संविधान का अर्थ
संविधान एक आधारभूत कानूनी दस्तावेज़ है जिसके अनुसार किसी देश की शासन प्रणाली क्रियान्वित होती है। यह वह आधारभूत कानून है जो सरकार के प्रमुख अंगों, उनके कार्यक्षेत्र एवं नागरिकों के अधिकारों को सुनिश्चित करता है तथा उनकी सीमाएँ निर्धारित करता है। संविधान में मुख्यतया दो बातों का समावेश होता है-
लोकतांत्रिक सरकार में संविधान का महत्त्व और भी अधिक बढ़ जाता है इसके शासन के संचालन में प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से नागरिकों की भागीदारी होती है। लोकतांत्रिक व्यवस्था में सरकार की शक्तियाँ सीमित होती हैं तथा उनका उल्लेख स्पष्ट रूप से किया जाता है। इस व्यवस्था में नागरिकों के अधिकारों का भी स्पष्ट उल्लेख किया जाता है। इस प्रकार संविधान देश के सभी कानूनों से श्रेष्ठ होता है। संविधान के यही कानून उन नियमों तथा विनियमों के स्रोत होते हैं, जो देश का शासन चलाने के लिए बनाए जाते हैं।
संविधान को सरकार की शक्ति एवं सत्ता का स्रोत कहा जाता है। संविधान में यह स्पष्ट किया जाता है कि सरकार के विभिन्न अंगों की शक्तियाँ क्या हैं, वह क्या कर सकती है तथा क्या नहीं कर सकती। ऐसा करने का उद्देश्य यह होता है कि सरकार के विभिन्न अंगों की कार्य प्रणाली के संबंध में किसी प्रकार की भ्रांतियाँ या विवाद की संभावना कम से कम रहे। इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि संविधान के कारण सरकार सत्ता का दुरुपयोग नहीं कर सकती है। यही कारण है कि संविधान किसी देश का अत्यंत महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ होता है।
संविधान के कार्य
भारत का संविधान
भारत का संविधान एक संविधान निर्मात्री सभा द्वारा बनाया गया, जिसके सदस्य भारत के विभिन्न क्षेत्रों एवं वर्गों से संबंधित थे। सौभाग्य से संविधान निर्मात्री सभा में डा. राजेन्द्र प्रसाद, जवाहरलाल नेहरू, डा. बी.आर. अम्बेडकर, सरदार वल्लभ भाई पटेल, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, डा. श्यामा प्रसाद मुकर्जी, सरदार बलदेव सिंह, श्रीमती सरोजिनी नायडू आदि जैसे सुविख्यात सदस्य सम्मिलित थे। इस सभा ने डा. राजेन्द्र प्रसाद को अपना सभापति चुना। डा. बी. आर. अम्बेडकर को प्रारूप समिति का सभापति बनाया गया। संविधान निर्मात्री सभा द्वारा संविधान को 26 नवंबर 1949 को पारित किया गया, किन्तु सम्पूर्णत: इसको लागू 26 जनवरी, 1950 को किया गया।
भारतीय संविधान की प्रस्तावना
भूमिका अथवा प्रारंभिक परिचय, प्रस्तावना का शाब्दिक अर्थ होता है । भारतीय संविधान की प्रस्तावना का संबंध उसके उद्देश्यों, लक्ष्यों, आदर्शों तथा उसके आधारभूत सिद्धांतों से है।
भारतीय संविधान की प्रस्तावना का सीधा संबंध उस उद्देश्य प्रस्ताव से है, जिसे संविधान सभा ने 22 जनवरी, 1947 को पारित किया था। इस प्रस्ताव के प्रमुख प्रावधान है: यह संविधान संपूर्ण भारत वर्ष को एक स्वतंत्र और संप्रभुता संपन्न गणराज्य घोषित करने तथा उसके भावी शासन प्रबंध के लिए एक ऐसे संविधान का निर्माण करने का दृढ़ और पवित्र संकल्प लेती है, जिसमें स्वतंत्र और संप्रभुता संपन्न भारत और उसके विभिन्न भागों तथा शासन के अंगों की सत्ता का मूल स्रोत भारतीय जनता होगी, जिसमें भारत के सभी लोगों को सामाजिक, आर्थिक तथा राजनैतिक न्याय, प्रतिष्ठा, अवसर, और विधि के समक्ष समता, तथा सार्वजनिक नैतिकता के अधीन रहते हुए विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, निष्ठा, उपासना, व्यवसाय, संगठन तथा कार्य की स्वतंत्रता सुरक्षित होगी तथा जिसमें अल्पसंख्यकों, पिछड़े वर्गों और जनजाति क्षेत्रों, दलितों तथा अन्य वर्गों की सुरक्षा के लिए समुचित साधन उपलब्ध होंगे।
