संघवाद
संघवाद एक संस्थागत प्रणाली है जो दो प्रकार की राजनीतिक व्यवस्थाओं प्रांतीय और केंद्रीय स्तर को समाहित करती हैं| प्रत्येक स्तर पर स्वायत्त सरकार होती है। कुछ संघीय देशों में दोहरी नागरिकता की व्यवस्था होती है पर भारत में इकहरी नागरिकता है। इस प्रकार लोगों की दोहरी पहचान और निष्ठाएँ होती हैं। वे अपने क्षेत्र के भी होते हैं और राष्ट्र के भी। प्रत्येक स्तर की राजनीतिक व्यवस्था की कुछ विशिष्ट शक्तियाँ और उत्तरदायित्व होते हैं तथा वहाँ एक अलग सरकार भी होती है।
साधारणत: एक लिखित संविधान में दोहरे शासन की विस्तृत रूपरेखा मौजूद होती है। यह संविधान सर्वोच्च होता है और दोनों सरकारों की शक्तियों का स्रोत भी। राष्ट्रीय महत्त्व के विषयों-जैसे प्रतिरक्षा और मुद्रा का उत्तरदायित्व संघीय या केंद्रीय सरकार का होता है। क्षेत्रीय या स्थानीय महत्त्व के विषयों पर प्रांतीय राज्य सरकारें जवाबदेह होती हैं। केंद्र और राज्यों के मध्य किसी टकराव को रोकने के लिए एक स्वतंत्र न्यायपालिका की व्यवस्था होती है जो संघर्षों का समाधान करती है। न्यायपालिका को केंद्रीय सरकार और राज्यों के बीच शक्ति के बँटवारे के संबंध में उठने वाले कानूनी विवादों को हल करने का अधिकार होता है।
संघवाद के वास्तविक कामकाज का निर्धारण राजनीति, संस्कृति, विचारधारा और इतिहास की वास्तविकताओं से होता है। संघवाद का कामकाज आपसी विश्वास, सहयोग, सम्मान और संयम की संस्कृति से आसानी से चलता है। राजनैतिक दलों के व्यवहार से भी यह तय होता है कि संविधान किस रास्ते चलेगा। यदि कोई एक इकाई, प्रांत, भाषाई समुदाय या विचारधारा पूरे संघ पर हावी हो जाए तो दबदबा कायम करने वाली ताकत के साथ जो इकाइयाँ या लोग नहीं हैं उनमें विरोध पनपता है। ऐसी स्थिति में नाराज़ इकाइयाँ अपने अलग होने की माँग उठा सकती है। नौबत गृहयुद्ध तक की आ सकती है। बहुत-से देशों को इस अनुभव से गुजरना पड़ा है।
भारतीय संविधान में संघवाद
भारतीय भू-भाग एक महाद्वीप की तरह विशाल और अनेक विविधताओं से भरा है। यहाँ 20 प्रमुख और सैकड़ों अन्य छोटी भाषाएँ हैं। यहाँ अनेक धर्मों के मानने वाले लोग निवास करते हैं। देश के विभिन्न भागों में करोड़ों आदिवासी निवास करते हैं। इन विविधताओं के बावजूद हम एक साझी जमीन पर रहते हैं और हमारा एक साझा इतिहास है। खासकर उन दिनों का जब हम आजादी की लड़ाई लड़ रहे थे। हमारे बीच दूसरी कई समानताएँ हैं। इसी कारण हमारे राष्ट्रीय नेताओं ने भारत को 'विविधता में एकता' के रूप में परिभाषित किया है। कभी-कभार इसे 'विविधताओं के साथ एकता' की संज्ञा भी दी जाती है।
आजादी से पहले ही राष्ट्रीय आंदोलन के अनेक नेता इस विषय पर सहमत थे कि भारत जैसे विशाल देश पर शासन करने के लिए शक्तियों को प्रांतीय और केंद्रीय सरकारों के बीच बाँटना जरूरी होगा। उन्हें यह भी भान था कि भारतीय समाज में क्षेत्रीय और भाषाई विविधताएँ हैं। इन विविधताओं को मान्यता देने की आवश्यकता थी। विभिन्न क्षेत्रों और भाषा-भाषी लोगों को सत्ता में सहभागिता करनी थी तथा इन क्षेत्रों के लोगों को स्वशासन का अवसर मिलना चाहिए था। मुस्लिम लीग द्वारा मुसलमानों को ज्यादा प्रतिनिधित्व देने के आंदोलन के परिप्रेक्ष्य में विभाजन के पूर्व एक समझौता फार्मूले पर चर्चा हुई, जिसके अनुसार क्षेत्रीय सरकारों को काफी ज्यादा अधिकार देने का प्रस्ताव आया। पर भारत के विभाजन का निर्णय होने पर संविधान सभा ने ऐसी सरकार के गठन का निर्णय लिया जो केंद्र और राज्यों के आपसी सहयोग और एकता तथा राज्यों के लिए अलग अधिकार के सिद्धांतों पर आधारित हो।
