तुलसी का मर्यादा भाव
सिद्धों-नाथो एवं संतों ने सामाजिक असमानता के विरूद्ध जो आंदोलन छेड़ा उससे व्यवहारिक स्तर पर तो समानता नही हीं आयी पहले से चली या रही व्यवस्था भी छिन्न भिन्न हो गयी। तुलसी अपने साहित्य के द्वारा तत्कालिन अराजक व्यवस्था में राजकता लाने की कोशिश करते हैं।
मर्यादावाद नियमों का शासन है। तुलसी ने मानस के द्वारा परिवार, समाज, व्यक्ति और राष्ट्र के कर्त्तव्य निर्धारित किये हैं। संबंधों की मर्यादाएँ बतायी हैं। उन्होंने पति-पत्नी, भाई-भाई, पिता-पुत्र, मालिक-नौकर, राजा-प्रजा के कर्तव्य निर्धारित किये और उनके संबंधों का स्वरूप स्थिर किया। उन्हीं संबंधों के निर्धारण में स्तरीकरण का भी ध्यान रखा। राम और लक्ष्मण का जो भातृ सम्बन्ध है वह भरत और राम के भातृ सम्बन्ध जैसा ही नहीं है। राम और विभिषण का मैत्री संबंध बिल्कुल वही नहीं है जो राम और सुग्रीव का मैत्री संबंध। पंचवटी और चित्रकुट में राम और सीता का पति-पत्नी संबंध हमें उच्चादर्श से परिचित कराता हैं। वन में राम और भरत का मिलन भाई से भाई का हीं नहीं, प्रेम से प्रेम का, शील से शील का, नीति से नीति का मिलन है।
मर्यादावाद नियमों की कठोरता से मनुष्य के स्वाभाविक विकास और उसकी अन्तर्निहित इच्छा को दबाता नहीं है। यह रूढ़ियों के प्रति निष्ठा नहीं है। यह मानवीय सामाजिक विकास की नियमावली है। तुलसी के राम के जीवन में जो व्यवस्था है वही व्यवस्था और अनुशासन राम के परिवेश में है और वही तुलसी की कविता की भाषा में।
यही कारण है कि तुलसी ने श्रृंगार का मर्यादित चित्रण अपने काव्य में किया है जिसमें अश्लीलता नहीं है। पुष्पवाटिका में जब सीता और राम का प्रथम मिलन हुआ है तो वहां तुलसी पूर्णतः मर्यादित रहे हैं। सीता की छवि को देखकर, उनके कंगन एवं किंकिनी की मधुर ध्वनि सुनकर राम को लगता है मानो कामदेव ने अपनी दुन्दुभी बजा दी है-
कंकन-किंकिनि नूपुर धुनि सुनि। कहत लखन सन रामु हृदयँ गुनि।।
मानहुँ मदन दुन्दुभी दीन्ही। मनसा बिस्व बिजय कहँ कीन्हीं।।
(कंकण/हाथों के कड़े, करधनी और पायजेब के शब्द सुन कर श्री राम चन्द्र जी हृदय में विचार कर लक्ष्मण से कहते हैं - यह ध्वनि ऐसी आ रही है मानो काम देव ने विश्व को जीतने का संकल्प कर के डंके पर चोट मारी है।)
सीता का सौन्दर्य अत्यन्त प्रभावशाली एवं आकर्षक है। नायक राम सीता की छवि को देखकर अभूतपूर्व प्रेमभाव से भर उठते हैं। उनके सात्विक मन में ‘प्रेम भाव’ जाग्रत हो उठता है और वे निश्छल भाव से लक्ष्मण को यह सब बता देते हैं।
पुष्पवाटिका-प्रसंग में तुलसी ने श्रृंगार वर्णन को कई रूपों में प्रस्तुत किया है। वहां रूप-सौंदर्य का वर्णन है, मनः स्थित का चित्रण है तथा राम-सीता के प्रणय का मौन अभिनन्दन है। राम की एक झलक देखने के बाद सीता की क्या दशा होती है इसका सरस, मार्मिक, किन्तु मर्यादित चित्र तुलसी ने इन पंक्तियों में किया है-
चितवति चकित चहूँ दिसि सीता। कहँ गए नृप किसोर मनु चिंता।।
जहँ बिलोक मृग सावक नैनी। जनु तहँ बरिस कमल सित श्रेनी।।
(सीता जी चकित हो कर चारो ओर देख रही है। मन इस बात की चिंता कर रहा है कि राज कुमार कहाँ चले गए। बालमृग नयनी सीता जी जहाँ दृष्टि डालती है वहाँ मानो श्वेत कमलोंकी कतार बरस जाती है।)
लता ओट तब सखिन्ह लखाए। स्यामल गौर किसोर सुहाए।।
देखि रूप लोचन ललचाने। हरषे जनु निज निधि पहिचाने।।
