असहयोग आन्दोलन , 1920
सितम्बर, 1920 में लाला लाजपत राय की अध्यक्षता में कलकत्ता में कांग्रेस का एक विशेष अधिवेशन हुआ। कांग्रेस ने गांधीजी की इस योजना को स्वीकार कर लिया कि जब तक पंजाब तथा खिलाफत सम्बन्धी अत्याचारों की भरपाई नहीं होती और स्वराज्य स्थापित नहीं होता, सरकार से असहयोग किया जाए। लोगों से आग्रह किया गया कि वे सरकारी शिक्षा संस्थाओं, अदालतों और विधानमंडलों का बहिष्कार करें, विदेशी वस्त्रों को त्याग करें, सरकार से प्राप्त उपाधियां और सम्मान वापस करें, तथा हाथ से सूत कात कर और बुन कर खादी का इस्तेमाल करें बाद में सरकारी नौकरी से इस्तीफा तथा कर चुकाने से इनकार करने को भी इस कार्यक्रम में शामिल कर लिया गया। इस निर्णय को दिसम्बर 1920 में विजयराघवाचार्य की अध्यक्षता में हुए नागपुर में आयोजित कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन में अनुमोदित भी कर दिया गया,जिसका प्रस्ताव सी० आर० दास द्वारा रखा गया था। गांधीजी ने नागपुर में घोषणा की कि "ब्रिटिश जनता यह बात चेत ले कि अगर वह न्याय नहीं करना चाहती तो साम्राज्य को नष्ट करना प्रत्येक भारतीय का परम कर्तव्य होगा।“
सितंबर 1920 में कांग्रेस की विशेष सत्र से पहले 28 अगस्त को, डॉ राजेंद्र प्रसाद की अध्यक्षता में बिहार प्रांतीय सम्मेलन ने महात्मा गांधी के अहिंसक असहयोग का समर्थन करते हुए एक प्रस्ताव पारित किया, जिसे उन्होंने 1 अगस्त को घोषित किया। गांधीजी ने दिसंबर में पटना का दौरा किया और एक राष्ट्रीय कॉलेज और बिहार विद्यापीठ की आधारशिला रखी। इन दोनों संस्थानों ने युवा राष्ट्रीय कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षण देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। मौलाना अब्दुल बारी का राष्ट्रीय कार्यकर्ता के रूप में शामिल होना आंदोलन के लिए एक विशिष्ट लाभ था। बिहार में अन्य जगहों की तरह ही जन आंदोलन में पांच प्रसिद्ध बहिष्कारों का अनुपालन किया गया -
सकारात्मक पक्ष पर, खादी के उत्पादन, पंचायतों की स्थापना, स्वराज निधि संग्रह, अस्पृश्यता को दूर करने और कांग्रेस संगठन को मजबूत करने के लिए आंदोलन था। इन सभी मदों में बिहार के लोगों ने अपना भरपूर योगदान दिया।
असहयोग आंदोलन के क्रम में मजहरूलहक, राजेन्द्र प्रसाद, ब्रजकिशोर प्रसाद और अन्य नेताओं ने विधायिका के चुनाव में अपनी उम्मीदवारी वापस ले ली। कई अधिकारियों ने त्याग पत्र दे दिये और वकिलों ने अदालतों का बहिष्कार किया। छात्रों ने स्कूलों और कॉलेजों से अपना नाम कटा लिया। इन छात्रों के शिक्षा का वैकल्पिक साधन उपलब्ध कराने के लिए पटना गया रोड पर एक राष्ट्रीय महाविद्यालय की स्थापना की गयी। राजेन्द्र प्रसाद इसके प्राचार्य बने। इसी बीच बिहार कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग के पन्द्रह छात्र कॉलेज त्याग कर मजहरूल हक के पास भार्गदर्शन के लिए आये। मजहरूलहक ने दीघा के पास अपने मित्र खैरू मियाँ की जमीन पर सदाकत आश्रम का निर्माण किया। यहाँ चरखा बनाने का काम आरंभ हुआ। धीरे धीरे यह स्थान बिहार में राष्ट्रीय आंदोलन का मुख्यालय बन गया। कालान्तर में यह बिहार प्रदेश कमिटी का कार्यालय बना ।इस बीच गाँधीजी ने देश भर में राष्ट्रीय शिक्षा केन्द्रों के निर्माण का प्रस्ताव रखा। बिहार में एक विद्यापीठ के गठन का निर्णय लिया गया। राष्ट्रीय महाविद्यालय के ही प्रांगण में बिहार विद्यापीठ का उद्घाटन 6 फरवरी को गांधी जी द्वारा किया गया। बृजकिशोर प्रसाद इसके कुलपति बने । लगभग सभी जिलों में इस विद्यापीठ से सम्बद्ध राष्ट्रीय पाठशालाओं की स्थापना हुई जिनमें प्राथमिक स्तर से मैट्रिक तक शिक्षा की व्यवस्था थी। इसके अतिरिक्त उच्च स्तर की परीक्षाएँ भी इस विद्यापीठ द्वारा आयोजित की गयी। 25 हजार से अधिक छात्र इस राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली से सम्बद्ध रहे।
30 सितम्बर, 1921 को मजहरूल हक ने सदाकत आश्रम में से मदरलैंड नामक एक अखबार निकालना शुरू किया जिसका उद्देश्य राष्ट्रीय भावना का प्रसार, असहयोग का प्रचार और हिन्दु-मुस्लिम एकता का उपदेश देना था। नवम्ब 1921 में ब्रिटेन के युवराज का भारत में आगमन हुआ। राष्ट्रवादियों इसके बहिष्कार का आह्वान किया। बिहार में इस आंदोलन की कुछ महत्वपूर्ण विशेषताओं का उल्लेख यहां किया जा सकता है। मुंगेर और भागलपुर में तालाब के बंदोबस्ती के लिए नीलामी का बहिष्कार किया गया था। पटना में सरकारी प्रेस में हड़ताल हुई। मार्च-अप्रैल (1921) में पुलिस की हड़ताल हुई जो पटना, पूर्णिया, मुंगेर और चंपारण तक फैल गई। अगस्त में, जब पटना में कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक हुई, तब गांधीजी ने बिहार का दौरा किया। 17 नवंबर को जब प्रिंस ऑफ वेल्स बंबई पहुंचे तो पूरे बिहार में हड़ताल हो गई। जब राजकुमार 22 दिसंबर को पटना आए तो उनका पूर्ण बहिष्कार किया गया। 'मुख्य मार्ग लगभग खाली थे; भाड़े के लिए कोई वाहन नहीं चला और सड़कों पर कोई भीड़ नहीं थी जिसके साथ जुलूस गुजरा।" असहयोग आन्दोलन अपने चरमोत्कर्ष की ओर अग्रसर था, जब 5 फरवरी, 1922 में चौरी-चौरा कांड के फलस्वरूप गाँधीजी ने आन्दोलन स्थगित कर दिया। इसके कुछ दिनों बाद 10 मार्च, 1922 को गाँधीजी गिरफ्तार कर लिये गये। 26 जुलाई को मौलाना मजहरूल हक को भी मदरलैंड में प्रकाशित एक लेख के कारण गिरफ्तार कर लिया गया। इन .घटनाओं के कारण असहयोग आंदोलन का बिहार में प्रभाव समाप्त होने लगा। उधर तुर्की में कमाल पाशा ने स्वयं खिलाफत का अंत कर दिया, जिसके कारण खिलाफत आंदोलन भी निरर्थक हो गया। मार्च 1922 में गांधीजी की गिरफ्तारी को प्रांत-व्यापी विरोध बैठकों द्वारा चिह्नित किया गया था। कांग्रेस की सविनय अवज्ञा जांच समिति ने 1922 में बिहार का दौरा किया।