भारतीय संविधान द्वारा अंगीकृत संघीय व्यवस्था का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सिद्धांत यह है कि केंद्र और राज्यों के बीच संबंध सहयोग पर आधारित होगा। इस प्रकार विविधता को मान्यता देने के साथ ही संविधान एकता पर बल देता है। भारत के संविधान के अंग्रेजी संस्करण में 'फेडरेशन' शब्द का नहीं बल्कि 'यूनियन' शब्द का प्रयोग किया गया है| हालाँकि हिंदी भाषा में 'फेडरेशन' और 'यूनियन' दोनों के लिए ही 'संघ' शब्द का प्रयोग होता है। लेकिन संविधान भारत का वर्णन इन शब्दों में करता है- अनुच्छेद 1 (1) भारत, अर्थात् इंडिया, राज्यों का संघ (यूनियन ) होगा। (2) राज्य और उनके राज्यक्षेत्र वे होंगे जो पहली अनुसूची में विनिर्दिष्ट हैं।
शक्ति विभाजन
भारत के संविधान में दो तरह की सरकारों को स्वीकारा गया है| एक संपूर्ण राष्ट्र के लिए जिसे संघीय सरकार या केंद्रीय सरकार कहते हैं और दूसरी प्रत्येक प्रांतीय इकाई या राज्य के लिए जिसे राज्य सरकार कहते हैं। ये दोनों ही संवैधानिक सरकारें हैं और इनके स्पष्ट कार्य-क्षेत्र हैं। विवाद की स्थिति में इसका निपटारा न्यायपालिका संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार करेगी। संविधान इस बात की स्पष्ट व्यवस्था करता है कि कौन-कौन-सी शक्तियाँ केवल केंद्र सरकार को प्राप्त होंगी और कौन-कौन-सी केवल राज्यों को। शक्ति विभाजन का एक महत्त्वपूर्ण पहलू यह है कि संविधान ने आर्थिक और वित्तीय शक्तियाँ केंद्रीय सरकार के हाथ में सौंपी है। राज्यों के उत्तरदायित्व बहुत अधिक है पर आय के साधन कम ।
सशक्त केंद्रीय सरकार और संघवाद
देश की एकता बनाए रखने के साथ- साथ संविधान निर्माता यह भी चाहते थे कि सामाजिक-आर्थिक समस्याओं का समाधान एक शक्तिशाली केंद्रीय सरकार करे और ऐसा करने में उसे राज्यों का सहयोग भी प्राप्त हो। गरीबी, निरक्षरता और आर्थिक असमानता आदि कुछ ऐसी समस्याएँ थीं जिनके समाधान के लिए नियोजन और समन्वय बहुत जरूरी था। इस प्रकार राष्ट्रीय एकता और विकास की चिंताओं ने संविधान निर्माताओं को एक सशक्त केंद्रीय सरकार बनाने की प्रेरणा दी।
संवैधानिक प्रावधान जो सशक्त केंद्रीय सरकार की स्थापना करते हैं-
भारतीय संघीय व्यवस्था में तनाव