(तब सखियों ने लता की ओट में सुन्दर श्याम और गौर कुमारो को दिखलाया। उनके रूपको देखकर नेत्र ललचा उठे, वे ऐसे प्रसन्न हुए मानो उन्होने अपना खजाना पहचान लिया।)
थके नयन रघुपति छवि देखें। पलकन्हिंहूँ परिहरीं निमेषंे।।
अधिक सनेहँ देह भै भोरी। सरद ससिहि जनु चितव चकोरी।।
(श्री रधुनाथ जी की छबि देखकर नेत्र थकित/निश्चल हो गये। पलकों ने भी गिरना छोड़ दिया। अधिक स्नेह के कारण शरीर विह्वल/बेकाबू हो गया। मानेा शरद् ऋतु के चन्द्रमा को चकोरी देख रही हो।)
सीता के हृदय में किस प्रकार राम के प्रति प्रेम का विकास हुआ है इसका अत्यन्त सरस चित्रण इन पंक्तियों में किया गया है। सीता के नेत्रों का ललचाना, अपलक दृष्टि से देखना उनके हृदय की अभिलाषा, हर्ष, उत्कंठा आदि की अभिव्यक्ति करता है।
राम और सीता के नेत्र जब परस्पर मिल गए तो मानो नेत्र ने संकुचित होकर दृगंचल छोड़ दिया हो। राम मन की मन सीता की सुन्दरता की सराहना कर रहे थे तथा मुख से एक शब्द भी नहीं निकल रहा था-
भए विलोचन चारु अचंचल। मनहुं सकुच निमि तजे दृगंचल।।
देखि सीय सोभा सुख पावा। हृदय सराहत बचनु न आवा।।
(सुन्दर नेत्र स्थिड़ हो गए मानो निमि ने सकुचा कर पलके छोड़ दी। सीता जी की शोभा देखकर श्री राम जी ने बड़ा सुख पाया। हृदय में वे उसकी सराहना करती है परंतु मुख से वचन नही निकलते।)
प्रेम के वशीभूत होने पर भी राम और सीता का आचरण मर्यादित रहा है, उसमें कहीं भी रचमात्र उच्छृंखलता दिखाई नहीं देती।
राम सीता को वन गमन के लिए नहीं कहते हैं वे तो उसे मना करते है। जैसे ही सीता कहती है कि आप के लिए तप और मेरे लिए भोग कहाँ तक उचित हैं। इस संसार में स्त्री के सारे नाते रिश्ते पति को लेकर है। जो संबंध पति के कारण मधुर लगते हैं वे ही पति की अनुपस्थिति में सूरज की ताप की तरह तपाने लगते हैं। सीता के तर्कों से निरूतर होकर राम उन्हें जाने की अनुमति देते हैं। यह मर्यादावाद व्यक्ति की स्वातंत्र्य चेतना को दबाने का वाद नहीं है। इसमें व्यवस्था के प्रति, कार्य संस्कृति के प्रति आग्रह ध्वनित होता है। अयोध्या में निवास करते हुए भी सीता ने मर्यादा का पूर्ण पालन किया है। बड़ों की सेवा-सत्कार करना तथा छोटों से स्नेह करना उनके स्वभाव का विशिष्ट गुण है। वे अपनी सास कौशल्या की चरण सेवा करती हैं।
कैकेयी ने राजा दशरथ से वरदान मांगकर अयोध्या पर जो संकट लगा दिया उस समय भी राम ने पूर्णतः मर्यादा का पालन किया। जिस व्यक्ति को अयोध्या का युवराज पद दिया जा रहा हो, उसे बिना किसी अपराध के चौदह वर्ष के लिए वन में भेज दिया जाय, और वह बिना किसी ना-नुकर के इसे प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार कर ले, यह राम जैसे आदर्श पुत्र के लिए ही सम्भव था। पिता की आज्ञा को सिर झुकाकर अंगीकार कर लेना ही पुत्र का धर्म है। राम ने एक शब्द भी कैकेयी के विरूद्ध नहीं कहा, किन्तु जब भरत अयोध्या लौटकर आये और उन्हें कैकेयी की करतूत पता चली तो वे अपने सात्विक क्रोध को रोक न पाये और उन्होंने अपनी मां कैकेयी को यहां तक कह दिया-
गरेज न जीभ मुंह पर्यो न कीरा। वर मांगत तोहि भई न पीरा।।
