था थी जिसे तब तक देश का शासन चलाना था जब तक की एक नये स्थायी संविधान पर आम सहमति नहीं हो जाती।
वेवल प्रस्ताव पर विचार-विमर्श हेतु शिमला में 25 जून, 1945 को शिमला सम्मेलन का आयोजन किया गया। इसमें 21 भारतीय राजनीतिक नेताओं ने हिस्सा लिया। शिमला सम्मेलन में कांग्रेस के प्रतिनिधि के रूप मौलाना अबुल कलाम आजाद,लीग के मुहम्मद अली जिन्ना ने हिस्सा लिया।
जिन्ना द्वारा प्रस्तुत प्रस्ताव कि वायसराय की कार्यकारिणी के सभी मुस्लिम सदस्य लीग से ही लिये को जाये ही सम्मेलन की असफलता का कारण बना। इस अनुचित और अप्रजातांत्रिक प्रस्ताव का कांग्रेस ने विरोध किया
वेवल ने 14 सदस्यों वाली वायसराय की कार्यकारी परिषद की नियुक्ति की। 14 सदस्यों वाली परिषद में 6 स्थान मुसलमान सदस्यों को मिले। फिर भी लीग के विरोध के कारण वेवल ने इस योजना को निरस्त कर दिया।
सुभाषचंद्र बोस और आजाद हिंद फ़ौज
16 जनबरी 1941 वे एक पठान मोहम्मद जियाउद्दीन के वेश में निकले
गोमो, पेशावर होते हुए काबुल पहुचे और रूसी दूतावास में प्रवेश पाना चाहा
नाकामयाब रहने पर जर्मन एवं इटालियन दूतावास की मदद से पहुचे आरलैंडो मैजोंटा नामक इटालियन व्यक्ति बनकर मास्कोहोते हुए जर्मनी (बर्लिन) पहुचे
बर्लिन में उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संघठन (फ्री इंडिया सेंटर) और आजाद हिन्द रेडियो की स्थापना की
फ्री इंडिया सेंटर में ही सुभास ने पहली बार जयहिंद का नारा दिया
जर्मनी में ही उन्हें भारतीयों द्वारा नेताजी की उपाधि दी गयी
29 मई 1942 को वे हिटलर से मिले | भारतीय मामलो में उसकी अरुची के कारण कोई आश्वासन नहीं मिला|
माईन काम्फ में भारत की बुराई वर्णित किये जाने की तरफ उन्होंने हिटलर का ध्यानाकृष्ट किया| अगले संस्करण में इसे हटाने का आश्वासन हिटलर द्वारा दिया गया
वहां से वे मार्च 1943 में जापान के लिए चल पड़े ताकि जापानी सहायता से वे ब्रिटिश शासन के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष चला सकें।
मार्च 1942 में रासबिहारी बोस ने टोकियो में भारतीयों का एक सम्मलेन आयोजित किया जहाँ इंडियन इंडिपेंडेंस लीग की स्थापना की
ब्रिटिश भारत की सेना में कप्तान रहे जनरल मोहनसिंह के दिमाग में आजाद हिन्द फ़ौज के गठन का विचार आया|
मोहन ने सिंगापुर में आजाद हिंद फौज की स्थापना की।
जून 1942 में इंडियन इंडिपेंडेंस लीग का सम्मलेन रास बिहारी बोस द्वारा बुलाया गया जिसमे सुभाषचंद्र बोस को लीग एवं आजाद हिन्द फ़ौज का नेतृत्व सौपने का निर्णय
7 जुलाई 1943 को रासबिहारी बोस ने सुभाष चन्द्र बोस को आजाद हिन्द फ़ौज की कमान (सर्वोच्च सेनापति) सौपी| अपने अनुयायियों को उन्होंने "जय हिंद" का मूलमंत्र दिया।
21 अक्टूबर 1943 को सुभाष चंद्र बोस ने सिंगापुर (मुख्यालय-रंगून) में स्वतंत्र भारत की अस्थायी सरकार का गठन किया जिसके मंत्रियों में एच० सी० चटर्जी (वित्त), एम० ए० अय्यर (प्रचार) तथा लाक्स्मी स्वामीनाथन (स्त्रीयों के विभाग) शामिल