संविधान ने केंद्र को बहुत अधिक शक्तियाँ प्रदान की हैं। यद्यपि संविधान विभिन्न क्षेत्रों की अलग-अलग पहचान को मान्यता देता है लेकिन फिर भी वह केंद्र को ज्यादा शक्ति देता है। एक बार जब 'राज्य की पहचान' के सिद्धांत को मान्यता मिल जाती है तब यह स्वाभाविक ही है कि पूरे देश के शासन में और अपने शासकीय क्षेत्र में राज्यों द्वारा और ज्यादा शक्ति तथा भूमिका की माँग उठायी जाय। इसी कारण राज्य ज्यादा शक्ति की माँग करते हैं। समय-समय पर राज्यों ने ज्यादा शक्ति और स्वायत्तता देने की माँग उठायी है। इससे केंद्र और राज्यों के बीच संघर्ष और विवादों का जन्म होता है। केंद्र और राज्य अथवा विभिन्न राज्यों के आपसी कानूनी विवादों का समाधान न्यायपालिका करती है। लेकिन स्वायत्तता की माँग एक राजनीतिक सवाल है जिसे आपसी बातचीत द्वारा ही हल किया जा सकता है।
केंद्र-राज्य संबंध
संविधान तो मात्र एक 'फ्रेमवर्क' या ढाँचा है। राजनीति की वास्तविकताओं द्वारा इसके स्वरूप का निर्माण होता है। अतः भारतीय संघवाद पर राजनीतिक प्रक्रिया की परिवर्तनशील प्रकृति का काफी प्रभाव पड़ा है। 1950 तथा 1960 के दशक के प्रारंभिक वर्षों में जवाहरलाल नेहरू ने भारतीय संघीय व्यवस्था की नींव रखी। इस दौरान केंद्र और राज्यों में काँग्रेस का वर्चस्व था। नए राज्यों के गठन की माँग के अलावा केंद्र और राज्यों के बीच संबंध शांतिपूर्ण और सामान्य रहे। राज्यों को आशा थी कि वे केंद्र से प्राप्त वित्तीय अनुदानों से विकास कर सकेंगे। इसके अतिरिक्त केंद्र द्वारा सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए बनाई गई नीतियों के कारण भी राज्यों को काफ़ी आशा बंधी थी।
1960 के दशक के बीच में काँग्रेस के वर्चस्व में कुछ कमी आई और अनेक राज्यों में विरोधी दल सत्ता में आ गए। इससे राज्यों की और ज़्यादा शक्ति और स्वायत्तता देने की माँग बलवती हुई। इस माँग के पीछे प्रमुख कारण यह था कि केंद्र और राज्यों में भिन्न-भिन्न दल सत्ता में थे। अतः राज्यों की सरकारों ने केंद्र की काँग्रेसी सरकार द्वारा किए गए अवांछनीय हस्तक्षेपों का विरोध करना शुरू कर दिया। काँग्रेस के लिए भी विरोधी दलों द्वारा शासित राज्यों से संबंधों के तालमेल की बात पहले जैसी आसान नहीं रही। इस विचित्र राजनैतिक संदर्भ में संघीय व्यवस्था के अंदर स्वायत्तता की अवधारणा को लेकर वाद-विवाद छिड़ गया।
आखिरकार 1990 के दशक से काँग्रेस का वर्चस्व काफी कुछ खत्म हो गया है और हमने केंद्र में गठबंधन-राजनीति के युग में प्रवेश किया। राज्यों में भी विभिन्न राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दल सत्तारूढ़ हुए हैं। इससे राज्यों का राजनीतिक कद बढ़ा, विविधता का आदर हुआ और एक मँजे हुए संघवाद की शुरूआत हुई। इस तरह दूसरे दौर में स्वायत्तता का मसला राजनैतिक रूप से सरगर्म हुआ है।
केंद्र-राज्य संबंध के विवादास्पद बिंदु/ तनाव के क्षेत्र :-
समय-समय पर अनेक राज्यों और राजनीतिक दलों ने राज्यों को केंद्र के मुकाबले ज्यादा स्वायत्तता देने की माँग उठाई है। लेकिन विभिन्न राज्यों और दलों के लिए स्वायत्तता का अलग-अलग मतलब हो सकता है। कभी कभी इन माँगों के पीछे यह इच्छा होती है कि शक्ति विभाजन को राज्यों के पक्ष में बदला जाए तथा राज्यों को ज्यादा तथा महत्त्वपूर्ण अधिकार दिए जाएँ। समय-समय पर अनेक राज्यों (तमिलनाडु, पंजाब, पश्चिम बंगाल) और दलों (द्रमुक, अकाली दल, माकपा) ने स्वायत्तता की माँग की। यह भी मांग उठती है कि राज्यों के पास आय के स्वतंत्र साधन होने चाहिए और संसाधनों पर उनका ज्यादा नियंत्रण होना चाहिए। इसे वित्तीय स्वायत्तता भी कहते हैं।