संविधान सभा के संवैधानिक सलाहकार बी एन, राव ने उपर्युक्त प्रस्ताव के आधार पर प्रस्तावना का प्रारूप तैयार किया। संविधान की प्रारूप समिति ने इस प्रारूप पर विचार किया तथा इसमें आवश्यक संशोधन करके संविधान सभा के कार्यों के आखिरी चरण में इसे पारित किया ताकि यह संविधान के विभिन्न प्रावधानों के अनुरूप हो।
प्रस्तावना
हम, भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व-संपन्न समाजवादी, पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए, तथा उसके समस्त नागरिकों को : सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म
और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता
प्राप्त कराने के लिए, तथा उन सब में
व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए
दृढ़ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवंबर, 1949 ई. (मिति मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी, संवत् दो हजार छह विक्रमी) को एतद्-द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।
संविधान निर्माण करनेवाली संविधान सभा का निर्वाचन भारतीय जनता ने प्रत्यक्ष रूप से नहीं किया था। इसका निर्वाचन परोक्ष रूप से भारतीय प्रांतों की विधान सभाओं के द्वारा किया गया था। ये विधान सभाएँ स्वयं 1935 के भारतीय शासन अधिनियम के अंतर्गत 1946 में निर्वाचित की गई थी। 1935 के अधिनियम के अंतर्गत मताधिकार बहुत कम लोगों तक सीमित था। देशी रियासतों को तो इससे भी कम प्रतिनिधित्व प्राप्त था। इन समस्त सीमाओं के बावजूद, संविधान सभा को हम जनता की वास्तविक प्रतिनिधि संस्था कह सकते है क्योंकि इसमें लगभग सभी विचार धाराओं का प्रतिनिधित्व था।
इसी प्रकार, संविधान सभा में यह सुझाव भी आया था कि प्रस्तावना में पंथ निरपेक्षता का भी उल्लेख किया जाए। किंतु इसका भी यह कहकर विरोध किया गया कि इस शब्द का कोई एक निश्चित अर्थ नहीं है पर 1976 में देश के नेतृत्व ने इसे प्रस्तावना में रखना उचित समझा। भारतीय न्यायालयों द्वारा पंथ निरपेक्ष शब्द की व्याख्या की गई है, जिसके अनुसार पंथ निरपेक्षता का अर्थ धर्म के आधार पर भेदभाव के अभाव से है। सभी धर्मों को समान भाव से देखा जाना भी पंथनिरपेक्षता ही है।
प्रस्तावना का लक्ष्य एक ऐसी सामाजिक व्यवस्था स्थापित करना है जहाँ जनता संप्रभु हो, शासन निर्वाचित और जनता के प्रति उत्तरदायी हो| शासन की सत्ता जनता के मौलिक अधिकारों से सीमित हो तथा जनता को अपने विकास का समुचित अवसर प्राप्त हो । यद्यपि वैधानिक रूप से प्रस्तावना न्यायालयों द्वारा लागू नहीं की जा सकती तथापि यह संविधान के विभिन्न प्रावधानों की व्याख्या करने में उपयोगी सिद्ध हो सकती है तथा किंकर्त्तव्य विमूढ़ता की स्थिति में यह पथ प्रदर्शक के रूप में कार्य करती है।
भारतीय संविधान : मुख्य विशेषताएँ