रानी झांसी रेजिमेंट महिलाओं के लिए तीन अन्य सुभाष, नेहरु, गाँधी ब्रिगेड
तुम मुझे खून दो मै तुम्हे आजादी दूंगा नारा दिया
6 नवम्बर 1943 को जपानी सेना ने अंडमान और निकोवर द्वीप आजाद हिन्द फ़ौज को सौप दिया जिसका नाम शहीद और स्वराजद्वीप रखा
18 मार्च 1944 को आजाद हिन्द फ़ौज कोहिमा और नागालैंड पर घेरा डाला
6 जुलाई 1944 को आजाद हिन्द रेडियो के प्रसारण में बोस ने कहा- भारत की स्वाधीनता का आख़िरी युद्ध शुरू हो गया है राष्ट्रपिता (गाँधी जी के लिए पहली बार) भारत की मुक्ति के इस पवित्र युद्ध में हम आपका आशीर्वाद और शुभकामना चाहते हैं|
वर्ष 1944-45 में युद्ध में जापान की पराजय के बाद आजाद हिंद फौज की भी हार हुई, और 18 अगस्त 1945 को सुभाष चंद्र बोस ताइवान से टोकियो जाते हुए रास्ते में एक वायुयान दुर्घटना में मारे गए।
सरकार ने आजाद हिंद फौज के जनरल शाहनवाज, जनरल गुरदयाल सिंह ढिल्लों और जनरल प्रेम सहगल पर दिल्ली के लाल किले में मुकदमा चलाने का फैसला किया। ये लोग पहले ब्रिटिश भारतीय सेना के अधिकारी थे। उन पर ब्रिटिश सिंहासन के प्रति निष्ठा की शपथ भंग करने और इस प्रकार 'गद्दार' होने का आरोप लगाया गया।
नवंबर 1945 में आजाद हिंद फौज के कैदियों की रिहाई की मांग को लेकर कलकत्ता में लाखों लोगों ने प्रदर्शन किया। तीन दिन तक नगर में सरकार नाम की कोई चीज रहो हो नहीं थी। फिर 12 फरवरी, 1946 को भी आजाद हिंद फौज के एक और बंदी, अब्दरंशीद की रिहाई की मांग को लेकर नगर में एक और जन-प्रदर्शन हुआ।
हालांकि कोर्ट मार्शल में आजाद हिंद फौज के इन बंदियों को दोषी पाया गया, मगर सरकार ने उन्हें छोड़ देने में ही भलाई समझी।
ब्रिटिश सरकार के इस बदले रवैए के कारण-
प्रथम युद्ध के कारण विश्व में शक्तियों का संतुलन बदल गया था। द्वितीय, ब्रिटेन युद्ध में जीतने वाले पक्ष में था अवश्य, मगर अब उसको आर्थिक और सैनिक शक्ति बिखर चुकी थी।
ब्रिटेन में सरकार भी बदल चुकी थी। कंजवेंटिव पार्टी की जगह अब लेवरपार्टी को सरकार थी और उसके अनेक सदस्य कांग्रेस की मांगों के समर्थक थे।
ब्रिटिश सैनिक युद्ध में थक-हार चुके थे। लगभग छः वर्षों तक लड़ने और खून बहाने के बाद अब वे और कई साल घर से दूर भारत में रहकर वहां की जनता के स्वाधीनता संघर्ष को कुचलने के लिए तैयार नहीं थे।
ब्रिटिश भारतीय सरकार को राष्ट्रीय आंदोलन को कुचलने के लिए यहां के नागरिक प्रशासन के भारतीय सदस्यों और सशस्त्र सेनाओं पर भरोसा नहीं रह गया था।
बोस की अपूर्ण आत्मकथा ऐन इंडियन पिलग्रिम तथा दो खण्डों में द इंडियन स्ट्रगल की रचना की
शाही नौसेना विद्रोह (1946 )
भारत छोड़ों आंदोलन और आजाद हिन्द फौज से ब्रिटिश भारतीय सेना के सिपाही प्रभावित
18 फरवरी, 1946 को एस० एम० आई० एस० तलवार' के गैर कमीशण्ड रॉयल इण्डियन नेवी अधिकारियों एवं सिपाहियों ने विद्रोह किया।
करण - खराब भोजन, जातीय भेदभाव, कम वेतन, चरित्र पर टिप्पणी आदि