हालांकि सबसे महत्वपूर्ण घटना, गया में कांग्रेस का 37वां सत्र था, जिसने विधायिकाओं के बहिष्कार को जारी रखने के साथ-साथ स्वयंसेवकों के नामांकन पर अहमदाबाद कांग्रेस के प्रस्ताव को दोहराने के लिए मतदान किया। उड़ीसा, आंध्र, कर्नाटक, तमिलनाडु और गुजरात के साथ बिहार 'नो-चेंज' नीति के गढ़ बने रहे। इस अधिवेशन में राजेंद्र प्रसाद कांग्रेस के सचिव चुने गए और अखिल भारतीय कांग्रेस कमिटी का कार्यालय पटना में स्थानांतरित कर दिया गया।
आदिवासियों पर भी इस आन्दोलन का प्रभाव पड़ा। उनके बीच से एक सुधारवादी समूह ने ताना भगत के नेतृत्व में गया कांग्रेस में भाग लिया। उन्होंने कर न चुकाने का रास्ता अपनाया और त्याग पर डटे रहे। राजेंद्र प्रसाद ने स्वयं 1923 में नागपुर में बिहार के स्वयंसेवकों के एक दल के साथ प्रसिद्ध ध्वज सत्याग्रह में भाग लिया। कांग्रेस में फूट के परिणामस्वरूप जनवरी 1923 में देशबंधु दास की अध्यक्षता में स्वराज पार्टी (परिषद-प्रवेश समूह) का गठन किया गया। बिहार में इसके ज्यादा अनुयायी नहीं थे। हालाँकि, स्थानीय निकायों के चुनाव कांग्रेसियों द्वारा लड़े गए और उन्होंने अच्छी-खासी सीटों पर कब्जा किया।
गांधीजी ने 1924 में जेल से बाहर आने के बाद स्वराज पार्टी को अपने रास्ते जाने दिया और अपने अन्य अनुयायियों के लिए रचनात्मक कार्यक्रम की सिफारिश की। उन्होंने दिसंबर 1924 में बेलगाम कांग्रेस की अध्यक्षता की। असहयोग आंदोलन को निलंबित कर दिया गया और बिहार ने अप्रैल 1930 में सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू होने तक अगले पांच वर्षों के लिए खादी उत्पादन और अन्य रचनात्मक गतिविधियों पर ध्यान केंद्रित किया।
असहयोग आन्दोलन में बिहार की भूमिका
असहयोग आंदोलन (1920-1922) भारत के स्वतंत्रता संग्राम में एक महत्वपूर्ण अध्याय है, जिसमें बिहार ने अपनी विशिष्ट भूमिका निभाई। महात्मा गांधी के नेतृत्व में शुरू किए गए इस आंदोलन का उद्देश्य ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध अहिंसात्मक असहयोग करना था। इस आंदोलन में बिहार के लोगों की भागीदारी उल्लेखनीय रही।
बिहार में असहयोग आंदोलन ने न केवल स्वतंत्रता संग्राम को गति दी, बल्कि राज्य के लोगों को संगठित करके स्वतंत्रता की राह में बड़ी भूमिका निभाई। यह आंदोलन लोगों की जागरूकता बढ़ाने और ब्रिटिश शासन के खिलाफ एकजुट होने का आधार बना।
असहयोग आंदोलन का बिहार पर
असहयोग आंदोलन (1920-1922) ने बिहार पर गहरा और व्यापक प्रभाव डाला। इस आंदोलन ने राज्य के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक क्षेत्रों में बदलाव लाए और स्वतंत्रता संग्राम के लिए जनसामान्य को प्रेरित किया। आंदोलन ने लोगों के भीतर ब्रिटिश शासन के खिलाफ राष्ट्रीय चेतना को जागृत किया और स्वतंत्रता के संघर्ष को मजबूती दी।
1. राष्ट्रीय चेतना का प्रसार
2. विदेशी वस्त्रों और वस्तुओं का बहिष्कार
3. शैक्षणिक संस्थानों का बहिष्कार
4. किसानों और ग्रामीण जनता पर प्रभाव
5. महिलाओं की भागीदारी
6. सामाजिक सुधारों पर प्रभाव
7. राजनीतिक जागरूकता
8. आर्थिक प्रभाव
असहयोग आंदोलन ने बिहार को स्वतंत्रता संग्राम के प्रमुख केंद्रों में बदल दिया। इसने न केवल ब्रिटिश शासन के खिलाफ जनजागरण किया, बल्कि समाज के हर वर्ग—किसानों, महिलाओं, छात्रों और मजदूरों—को स्वतंत्रता आंदोलन से जोड़ा। आंदोलन ने बिहार के समाज में राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन की नींव रखी और राज्य को राष्ट्रीय स्तर पर महत्वपूर्ण भूमिका निभाने में सक्षम बनाया।
पूर्ण स्वराज के लिए सविनय अवज्ञा
आन्दोलन के कारण
इस परिप्रेक्ष्य में ही सविनय अवज्ञा आन्दोलन शुरू किया गया। 12 मार्च, 1930 को दूसरे नागरिक अवज्ञा आंदोलन का आरंभ गाँधीजी के प्रसिद्ध दांडी मार्च के साथ हुआ। 78 चुने हुए अनुयायियों को साथ लेकर गांधीजी साबरमती आश्रम से 24 दिनों में लगभग 385 किलोमीटर दूर, गुजरात के समुद्र तट पर स्थित दांडी गांव पहुंचे। गाँधीजी 6 अप्रैल को दांडी पहुंचे, समुद्र तट से मुट्ठी भर नमक उठाया और इस प्रकार नमक कानून को तोड़ा। गाँधी जी ने 9 अप्रैल को इस आन्दोलन के कार्यक्रम की घोषणा की। यह इस बात का प्रतीक था कि भारतीय जनता अब ब्रिटिश कानूनों और ब्रिटिश शासन के अंतर्गत जीने के लिए तैयार नहीं है। गाँधीजी ने घोषणा की: भारत में ब्रिटिश शासन ने इस देश को नैतिक, भौतिक, सांस्कृतिक और आध्यात्मिक विनाश के कगार तक पहुंचा दिया है। मैं इस शासन को एक अभिशाप मानता हूं। मैं इस शासन प्रणाली को नष्ट करने पर आमादा हूँ। हमारा संघर्ष एक अहिंसक युद्ध है। अब राजद्रोह मेरा धर्म बन गया है।
पूरे देश में नमक कानून तोड़े गए। फिर उसके बाद महाराष्ट्र, कर्नाटक और मध्य भारत में जंगल कानून तोड़े गए, और पूर्वी भारत में ग्रामीण जनता ने चौकीदारी कर अदा करने से इनकार कर दिया। इस आंदोलन की एक प्रमुख विशेषता स्त्रियों की भागीदारी थी। हजारों स्त्रियां घरों के अंदर से बाहर निकली और सत्याग्रह में भाग लिया। विदेशी वस्त्र या शराब बेचने वाली दुकानों पर धरना देने में उनकी सक्रिय भूमिका रही। जुलूसों में वे पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलीं।
