भारत का इतिहास - सामान्य परिचय
भारत का इतिहास - सामान्य परिचय
भारत का इतिहास में दो शब्द हैं भारत और इतिहास। सर्वप्रथम हम भारत और इतिहास को समझने का प्रयत्न करेंगे। भारत एक भौगोलिक क्षेत्र है। यह आज का भारत नहीं वरन यह भारतीय उपमहाद्वीप है। भारतीय उपमहाद्वीप में दक्षिण पूर्वी अफगानिस्तान , पाकिस्तान, आज का भारत, बांग्लादेष, उत्तरी वर्मा एवं नेपाल की तराई को शामिल किया जाता है। यह 42,02,500 वर्ग कि॰ मी॰ में फैला है। इस भारतीय उप महाद्वीप के लिए कई नाम आए है जो निम्न हैं: -
हिन्दूस्तान - प्राचीन ईरानियों/अरबों द्वारा प्रयोग में लाया गया
भारत - सर्वप्रथम एक क्षेत्र के रूप में भारत का उल्लेख पाणिनी द्वारा किया गया।
इंडिया - प्राचीन यूनानियों द्वारा प्रयोग में लाया गया।
आर्यावर्त - यह नाम पंतजलि के समय दिया गया।
जम्बू द्वीप - भारतीयों द्वारा प्रयोग में लाया गया।
(हिन्दू, बौद्ध एवं जैन मतावलम्बियों द्वारा)
इन-तू को - चीनियों द्वारा प्रयोग में लाया गया।
शिन-तू को - चीनियों द्वारा प्रयोग में लाया गया।
तिएन शू - चीनियों द्वारा प्रयोग में लाया गया।
हिन्दूस्तान - सर्वप्रथम हम अलग-अलग नामों की ऐतिहासिकता जानने का प्रयत्न करेंगे।
वैदिक आर्यों द्वारा सिंधु नदी का उल्लेख ऋग्वेद में किया गया है। सिंधु भारतीय उपमहाद्वीप की प्रमुख नदी है एवं वर्तमान पाकिस्तान में बहती है। प्राचीन ईरानी भाषा में स के स्थान पर ह के उच्चारण होने के कारण ईरानियों द्वारा सिंधु को हिंदु पुकारा गया और इस क्षेत्र का नाम हिंदुग दिया गया। छठीं सदी ई0 पूर्व के सूसा लेख जो कि ईरानी भाषा का लेख है, में महल बनाने में हिंदुग क्षेत्र अर्थात सिधुपार के क्षेत्र से आए हाथी दाँत के उपयोग का उल्लेख है और यही शब्द ईरानियों में प्रचलित हुआ।
कालान्तर में हिंदुग में परिवर्तन कर अरबवासियों ने हिन्दूस्तान नाम लोकप्रिय बनाया। 8वीं सदी ईसवी के जैन साहित्य निशीथ चूर्णी में सर्वप्रथम हिन्दूस्तान शब्द का प्रयोग किसी भारतीय क्षेत्र के लोगों द्वारा किया गया है। इस प्रकार यह नाम भौगोलिक भाषाई आधार पर बना है न कि धार्मिक।
इंडिया - चतुर्थ सदी ईसवी पूर्व में जब प्राचीन यूनानी सिंधु के सम्पर्क में आये तो वे सिंधु को इन्दौस पुकारते हैं। इन्दौस से इंदस, इंदस से इंडिका शब्द आया है और यही शब्द इंडिया में बदल गया। भौगोलिक भाषाई आधार पर यूनानियों द्वारा इस नाम को लोकप्रिय बनाया गया है।
इन-तू को - प्रथम ई0 पूर्व में जब लोग सिंधु नदी के सम्पर्क में आते हैं तो सिंधु का उच्चारण इन्तू करते हैं। चीनी भाषा में देश के लिए को शब्द का प्रयोग किया जाता है। इस प्रकार चीनी सिंधुपार के देश को इन-तू को कहते हैं। दूसरी सदी ईसवी में यह नाम शिन-तू को के रूप में परिवर्तित हो गया इसका अर्थ भी सिंधु पार का देश है। कालान्तर में चीनियों द्वारा धार्मिक विशेषताओं के आधार पर भारतीय उप महाद्वीप को तिं-एन शू अर्थात देवताओं का क्षेत्र कहा गया। इस प्रकार के वर्णन भारतः देव निर्मिताः स्थानम् (भारत देवों द्वारा निर्मित भूमि है) भागवत पुराण एवं मनुस्मृति में आता है।