तात्कालिक कारण - 'तलवार' (नौसेना का एक जहाज) की दीवारों पर अंग्रेजों भारत छोड़ो लिखने बाले नाविक वी० सी० दत्त की गिरफ्तारी
शीघ्र ही इस विद्रोह ने अपने चपेट में करांची, मद्रास और कलकत्ता को भी ले लिया, विद्रोहियों ने कांग्रेस लीग, कम्युनिस्ट पार्टी के झण्डे ब्रिटिश 'यूनियन जैक' की जगह लगा दिये।
चार दिन के भीतर विद्रोहियों ने करीब 20 जहाजों पर अधिकार कर लिया।
एक 'नौसेना केन्द्रीय हड़ताल समिति' का एम० एस० खान के नेतृत्व में गठन
संस्था में बेहतर खाने श्वेत और भारतीय नाविकों हेतु समान वेतन, राजनैतिक कैदियों की रिहाई आदि मांग सरकार के सामने पेश की
नौसेना विद्रोह की चरम अवस्था - 78 जहाज 20 तटीय प्रतिष्ठान और 20,000 नाविकों शामिल
सरकार ने एडमिरल गोल्फ्रेड को इस आदेश से भेजा कि- 'ब्रिटिश फौजों की सारी सेना दमन के लिए लगा दी जायें भले ही सम्पूर्ण नौसैनिक शक्ति नष्ट हो जाये।'
सरकार के दमनात्मक रवैय्ये से चिंतित कांग्रेसी नेता बल्लभ भाई पटेल और लीग के जिन्ना ने नाविकों पर आत्मसमर्पण के लिए दबाव डाला।
25 फरवरी 1946 को पटेल के किसी भी प्रकार से दमन नहीं करने के आश्वासन के बाद विद्रोहियों ने आत्मसमर्पण किया
बिहार और दिल्ली के पुलिस बलों ने हड़ताल की।
जुलाई 1946 में डाक-तार मजदूरों ने देशव्यापी हड़ताल की।
अगस्त 1946 में दक्षिण भारत में रेल मजदूरों की हड़ताल हुई।
युद्ध के बाद किसानों का सबसे जुझारू संघर्ष बंगाल के बंटाईदारों का तेभागमा संघर्ष था , जिसमें घोषणा की गई कि वे अब जमींदारों को फसल का आघा नहीं, बल्कि एक तिहाई भाग ही देंगे।
कैबिनेट मिशन
भारतीय नेताओं से भारतीयों को सत्ता सौंपने की शर्तों के बारे में बातचीत के लिए ब्रिटिश सरकार ने मार्च 1946 में एक कैबिनेट मिशन भारत भेजा।
कैबिनेट मिशन के सदस्य - सर स्टेफर्ड क्रिप्स, श्री ए०वी० अलेक्जेंडर तथा पैथिक लारेंस।
कैबिनेट मिशन ने दो स्तरों वाली एक संघीय योजना का प्रस्ताव किया जिससे आशा को गई कि बड़ी मात्रा में क्षेत्रीय स्वायत्तता देकर भी राष्ट्रीय एकता को बनाए रखा जा सकेगा।
इस योजना में प्रांतों और रजवाड़ों का एक संघ होता और संघीय केंद्र का केवल प्रतिरक्षा, विदेशी मामलों और संचार विषयों पर नियंत्रण होता।
प्रांत अपने-अपने क्षेत्रीय संगठन भी बना सकते थे और उसे आपसी समझौतों के द्वारा अपनी कुछ शक्तियां सौंप सकते थे।
गाँधी- यह योजना उस समय की परिस्थितियों के परिपेक्ष्य मेसबसे उत्कृष्ट योजना थी,उसमे ऐसे बीज थे जिनसे दू:ख की मारी भारत भूमि यातना से मुक्त हो सकती थी|
संविधान सभा का गठन से 1947 तक के विकास
आरंभिक प्रयास
1895 में बालगंगाधर तिलक के निर्देशन में तैयार 'स्वराज्य विधेयक' में संविधान सभा के सिद्धान्त का सर्वप्रथम दर्शन
1922 में महात्मा गांधी ने कहा कि - "भारतीय संविधान भारतीयों की इच्छानुसार ही होगा"।
1924 में संविधान सभा के निर्माण की मांग पं० मोतीलाल नेहरू ने ब्रिटिश सरकार के सम्मुख प्रस्तुत की
एम० एन० राय ने संविधान सभा के विचार का प्रतिपादन किया