भारतीय संविधान की मुख्य विशेषताएँ दो प्रकार की हैं। कुछ विशेषताएँ अद्वितीय है जो भारत के किसी पूर्व संविधान में नहीं पायी जाती है।
अद्वितीय विशेषताएँ
इस संविधान का निर्माण भारतीय जनता के प्रतिनिधि संविधान सभा द्वारा किया गया। यह संविधान सभा परोक्ष रूप से प्रांतीय विधान सभाओं द्वारा निर्वाचित की गई थी। ये विधान सभाएँ स्वयं सीमित मताधिकार के आधार पर निर्वाचित हुई थी। संविधान सभा के देशी रियासतों के प्रतिनिधि उनके शासकों द्वारा मनोनीत थे। इन सब के बावजूद संविधान सभा को जनता की प्रतिनिधि संस्था कहा जा सकता है क्योंकि इसमें समाज के सभी वर्गों का तथा सभी विचारधाराओं का प्रतिनिधित्व था।
यह संविधान इस अर्थ में भी अद्वितीय है कि इसके निर्माण में विश्व के कई संविधानों का सहारा लिया गया। हमारे संविधान के मौलिक अधिकार और सर्वोच्च न्यायालय संबंधी व्यवस्थाओं पर अमेरिका, राज्य की नीति निदेशक तत्वों का आयरलैण्ड का आपातकालीन व्यवस्थाओं पर जर्मनी का, विधायी शक्तियों के वितरण पर कनाडा का तथा संसदीय संस्थाओं पर ब्रिटेन का प्रभाव स्पष्ट दीखता है। इनके अतिरिक्त, हमारे संविधान निर्माताओं ने 1935 के भारतीय शासन अधिनियम से बहुत सी धाराएं ज्यों की त्यों ली थी।
इस संविधान के अनुसार देश की सर्वोच्च सत्ता भारतीय जनता में सन्निहित है। इससे पूर्व के संविधानों में यह सत्ता ब्रिटिश संसद में सन्निहित थी, यहाँ तक कि 1947 के भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम में भी ब्रिटिश संसद की सर्वोच्चता को मान्यता प्राप्त थी। संप्रभुता का अंतर्निहित भाव यह है कि भारतीय जनता किसी भी बाह्यशक्ति के अधीन नहीं है।
यह संविधान भारत में एक गणराज्य स्थापित करने की व्यवस्था करता है। इससे पूर्व ब्रिटेन का राजा यहाँ का राज्याध्यक्ष होता था, जिसे यह पद आनुवंशिकता के आधार पर प्राप्त होता था। प्राचीन भारत के कई भागों में गणराज्य का अस्तित्व था। यह व्यवस्था लगभग 1000 वर्ष तक जारी रही, किंतु संविधान निर्माण-काल में भारत में कोई भाग ऐसा नहीं था, जहाँ गणराज्य व्यवस्था प्रचलित हो।
यह संविधान भारत में एक पंथ निरपेक्ष राज्य व्यवस्था स्थापित करने का प्रबंध करता है। यद्यपि संविधान में कहीं भी पंथ निरपेक्षता की व्याख्या नहीं की गई तथापि संविधान के विभिन्न प्रावधानों से यह उद्भूत की जा सकती है। इसका प्रयोग धर्म पर आधारित भेदभाव के अभाव तथा सब धर्मों को समान सम्मान देने के रूप में किया गया है। इससे पूर्व 1935 के भारतीय शासन अधिनियम के अंतर्गत धार्मिक क्रिया कलापों से संबंधित एक विभाग की व्यवस्था थी।
संविधान में भारतीय नागरिकों के मौलिक अधिकारों की व्यवस्था की गयी है| कालान्तर में इसमें संशोधन भी हुए हैं| मूल संविधान में कर्त्तव्यों की कोई व्यवस्था नहीं थी। 1976 में 42वें संविधान संशोधन के माध्यम से यह व्यवस्था संविधान में जोड़ी गई।