1977 में पश्चिमी बंगाल की वामपंथी सरकार ने केंद्र-राज्य संबंधों को पुनर्परिभाषित करने के लिए एक दस्तावेज़ प्रकाशित किया। तमिलनाडु और पंजाब की स्वायत्तता की माँगों में भी ज़्यादा वित्तीय अधिकार हासिल करने की मंशा छुपी हुई है। स्वायत्तता की माँग का तीसरा पहलू प्रशासकीय शक्तियों से संबंधित है। विभिन्न राज्य प्रशासनिक तंत्र पर केंद्रीय नियंत्रण से नाराज़ रहते हैं।
इसके अतिरिक्त, स्वायत्तता की माँग सांस्कृतिक और भाषाई मुद्दों से जुड़ी हुई भी हो सकती है। तमिलनाडु में हिंदी के वर्चस्व का विरोध और पंजाब में पंजाबी भाषा और संस्कृति के प्रोत्साहन की माँग इसके कुछ उदाहरण हैं। कुछ राज्य ऐसा महसूस करते रहे हैं कि हिंदी भाषी क्षेत्रों का अन्य क्षेत्रों पर वर्चस्व है। दरअसल 1960 के दशक में तो कुछ राज्यों में हिंदी को लागू करने के विरोध में आंदोलन भी हुए।
केंद्र और राज्यों के बीच राज्यपाल की भूमिका हमेशा ही विवाद का विषय रही है। राज्यपाल निर्वाचित पदाधिकारी नहीं होता। अधिकतर राज्यपाल सेवानिवृत्त सैन्य अधिकारी, लोकसेवक या राजनीतिज्ञ हुए हैं। फिरसाथ ही राज्यपाल को नियुक्ति केंद्र सरकार द्वारा की जाती है। अतः राज्यपाल के फ़ैसलों को अकसर राज्य सरकार के कार्यों में केंद्र सरकार के हस्तक्षेप के रूप में देखा जाता है। जब केंद्र और राज्य में अलग दल सत्तारूढ़ होते हैं तब राज्यपाल की भूमिका और विवादास्पद हो जाती है। केंद्र-राज्य संबंधों से जुड़े मसलों की पड़ताल के लिए केंद्र सरकार द्वारा 1983 में एक आयोग बनाया गया। इस आयोग को 'सरकारिया आयोग' के नाम से जाना जाता है। इस आयोग ने 1998 में अपनी रिपोर्ट में यह सिफारिश की थी कि राज्यपालों की नियुक्ति अनिवार्य तथा निष्पक्ष होकर की जानी चाहिए।
एक और कारण से राज्यपालों की शक्ति और भूमिका की नियुक्त हमेशा विवादास्पद हो जाती है। संविधान के सर्वाधिक विवादास्पद प्रावधानों में से एक अनुच्छेद 356 है। इसके द्वारा राज्यों में राष्ट्रपति शासन लागू किया जाता है। इस प्रावधान को किसी राज्य में तब लागू करते हैं जब "ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई हो कि उस राज्य का शासन इस संविधान के उपबंधों के अनुसार नहीं चलाया जा सकता।" परिणामस्वरूप संघीय सरकार राज्य सरकार का अधिग्रहण कर लेती है। इस विषय पर राष्ट्रपति द्वारा जारी उद्घोषणा को संसद की स्वीकृति प्राप्त करना जरूरी होता है। राष्ट्रपति शासन को अधिकतम तीन वर्षों तक बढ़ाया जा सकता है। राज्यपाल को यह अधिकार है कि वह राज्य सरकार को बर्खास्त करने तथा राज्य विधान सभा को निलंबित या विघटित करने की अनुशंसा कर सके। इससे अनेक विवाद पैदा हुए। कुछ मामलों में राज्य सरकारों को विधायिका में बहुमत होने के बाद भी बर्खास्त कर दिया गया। 1959 में केरल में और उसके बाद अनेक राज्यों में बहुमत की परीक्षा के बिना ही सरकारों को बर्खास्त कर दिया गया। कुछ मामले सर्वोच्च न्यायालय में भी गए तथा सर्वोच्च न्यायालय ने फ़ैसला दिया कि राष्ट्रपति शासन लागू करने के निर्णय को संवैधानिकता की जाँच-पड़ताल न्यायालय कर सकता है।