महात्मा गांधी के नेतृत्व में स्वराज के लिए सविनय अवज्ञा आंदोलन के शुरुआत वर्ष 1930 हुई, जिसमें बिहार की भूमिका बहुत प्रमुख थी। 6 अप्रैल, 1930 को नमक सत्याग्रह शुरू करने की तारीख तय की गई थी। फरवरी के महीने में, राजेंद्र प्रसाद ने पटना में एक भाषण में सविनय अवज्ञा की संभावित गतिविधियों की समीक्षा की। जवाहरलाल नेहरू ने 31 मार्च से 3 अप्रैल तक सारण, चंपारण और मुजफ्फरपुर जिलों का दौरा किया जो लोगों के लिए एक महान प्रेरणा स्रोत बना। अप्रैल के पहले सप्ताह तक, 50,000 से अधिक कांग्रेस स्वयंसेवकों ने यहां नामांकन किया और उनकी संख्या बढ़ती गई। 9 अप्रैल की 'द सर्चलाइट' ने रिपोर्ट किया: "एक नई आशा का रोमांच, एक नई आकांक्षा का उदय, एक महान आदर्श की खोज और एक नए बलिदान के रोमांस ने वातावरण को सराबोर कर दिया है।"
16 से 21 अप्रैल, 1930 तक, पटना शहर में पुलिस द्वारा व्यापक हिंसा की गई। सभी व्यक्तियों ने अपने निजी विचारों को त्यागकर, पूर्ण अहिंसा के साथ आन्दोलन में भाग लिया और गंभीर उत्पीड़न के बावजूद भी अद्भुत धैर्य और संयम का परिचय दिया। 16 अप्रैल 1930 को पटना में एक सत्याग्रह की शुरुआत की गयी। जुलूस में स्वयंसेवक पटना शहर में मंगल तालाब के पूर्व में लगभग दो मील की दूरी पर नखास पिंड के लिए रवाना हुए। इस स्थल को नमक कानूनों के उल्लंघन /नमक के निर्माण के लिए चुना गया था। स्वयंसेवकों को पुलिस ने रोक लिया पर वे मौके से नहीं हिले। राजेंद्र प्रसाद ने बिहार के अन्य हिस्सों में अपने दौरे से लौटने के बाद देखा कि 17 अप्रैल की आधी रात को स्वयंसेवक सड़क पर सो रहे थे और पुलिस उनसे थोड़ी दूरी पर खड़ी थी। पुलिस ने मोहरा में स्वयंसेवकों पर बेरहम अत्याचार किया, जिनमें से अधिकांश गंभीर रूप से घायल हो गए थे। पुलिस ने पटना कॉलेज के सामने भीड़ को नियंत्रित करने की कोशिश कर रहे प्रोफेसर अब्दुल बारी पर बहसी हमला किया गया । आचार्य कृपलानी, टीके घोष की अकादमी के पास खड़े थे, उन पर भी पुलिस ने डंडों से हमला किया था। यूरोपीय पुलिस अधिकारियों ने राजेंद्र प्रसाद पर भी दबाव डाला, जब वे कुछ अन्य नेताओं के साथ सड़क पर चुपचाप घूम रहे थे। लेकिन दमन देशभक्तों को आतंकित करने में विफल रहा। कई जगहों पर पुलिस कार्रवाई का यही पैटर्न रहा।
भागलपुर जिले के बिहपुर में स्वयंसेवकों का एक नियमित शिविर शुरू किया गया था। बैरक बनाए गए जहां स्वयंसेवकों ने ड्रिल किया और लाठी खेलने का अभ्यास किया, दिनचर्या को बिगुल कॉल द्वारा नियंत्रित किया जा रहा था। इसके बाद सरकार ने शिविर को गैरकानूनी सभा घोषित करने और इसे तोड़ने का फैसला किया। शिविर और स्थानीय कांग्रेस कार्यालय को पुलिस ने जब्त कर लिया। जब उनके द्वारा शिविर को तोड़ा जा रहा था, राजेंद्र प्रसाद, अब्दुल बारी और अन्य नेता मौजूद थे, तब एक बड़ी भीड़ जमा हो गई। बिहपुर में काफी आंदोलन हुआ और इस थाने के 250 चौकीदारों में से 130 ने इस्तीफा दे दिया। सरकार द्वारा की गई कार्रवाई की भागलपुर के उदारवादियों द्वारा भी निंदा की गई, और विधान परिषद के पांच नवनिर्वाचित सदस्यों ने विरोध में इस्तीफा दे दिया।
मुंगेर जिले में, तत्कालीन सचिव श्रीकृष्ण सिन्हा के कुशल नेतृत्व में कांग्रेस की गतिविधियाँ तेजी से बढ़ रही थीं। वहाँ प्रांतीय कांग्रेस कमेटी और नंद कुमार सिन्हा दोनों को गिरफ्तार कर लिया गया। चौकीदारी कर का भुगतान न करने का आंदोलन एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में काफी तीव्रता से फैल गया और सरकार ने कड़े कदम उठाकर इसे कुचलने की सोची। चौकीदारी कर का भुगतान न करने के लिए हल, मवेशी, अनाज, खाना पकाने के बर्तन आदि सहित सभी प्रकार की संपत्ति और सामानों की जब्ती, आधिकारिक दमन की सामान्य विशेषताएं थीं। 5 मार्च, 1931 और 1 जनवरी, 1932 के बीच गांधी-इरविन समझौते और लंदन में गोलमेज सम्मेलन में गांधीजी के भाग लेने के कारण एक संक्षिप्त खामोशी थी। गांधीजी के निराश लौट आने एवं लॉर्ड विलिंगटन के साथ एक साक्षात्कार से भी मना कर दिये जाने के कारण कांग्रेस को सविनय अवज्ञा आंदोलन के सूत्र को वहीं ले जाना पड़ा जहां उसने इसे छोड़ा था।
नए आंदोलन को कुचलने के लिए, सरकार ने गांधीजी को गिरफ्तार कर लिया । बड़ी संख्या में अध्यादेश पारित किए गए । इस बार अध्यादेशों की एक नई विशेषता यह थी कि माता-पिता और अभिभावकों को उनके बच्चों के अपराधों के लिए दंडित किया जाना था।पुलिस ने दरभंगा जिले के रोसरा, मुजफ्फरपुर जिले के शिवहर, बेगूसराय और मुंगेर जिले के तारापुर जैसे कई स्थानों पर गोलीबारी भी की गयी। इन अत्यंत कठिन परिस्थितियों में भी अत्यधिक पुलिस सतर्कता, गिरफ्तारी और लाठीचार्ज के बावजूद भी कांग्रेस ने 24 अप्रैल 1932 को दिल्ली में अपना वार्षिक अधिवेशन आयोजित किया और लोगों के सर्वोच्च बलिदान की प्रशंसा की। पुलिस और सेना द्वारा बिहार के सीमांत प्रांत और तारापुर में अंधाधुंध गोलीबारी और लाठीचार्ज की गयी जिसमें बड़ी संख्या में लोगों ने अपना बलिदान दिया।
राष्ट्रीय आत्मनिर्णय की सहज आध्यात्मिक इच्छा को क्रूर दमन नहीं मार सकता। राजेंद्र प्रसाद और कई अन्य नेताओं की गिरफ्तारी, सरकार द्वारा कड़े अध्यादेशों की घोषणा, उत्पीड़न के बावजूद भी आंदोलन अपने सभी रूपों जैसे कि विदेशी कपड़े का बहिष्कार, शराब की दूकान पर धरना, करों का भुगतान न करना, में जारी रहा। 1934 में गांधीजी द्वारा कुछ परिस्थितियों में इसे निलंबित कर दिया गया था। राष्ट्रीय नेताओं ने तब रचनात्मक गतिविधियों पर ध्यान केंद्रित करने का फैसला किया।
सविनय अवज्ञा आंदोलन
महात्मा गांधी के नेतृत्व में चलाए गए भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक महत्वपूर्ण अध्याय था। इस आंदोलन का उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्य के कानूनों और नीतियों के खिलाफ अहिंसात्मक विरोध करना था। बिहार, जो स्वतंत्रता संग्राम में अग्रणी भूमिका निभाता रहा, ने सविनय अवज्ञा आंदोलन में विभिन्न सामाजिक वर्गों के माध्यम से महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।