1936 कांग्रेस के अधिवेशन (लखनऊ) में संविधान सभा के अर्थ एवं महत्त्व की व्याख्या एवं 1939 के त्रिपुरी अधिवेशन में इस आशय से सम्बन्धित प्रस्ताव पारित
1940 में लार्ड लिनलिथगो द्वारा प्रस्तुत 'अगस्त प्रस्ताव में उल्लेख किया गया कि "भारत के लिए नये संविधान के निर्माण का कार्य पूरी तरह से नहीं, लेकिन प्रमुखतः भारतीयों द्वारा ही होना चाहिए।
1942 में क्रिप्स प्रस्ताव में पहली बार संविधान सभा की स्थापना के तरीकों का उल्लेख किया गया था।
भारतीय संविधान सभा
1946 में कैबिनेट मिशन योजना के तहत 'भारतीय संविधान सभा का गठन एवं संविधान का निर्माण
सदस्यों का चुनाव वयस्क मताधिकार के आधार पर तथा 10 लाख को जनसंख्या पर एक सदस्य का चुनाव
संविधान सभा के सदस्यों की प्रस्तावित संख्या 389 = ब्रिटिश प्रान्तों से 292 सदस्य + देशी रियासतों से 93 सदस्य + चीफ कमिश्नरों के क्षेत्रों से 4 सदस्य
जुलाई-अगस्त, 1946 में संविधान सभा के लिए चुनाव - देशी रियासतों के भाग नहीं लेने के कारण ब्रिटिश प्रान्तों के अन्तर्गत आने वाले 296 सीटों के लिए चुनाव हुआ, जिसमें कांग्रेस ने 208 सीटें जीती तथा 78 मुस्लिम सीटों में से 73 सीटें मुस्लिम लीग ने जीती।
जुलाई, 1946 में संविधान सभा की प्रथम बैठक जिसका मुस्लिम लीग द्वारा वहिष्कार
भारत के संविधान सभा का प्रथम अधिवेशन 9 दिसम्बर, 1946 से
संविधान सभा की प्रथम बैठक में तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष जे बी कृपलानी के प्रस्ताव पर वरिष्टतम सदस्य सच्चिदानन्द सिन्हा अस्थायी अध्यक्ष निर्वाचित। अधिवेशन में 207 सदस्यों ने भाग लिया, लीग के सदस्य अलग।
11 दिसम्बर 1946 को डॉ० राजेन्द्र प्रसाद को संविधान सभा के स्थायी अध्यक्ष के रूप में नियुक्त
संविधान सभा द्वारा दो प्रकार की समितियों का गठन - (1) प्रक्रिया सम्बन्धी (2) विषय सम्बन्धी
13 दिसम्बर, 1946 को 'उद्देश्यों सम्बन्धी प्रस्ताव’ जवाहर लाल के द्वारा पेश, जिस पर 19 दिसम्बर 1946 तक बहस
दूसरा अधिवेशन 20-22 जनवरी 1947 तक हुआ और जिसमे लीग के सदस्यों का अब अधिक इन्तजार न किया जाय- तय हुआ। फलस्वरूप उद्देश्यों सम्बन्धी प्रस्ताव पास कर दिया गया।
3 जून, 1947 को माउन्टबेटन घोषणा के बाद भारत का विभाजन तय, फलस्वरूप संविधान सभा का पुर्नगठन
पुर्नगठित संविधान सभा के सदस्यों की संख्या 324 नियत की गयी। विभिन्न प्रान्तों एवं देशी रियासतों के प्रतिनिधियों का चुनाव अप्रत्यक्ष रूप से विधान सभा के सदस्यों द्वारा किया जाना निश्चित किया गया।
संविधान सभा के राजनैतिक सलाहकार वी० एन० राव द्वारा तैयार किये गये संविधान के प्रारूप पर विचार-विमर्श करने के लिए संविधान सभा द्वारा 29 अगस्त 1947 को 'प्रारूप समिति' को गठन किया गया। इसमें अध्यक्ष के रूप से डॉ० भीमराव अम्बेडकर को चुना गया।
31 दिसम्बर 1947 तक सदस्यों की संख्या 299
चुनाव में ब्रिटिश भारत के प्रान्तों की 296 सीटों में से कांग्रेस को 205 सीटों पर जीत मिली