1967 तक अनुच्छेद 356 का अत्यन्त सीमित प्रयोग किया गया। 1967 के बाद अनेक राज्यों में गैर-कॉंग्रेसी सरकारें बनीं जंबकि केंद्र में सत्ता काँग्रेस के पास रही। केंद्र ने अनेक अवसरों पर इसका प्रयोग राज्य सरकारों को बर्खास्त करने के लिए किया अथवा उसने राज्यपाल के माध्यम से बहुमत दल या गठबंधन को सत्तारूढ़ होने से रोका। उदाहरण के लिए सन् 1980 के दशक में केंद्रीय सरकार ने आंध्र प्रदेश और जम्मू-कश्मीर की निर्वाचित सरकारों को बर्खास्त किया।
हमारी संघीय व्यवस्था में नवीन राज्यों के गठन की माँग को लेकर भी तनाव रहा है। राष्ट्रीय-आंदोलन ने अखिल भारतीय राष्ट्रीय एकता को ही नहीं बल्कि | समान भाषा, क्षेत्र और संस्कृति पर आधारित एकता को भी जन्म दिया। हमारा राष्ट्रीय आंदोलन लोकतंत्र के लिए भी एक आंदोलन था। अतः राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान यह भी तय किया गया कि यथासंभव समान संस्कृति और भाषा के आधार पर राज्यों का गठन होगा।
इससे स्वतंत्रता के बाद भाषाई आधार पर राज्यों के गठन की माँग उठी। 1954 में राज्य पुनर्गठन आयोग की स्थापना की गई जिसने प्रमुख भाषाई समुदायों के लिए भाषा के आधार पर राज्यों के गठन की सिफारिश की।
1956 में कुछ राज्यों का पुनर्गठन हुआ। इससे भाषाई आधार पर राज्यों के गठन की शुरुआत हुई और यह प्रक्रिया अभी भी जारी है। 1960 में गुजरात और महाराष्ट्र का गठन हुआ; 1966 में पंजाब और हरियाणा को अलग-अलग किया गया। बाद में पूर्वोत्तर के राज्यों का पुनर्गठन किया गया और अनेक नए राज्यों जैसे मेघालय, मणिपुर और अरुणाचल प्रदेश का जन्म हुआ।
1990 के दशक में नए राज्य बनाने की माँग को पूरा करने तथा अधिक प्रशासकीय सुविधा के लिए कुछ बड़े राज्यों का विभाजन किया गया। बिहार, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश को विभाजित कर तीन नए राज्य क्रमशः झारखंड, उत्तरांचल और छत्तीसगढ़ बनाए गए। विभाजन के लिए एक आंदोलन के बाद, 2 जून 2014 को तेलंगाना को आंध्र प्रदेश से अलग राज्य का दर्जा दिया गया। कुछ क्षेत्र और भाषाई समूह अभी भी अलग राज्य के लिए संघर्ष कर रहे हैं जिनमें महाराष्ट्र में विदर्भ प्रमुख हैं।
जहाँ एक ओर राज्य अधिक स्वायत्तता और आय के स्रोतों पर अपनी हिस्सेदारी के सवाल पर केंद्र से विवाद की स्थिति में रहते हैं, वहीं दूसरी ओर संघीय व्यवस्था में दो या दो से अधिक राज्यों में आपसी विवाद के भी अनेक उदाहरण मिलते हैं। यह सच है कि कानूनी विवादों में न्यायपालिका पंच की भूमिका निभाती है लेकिन इन विवादों का स्वरूप मात्र कानूनी नहीं होता । इन विवादों के राजनीतिक पहलू भी होते हैं, अतः इनका सर्वोत्तम समाधान केवल विचार-विमर्श और पारस्परिक विश्वास के आधार पर ही हो सकता है। आमतौर पर दो प्रकार के गंभीर विवाद पैदा होते हैं- 1. सीमा विवाद तथा 2. नदियों के जल के बँटवारे को लेकर होने वाले विवाद।