सविनय अवज्ञा आंदोलन में बिहार के विभिन्न सामाजिक वर्गों ने महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। किसानों, महिलाओं, और पिछड़े वर्गों की सक्रिय भागीदारी ने यह सिद्ध किया कि बिहार का समाज स्वतंत्रता संग्राम में पूर्ण रूप से जागरूक और समर्पित था। हालांकि कुछ वर्गों ने आंदोलन में निष्क्रियता दिखाई, लेकिन आंदोलन की सफलता ने राष्ट्रीय आंदोलन को गति दी और बिहार को भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक मजबूत आधार बना दिया।
बिहार में पहला कांग्रेस मंत्रालय
भारत सरकार अधिनियम, 1935, राष्ट्रीय अपेक्षाओं से बहुत कम था, लेकिन कांग्रेस ने चुनाव लड़ने का फैसला किया। बिहार में विधान सभा के चुनाव 22 से 27 जनवरी 1937 के बीच हुए। कांग्रेस को चुनाव में व्यापक सफलता मिली। विधान सभा की कुल 152 सीटों में से, कांग्रेस ने 107 पर अपने उम्मीदवार खड़े किये और कुल 98 सीटों पर कब्जा कर लिया। कांग्रेस को सामान्य शहरी क्षेत्रों में सभी पांच सीटें और ग्रामीण क्षेत्रों में 73 में से 68 सीटें मिलीं। कांग्रेस ने 15 अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों में से 14, 7 मुस्लिम सीटों में से 5, 3 श्रमिक के सीटों में से 2 सीटों और अधिकांश आदिवासी सीटों पर कब्जा किया। आठ कांग्रेस उम्मीदवारों को विधानसभा द्वारा अप्रत्यक्ष चुनाव के माध्यम से परिषद के लिए चुना गया था।
ब्रिटिश सरकार की ओर से कुछ घोषणाओं के बाद, कांग्रेस कार्य समिति ने 8 जुलाई, 1937 को वर्धा में हुई अपनी बैठक में निर्णय लिया कि 'कांग्रेसियों को चुनाव घोषणापत्र के अनुरूप उस पद को स्वीकार करने की अनुमति दी जाए जहां उन्हें आमंत्रित किया जा सकता है।
बिहार में, 20 जुलाई, 1937 को श्रीकृष्ण सिन्हा के प्रधान मंत्री के रूप में एक कांग्रेस मंत्रालय का गठन किया गया था। अन्य मंत्री अनुग्रह नारायण सिन्हा, सैयद महमूद और जगलाल चौधरी थे। रामदयालू सिंह और प्रो. अब्दुल बारी क्रमशः अध्यक्ष और उपाध्यक्ष बने। बलदेव सहाय को महाधिवक्ता नियुक्त किया गया। बिहार में मंत्रालय ने मुख्य सचिव श्री ब्रेट द्वारा जारी एक परिपत्र का कड़ा विरोध किया और उन्हें इसे वापस लेना पड़ा। लेकिन राजनीतिक बंदियों की रिहाई से राज्यपाल के इनकार पर मंत्रालय ने अपना इस्तीफा दे दिया। इस मामले पर फरवरी 1938 के महीने में एक समझौता हुआ और मंत्रालय ने फिर से कार्य शुरू किया।
1939 में द्वितीय विश्व युद्ध के फैलने पर, भारतीय राष्ट्रवादियों ने युद्ध के उद्देश्य की स्पष्ट घोषणा और एक राष्ट्रीय सरकार के गठन की मांग सरकार से की । वायसराय, लॉर्ड लिनलिथगो ने 17 अक्टूबर, 1939 को एक बयान जारी किया, जिसे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने पूरी तरह से असंतोषजनक माना। सरकार की युद्ध नीति ने बिहार में भारत के अन्य हिस्सों की तरह काफी आक्रोश पैदा किया और राष्ट्रवादियों के सभी वर्गों (कांग्रेस, कांग्रेस समाजवादी, फॉरवर्ड ब्लॉक) के नेताओं ने भर्ती के विरोध में आवाज उठाई । 16 अक्टूबर को, प्रधान मंत्री, श्रीकृष्ण सिन्हा ने विधानसभा में एक प्रस्ताव पेश किया, जिसमें सरकार को एक स्पष्ट घोषणा कि भारत को एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में अपना संविधान बनाने का अधिकार देने के लिए आमंत्रित किया गया था।इस मुद्दे पर बिहार मंत्रालय ने 31 अक्टूबर, 1939 को अपना इस्तीफा दे दिया। 3 नवंबर को, राज्यपाल ने भारत सरकार अधिनियम की धारा 93 के तहत सभी विधायी और प्रशासनिक शक्तियों को अपने पास ले लिया।
बिहार में स्वतंत्रता दिवस (26 जनवरी) धूमधाम से मनाया गया, जिसमें छात्रों ने प्रमुख रूप से भाग लिया। 18 फरवरी, 1940 को जयप्रकाश नारायण द्वारा जमशेदपुर भाषण दिया गया, जिसे भारत रक्षा नियमों के विरुद्ध माना गया। फलत: जयप्रकाश नारायण को गिरफ्तार किया गया, जिसने बिहार में राष्ट्रीय असंतोष को और बढ़ा दिया।
रामगढ़ कांग्रेस
वर्ष 1940 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का 53वां अधिवेशन 19 और 20 मार्च को मौलाना अबुल कलाम आजाद की अध्यक्षता में रामगढ़ में आयोजित किया गया था। अपने स्वागत भाषण में, राजेंद्र प्रसाद ने बिहार की गौरवशाली परंपराओं को याद किया और कहा: "आज हम एक बड़े संकट का सामना कर रहे हैं और हमें इससे निपटने के लिए तैयार होने का आह्वान किया गया है। यह पुरानी और समृद्ध विरासत हमें प्रेरित करे और हम बिहारी, जिन्हें पिछड़ा कहा जाता है, इससे साहस और ताकत जुटाते हैं, न केवल स्वागत करने के लिए, बल्कि उन प्रस्तावों को लागू करने में भी अपना हिस्सा लेते हैं, जिन पर आप पहुंच सकते हैं।
गांधीजी ने अपने भाषण में सत्याग्रह के लिए गहन तैयारी में अहिंसा और रचनात्मक कार्य के महत्व पर जोर दिया। रामगढ़ कांग्रेस अधिवेशन के अध्यक्षीय भाषण में, मौलाना आज़ाद ने भारत में हिंदुओं और मुसलमानों दोनों के संबंध में समान राष्ट्रीयता की विरासत पर जोर दिया। लेकिन दुर्भाग्य से सांप्रदायिक मतभेद बढ़ रहे थे। अपने लाहौर अधिवेशन में, मुस्लिम लीग ने इस सिद्धांत को प्रतिपादित किया कि मुसलमान 'अल्पसंख्यक नहीं हैं' बल्कि एक 'राष्ट्र' हैं और उनके पास अपनी मातृभूमि और उनका राज्य (पाकिस्तान) होना चाहिए। बिहार के कुछ मुसलमानों ने मुस्लिम लीग के लाहौर अधिवेशन में भाग लिया। 13 और 14 अप्रैल, 1940 को छपरा में आयोजित मुस्लिम लीग की बिहार शाखा के एक सम्मेलन में लाहौर प्रस्ताव का समर्थन किया गया और 19 अप्रैल को बिहार में विभिन्न स्थानों पर पाकिस्तान दिवस मनाया गया। बैठकें हुईं जिनमें लाहौर प्रस्ताव पढ़ा और पारित किया गया। लेकिन अहरार पार्टी और मोमिन्स ने इन गतिविधियों की निंदा की।
