प्रजाति
प्रजाति स्पीसीज नहीं है अपितु एक उपस्पीसीज है। प्रजाति मानव जनसंख्या के उस समुह को कहते हैंं जिसमें व्यक्तिगत अन्तर के बावजूद कुछ सामान्य गुण पाए जातेे है, तथा जो वातावरण के अनुकूलन के फलस्वरूप उत्पन्न होते है तथा पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होते हैं। प्रजाति को समझने के लिए कुछ विद्वानोंं की परिभाषाओं को देखना आवश्यक है :-
हूटन - प्रजाति मानव समुदाय के उस बड़े भाग को कहते है जिसके सदस्यों में व्यक्तिगत विभिन्नताओं के होते हुए भी मिश्रित लक्षण पाए जाते है जो अनुकुली होते है तथा सामान्य वंश क्रम से उत्पन्न होते हैं।
मजूमदार – प्रजाति व्यक्तियों के उस समूह को कहते है जिसे उभयनिष्ठ शारीरिक लक्षणों के आधार पर अन्य समूहों से अलग किया जा सकता है भले ही वे सदस्य यहाँ वहाँ बिखरे क्यों न हों किन्तु शारीरिक लक्षणों में समानता के आधार पर एक समूह में वगीकृत किया जा सकता है।
मानवशास्त्रीय परिभाषा –
प्रजाति एक जनसंख्या होती है जिसमें कुछ विशिष्ट जीन आवृत्ति होती है या जीन का वितरण होता है या शारीरिक लक्षण होते है जो भौगोलिक एवं सांस्कृतिक पृथकरण के कारण एक समय के अन्तराल में और कालक्रम में प्रकट होते है या जिनमें भिन्नता होती है या जो विलुप्त हो जाते है उन्हें प्रजाति कहते है।
रेस की अवधारणा VS रेसिज्म की अवधारणा
रेस की अवधारणा एक वर्गीकरण के उपकरण के रूप में समझी जा सकती है। इसके आधार पर मानव जनसंख्या के विभिन्न समुहों को एक व्यवस्थित क्रम वाँटा जाता है। दूसरे शब्दों में इस अवधारणा का तात्पर्य है मानव जनसंख्या को एक व्यस्थित क्रम में रखना। रेस का किसी भी प्रकार के अन्य तथ्यों से कोई सम्बंध नहीं होता है अर्थात सामाजिक राजनैतिक आर्थिक इत्यादि। यहाँ तक की मांसिक अवस्था से भी रेस का कोई सम्बध नही होता है। मानसिक विशेषताओं से भी इसका कोई संबंध नहीं होता जैसा कि क्लिगवर्ग का कहना है कि वैज्ञानिकों को भी यह ज्ञात नहीं है कि प्रजाति और मनोवैज्ञान में क्या सम्बनध होता है।
19वीं शताब्दी या इसके पूर्व में भी और 20वीं शताब्दी के कुछ दसकों में प्रजाति से सम्बधित कुछ भ्रांतियां उपजी। कुछ प्रजातियाँ स्वयं को दूसरी प्रजाति की तुलना में श्रेष्ठ मानने लगी, जिसे ही वस्तुत: प्रजातिवाद या रेजिज्म कहा जाता है। विशेषकर श्वेत लोगो ने यह समझा कि वे एक उच्च प्रजाति से सम्बन्ध रखते है और काले लोग निम्न से। जैसा कि उपनिवेशवाद के काल में अंग्रेजों का यह श्लोगन था कि काले लोग श्वेत लोगो पर बोझ है अर्थात संस्कृति केवल श्वेत लोगो के पास है और इनका यह कर्त्तव्य है कि अन्य लोगो को वे संपन्न बनाए। इसी तरह इसका और भी धीनौना रूप द्वितीय विश्वयुद्ध के काल में मिलता है जब नाजियों ने कहा कि वे श्रेष्ठ है और विशेषकर नार्डिक लोग सबसे शुद्ध है और श्रेष्ठ हैं। और इसी कारण से अन्य प्रजातियों के प्रति अत्याचार किये गये जिससे सबसे अधिक प्रभावित यहुदी हुए। ऐसी बात नही है कि यह अवधारणा वर्त्तमान समय में समाप्त हो गयी है। किसी न किसी रूप में इसको प्रश्रय दिया जाता है फिर भी मानवशास्त्रियों ने यह प्रमाणित करने का प्रयास किया कि प्रजाति एक विशुद्ध जैविक अवधारणा है और जिसका प्रयोग मात्र मानव जनसंख्या को एक क्रमबद्ध रूप से व्यवस्थित करने के लिए किया जाता है और जिसका अभिप्राय किसी भी तरह की श्रेष्ठता और हीनता से नहींं होता है। इस प्रयास का ही परिणाम था unesco कॉनफ्रेंस। जिसमें 50 के दशक में प्रजाति को परिभाषित करते हुए उसके लक्षणों को दर्शाया गया जिसका संक्षेप निम्न है –
प्रजाति का विशुद्ध जैविक अवधारणा है। अर्थात इस अवधारणा का किसी भी प्रकार के सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक, आर्थिक, दार्शनिक और मनोवैज्ञानिक पक्षों से कोई सम्बध नहीं होता है। एक ही रेस में भिन्न भिन्न सांस्कृतिक समुह हो सकते हैंं और कोई भी संस्कृति किसी एक विशेष देश की धरोहर नहीं होती।
रेस का वर्गीकरण मानव जनसंख्या को एक व्यवस्थित रूप देने के लिए है और जिसमें इसके फीनोटाइप एवं जीनोटाइप विशेषताओं के आधार पर वर्गीकरण किया जाता है।
कोई भी प्रजाति वर्त्तमान समय में शुद्ध नहींं है क्योकि सभी प्रजातियाँ और इसकी उपप्रजातियाँ उनके प्रसंस्करण का परिणाम है।
इस प्रकार उपरोक्त वर्णन के आधार पर प्रजाति सम्बधित सभी भ्राँतियों को दूर करने का प्रयास किया गया।