जम्बू द्वीप - जम्बू द्वीप का प्रयोग बौद्ध, जैन एवं हिन्दू मतावलम्बियों द्वारा किया गया। बौद्ध/ जैन मतावलम्बियों द्वारा हिन्दू मतावलम्बियों के पुराण (संकलन काल छःठीं सदी ईसवी पूर्व) में इस शब्द के उल्लेख के लगभग पाँच सौ वर्ष पूर्व इस नाम का उल्लेख किया गया है। बौद्ध और जैन मतावलम्बियों द्वारा विशुद्ध आज के भारत जिसमें काशी, कौशल, वत्स, विदेह (मिथिला), अवंति (मध्य प्रदेश), शुरसेन (मथुरा), अशिक (महाराष्ट्र), सौराष्ट्र (गुजरात) को मिलाकर जो क्षेत्र निर्मित होता है उसका नाम जम्बू द्वीप दिया गया। हिन्दू मतावलम्बियों द्वारा जम्बू द्वीप को व्यापक ढंग से परिभाषित किया गया। वह क्षेत्र जिसके उत्तर में साईबेरिया, दक्षिण में सेतु बंध (हिन्द महासागर), पूरब में चीन एवं पश्चिम में बैक्टीरिया एवं केन्द्र में पामीर है, के रूप में परिभाषित किया गया। जम्बू द्वीप को सात संकेन्द्रिक वृत्त के केन्द्र में बताया गया है।
भारत - भारत नाम के पीछे तीन मान्यताएँ हैं। पहला मत्स्य पुराण/वायु पुराण के आधार पर धार्मिक मान्यता है। पुराण संस्कृत रचित विशुद्ध धार्मिक साहित्य है जिसका अंतिम संकलन पाँचवीं, छठी शताब्दी में हुआ है, में पुरू वंश के शासक भरत का उल्लेख है। भरत को राज्य, व्यवस्था, नियम, नीति आदि का संस्थापक माना जाता हैं। इसलिए वह क्षेत्र जहाँ भरत की संतति का शासन चलता रहा वह भारत है। पुराण में वर्णित इस भरत की पुष्टि अन्य स्रोतों से नहीं होने तथा इसकी तिथि का निर्धारण नही होने के कारण भरत की ऐतिहासिकता संदिग्ध है।
दूसरी मान्यता विष्णु पुराण की है जहाँ धार्मिक एवं भौगोलिक आधार पर इस क्षेत्र को भारत कहा गया है। यह उत्तर में हिमवंत मुजवंत से लेकर दक्षिण में सेतुबंध तक तथा पश्चिम में सिंधु से लेकर पूरब में ब्रह्मपुत्र तक फैला है और इस क्षेत्र में भरत की संतति रहती है।
तीसरी मान्यता विकासात्मक आधार पर इस क्षेत्र का नाम भारत बताती है। सप्त सैन्धव क्षेत्र में 1500 ई0 पूर्व में पाँच जन यदु, अनु, दुह्य, तुर्वश, पुरू अर्थात पंचजन्य बसते थे। कालान्तर में सरस्वती नदी के पूर्व एवं यमुना नदी के पश्चिम में सृंजय, क्रीवि, तृत्सु और भरत जन बसे। पुनः कश्मीर क्षेत्र में गांधारी एवं दक्षिण पूर्व राजस्थान के दृषद्वती नदी के समीप चेदी, कुल ग्यारह जन प्रारम्भिक वैदिक काल में बसें। ऋग्वेद के सातवें मंडल में परूष्णि नदी के तट पर हुए दशराज यु़द्ध का उल्लेख है। यह युद्ध भरत जन (जिसने तृत्सु को अपने में मिला लिया था) एवं दस राजाओं जिसमें यदु, अनु, दुह्य, तुर्वश, पुरू आर्य जन एवं अलिन, पक्थ, मलान, विषाणिन एवं शिवि कबीले शामिल थे, के बीच हुआ। भरत का नेतृत्व शासक सुदास कर रहे थें, जिसके पुरोहित वशिष्ठ थें। दस राजाओं का नेतृत्व पुरू जन के राजा संवरण कर रहे थें जिनके पुरोहित विश्वामित्र थें। इस निर्णायक युद्ध में भरत जन की जीत हुई और भरतों का वर्चस्व बढ़ा। सुदास का ऋग्वेद में सबसे अधिक वर्णन मिलता है। कालान्तर में भरत, पुरू एवं त्रित्सु के सामुहिकरण के उपरांत कुरू जनपद बन गया। भरत जन द्वारा सम्पादित भूमिका के कारण उनके नाम पर इस क्षेत्र का नाम भारत पड़ा।