व्यक्तिगत सत्याग्रह
8 अगस्त, 1940 के वायसराय के बयान (अगस्त प्रस्ताव के रूप में जाना जाता है) ने गतिरोध में कोई सुधार नहीं किया और कांग्रेस ने इसकी निंदा की। अक्तूबर 1940 में गांधीजी ने पवनार आश्रम से कुछ चुने हुए व्यक्तियों को साथ लेकर सीमित पैमाने पर सत्याग्रह चलाने का निर्णय लिया गया। इस आन्दोलन के दौरान दिल्ली चलो का नारा दिया इस कारण इसे दिल्ली चलो आन्दोलन की भी संज्ञा दी गयी।सत्याग्रह को सीमित रखने के पीछे प्रमुख कारणों में पहला देश में व्यापक उथल-पुथल न हो और दूसरा ब्रिटेन के युद्ध प्रयासों में बाधा न पड़े रहा। विनोबा भावे पहले एवं नेहरू दूसरे व्यक्तिगत सत्याग्रही बने।
बिहार विधानमंडल के कांग्रेस सदस्यों ने वायसराय की घोषणा के विरोध में 13 अगस्त को एक बैठक की। भारत के संबंध में ब्रिटिश सरकार की नीति के खिलाफ एक नैतिक विरोध के रूप में, कांग्रेस ने महात्मा गांधी के मार्गदर्शन में, केवल चुने हुए व्यक्तियों द्वारा व्यक्तिगत सविनय अवज्ञा शुरू करने का निर्णय लिया ताकि युद्ध के दौरान सरकार को कोई शर्मिंदगी न हो। व्यक्तिगत सविनय अवज्ञा आंदोलन के प्रति बिहार की प्रतिक्रिया त्वरित और उत्साही थी। हालाँकि, कांग्रेस ने व्यक्तिगत सविनय अवज्ञा को चौदह महीने तक जारी रहने के बाद कुछ व्यावहारिक विचारों पर निलंबित कर दिया।
लेकिन संवैधानिक गतिरोध और सख्त हो गया। 22 अप्रैल, 1941 को हाउस ऑफ कॉमन्स में मिस्टर एमरी (भारत के राज्य सचिव) का बयान, और 9 सितंबर, 1941 को मिस्टर चर्चिल की घोषणा, कि अटलांटिक चार्टर भारत पर लागू नहीं था, लोगों में असंतोष और अविश्वास बढ़ा दिया । पटना के जिला मजिस्ट्रेट ने अपने आयुक्त को सूचना दी: "इंग्लैंड के प्रधान मंत्री के हालिया भाषण ने भारतीयों में व्यापक असंतोष पैदा किया है।“
व्यक्तिगत सत्याग्रह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक ऐसा चरण था, जब द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान महात्मा गांधी ने ब्रिटिश सरकार की युद्ध-नीतियों के विरोध में एक अहिंसात्मक आंदोलन शुरू किया। गांधीजी ने इसे ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ एक नैतिक विरोध के रूप में पेश किया और सत्याग्रहियों का चयन व्यक्तिगत रूप से किया गया। बिहार, जो स्वतंत्रता संग्राम के हर चरण में एक अहम भूमिका निभा रहा था, ने व्यक्तिगत सत्याग्रह में भी उल्लेखनीय योगदान दिया।
(i) प्रमुख सत्याग्रही और उनका योगदान
(ii) ग्रामीण क्षेत्रों में सत्याग्रह
(iii) छात्रों और युवाओं की भागीदारी
(iv) महिलाओं की भागीदारी
(i) राजनीतिक जागरूकता
(ii) राष्ट्रीय आंदोलन को समर्थन
(iii) सामाजिक समरसता
1940-41 का व्यक्तिगत सत्याग्रह बिहार के लिए राष्ट्रीय आंदोलन का एक महत्वपूर्ण चरण था। गांधीजी के निर्देशों का पालन करते हुए बिहार के नेताओं और जनता ने इस आंदोलन को अहिंसा और सत्य के सिद्धांतों पर आधारित रखा। यह आंदोलन बिहार में राजनीतिक चेतना और ब्रिटिश शासन के प्रति असहमति को संगठित करने का एक प्रभावशाली माध्यम बना। सत्याग्रह ने यह सिद्ध कर दिया कि बिहार स्वतंत्रता संग्राम में अपनी केंद्रीय भूमिका निभाने के लिए सदैव तैयार था।
भारत छोड़ो आंदोलन
1942 का भारतीय संघर्ष संपूर्ण आधुनिक इतिहास के सबसे बड़े विरोध में से एक है। जापानी सेनाएं भारत की सीमा तक आ गयी थी। भारत पर युद्ध का खतरा था । क्रिप्स के प्रस्तावों ने संवैधानिक गतिरोध को हल करने के बजाय एक महान मोहभंग के रूप में कार्य किया। भारत के लिए स्थिति असहनीय हो गई। इस महत्वपूर्ण समय में, भारत ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद को एक खुली चुनौती देते हुए कहा कि सरकार इस देश को 'लोगों को सक्षम करने' के लिए छोड़ दे, जैसा कि राजेंद्र प्रसाद ने कहा, 'जो कोई भी भारत पर हावी होना चाहता है, चाहे वह ब्रिटिश हो या जापानी, का विरोध करने के लिए तैयार हैं। आंदोलन के प्रारंभ से पहले ही, राजेंद्र प्रसाद ने कुछ अन्य नेताओं के परामर्श से लोगों के मार्गदर्शन के लिए एक कार्यक्रम तैयार किया था। 1942-3 के दौरान भारत के स्वतंत्रता के महासंघर्ष में, बिहार ने सबसे क्रूर दमन का सामना दृढ़ संकल्प के साथ किया।
8 अगस्त, 1942 को बम्बई के ग्वालिया टैंक मैदान में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की मीटिंग में प्रसिद्ध " भारत छोड़ो" प्रस्ताव स्वीकार किया गया ।जिसमें इस उद्देश्य को पाने के लिए गांधीजी के नेतृत्व में एक अहिंसक जन-संघर्ष चलाने का फैसला किया गया। 8 अगस्त की रात में कांग्रेसी प्रतिनिधियों को संबोधित करते हुए गांधीजी ने कहा मैं अगर हो सके तो तत्काल इसी रात, प्रभात से पहले स्वाधीनता चाहता हूँ.. आज मैं पूर्ण स्वाधीनता से कम किसी चीज से संतुष्ट होने वाला नहीं हूं... अब मैं आपको एक छोटा सा मंत्र दे रहा हूं: आप इसे अपने दिलों में संजोकर रख लें और हर एक सांस में इसका जाप करें वह मंत्र यह है 'करो या मरो!' हम या तो भारत को स्वतंत्र कराएंगे या इस प्रयास में मारे जाएंगे, मगर हम अपनी पराधीनता को देखने के लिए जीवित नहीं रहेंगे।
सरकार ने आन्दोलन को रोकने के लिए, पहले से ही विभिन्न उपायों की योजना बनाई थी। 9 अगस्त की सुबह के शुरुआती घंटों में, महात्मा गांधी और कांग्रेस कार्य समिति के सभी सदस्यों को बॉम्बे में गिरफ्तार कर लिया गया। बिहार में भी, राजेंद्र प्रसाद को 9 अगस्त को गिरफ्तार कर लिया गया था और "भारत छोड़ो", "गांधीजी की जय", "राजेंद्र बाबू की जय" के नारों के बीच बांकीपुर जेल ले जाया गया था। फूलन प्रसाद वर्मा को जल्द ही गिरफ्तार कर लिया गया और दो या तीन दिन के भीतर, श्रीकृष्ण सिन्हा, अनुग्रह नारायण सिन्हा और प्रांत के कुछ अन्य नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया।कांग्रेस कार्यालयों और संबद्ध संगठनों के कार्यालयों को अवैध घोषित कर दिया गया, और पुलिस ने उन सभी को अपने कब्जे में ले लिया।