संविधान के अनुच्छेद 280(1) के अंतर्गत यह प्रावधान किया गया है कि संविधान के प्रारंभ से दो वर्ष के भीतर और उसके बाद प्रत्येक पाँच वर्ष की समाप्ति पर या पहले उस समय पर, जिसे राष्ट्रपति आवश्यक समझते हैं, एक वित्त आयोग का गठन किया जाएगा। इसके मद्देनज़र परंपरा यह है कि पिछले वित्त आयोग के गठन की तारीख के पाँच वर्षों के भीतर अगले वित्त आयोग का गठन हो जाता है, जो एक अर्द्धन्यायिक एवं सलाहकारी निकाय है। इसी परंपरा को आगे बढाते हुए संवैधानिक प्रावधानों के तहत केंद्र सरकार ने 22 नवंबर, 2017 को 15वें वित्त आयोग के गठन को मंज़ूरी दी थी। 15वें वित्त आयोग का कार्यकाल 2020-25 तक होगा।
वित्त आयोग के कार्य दायित्व
15वें वित्त आयोग के नियमों और शर्तों को लेकर विवाद-
15वें वित्त आयोग के गठन के बाद से ही कुछ राज्यों द्वारा इनको 'सहकारी संघवाद' की अवधारणा पर कुठाराघात के रूप में लेते हुए उत्तरी एवं दक्षिणी राज्यों के बीच जानबूझकर किए गए भेदभाव के रूप में मानते हुए इस मामले में गंभीर आपत्तियाँ जताई जा रही हैं। दक्षिण भारत के सभी राज्य इन नियम और शर्तों का विरोध कर रहे हैं तथा पंजाब भी इनमें शामिल हो गया है। इन राज्यों का कहना है कि वित्त आयोग के नए नियम और शर्तें उन राज्यों के लिये नुकसानदेह हैं, जिन्होंने जनसंख्या नियंत्रण पर अच्छा काम किया है।1971 में देश की जनसंख्या में दक्षिणी राज्यों की हिस्सेदारी 24% से अधिक थी, जो 2011 में घटकर 20% रह गई। दूसरी ओर, बिहार की जनसंख्या 1991 से 2011 के बीच लगभग 25% बढ़ गई।इन राज्यों का यह भी कहना है कि वित्त आयोग के नियमों और शर्तों से संविधान के मूल ढाँचे का उल्लंघन नहीं होना चाहिये। ये राज्य इस मुद्दे पर राष्ट्रीय चर्चा के पक्षधर हैं। दक्षिणी राज्यों का मानना है कि 15वें वित्त आयोग के नियमों और शर्तों को यदि जस-का-तस लागू किया जाता है, तो इससे प्रगतिशील राज्य बुरी तरह प्रभावित होंगे। इन राज्यों का कहना है कि केंद्र को सहकारिता के संघीय ढाँचे का सम्मान करना चाहिये। ये राज्य वित्त आयोग के इन नियमों और शर्तों को राज्यों के मूल वित्तीय ढाँचे को नुकसान पहुँचाने वाला मानते हैं। इन राज्यों का तर्क है कि 2011 की जनगणना के आधार पर कोष के बँटवारे से उन राज्यों को फायदा होगा, जो अपने यहाँ बढ़ती आबादी को रोकने में असफल रहे हैं। इन राज्यों का यह भी कहना है कि 15वें वित्त आयोग ने अपनी शर्तों में उन विषयों को भी शामिल कर लिया है, जो उसके दायरे में अभी तक नहीं आते थे|
केंद्र सरकार द्वारा हर पाँच साल पर वित्त आयोग का गठन किया जाता है, ताकि केंद्र व राज्यों के बीच और एक राज्य से दूसरे राज्यों के बीच राजस्व के बँटवारे का तरीका तय किया जा सके। देश में राजस्व सामूहिक रूप से इकट्ठा किया जाता है और फिर उसके बँटवारे का एक फॉर्मूला तय होता है। राजस्व के बँटवारे का तरीका और शर्तों को तय करते समय वित्त आयोग किसी भी राज्य के राजस्व प्रदर्शन के अलावा कई अन्य मानदंडों पर भी गौर करता है और उसी के बाद राजस्व का बँटवारा होता है। इसके लिये वित्त आयोग अक्सर राज्य की आबादी और उसकी आय के फासले को ध्यान में रखता है। इससे राजस्व बँटवारे का पैमाना अधिक गरीबी पर आकर ठहर जाता है।