अंतरिम मंत्रिमंडल का गठन
22 जुलाई को वायसराय ने अंतरिम सरकार की स्थापना से सम्बंधित प्रस्ताव कांग्रेस एवं लीग के समक्ष रखा जिसमे सरकार के 14 सदस्यों में 6 कांग्रेस, 5 मुस्लिम लीग एवं 3 अल्पसंख्यक के प्रतिनिधि होंगे
मुस्लिम लीग ने वायसराय के प्रस्ताव को अस्वीकार करते हुए एक प्रस्ताव पारित कर ‘ स्वतंत्र पूर्ण प्रभुता सम्पन्न पाकिस्तान राज्य की स्थापना के लिए सीधी कारवाई के लिए तैयार हो गयी
16 अगस्त 1946 को लीग ने सीधी कार्यवाही दिवस की शुरुआत कर दी| जिसका उद्देश्य दंगे फैलाकर यह प्रमाणित करना था कि हिन्दू मुसलमान एक साथ नहीं रह सकते
अंततः सितंबर 1946 में कांग्रेस ने जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में एक अंतरिम मंत्रिमंडल का गठन किया
कुछ हिचक के बाद अक्तूबर में मुस्लिम लीग भी इस मंत्रिमंडल में शामिल हो गई मगर उसने संविधान सभा का बहिष्कार करने का फैसला किया।
अंतरिम सरकार के सदस्य
पंडित जवाहर लाल नेहरु
कार्यकारी परिषद् के उपाध्यक्ष,विदेश विभाग, राष्ट्रमंडल से सम्बंधित मामले
वल्लभभाई पटेल
गृह, सुचना एवं प्रसारण
बलदेव सिंह
रक्षा
डॉ.जॉन
उद्योग एवं आपूर्ति
सी.राजगोपालाचारी
शिक्षा
सी.एच.भाभा
कार्य, खनन एवं शक्ति
राजेंद्र प्रसाद
खाद्य एवं कृषि
आसफ अली
रेलवे
जगजीवन राम
श्रम
लियाकत अली (मुस्लिम लीग)
वित्त
टी.टी.चुंदरीगर (मुस्लिम लीग)
वाणिज्य
अब्दुल रब नश्तर (मुस्लिम लीग)
संचार
गजान्फर अली खान (मुस्लिम लीग)
स्वास्थ्य
जोगेंद्र नाथ मंडल (मुस्लिम लीग)
विधि
20 फरवरी, 1947 को ब्रिटेन के प्रधानमंत्री क्लीमेंट एटली ने घोषणा की कि ब्रिटेन जून 1948 तक भारत का शासन छोड़ देगा।
अगस्त 1946 के बाद भड़कने वाले व्यापक सांप्रदायिक दंगों ने स्वाधीनता की खुशियों पर पानी फेर दिया।
लार्ड माउन्टबेटेन योजना (जून, 1947)
22 मार्च, 1947 को भारत के 34वें और अन्तिम ब्रिटिश गवर्नर जनरल लार्ड माउन्ट बेटेन भारत आये जिनका एक मात्र उद्देश्य था, अतिशीघ्र भारत को पूर्ण स्वतंत्रता देना।
माउन्टबेटेन ने 15 अगस्त, 1947 को भारतीयों को सत्ता सौंपने का दिन निर्धारित किया।
लगभग दो महीने की बातचीत के उपरान्त बेटन इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि विभाजन ही एकमात्र विकल्प है। अतः उन्होंने एटली के 20 फरवरी 1947 के वक्तव्य के दायरे में भारत विभाजन की एक योजना तैयार की।
विवशता की स्थिति में कांग्रेस की ओर से पं० नेहरू एवं सरदार पटेल ने विभाजन योजना को स्वीकारा, लेकिन गांधी जी अन्त तक विभाजन का कड़ा विरोध करते रहे।
गांधी जी के शब्दों में- "यदि सारा भारत भी आग की लपटों में घिर जाये, फिर भी पाकिस्तान नहीं बन सक्रेगा। यदि कांग्रेस विभाजन चाहती है तो वह मेरे मृत शरीर पर ही होगा क्योंकि जब तक मैं जीवित हूँ भारत को विभाजित नहीं होने दूंगा।"
अंतरिम सरकार के काल में मुस्लिम लीग द्वारा पैदा की हुई परेशानियों से थककर बल्लभ भाई पटेल ने कहा कि "जिन्ना विभाजन चाहते हैं या नहीं, अब हम स्वयं विभाजन चाहते हैं।"