हालाँकि, सरकारी दमन बड़े पैमाने पर उथल-पुथल को रोकने में विफल रहा। हर दिल में देशभक्ति की आग जल रही थी। छात्रों ने विशेष रूप से 'करो या मरो' मंत्र से प्रेरित स्वतंत्रता के इस महान संघर्ष में वीरतापूर्ण भूमिका निभाई। उनकी बहादुरी की एक लंबी कहानी लोगों के प्रेरणा की श्रोत बनी। 11 अगस्त को पटना में छात्रों ने अद्भुत प्रदर्शन किया। यह राष्ट्रीय आंदोलन के इतिहास में एक यादगार दिन है और इसे "शहीद दिवस" के रूप में मानाया जाता है। बिहार में ब्रिटिश नौकरशाही के गढ़, पटना सचिवालय के भवन पर राष्ट्रीय ध्वज फहराने के उद्देश्य से दोपहर में प्रमुख छात्रों के दल के साथ हजारों प्रेरित लोगों का एक विशाल जुलूस निकला। पटना के जिलाधिकारी के आदेश पर सचिवालय परिसर से लोगों की भीड़ पर तेरह-चौदह राउंड फायरिंग की गयी. परिणामस्वरूप सात छात्र जो सबसे आगे थे, मारे गए, कई अन्य (लगभग 25) गंभीर रूप से घायल हो गए, और कुछ को मामूली चोटें आईं। शहीद हुए सात छात्र थें, उमाकांत प्रसाद सिन्हा (आर एम आर सेमिनरी के ग्यारहवीं कक्षा), रामानंद सिंह (आरएम रॉय सेमिनरी, पटना के ग्यारहवीं कक्षा), सतीश प्रसाद झा (पटना कॉलेजिएट स्कूल के ग्यारहवीं कक्षा), जगतपति कुमार (बीएन कॉलेज के द्वितीय वर्ष के छात्र), देवी प्रसाद चौधरी (मिलर एच.ई. स्कूल, पटना की ग्यारहवीं कक्षा), राजेंद्र सिंह (पटना हाई स्कूल की मैट्रिक कक्षा), और रामगोविंद सिंह (पूनपून हाई स्कूल की मैट्रिक कक्षा)। सात छात्रों के इस नेक बलिदान ने पूरे प्रांत में आग लगा दी जो विदेशी प्रभुत्व के सभी प्रतीकों को भस्म करने की कोशिश में आग की लपटों में बदल गई।
इसकी तार्किक अगली कड़ी के रूप में, एक व्यापक लोकप्रिय उथल-पुथल अनायास छिड़ गई। कभी-कभी इस आन्दोलन ने हिंसक मोड़ भी लिया। ब्रिटिश साम्राज्यवाद का समर्थन करने वाले प्रशासन को पंगु बनाने के लिए, आंदोलनकारियों ने रेलवे लाइनों को उखाड़ फेंका, टेलीग्राफ तारों और टेलीफोन को क्षतिग्रस्त कर दिया, कुछ स्थानों पर पुलिस स्टेशनों को जला दिया, डाकघरों और अन्य सरकारी भवनों को जब्त कर लिया। इनके कारण प्रशासन की मशीनरी के साथ लोगों का संघर्ष हुआ। ये अनियोजित हिंसक गतिविधियाँ स्वतःस्फूर्त विस्फोट थे। इस तर्ज पर न तो कांग्रेस ने और न ही उसके नेताओं ने किसी कार्यक्रम को मंजूरी दी थी। दूसरी ओर, आंदोलन का एक रचनात्मक पहलू था। राष्ट्रीय सरकार की संरचना का निर्माण करके लोगों के शासन की स्थापना पर जोर दिया गया । इस प्रकार के पंचायत राज के प्रयोग सहरसा और सुपौल क्षेत्रों में सफलतापूर्वक किये गये।
सरकार द्वारा नृशंस दमन के बावजूद प्रांत के अधिकांश भागों में उपद्रव फैलता रहा। सारण, सोनपुर, छपरा, सीवान, गोविन्दपुर, मुजफ्फरपुर, मीनापुर, बेलरोड, दरभंगा, शाहाबाद, पटना, पूर्णिया, कटिहार, धमदाहा, सहरसा, मुंगेर, भागलपुर, देवघर, हजारीबाग, राँची, पलागू, जमशेदपुर, आदि क्षेत्रों में हिसात्मक घटनाएं घटी और प्रशासन के दमन चक्र के बावजूद क्रांतिकारियों ने अनेक स्थानों पर कुछ समय के लिए सरकार को ठप्प कर दिया। सीवान थाने पर राष्ट्रीय झण्डा लहराने की कोशिश में फुलेनाप्रसाद श्रीवास्तव पुलिस की गोलियों के शिकार हुए। सारण में जगलाल चौधरी ने पुलिस थाने को जला डाला। चम्पारण में एक पृथक सरकार बना ली गई। दरभंगा में कुलानन्द वैदिक और सिंधवारा में कर्पूरी ठाकुर ने संचार व्यवस्था को ठप्प करने का काम किया। मुजफ्फरपुर के पास थाने को जला दिया गया। गया के कुर्था थाने पर झण्डा लहराने की कोशिश में ध्रुवकुमार को पुलिस ने गोली मार दी। डुमराँव में ऐसे ही प्रयास के फलस्वरूप कपिल मुनि को पुलिस ने गोली मार दी। छोटानागपुर क्षेत्र के आदिवासियों, विशेषकर ताना भगतं के अनुयायी आन्दोलनकारियों ने भी अपने क्षेत्र में ब्रिटिश सत्ता को चुनौती दी। जमशेदपुर में TISCO के मजदूरों ने हड़ताल कर दी। पलामू, हजारीबाग, हाजीपुर, मुजफ्फरपुर, सीमातढ़ी और दरभंगा के क्षेत्रों में कई स्थानों पर क्रांतिकारी सरकार संगठित कर ली गई। गाँवों में पंचायतों और रक्षा-दलों की स्थापना की जाने लगी और राष्ट्रवादियों ने वस्तुतः सरकार की स्थापन कर ली। धनबाद तथा झरिया क्षेत्रों में मजदूरों ने हड़ताल कर दी। इसकी प्रतिक्रिया पुलिस बल में भी हुई। श्री रामानंद तिवारी के नेतृत्व में 'पुलिस- संघ के तत्त्वावधान में पाँच सौ पचास पुलिकर्मियों ने गिरफ्तारी तथा पुलिस जुल्म के विरुद्ध उपवास रखा। डालमिया नगर में रोहतास इंडस्ट्रीज के श्रमिक हड़ताल पर चले गये और प्रदर्शन किया। मुंगेर में 'आजाद हिन्दुस्तान' नामक एक लघु समाचारपत्र प्रकाशित होने लगा। इस समाचारपत्र ने लोगों को जाग्रत करना आरंभ कर दिया। सरकार की तरफ से भी मुंगेर - न्यूज' नामक (26 अगस्त, 1942 से) अखबार निकाला गया, जिसमें सरकारी बातों को प्रचारित किया जाने लगा। 11 अगस्त को संथालपरगना में विनोदानन्द झा के नेतृत्व में एक विशाल जुलूस निकाला गया। 4 सितम्बर, 1942 ई० को भागलपुर सेंट्रल जेल में कैदियों द्वारा विद्रोह कर दिया गया। 15 अगस्त को श्रीमती शांति देवी की अध्यक्षता में एक विशाल जनसभा आयोजित हुई। इस आन्दोलन के दौरान की एक विशेष घटना यह घटी कि छात्रों ने कुछ रेलगाड़ियों पर कब्जा कर लिया और इस ट्रेन को अपने नियन्त्रण में एक स्थान से दूसरे स्थान पर चलाकर ओन्दोलन का प्रचार और प्रसार किया। इस ट्रेन का नाम 'स्वराज ट्रेन' दिया गया था। सियाराम सिंह के नेतृत्व में उत्तरी भागलपुर में आन्दोलनकारियों ने राष्ट्रीय सरकार की स्थापना कर दी। सारण जिला के रघुनाथपुर, सीवान, परसा, मांझी, एकमा, दिघवारा, दरौली, बैकुंठपुर, एवं गरखा में ब्रिटिश प्रशासन को धराशायी कर स्थानीय लोगों ने स्वतंत्र मंडल' नाम से अपनी प्रशासनिक व्यवस्था लागू कर दी। तत्कालीन दक्षिण बिहार में भी आन्दोलन जोर पकड़ चुका था। 11 अगस्त को श्रीमती सरस्वती देवी के नेतृत्व में हजारीबाग की मुख्य सड़कों पर एक जुलूस निकाला गया। संथालपरगना में देवघर, सरवां एवं पहाड़पुर में प्रफुल्लचंद पटनायक ने पहाड़िया लोगों को संगठित किया और आन्दोलन छेड़ दिया।
