अवधी अवध क्षेत्र के बोली है । अवधी लखनऊ, उन्नाव, रायबरेली, सीतापुर, फैजाबाद, गोंडा, बहराइच, सुल्तानपुर, प्रतापगढ़, बाराबंकी, कानपुर जिले के कुछ भाग, जौनपुर - मिर्जापुर के पश्चिमी भाग, गंगा के दाहिने किनारे फतेहपुर और इलाहाबाद की बोली है। अवधी पूर्वी हिन्दी की सबसे महत्वपूर्ण बोली है।
अवधी नाम का भाषा के अर्थ में प्रचीनतम प्रयोग अमीर खुसरो ने अपने नुहसिपहर में किया है। अबुल फजल की आईने अकबरी में भी यह शब्द आता है। अवधी अर्द्धमागधी प्राकृत से निकली कोसली अपभ्रंश से विकसित हुई है। कुवलयमाला, प्रबंध चिंतामणि, कुमारपाल प्रतिबोध, उक्तिव्यक्तिप्रकरण, प्राकृत पैङ्गलम् की भाषा मे अवधी के पूर्व रूप का पता चलता है। हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण में भी कुछ लक्षण ऐसे दिये गये हैं, जिनसे प्राचीन अवधी के स्वरूप का पता चलता हैः
जीवहिं मज्झे एझ।
केहि तणेण।
X X X
सोउ जुहुट्ठिर संकट पावा। देबक लिक्खिअ केण मेटावा।।
- प्राकृत पैङ्गलम्
इन उद्धहरणों में ह्रस्व इकारान्त अवधी के लक्षण को प्रकट करता है। अपभ्रंश के क्रिया के रूप ही अवधी में क्रियारूप बन गए।
अवधी के विकास को तीन चरणों में बाँटकर देखा जा सकता है।
प्रथम चरण 10वीं - 14वीं / प्रारंभ से 1400 ई॰ तक
दूसरा चरण 14वीं - 17वीं / 1401 से 1700 ई॰ तक
तीसरा चरण 17वीं - अब तक/ 1701 से लेकर अबतक
प्रथम चरण: 10वीं - 14वीं / प्रारंभ से 1400 ई॰ तक
प्रथम चरण की अवधी अपभ्रंश से निकली हुई अवधी है। अपभ्रंश से निकली हुई अवधी के परसर्गों को बानगी के तौर पर देखा जा सकता है।
केरअ > केरा > केर > कर
जसु केरअ हुँकार उएँ - हेमचंद्र
लोचन केरा बल्लाह - हेमचंद्र
काहु केर बिकाई - जायसी
जेहिकर जेहिपर सत्य सनेहु - तुलसी
प्रारंभ में अवधी को प्रतिष्ठित करने का श्रेय मुल्ला दाऊद को है। अवधी का प्रथम साहित्यिक ग्रंथ ‘चंदायन/लोरकहा ’ है। मुल्ला दाउद की रचना 1370 ई. में आई। इसमें अवधी के सभी लक्षण मौजूद है। इसकी भाषा सरल सुबोध एवं तद्भव प्रधान है।
काटि पेड़ जटि मूर उपाराऊँ।
डारि डारि कर फैली फारऊँ।।
इसमें ह्रस्व इकारांतता की प्रवृत्ति साफ झलकती है।
दाऊद कवि जो चाँदा गाई।
जेइ रे सुना सो गर मुरझाई।।
चंदायन में दोहा-चौपाई की कड़बक शैली का प्रयोग मिलता है। चंदायन ‘लोरिक’ के संपूर्ण जीवन पर आधारित है। लालचदास ने हरिचरित, सूरजदास ने रामजनम, इसरदास ने सत्यवती कथा नामक रचनाएं रच कर अवधी को परिनिष्ठित रूप देने का काम किया।
दूसरा चरण : 14वीं - 17वीं / 1401 से 1700 ई॰ तक
मंझन की मधुमालती, कुतुबन की मृगावती, जायसी की पद्मावत अवधी के विकास में मील का पत्थर है। मंझन की अवधी अधिक सरल है। उनकी कृति में विरह वर्णन प्रभावपूर्ण है। जायसी ने ‘पद्मावत’ में अपने पूर्व -रचित काव्य ग्रंथों - अखरावट, कहारनामा, चम्पावत - आदि का उल्लेख किया है। जायसी रचित ‘पद्मावत’ प्रेमाख्यानों की परंपरा में मूर्धन्य है। इसका भाषायी आधार ठेठ अवधी रहा है। भाषा की दृष्टि से ये पंक्तियाँ विशिष्ट हैं:
तुरकी अरबरी हिंदुई भाषा जेती आहि।
जेहि मँह मारग प्रेम कर सबै सराहै ताहि।
जायसी ने जनभाषा को विशेष महत्व दिया। सरल भाषा में गंभीर भाव व्यक्त किए हैः
मुहम्मद जीवन जल भरत रहँट घरी की रीति।
घरी सो आई ज्यों भरी छरी जनम गा बीति।
स्थानीय प्रयोग और लोक जीवन की शब्दावली से भाषा पुष्ट हुई है। जायसी संस्कृत के तत्सम शब्दों का प्रयोग भी करते हैं, तो उसे अर्द्धतत्सम या तद्भव बनाकर। जायसी के काव्य में उकारान्तता की प्रवृत्ति अन्त्यानुप्रास के कारण है।