15वें वित्त आयोग द्वारा 2011 की जनगणना को ध्यान में रखते हुए राज्यों के बीच संसाधनों का आवंटन किये जाने की अनुशंसा की गई है। देखा जाए तो नवीनतम जनगणना के आँकड़ों का प्रयोग किया जाना उचित प्रतीत होता है, किंतु इससे उत्तरी और दक्षिणी राज्यों के मध्य विवाद का एक सबसे गंभीर मुद्दा उभर रहा है। जनगणना आधार के बदलाव के कारण सामाजिक-राजनीतिक क्षेत्र में कई चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है। इसमें उन दक्षिणी राज्यों को नुकसान होने की ज़्यादा संभावना है, जो दशकों से अपनी आबादी को नियंत्रित करने के लिये बेहतर प्रदर्शन कर रहे हैं। उनके यहाँ कम जनसंख्या वृद्धि स्वाभाविक रूप से ‘कम प्रजनन दर’ से जुड़ी हुई है, जो बेहतर शिक्षा, स्वास्थ्य सेवाओं और विकास का एक परिणाम है। ऐसे में उन्हें विकास संबंधी कार्यों में उनकी सफलता के कारण निधि आवंटन में नुकसान उठाना पड़ सकता है जिसे दंड की तरह माना जा रहा है। यही कारण है कि मुख्यतः दक्षिणी राज्य 15वें वित्त आयोग के नियमों तथा शर्तों पर गंभीर आपत्ति जता रहे हैं।
सहकारी संघवाद की भावना के तहत अधिकतम शासन, न्यूनतम सरकार के दृष्टिकोण की परिकल्पना के तहत 1 जनवरी, 2015 को योजना आयोग के स्थान पर केंद्रीय मंत्रिमंडल के एक संकल्प पर नीति आयोग का गठन किया गया।
नीति आयोग की संरचना- अध्यक्ष: प्रधानमंत्री, उपाध्यक्ष: प्रधानमंत्री द्वारा नियुक्त. संचालन परिषद: सभी राज्यों के मुख्यमंत्री और केंद्रशासित प्रदेशों के उपराज्यपाल, क्षेत्रीय परिषद: विशिष्ट क्षेत्रीय मुद्दों को संबोधित करने के लिये प्रधानमंत्री या उसके द्वारा नामित व्यक्ति मुख्यमंत्रियों और उपराज्यपालों की बैठक की अध्यक्षता करता है, तदर्थ सदस्यता: अग्रणी अनुसंधान संस्थानों से बारी-बारी से 2 पदेन सदस्य, पदेन सदस्यता: प्रधानमंत्री द्वारा नामित केंद्रीय मंत्रिपरिषद के अधिकतम चार सदस्य, मुख्य कार्यकारी अधिकारी (CEO): भारत सरकार का सचिव जिसे प्रधानमंत्री द्वारा एक निश्चित कार्यकाल के लिए नियुक्त किया जाता है। विशेष आमंत्रित: प्रधानमंत्री द्वारा नामित विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञ।
नीति आयोग के दो प्रमुख हब -1. टीम इंडिया हब- राज्यों और केंद्र के बीच इंटरफेस का काम करता है तथा 2. ज्ञान और नवोन्मेष (Knowledge & Innovation) हब- नीति आयोग के थिंक-टैंक की भाँति कार्य करता है।
नीति आयोग के उद्देश्य
नीति आयोग और योजना आयोग में प्रमुख अंतर
नीति आयोग में देश में कुशल, पारदर्शी, नवीन और जवाबदेह शासन प्रणाली का प्रतिनिधि बनने की क्षमता है। नीति आयोग समय के साथ परिवर्तन के एक एजेंट के रूप में उभर सकता है और सार्वजनिक सेवाओं की बेहतर डिलीवरी करने तथा उसमें सुधार के एजेंडे में योगदान दे सकता है। योजना आयोग की तुलना में नीति आयोग को अधिक विश्वसनीय बनाने के लिये इसे बजटीय प्रावधानों में स्वतंत्रता होनी चाहिये और यह योजना तथा गैर-योजना के रूप में नहीं बल्कि राजस्व और पूंजीगत व्यय की स्वतंत्रता के रूप में होनी चाहिये। इस पूंजीगत व्यय की वृद्धि से अर्थव्यवस्था में सभी स्तरों पर बुनियादी ढाँचे का घाटा दूर हो सकता है।
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