3 जून, 1947 को प्रधानमंत्री एटली ने हाऊस ऑफ कॉमन्स में विभाजन योजना (3 जून योजना) की घोषणा की।
मार्च 1947 में वायसराय बनकर भारत आए लुई माउंटबेटन ने कांग्रेस और मुस्लिम लीग के नेताओं से लंबी-लंबी बातचीतों के बाद समझौते का एक रास्ता निकाला कि देश स्वाधीन तो होगा मगर भारत के साथ पाकिस्तान नामक एक नया राज्य भी स्थापित होगा।
माउन्ट बेटेन या तीन जून योजना का प्रारूप –
मुस्लिम बहुसंख्यक क्षेत्र यदि चाहें तो अलग अधिराज्य बना सकते है, पर इसके लिए एक नई संविधान निर्मात्री सभा बैठेगी, बंगाल और पंजाब की प्रांतीय विधान सभाओं के दो पृथक-पृथक भाग होंगे (जिसमें एक मुस्लिम बहुल जिला तथा दूसरे में बाकी जिले के प्रतिनिधि होंगे।)
उत्तर पश्चिम सीमा प्रांत में जनमत संग्रह द्वारा यह निश्चित होगा कि वे पाकिस्तान में मिलना चाहते है या नहीं (असम के मुस्लिम बहुत इलाके सिलहट जिले में जनमत संग्रह)
सिंध और बलूचिस्तान के सम्बद्ध प्रांतीय विधान मंडल को सीधे निर्णय लेना था।
पंजाब, बंगाल व आसाम के विभाजन हेतु एक सीमा आयोग का गठन।
रजवाड़ों को इस बात का निर्णय लेना था कि वे भारत में रहना चाहते हैं या फिर पाकिस्तान में।
कांग्रेस कार्यकारिणी समिति ने 12 जून को तथा कांग्रेस महासमिति ने 14 और 15 जून, 1947 को दिल्ली में हुई बैठक में माउन्टवेटेन योजना को स्वीकार कर लिया।
पं० गोविन्द बल्लभ पंत ने विभाजन की योजना के पुष्टि हेतु प्रस्ताव करते हुए कहा कि “ आज हमे पाकिस्तान या आत्महत्या में से एक को चुनना है। देश की स्वतंत्रता और मुक्ति पाने का यही एकमात्र रास्ता है, इससे भारत में एक शक्तिशाली संघ की स्थापना होगी।"
कांग्रेस के राष्ट्रवादी मुस्लिम नेता मौलाना आजाद ने कहा कि यदि कांग्रेस के नेताओं ने विभाजन मान लिया तो इतिहास उन्हें कभी क्षमा नहीं करेगा।
खान अब्दुल गफ्फार खां (सीमांत गांधी) ने विभाजन पर आक्रोश व्यक्त करते हुए कहा कि 'कांग्रेस नेतृत्व ने उसके आंदोलन को भेड़ियों के आगे फेंक दिया
नेहरू, पंत, पटेलू, कृपलानी और अंत में गांधी जी ने भी विभाजन स्वीकार लिया।
भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम (1947)
माउंटबेटेन योजना के आधार पर ब्रिटिश संसद ने 18 जुलाई, 1947 को भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 पारित किया। जिसके प्रमुख बिन्दू –
15 अगस्त, 1947 से भारत में भारत और पाकिस्तान नामक से डोमीनियन की स्थापना
भारत के राज्य क्षेत्र में उन क्षेत्रों को छोड़कर जो पाकिस्तान में सम्मिलित होंगे, ब्रिटिश भारत के सभी प्रान्त सम्मिलित होंगे।
पाकिस्तान के राज्य क्षेत्र में पूर्वी बंगाल, पश्चिमी पंजाब सिन्ध और उत्तर-पश्चिम सीमा प्रान्त सम्मिलित होंगे। पूर्वी बंगाल प्रान्त में असम का सिलहट जिला भी सम्मिलित होगा।
देशी रजवाड़े भारत और पाकिस्तान किसी भी डोमेनियन में सम्मिलित हो सकते हैं।