संविधान में राज्य की नीति के निदेशक तत्वों की व्यवस्था की गई है। यद्यपि 1935 के भारतीय शासन अधिनियम में उल्लेखित निर्देश पत्र राज्य की नीति के निदेशक तत्व जैसा प्रतीत होता है तथापि दोनों के उद्देश्यों और लक्ष्यों में जमीन आसमान का अंतर है। ध्यान देने योग्य वात यह है कि राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान हमारे नेताओं ने स्वतंत्र भारत में भारतीय नागरिकों को जो मौलिक अधिकार मिलने चाहिए, उनके संबंध में कुछ वायदे किए थे, किंतु 1947 में जब भारत वर्ष स्वतंत्र हुआ तो हमारे नेताओं को यह अनुभव हुआ कि उनके पास कुछ मौलिक अधिकारों को, विशेषकर आर्थिक एवं सामाजिक अधिकारों को, प्रदान करने के पर्याप्त साधन नहीं है। किंतु साथ ही वे अपने वायदों से मुकरना भी नहीं चाहते थे। अतः उन्होंने निश्चय किया कि मौलिक अधिकारों को दो वर्गों में वर्गीकृत किया जाए : कुछ अधिकार तत्काल प्रदान कर दिए जाएँ तथा कुछ अधिकार उस समय प्रदान किए जाएँ जब उन्हें ऐसा करने का सामर्थ्य प्राप्त हो जाए। प्रथम वर्ग के अधिकारों को मौलिक अधिकारों के नाम से संविधान के तीसरे अध्याय में सम्मिलित किया गया है जबकि दूसरे वर्ग के अधिकारों को राज्य के नीति के निदेशक तत्वों के नाम से चौथे अध्याय में सम्मिलित किया गया है। यद्यपि जिन अधिकारों को चतुर्थ अध्याय में सम्मिलित किया गया है, उन्हें लागू करने में न्यायालय असमर्थ है तथापि ये शासन के मूलभूत सिद्धांत हैं तथा राज्य (अर्थात् भारत सरकार, भारतीय संसद, राज्य सरकार, राज्य विधान मंडल, स्थानीय संस्थाएँ तथा भारतीय क्षेत्र में स्थित अथवा भारत सरकार के अधीन कोई भी सत्ता ) के लिए उन्हें मान्यता देना आवश्यक है।
संविधान संघीय तथा राज्य विधान मंडलों के अधिनियमों तथा संघीय और राज्यों की कार्यपालिकाओं के क्रिया-कलापों की न्यायिक समीक्षा करने की व्यवस्था करता है। इस व्यवस्था तथा के फलस्वरूप शासन के दोनों अंग, विधायिका तथा कार्यपालिका पूर्ण सावधानी से कार्य करते हैं। अपनी सत्ता का उपयोग स्वेच्छाचारितापूर्वक नहीं कर सकते।
यह संविधान भारत में पूर्ण वयस्क मताधिकार की व्यवस्था करता है। इससे पूर्व जितने संविधान थे उन सबमें सीमित मताधिकार की व्यवस्था थी। 1935 के भारतीय शासन अधिनियम में भी (जिसमें सर्वाधिक लोगों को मताधिकार प्राप्त था) केवल 14 प्रतिशत लोगों को ही मताधिकार प्राप्त था। पाश्चात्य लोकतांत्रिक देशों में भी कई दशकों तक ऐसे अधिकार नागरिकों को प्राप्त नहीं थे। इस दृष्टि से भारतीय संविधान का यह कदम क्रांतिकारी थी।
संविधान हिंदी को भारतीय संघ की राजभाषा के रूप में मान्यता प्रदान करता है। इससे पूर्व भारत में अंग्रेजी को यह स्थान प्राप्त था। हिंदी के अतिरिक्त 21 अन्य भारतीय भाषाओं को संविधान क्षेत्रीय भाषाओं के रूप में मान्यता प्रदान करता है।
इस संविधान में संशोधन करने की प्रक्रिया भी है। इससे पूर्व के किसी संविधान में संशोधन की किसी प्रक्रिया का कोई उल्लेख नहीं मिलता। केवल ब्रिटिश संसद को ही संविधान में संशोधन करने का अधिकार प्राप्त था। इस संविधान में संशोधन की जो प्रक्रिया दी गई है उसमें सुनमनीयता तथा दुष्नमनीयता का अनुपम मिश्रण है। संविधान के कुछ प्रावधानों में संसद के दोनों सदनों के साधारण बहुमत से संशोधन संभव है,उदाहरणार्थ, किसी राज्य के नाम अथवा सीमा में परिवर्तन करना, किंतु ऐसे संशोधन को संविधान का संशोधन नहीं माना जाता। कुछ संशोधन ऐसे है जिनके लिए संसद के दोनों सदनों के कुल सदस्यों की संख्या के पूर्ण बहुमत एवं उपस्थित मतदान करने वाले सदस्यों के दो तिहाई बहुमत की आवश्यकता के साथ कुल राज्यों में से आधे राज्यों के विधान मंडलों द्वारा पुष्टि आवश्यक होती है। उदाहरणार्थ, जब कभी संविधान की संघीय प्रकृति से संबद्ध कोई संशोधन करना हो तो इस प्रक्रिया का अवलंबन आवश्यक होता है। शेष सभी संशोधनों के लिए संसद के दोनों सदनों के कुल सदस्यों की संख्या के पूर्ण बहुमत एवं उपस्थित मतदान करने वाले सदस्यों के दो तिहाई बहुमत की आवश्यकता होती है। यह प्रक्रिया संविधान की दुष्नमनीयता का प्रमाण है।