तन मन सेज करै अगि डाहु
सब कहिं चांद मोहि होई राहु।
जायसी ने फारसी के उलटे समासों का भी प्रयोग किया है। जैसे - किरण रवि फूटि (रवि किरण - समास), लीक पखान पुरूष का बोला (पाषाण लीक - समास)। जायसी जातीय संस्कृति और शब्दों की अर्थछाया का अंतर दिखाकर अपने गहरे सांस्कृति बोध का परिचय देते हैं। जायसी के बाद तुलसी ने अवधी को साहित्यिक उँचाई दी।
साहित्यिक अवधी के विकास क्षेत्र में तुलसीदास एक बड़े हस्ताक्षर एवं शिखर पुष्प हैं। उन्होंने राम चरित मानस लिखकर न केवल अवधी के साहित्यिक रूप को स्थिर किया बल्कि उन्होंने विभिन्न भाषायी तत्वों का समावेश कर अवधी को समासिक संस्कृति की भाषा के रूप में ढाला। उन्होंने अपने पांडित्य एवं सर्जनात्मक प्रतिभा के बल पर अवधी को एक गौरव-भाषा बना दिया। उनकी भाषा में संस्कृत के तत्सम शब्दों एवं उनके अवधीकृत रूपों का बाहुल्य है। अवधी में ‘मानस’ की रचना करके उन्होंने उसे मधुर, संस्कृत और परिष्कृत रूप दिया है।
उनकी भाषा में प्राकृत एवं अपभ्रंश के शब्दों का प्रयोग बहुत कम मिलता है। ऐसे शब्द खासकर वहाँ आते हैं जहाँ वीर, रौद्र एवं भयानक रसों की सृष्टि होती है:
जंबुक निकट कटक्कट कट्टहिं। खाहिं हुवाहिं अघाहिं दपट्टहिं।।
तुलसीदास ने अरबी, फारसी एवं तुर्की तथा हिंदी क्षेत्र की बोलियों - राजस्थानी, ब्रजभाषा एवं भोजपुरी आदि से भी शब्द लिए हैं।
तुलसी का साहित्य हर प्रकार के भावों को प्रकट करने में उपयुक्त है। श्रृंगारिक भाव भी तुलसी के यहाँ उत्कृष्टता के साथ आए हैं, इन भावों के उदघाटन में तुलसी के द्वारा मर्यादा का भी निर्वहन किया गया है। सीता के हृदय में किस प्रकार राम के प्रति प्रेम का विकास हुआ है इसका अत्यन्त सरस चित्रण इन पंक्तियों में किया गया है। सीता के नेत्रों का ललचाना, अपलक दृष्टि से देखना उनके हृदय की अभिलाषा, हर्ष, उत्कंठा आदि की अभिव्यक्ति करता है।
राम और सीता के नेत्र जब परस्पर मिल गए तो मानो नेत्र ने संकुचित होकर दृगंचल छोड़ दिया हो। राम मन ही मन सीता की सुन्दरता की सराहना कर रहे थे तथा मुख से एक शब्द भी नहीं निकल रहा था-
भए विलोचन चारु अचंचल। मनहुं सकुच निमि तजे दृगंचल।।
देखि सीय सोभा सुख पावा। हृदय सराहत बचनु न आवा।।
बाद के अधिकांश रामकथाकारों ने तुलसी की भाषा शैली का ही अनुसरण किया है।
तीसरा चरण: 17वीं - अब तक/ 1701 से लेकर अबतक
17वी शताब्दी में आलम और उस्मान ने अवधी को साहित्यिक भाषा के रूप में बनाये रखा। 18वीं शताब्दी में नूर मुहम्मद ने इंद्रावती, कासिम शाह ने हंस जवाहर, 19वीं शताब्दी में अली शाह ने प्रेम चिंगारी तथा 20वीं सदी में ख्वाजा अहमद ने नूरजहाँ की रचना की। 20वीं शताब्दी में अवधी को ब्रजनंदन बंशीधर, रमई काका, वलभद्र प्रसाद दीक्षित एवं देहाती जी आदि ने विकसित किया। उन्होंने अवधी को हास्य एवं व्यंग्य की भाषा के रूप में निखारा।
यदि कुतुबन से पहले की अवधी को पूर्ववर्ती, कुतुबन से 17वीं शताब्दी की अवधी को परवर्ती और उसके बाद की अवधी को आधुनिक मान लें, तो हम पाएंगे कि पूर्ववर्ती में जिन शब्दों का प्रयोग बहुत हो रहा था, परवर्ती में कम हो गया और आधुनिक में उनका प्रयोग नहीं के बराबर रह गया। जैसे - तेन - तेन्ह का ही विकास तिन, तिन्ह में एवं भव का विकास भा में हुआ। तेन एवं भव का प्रयोग पूर्ववर्ती में बहुत अधिक है परवर्ती में इनका प्रयोग बहुत कम हो जाता है तथा आधुनिक में इनका प्रयोग नहीं के बराबर हो जाता है।
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