अपनी मां को ‘पापिनी’ कहते हुए यहां तक कह देते हैं कि तू मेरे सामने से चली जा और मुंह छिपाकर बैठ। वस्तुतः कैकेयी ने जो कुछ किया था उससे सारी अयोध्या हिल गई, नगरवासियों में कैकेयी के प्रति क्रोध है। इस क्रोध की अभिव्यक्ति ही भरत के शब्दों में करवाकर तुलसी ने मर्यादा का निर्वाह किया है। राम लोक धर्म के प्रतीक हैं अतः उनका विरोध करने वाली कैकेयी को भरत के द्वारा अपशब्द कहलाकर तुलसी ने पाठकों के क्रोध का भी निष्कासन कर दिया है। रही सही कसर शत्रुघ्न ने मंथरा को पीटकर निकाल दी-
हुमकि लात तकि कूबर मारा। परसि भूमि करि घोर चिंघारा।।
(शत्रुघ्न उसे चोटी पकड़-पकड़कर खींचने लगे। भरत ने दया दिखाते हुए उसे मुक्त कराया।)
वन मार्ग में जाते हुए राम, लक्ष्मण और सीता को देखकर ग्राम बालाएं सीता से यह जानना चाहती हैं कि सीता का इनसे क्या सम्बन्ध है। उस अवसर पर भी तुलसी ने मर्यादा का निर्वाह किया है। सीता जी ने पहले यह बताया कि यह गोरे से मेरे छोटे देवर लक्ष्मण हैं और फिर राम की ओर तिरछी चितवन से देखकर संकेत में ही उन ग्राम बालाओं को यह बता दिया कि ये मेरे पति हैं।
बहुरि बदनु बिधु अंचल ढाकी। पिय तन चितई भौंह करि बाँकी।
(सीता जी ने लज्जावश अपने चन्द्रमुख को आँचल से ढक कर और प्रियतम की ओर निहार कर भौंहें टेढ़ी करे के देखा।)
खंजन मंजु तिरीछे नयननि। निजपति कहेउ तिन्हहि सियँ सयनिन।
( फिर खंजन पक्षी की तरह सुन्दर नेत्रों को तिरछा कर के सीता जी ने इसारे से उन्हें कहा कि ये मेरे पति हैं।)
तुलसी ने नारी सौंदर्य और सामाजिक आचार विचार में भी मध्ययुगीन मर्यादा का ध्यान रखा है। तुलसी ने गुरू के सम्मान पर विशेष बल दिया है। राम-लक्ष्मण विश्वमित्र एवं वशिष्ठ का विशेष सम्मान करते हैं। वे उनके सामने संकोच के कारण अपने मनोभाव तक व्यक्त नहीं कर पाते। काकभुशुण्डि एवं गरुड़ के संवाद में एक अवसर पर गुरु को प्रणाम न करने पर शिव ने गुरु अपराधी को जो दण्ड दिया है वह यह पुष्ट करता है कि लोक मर्यादा एवं शिष्टता का उल्लंघन करने वाले को क्या दुष्परिणाम भोगने पड़ते हैं। वे अपने अपराधी को तो क्षमा कर सकते हैं, किन्तु गुरु के अपराधी को क्षमा नहीं करते।
सीता विरह पर राम का वियोग हृदय द्रावक है। राम पूछते हैं- ‘हे खग, हे मृग, हे मधुकर श्रेणी, क्या तुने देखी सीता मृगनैनी?’
इस प्रकार रामचरितमानस में सर्वत्र मर्यादा के पालन पर, शिष्टाचार एवं नीति पर बल दिया गया है। उनके मर्यादावाद में न तो एकांगिता है, न धार्मिक मजहबीपन है। वह धर्म की भावभूमि पर निर्मित साहित्यिक ग्रंथ है जिसमें मर्यादा पर सर्वाधिक ध्यान दिया गया है। मानस में वर्णाश्रम धर्म की प्रतिष्ठा पर भले ही बल दिया गया हो, किन्तु भक्ति की महत्ता को स्वीकार करते हुए, इसके लिए अपने सर्वाधिक प्रिय व्यक्ति का त्याग करने को उचित बताया गया है।
ये तुलसी जानते थें कि नियम मनुष्य के लिए होते हैं मनुष्य नियमों के लिए नहीं होता। इसलिए वे मर्यादाओं की रक्षा की बात वहीं तक करते है जहां वे मनुष्य और समाज के हित में है। तुलसी का मर्यादावाद प्रेम का गला नहीं धोटता और न ही मनुष्य के स्वभाविक विकास को रोकता है। तुलसी के राम जब देखते हैं कि उनकी यह मर्यादा उनके मातृ प्रेम के रक्षा और विकास में वाधक बन रही है तो वे इसे तोड़ने की बात करने लगते हैं। प्रेम सभी मर्यादाओं से उपर है। लक्ष्मण को शक्ति लगने पर राम विलाप करते हुए करते हैं
ज्यों जनि तउं वनि वंधु बिछोउ
पिता बचन मनि तौ नहीं ओहु
तुलसी की मान्यता है कि लोकमर्यादा का पालन करने से ही समाज कल्याण सम्भव है।
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