सरकारी तंत्र ने इस आंदोलन को दबाने के लिए दमन के हर तरीके का इस्तेमाल करने में कोई संकोच नहीं महसूस किया। लोगों को आतंकित करने के लिए वीभत्स अत्याचार किये गये। अंधाधुंध और बड़े पैमाने पर गिरफ्तारियों और कारावासों के अलावा, कोड़े मारने और अन्य प्रकार की यातनाएं इसके सबूत थे। कुछ क्षेत्रों को कभी-कभी लगभग पूरी तरह से सेना के नियंत्रण में रखा गया था। भारी सामूहिक जुर्माना लगाना, सैनिकों और पुलिस द्वारा लोगों पर अंधाधुंध गोलीबारी, संपत्ति की लूट, लोगों के घरों को जलाना और अन्य तरीकों से धमकाना आम हो गया। जीवन, संपत्ति और यहां तक कि बहु -बेटियों का सम्मान भी दांव पर लगा था। अनियंत्रित सैन्य ज्यादती हुई। चर्चिल ने कहा, 'गड़बड़ी को सरकार ने पूरी ताकत से कुचल दिया।' ब्रिटिश साम्राज्य के श्री एल.एस. अमेरी ने अक्टूबर 1942 की शुरुआत में हाउस ऑफ कॉमन्स में कहा: 'हाल की गड़बड़ी के दौरान भीड़ को हवा से पांच बार मशीन गन से उड़ाया गया था और 18 सितंबर को बिहार में एक हवाई जहाज दुर्घटना के बाद विमान के चालक दल की भीड़ द्वारा हत्या कर दी गई। भीड़ द्वारा तोड़फोड़ को रोकने के लिए विमान का उपयोग करना आवश्यक पाया गया।'
अक्टूबर-नवंबर 1942 तक आंदोलन पूरी तरह खत्म नहीं हुआ था। तीव्र सरकारी दमन ने असंतोष को भूमिगत कर दिया और आंदोलन के नए चरण में बिहार के कई देशभक्त नेपाल तराई गए, जहाँ उन्हें स्थानीय लोगों से सहानुभूति और सहायता मिली। उनमें से कुछ ने हथियार, गोला-बारूद, भाले और कुछ अन्य हथियार एकत्र किए। हजारीबाग जेल में बंद बिहार के कुछ लड़ाके जय प्रकाश नारायण, रामनंदन मिश्रा, योगेन्द्र शुक्ल, सूरज नारायण सिंह, गुलाब सोनार और शालिग्राम सिंह (हजारीबाग जिला कांग्रेस कमेटी के सचिव) ने 9 नवंबर 1942 की दिवाली की रात को चमत्कारी तरीके से जेल से भाग निकले। भागने की साजिश में संलिप्तता के संदेह में रामनारायण सिंह, कृष्ण बल्लभ सहाय और सुखलाल सिंह को भागलपुर जेल से हटा दिया गया। जो लोग भाग गए थे, उनकी जानकारी देने के लिए सरकार द्वारा बड़े इनाम की पेशकश की गई थी। जय प्रकाश नारायण, योगेन्द्र शुक्ल और रामनंदन मिश्रा के लिए 5000 - 5,000 रुपये और अन्य तीन के लिए 2,000 रुपये की पेशकश की गई थी।
जंगलों और दुर्गम रास्तों से गुजरते हुए, ये साहसी वीर गया जिले की सीमा में प्रवेश कर गए, जहाँ उन्होंने खुद को दो समूहों में विभाजित कर लिया। जय प्रकाश नारायण, रामनंदन मिश्रा और शालिग्राम सिंह का एक समूह बनारस की ओर गया और योगेन्द्र शुक्ल, सूरज नारायण सिंह और गुलाब का दूसरा समूह उत्तर बिहार की ओर बढ़ा। गुप्त सूचना पर मुजफ्फरपुर के पुलिस अधीक्षक ने योगेन्द्र शुक्ल को अखाड़ाघाट से गिरफ्तार कर लिया। 7 दिसंबर को उन्हें पटना ले जाया गया और फिर बक्सर जेल भेज दिया गया। उनके गिरोह के दो अन्य लोग दरभंगा की ओर गए और वहां गुप्त गतिविधियां कीं।
क्रांति के नए चरण का सुसमाचार देशभक्त जय प्रकाश नारायण ने जनवरी 1943 के अंत में 'स्वतंत्रता के सभी सेनानियों' को उनके द्वारा संबोधित एक परिपत्र पत्र में दिया था। विदेशी शासन को उखाड़ने के साधन के रूप में हिंसा का अर्थ समझाने के बाद, उन्होंने कहा: हमें अपनी ताकतों को तैयार करना होगा... हम जो कुछ भी करते हैं, उसमें हमें लगातार यह ध्यान रखना होता है कि हमारा केवल षडयंत्रकारी कार्य नहीं है। यह जनता का पूर्ण विद्रोह है; यही हमारा उद्देश्य है।' इसलिए उन्होंने 'जनसाधारण और गांवों में किसानों, कारखानों, खानों, रेलवे और अन्य जगहों पर मजदूरों के बीच, भारतीय सेना और सेवाओं के बीच गहन काम करने की सलाह दी।' उन्होंने छात्रों से विशेष अपील की।
नेपाल में, जय प्रकाश नारायण, सूरज नारायण सिंह और बिहार के कुछ अन्य लोगों के सक्रिय सहयोग के साथ-साथ राम मनोहर लोहिया ने देश की सेवा के लिए आजाद दस्ता का निर्माण किया। मई 1943 के महीने में ब्रिटिश सरकार उन्हें गिरफ्तार करने में कामयाब रही और उन्हें हनुमान-नगर जेल में बंद कर दिया गया। लेकिन सूरज नारायण सिंह और सरदार नित्यानंद सिंह (नेपाल शिविर में मुख्य प्रशिक्षक जो कुछ ही समय बाद सोनबरसा में शहीद हो गए) के मार्गदर्शन में कार्यकर्ताओं के एक दल द्वारा उन्हें जल्द ही छुड़ा लिया गया। कुछ ही महीनों में, जय प्रकाश को अमृतसर में पुलिस ने पकड़ लिया।
अक्टूबर, 1943 को लिनलिथगो के बाद लार्ड वेवल भारत के वायसराय बने। वेवल ने तनावपूर्ण स्थिति को सामान्य बनाने की दिशा में प्रयास करते हुए सर्वप्रथम भारत छोड़ो आन्दोलन के समय गिरफ्तार कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्यों को रिहा किया। युद्ध के खतरे के अलावा, संवैधानिक गतिरोध और सांप्रदायिक कलह दो अन्य गंभीर समस्याएं थीं। दुर्भाग्य से सांप्रदायिक कलह बढ़ती जा रही थी। कांग्रेस की 'भारत छोड़ो' की मांग के विरोध में मुस्लिम लीग ने 'फूट डालो और छोड़ो' का नया नारा शुरू किया। पाकिस्तान के लिए मांग सख्त हो गई, और बिहार में प्रांतीय मुस्लिम लीग इसके बारे में उत्साहित हो गई। मार्च 1945 में श्री जिन्ना ने कहा, 'पाकिस्तान हमारी अटल और अपरिवर्तनीय राष्ट्रीय मांग है।‘ हम अखंड भारत के आधार पर किसी भी संविधान को कभी स्वीकार नहीं करेंगे।' इस सबकी बिहार में दुखद प्रतिक्रिया हुई।