इतिहास
इतिहास ग्रीक शब्द History का रूपान्तरण है। History ग्रीक शब्द historica से व्युत्पन्न है जिसका अर्थ है भूत की घटनाओं की पुछताछ। इतिहास इति +ह +आस की संधियों से बना है जिसका अर्थ है ऐसा ही हो/गुजर चुका है। स्पष्ट है इतिहास ऐसा विषय है जो वर्तमान के परिपेक्ष्य में गुजरे हुए अतीत का अध्ययन है।
इतिहास अतीत का अध्ययन है। 460 करोड़ वर्ष की पृथ्वी के परत की अवस्थाएँ बदलती रही और धीरे-धीरे इस पर जीवन का विकास होता गया। एक कोशिकीय जीव का विकास विभिन्न चरणों से होते हुए मानव तक हुआ। पृथ्वी के विकास को समझने के लिए हमें भूवैज्ञानिक समय-मान (geological time scale) जो कि स्तरीकी (Stratigraphy) को समय के साथ जोड़ती है पर निर्भर होना पड़ता है।
महाकल्प (Era) |
काल (Period) |
युग (Epoch) |
|
एजोइक Azoic |
&& |
1. प्री कैम्ब्रियन युग 2. आर्कियन
|
महाद्वीप महासागर का निर्माण |
|
|||
पैलियोजाइक Paliozoic |
प्राथमिक Primary |
1. कैम्ब्रियन |
वनस्पति एवं जीवों का उत्पत्ति |
2. ओर्डोबिसियन |
|
||
3. सिलुरियन |
रीढ़वाले जीवों का युग स्थल पर जीवन का प्रारंभ |
||
4. डेवोनियन |
मत्स्य युग |
||
5. कार्बनीफेरस |
गोंडवाना क्रम की चट्टान का निर्माण कोयला युग
|
||
6. पर्मियन |
|
||
मेसोजोईक Mesozoic |
द्वितीयक Secondary |
1. ट्रिएशिक |
Age of Reptiles |
2. जुरैसिक |
डायनासोर |
||
3. क्रिटेशस |
|
||
सेनोजोईक Cenozoic |
तृतीयक |
1- पैल्योसीन |
|
2- इओसीन |
स्तनपाई एवं Ape |
||
3- ओलिगोसीन |
बिल्ली, कुत्ता आदि का विकास |
||
4 . मायोसीन |
मध्य, लघु हिमालय |
||
5 प्लायोसीन |
मानव के पूर्वज का विकास |
||
|
चतुर्थक |
1-प्लीस्टोसीन-चार हीम /आद्र युग |
|
2. होलोसीन |
कृषि एवं पशुपालन |
सेनोजोईक एरा के चतुर्थक कल्प के प्लीस्टोसीन इपॉक से मुनष्य की गतिविधियाँ प्रारंभ होती है। इस इपॉक में उत्तर भारत में चार हीम युग एवं तीन अर्न्तहिमानी युग तथा मध्य से दक्षिण भारत में अतिवृष्टि अनावृष्टि के काल आए हैं। इस काल में ही दो पाया मानव का विकास हुआ और संस्कृतियों का निर्माण प्रारंभ हुआ है। इस मानव के गतिविधियों के प्रमाण मिलते हैं। इन गतिविधियों के प्रमाण से अध्ययन से इतिहास का प्रारंभ किया जाता है। इन प्रमाणों में औजार/उपकरण मिलते है। सर्वप्रथम मुनष्य का प्रमाण अफ्रीका में 26 लाख वर्ष के पूर्व मिलता है। यूरोप में 20 लाख वर्ष पूर्व मनुष्य गतिविधियों को तलासा जा सकता है। भारतीय उपमहाद्वीप के महाराष्ट्र के बोरी में 14 लाख वर्ष पूर्व के मानवीय गतिविधियों के साक्ष्य प्राप्त होते हैं। भारतीय उपमहाद्वीप में 5 लाख वर्ष पूर्व से मानवीय गतिविधियों के प्रमाण मिलने लगते हैं। इस प्रकार इतिहास में हम 5 लाख वर्ष पूर्व से 1964 तक की संस्कृतियों एवं उनके विकास का अध्ययन करते हैं। इस वृहत कालखंड को जानने के लिए हमें दो प्रकार के साक्ष्य मिलते हैं - पुरातात्विक साक्ष्य एवं साहित्यिक साक्ष्य।