अन्य विशेषताएँ
यह एक विस्तृत संविधान है जिसमें 395 अनुच्छेद तथा 12 अनुसूचियां है। मूल संविधान में केवल 8 अनुसूचियाँ ही थी। कालांतर में विभिन्न संवैधानिक संशोधनों के द्वरा चार अनुसूचियों और बढ़ाई गई। इससे पूर्व 1935 का भारतीय शासन अधिनियम भी सुविस्तृत था। उसमें 321 विभाग और 10 अनुसूचियाँ थीं।
यह संविधान इस देश में पूर्ण संसदीय लोकतंत्र की व्यवस्था करता है, जिसमें जनता अपने प्रतिनिधियों को चुनती है, ये प्रतिनिधि कार्यपालिका को नियंत्रित करते हैं तथा मंत्रिपरिषद् सामूहिक रूप से इनके प्रति उत्तरदायी होती है। इससे पूर्व इस दिशा में कुछ प्रयत्न किए गए थे, विशेषकर 1935 के भारतीय शासन अधिनियम के द्वारा, जिसमें प्रांतीय स्वायत्तता का प्रावधान था। किंतु उसमें इतने अधिक प्रतिबंधों की व्यवस्था थी कि पूर्ण संसदीय लोकतंत्र का विकास संभव नहीं था। संसदीय लोकतंत्र में एक निश्चित अंतराल के बाद निर्वाचन होते हैं।
यह संविधान इस देश में संघीय राज्य व्यवस्था स्थापित करता है। यद्यपि 1935 के भारतीय शासन अधिनियम में भी संघीय शासन प्रणाली स्थापित करने की व्यवस्था थी तथापि उसके कट्टर विरोध के कारण, विशेषकर देशी रियासतों के असहयोग के कारण, यह व्यवस्था लागू न की जा सकी। संविधान की व्यवस्थानुसार संघीय प्रणाली लागू होने के बावजूद कुछ आलोचक इससे असंतुष्ट है क्योंकि इसमें केन्द्रीकरण का पूर्ण बाहुल्य है। कुछ आलोचक तो यहाँ तक कहते हैं कि इसे एक संघीय संविधान, जिसमें कुछ एकात्मक प्रवृत्तियाँ विद्यमान हैं' कहने की अपेक्षा एक 'एकात्मक संविधान, जिसमें कुछ संघीय लक्षण विद्यमान है', कहना अधिक उचित होगा।
यह संविधान समाज के दुर्बल वगों की स्थिति में उत्थान करने के लिए कुछ ठोस सकारात्मक कार्यों, जैसे विधान मंडलों और सरकारी नौकरियों में आरक्षण आदि की व्यवस्था करता है। इससे पूर्व 1909 के भारतीय परिषद् अधिनियम, 1919 के भारतीय शासन अधिनियम तथा 1935 के भारतीय शासन अधिनियम में भी इसी प्रकार की आरक्षण व्यवस्था विद्यमान थी।
संविधान में तीन प्रकार के आपातकाल (राष्ट्रीय आपात, संवैधानिक तंत्र की विफलता तथा वित्तीय आपात) की व्यवस्था है। इससे पूर्व 1935 के भारतीय शासन अधिनियम में भी न्यूनाधिक इसी प्रकार की व्यवस्था थी। राष्ट्रीय आपात से हमारा अभिप्राय संविधान के अनुच्छेद 352 के अंतर्गत घोषित व्यवस्था से है। इस अनुच्छेद के अंतर्गत जब कभी राष्ट्रपति को युद्ध, बाह्य आक्रमण अथवा आंतरिक सशस्त्र विद्रोह के कारण देश अथवा देश के किसी भाग में सुरक्षा को खतरा महसूस हो तो वह आपातकाल की घोषणा कर सकता है। ऐसी स्थिति में संविधान का संघीय स्वरूप एकात्मक रूप ग्रहण कर लेता है।
संवैधानिक तंत्र की विफलता से हमारा अभिप्राय ऐसी व्यवस्था से है जब राष्ट्रपति को किसी राज्य के राज्यपाल से ऐसी सूचना प्राप्त या फिर उसे यह विश्वास हो जाए कि उस राज्य में संविधान की व्यवस्था के अनुसार शासन संचालन संभव नहीं, तो वह वहाँ पर राष्ट्रपति शासन की स्थापना की घोषणा कर सकता है। ऐसी स्थिति में राज्य की कार्यपालिका शक्ति केंद्रीय कार्यपालिक के अधीन तथा राज्य की विधायी शक्तियाँ संसद के अधीन हो जाती है।