प्रत्येक डोमेनियन के विधानमण्डल को अपने अधिराज्य के लिये कानून बनाने का पूरा अधिकार
15 अगस्त 1947 के बाद ब्रिटिश संसद द्वारा पारित अधिनियम किसी भी डोमेनियन में वैध नहीं
वैधानिक व्यवस्था बहाल होने तक दोनों डोमेनियनों तथा प्रान्तों का संचालन 1935 के अधिनियम के अनुसार (जहां तक संभव हो सके)
14-15 अगस्त 1947 की मध्य रात्रि के समय भारत स्वतंन्त्र हो गया। आधी रात को दिल्ली में संविधान सभा को संबोधित करते हुए अपने भाषण में जवाहर लाल नेहरू ने कहा "वर्षों पूर्व हमने नियति के साथ जो वादा किया था अब वह समय आ गया है जबकि हम उस प्रतिज्ञा को सर्वांश में तो नहीं लेकिन अधिकांश में पूरा करेंगे। अर्द्ध रात्रि के समय जब सारी दुनिया सो रही होगी भारत में जीवन तथा स्वतंत्रता का स्वर्ण विहान होगा, इतिहास में कभी कभार ही वह क्षण आता है जब हम पुरातन युग नूतन युग में प्रवेश करते हैं, जब एक युग का अन्त हो जाता है और जब दीर्घ से काल से सोई हुई राष्ट्र की आत्मा जाग उठती है, यह उपयुक्त ही है कि इस अवसर पर हम भारत तथा भारत के लोगों की सेवा और यहां तक कि मानवता के अपेक्षाकृत अधिक बड़े उद्देश्य के लिए समर्पण का प्रण लें।"
15 अगस्त 1947 को 200 वर्षों की ब्रिटिश दासता के बाद भारत ने प्रथम बार मुक्ति का अहसास किया।
लार्ड माउन्टबेटेन को स्वतन्त्र भारत का प्रथम ब्रिटिश गवर्नर जनरल नियुक्त किया तथा जवाहर लाल नेहरू को भारत का प्रधानमंत्री बनाया गया।
14 अगस्त 1947 को मुस्लिम लीग के नेता मुहम्मद अली जिन्ना करांची पहुंचे, पाकिस्तान की संविधान सभा द्वारा 11 अगस्त को अपनी पहली बैठक में जिन्ना को राष्ट्रपति चुना गया।
14 अगस्त 1947 को जिन्ना पाकिस्तान के प्रथम गवर्नर जनरल बने।
भारत की स्वतंत्रता के उपलक्ष्य में जहां देश के कुछ क्षेत्रों में उत्सव जैसा माहौल था वहीं कुछ क्षेत्रों में साम्प्रदायिक दंगे फैले हुए थे।
रजवाड़ों की जनता के व्यापक आंदोलनों के दबाव में और गृहमंत्री सरदार पटेल की सफल कूटनीति के कारण अधिकांश रजवाड़ों ने भारत में शामिल होने का फ़ैसला किया।
जूनागढ़ के नवाब, हैदरावाद के निजाम, तथा जम्मू-कश्मीर के महाराजा कुछ समय तक अगर-मगर करते रहे।
काठियावाड़ के समुद्र तट पर स्थित जूनागढ़ की जनता ने भारत में शामिल होने की घोषणा की जबकि वहां के नवाब ने पाकिस्तान में । भारतीय सेना ने राज्य पर कब्जा कर जनमत संग्रह कराया जिसका परिणाम भारत में शामिल होने के पक्ष में निकला।
हैदराबाद के निजाम ने स्वतंत्र राज्य घोषित करने की कोशिश को मगर वहां तेलंगाना क्षेत्र में हुए एक आंतरिक विद्रोह तथा वहां भारतीय सेनाओं के पहुंचने के बाद उसे भी 1948 में भारत में शामिल होना पड़ा।
कश्मीर के महाराजा ने भी भारत या पाकिस्तान में शामिल होने में देर की। मगर कश्मीर पर पाकिस्तान के पठानों तथा अनियमित फौजी दस्तों के हमले के बाद उसे भी अक्तूबर 1947 में भारत में शामिल होना पड़ा।
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