प्राचीन काल के लोगों के भौतिक जीवन की जानकारी पुराने टीलों के क्रमिक स्तरों के विधिवत उत्खन्न के माध्यम से प्राप्त की जाती है। इस विज्ञान को पूरातत्व कहते है। इस विज्ञान के माध्यम से प्राप्त साक्ष्यों को पुरातात्विक साक्ष्य कहते है। पुरातात्विक साक्ष्य की प्राप्ति टीलों के लम्बवत और क्षैतिज खुदाई से प्राप्त होती है। क्षैतिज खुदाई के माध्यम से पूर्ण एवं समग्र साक्ष्य मिलते है, परंतु खर्चीले होने के कारण काफी कम टीलों की क्षैतिज खुदाई हो पायी है। लम्बवत खुदाई के माध्यम से कालानुक्रमिक स्थितियों की जानकारी मिलती है। कम खर्चीलें होने के कारण अधिकांश स्थलों की लम्बवत खुइदाई की गयी है। सुखी जलवायु वाले क्षेत्रों में पुरावशेष अधिक सुरक्षित मिलते है। मध्य गंगा धाटी तथा डेलटायी क्षेत्रों में आद्रता के कारण धातु के औजार संक्षारित हो गए है। खुदाई में प्राप्त प्राणवाण वस्तुओं में कार्बन की उपस्थिति के कारण उनकी आयु रेडियों कार्बन विधि से मापी जाती है। रेडियों कार्बन विधि में कार्बन के रेडियों एक्टिव समस्थानिक C14 का उपयोग किया जाता है। C14 का आधा जीवन 5568 वर्ष होती है। आधा जीवन उस काल को कहते है जिसमें उस पदार्थ की आधी मात्रा समाप्त हो जाती है। इसके अतिरिक्त K.Ar विधि से भी तिथि का निर्धारण होता है। पौधौं के अवशेषों में उपलब्ध पराग कणों के विश्लेषण से वनस्पति का इतिहास जाना जाता है। इस आधार पर लगभग 7000 - 6000 ई॰ पूर्व राजस्थान एवं कश्मीर में कृषि के प्रारंभ को प्रमाणित किया गया है। पशु के हड्डियों के परीक्षण भी किये जाते है।
इन खुदाइयों में सिक्कें, अभिलेख, प्राचीन भवन, मृदभांड, अनाज, औजार, हथियार एवं अन्य सामग्रिया मिलती है। खुदाई से तांबा, चांदी, सोना, सीसा आदि धातुओं के सिक्कें पक्की मिट्टी के साँचों में बनाए जाने के प्रमाण मिलते है। अधिकांश साँचे कुषाण काल के है। गुप्तोंत्तर काल में ये साँचें लुप्त हो गऐ। सिक्कों के आधार पर कई राज्यवंशों का पुनर्निर्माण हो पाया है, जिसमें हिन्दयवन सर्वप्रमुख है। सबसे अधिक सिक्कें मौर्योत्तर काल के एवं सबसे अधिक सोने के सिक्के गुप्त शासकों के हैं। राजाओं के साथ साथ राज अनुमति से कुछ व्यापारियों एवं स्वर्णकारों के श्रेणियों ने भी सिक्के चलाये है।
अभिलेखों के अध्ययन को पुरालेखशास्त्र (Epigraphy)एवं प्राचीन लिपि के अध्ययन को पुरालिपि शास्त्र (Palaography) कहते है। अभिलेख मुहरों, प्रस्तर स्तंभों, स्तूपों, चट्टानों, ताम्रपत्रों, मंदिर की दीवारों, मूर्तियों इत्यादि पर मिलते है। मैसूर में पुरालेखशास्त्री के मुख्य कार्यालय में सबसे अधिक अभिलेख संग्रहीत है। ई॰ पूर्व तीसरी सदीं के अशोक के शीलालेख सबसे पुराने अभिलेखों में है। अभिलेख का संबंध मुख्यतः प्रशासन, धर्म, प्रशस्ति एवं दान पत्र से मिलता है। पुरातात्विक साक्ष्यों में चित्रित धूसर मृदभांड (PGW), उत्तरी पालिशदार मृदभांड (NBPW) इत्यादि भी प्राप्त हुए हैं।