वित्तीय आपात से हमारा अभिप्राय ऐसी स्थिति से है जब राष्ट्रपति को यह विश्वास हो जाए कि राष्ट्र अथवा राष्ट्र के किसी भाग में वित्तीय स्थिरता संकट में पड़ गई है तो वह आपातकाल की घोषणा कर सकता है। ऐसी स्थिति में राष्ट्रपति को यह अधिकार प्राप्त हो जाता है कि वह हर राज्यों को निर्देश दे सके कि किस प्रकार उनको अपने वित्तीय विषयों को संचालित करना है। राष्ट्रपति को यह अधिकार भी प्राप्त हो जाता है कि वह ऐसे अधिकारियों के वेतन, भत्ते, आदि में कटौती कर सके जिन्हें भारत की संचित निधि से वेतन, भत्ता आदि प्राप्त होते हैं तथा जिनमें साधारणतया कटौती नहीं की जा सकती।
संविधान में कुछ स्वतंत्र अभिकरणों की भी व्यवस्था है, जो उन्हें दिए गए कार्यों को संपादित करते हैं। इससे पूर्व 1935 के भारतीय शासन अधिनियम में भी ऐसे अभिकरणों की व्यवस्था थी। संविधान में जिन अभिकरणों की व्यवस्था है, उनमें से कुछ निम्नानुसार है :
1. निर्वाचन आयोग: यह संसद, राज्य विधान मंडलों, राष्ट्रपति तथा उप राष्ट्रपति के निर्वाचन की व्यवस्था करता है। इस संस्था को कार्यपालिका के नियंत्रण से मुक्त रखने के लिए संविधान में कुछ प्रावधान रखे गए हैं।
2. नियंत्रक तथा महालेखा परीक्षक यह संघ तथा राज्यों के वित्त एवं लेखा की देख-रेख करता है तथा उनको नियंत्रित करता है। इसे भी संघीय और राज्यों की कार्यपालिका के नियंत्रण से मुक्त रखने के लिए संविधान में व्यवस्था की गई है।
3. संघीय और राज्य लोक सेवा आयोग: ये क्रमशः केंद्रीय और राज्य सरकारों की उच्चतर सेवाओं के लिए अभ्यर्थियों की परीक्षाओं का संचालन तथा उनका साक्षात्कार करते हैं एवं उनकी नियुक्ति के लिए संस्तुतियाँ करते हैं।
भारतीय संविधान के एकात्मक एवं संघात्मक लक्षण
हमारी राजव्यवस्था के संबंध में भी दो मत हैं: कुछ लोगों के मतानुसार यह एक संघ राज्य है जिसमें एकात्मक लक्षणों का प्राधान्य है जबकि दूसरे लोगों का विचार है कि यह प्रधानतया एक एकात्मक राज्य है जिसमें कुछ संघीय लक्षणों का समावेश हो गया है। प्रो. के.सी. व्हीयर इसे एक अर्धसंघीय राजव्यवस्था के नाम से संबोधित करते हैं।
संघीय सिद्धांत के लिए निम्नलिखित लक्षण अत्यावश्यक हैं:
यदि हम उपर्युक्त कसौटी पर भारतीय संविधान को कसते हैं तो हमें निम्न लक्षण दिखाई पड़ते हैं:
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि संघीय राज्य के लिए अत्यावश्यक सभी प्रमुख तत्व भारतीय संविधान में विद्यमान है। किंतु भारतीय संविधान में कुछ ऐसे तत्व भी हैं जो संघीय शासन पद्धति के लिए साधारणतया मान्य मापदण्डों से कुछ विपरीत हैं। ऐसे तत्वों में से कुछ मुख्य तत्व निम्नानुसार हैं:
उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि हमारे संविधान निर्माता केंद्र को एक मजबूत शक्ति बनाना चाहते थे। विधायी, कार्यकारी तथा न्यायिक शक्तियों के वितरण से यह सिद्ध है। आपातकाल के दौरान तो संघात्मक शासन एक प्रकार से एकात्मक स्वरूप ही ग्रहण कर लेता है। हमारे संविधान निर्माता निम्न कारणों से संघीय सिद्धांत के अनुपालन से हिचकिचाते थे-
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