साहित्यिक साक्ष्यों का विशाल भंडार हमें मिलाता है। वेद, वेदांग (गद्य में लिखित संक्षिप्तता के कारण सूत्र कहलाते है), महाभारत (संभवतः दसवीं सदी ई॰ पूर्व से चौथी सदीं ई॰ तक की धटनाओं का आभास देता है। सर्वप्रथम यह 8800 श्लोको के साथ जय संहिता के रूप में थी। कालांतर में 24000 श्लोको के साथ यह भारत नाम से प्रसिद्ध हुआ और अंतः 100000 श्लोक के साथ शतसहस्री संहिता या महाभारत कहलाने लगा), रामायण (वाल्मीकि रामायण में मूलतः 6000 श्लोक थे जो अंतः 24000 श्लोकों में परिर्वत्ति हुआ), सूत्रसाहित्य श्रोतसूत्र (यज्ञ के विधि विधान ), गृहसूत्र (पारिवारिक अनुष्ठान के विधि विधान ), शुल्व सूत्र (यज्ञवेदी निर्माण के विधि विधान तथा माप/ज्यामिति एवं गणित का अध्ययन का प्रारंभ), बौध साहित्य, जैन साहित्य संगम युगीन साहित्य इत्यादि हैं। धर्म शास्त्र धर्म सूत्र एवं स्मृतियों के सम्मिलन हैं। कल्प सूत्र धर्म सूत्र, श्रौत सूत्र एवं गृह सूत्र का सम्मिलन है। देशी साहित्य के अतिरिक्त विदेशी साहित्यों (यूनानी, रोमन, चीनी) से भी भारतीय इतिहास के निर्माण में सहायता मिलती है। प्राचीन भारतीय सहित्य पर ऐतिहासिक दृष्टि के अभाव के आरोप लगते है परंतु ऐतिहासिक वृत एवं अन्य ऐतिहासिक सूचनाओं का संकलन उन्ही साक्ष्यों के आधार पर किया जाता है। अपवाद स्वरूप बारवीं शताब्दी की कल्हण रचित राजतरंगिणी में कश्मीर के राजाओं के चरित्तों को आज के इतिहास के काफी निकट माना जाता है।
स्रोतों/साक्ष्यों के आधार पर अध्ययन की सुविधा हेतु इतिहास का वर्गीकरण निम्न तीन भागों में किया जाता है-
1. 1. प्रागैतिहासिक काल (Pre Historic Age),
2. 2. आद्य ऐतिहासिक काल (Proto historic Age) एवं
3. 3. ऐतिहासिक काल (Historic Age)
प्रागैतिहासिक काल 5 लाख वर्ष पूर्व से 3000 ई0 पूर्व तक का काल है। इस काल के सभी स्रोत पुरातात्विक हैं लेखन का कोई प्रमाण नहीं मिलता है।
आद्य ऐतिहासिक काल 3000 ई0 पूर्व से 600 ई0 पूर्व का काल है और इस काल है। पुरातात्विक साक्ष्य के आधार पर ही हम इस काल को जान पाते हैं। इस काल की कुछ संस्कृतियों में लेखन के प्रमाण मिलते हैं परन्तु ये पढ़े नहीं जाने के कारण साक्ष्य के रूप में प्रयोग में नहीं आते हैं। ताम्र पाषाणिक युग एवं कास्य युग की संस्कृतियाँ इसमें आती है। हड़प्पा संस्कृति/सभ्यता इसका प्रमुख उदाहरण है। 600 ई0 पूर्व से ऐतिहासिक काल का प्रारंभ होता है और इसका साहित्यिक एवं पुरातात्विक साक्ष्यों के आधार पर अध्ययन किया जाता है।
वैदिक संस्कृति इस वर्गीकरण के अपवाद के रूप में मानी जाती है। 1500 ई0 पूर्व से 600 ई0 पूर्व तक के वैदिक संस्कृतिक के काल के अध्ययन के कोई पुरातात्विक साक्ष्य नहीं मिलते हैं। वैदिक साहित्य के आधार पर इस काल को हम जान पाते हैं।
© 2021 saralmaterials.com. | Designed & Developed by saralmaterials.com Contact us at 7909073712 / 9386333463