'भारत छोड़ो आन्दोलन के क्रम में बिहार में 15000 से अधिक व्यक्ति बंदी बनाये गये। इनमें 8783 व्यक्तियों को सजा हुई और 134 व्यक्ति मारे गये तथा 362 व्यक्ति घायल हुए। 1944 और 1945 में बिहार में कांग्रेस ने अपने को रचनात्मक कार्य और समाज सेवा में लगाया। कस्तूरबा फंड के लिए चंदा और खादी की बिक्री और राष्ट्रीय महत्व के विशेष अवसर जैसे स्वतंत्रता दिवस, गांधी दिवस, राष्ट्रीय सप्ताह और 9 अगस्त 1942 की वर्षगांठ मनाई जाने लगी। बिहार के कुछ प्रमुख कांग्रेस कार्यकर्ता, जो फरार थे, अप्रैल 1944 में गिरफ्तार किए गए। 28 अप्रैल 1944 को सुचेता कृपलानी को पटना में गिरफ्तार किया गया था। मई 1944 में गांधीजी को स्वास्थ्य के आधार पर रिहा किया गया। इस आन्दोलन ने अंततः अँग्रेज सरकार को अपना रुख बदलने के लिए बाध्य किया। 1945 ई० में राजनीतिक प्रक्रिया पुनः बहाल हुई और युद्ध की समाप्ति के बाद पुनः चुनाव हुए।
भारत छोड़ो आंदोलन, जिसे 'अगस्त क्रांति' भी कहा जाता है, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक निर्णायक और व्यापक जन आंदोलन था। महात्मा गांधी ने 8 अगस्त 1942 को बंबई (अब मुंबई) में "अंग्रेजों भारत छोड़ो" का आह्वान किया। यह आंदोलन पूरे देश में फैल गया, और बिहार ने इसमें अत्यंत सक्रिय और महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बिहार के लोगों ने इसे केवल राजनीतिक आंदोलन न मानकर ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ एक व्यापक जन-जागरण का रूप दिया।
(i) ग्राम्य और शहरी सहभागिता:
(ii) संगठन और नेतृत्व:
(iii) गांधीवादी अहिंसा और विद्रोह का मेल:
(iv) छात्रों और युवाओं की भागीदारी:
(i) विभिन्न क्षेत्रों में प्रभाव:
(ii) भूमिगत गतिविधियाँ:
(iii) महिलाओं की भागीदारी:
(iv) किसानों और मजदूरों की भूमिका:
(v) उग्र गतिविधियाँ:
(i) पटना में प्रदर्शन:
(ii) सोनपुर और छपरा में विद्रोह:
(iii) भूमिगत रेडियो और प्रचार:
(i) ब्रिटिश दमन की तीव्रता:
(ii) नेताओं की गिरफ्तारी:
(iii) सामाजिक असमानता:
(i) ब्रिटिश प्रशासन की कमजोरी:
(ii) जनजागरण और राजनीतिक चेतना:
(iii) आंदोलन की विरासत:
भारत छोड़ो आंदोलन ने बिहार में स्वतंत्रता संग्राम को एक नई दिशा और गति दी। बिहार के सभी वर्गों—किसानों, मजदूरों, छात्रों, महिलाओं, और नेताओं—ने इसमें साहसिक और सक्रिय भाग लिया। इस आंदोलन ने यह स्पष्ट कर दिया कि ब्रिटिश शासन अब अधिक समय तक भारत में टिक नहीं सकता। बिहार के लोगों की दृढ़ता और बलिदान ने इस आंदोलन को सफलता की ओर अग्रसर किया और भारत की स्वतंत्रता की नींव को और मजबूत किया।
भारत छोड़ो आंदोलन (1942) ने न केवल भारत बल्कि बिहार में भी गहरे और व्यापक प्रभाव छोड़े। यह आंदोलन स्वतंत्रता संग्राम का एक निर्णायक चरण था, जिसमें बिहार के नागरिकों ने सक्रिय भागीदारी की और ब्रिटिश शासन के खिलाफ तीव्र विरोध प्रदर्शन किया। इस आंदोलन ने बिहार के सामाजिक, राजनीतिक, और आर्थिक परिदृश्य को प्रभावित किया और स्वतंत्रता के लिए राज्य की भूमिका को महत्वपूर्ण बना दिया।
(i) जनजागरण और एकता:
(ii) महिलाओं की भागीदारी में वृद्धि:
(iii) दलित और पिछड़े वर्गों की भागीदारी:
(i) स्वतंत्रता संग्राम में भूमिका का विस्तार:
(ii) नेताओं की भूमिका और प्रतिष्ठा:
(iii) ब्रिटिश प्रशासन का कमजोर होना:
(i) व्यापार और उद्योग पर असर:
(ii) रेलवे और संचार व्यवधान:
(i) ब्रिटिश दमन का विरोध:
(ii) आत्मनिर्भरता की भावना:
(i) राष्ट्रीयता और सांस्कृतिक पुनर्जागरण:
(ii) युवाओं की प्रेरणा:
(i) अहिंसात्मक आंदोलन से हिंसात्मक गतिविधियों की ओर रुझान:
भारत छोड़ो आंदोलन ने बिहार के समाज, राजनीति, और अर्थव्यवस्था पर गहरा प्रभाव छोड़ा। इस आंदोलन ने न केवल ब्रिटिश शासन के प्रति जनता के आक्रोश को प्रकट किया, बल्कि स्वतंत्रता संग्राम में बिहार की भूमिका को और अधिक सशक्त किया। इसने बिहार में सामाजिक जागरूकता, राजनीतिक सक्रियता, और राष्ट्रीयता की भावना को मजबूत किया। यह आंदोलन भारतीय स्वतंत्रता के लिए बिहार के ऐतिहासिक योगदान का प्रतीक बन गया।
आजाद दस्ता
8 अगस्त, 1942 को 'अंग्रेजों भारत छोड़ों' प्रस्ताव के पारित होने के अगले दिन ही सभी प्रमुख राष्ट्रवादी नेता गिरफ्तार कर लिए गए थे ।'भारत छोड़' आन्दोलन को सरकार ने बलपूर्वक दबाने का प्रयास किया। परिणामस्वरूप क्रांतिकारियों को गुप्त रूप से आन्दोलन चलाने पर बाध्य होना पड़ा। हजारीबाग जेल में बंद बिहार के कुछ लड़ाके जय प्रकाश नारायण, रामनंदन मिश्रा, योगेन्द्र शुक्ल, सूरज नारायण सिंह, गुलाब सोनार और शालिग्राम सिंह (हजारीबाग जिला कांग्रेस कमेटी के सचिव) ने 9 नवंबर 1942 की दिवाली की रात को चमत्कारी तरीके से जेल से भाग निकले। उ न्होंने आन्दोलन को भूमिगत होकर चलाया था। जयप्रकाश नारायण ने सूरज प्रकाश सिंह और विजया के साथ मिलकर क्रान्तिकारियों को प्रशिक्षित करने के लिए नेपाल की तराई में प्रशिक्षण शिविर खोले। यहीं ‘आजाद दस्ता' का गठन किया गया जिनका कार्य अंग्रेजी सरकार की नाक में दम करना था। आजाद दस्ता ने छापामार युद्ध के तरीकों को अपनाया और विदेशी शासन को अस्त-व्यस्त करने की योजनाएँ क्रियान्वित की। बिहार की उत्तरी सीमा पर अवस्थित नेपाल की तराई के जंगली इलाकों में इन आजाद दस्ता का प्रशिक्षण केन्द्र खोला गया। कोसी नदी के किनारे 'बकरों का टापू' नामक स्थान से आजाद दस्ता का संचालन किया जाता था। राम मनोहर लोहिया ने प्रचार एवं संचार विभाग सँभाला और इन दस्तों को लोकप्रिय बनाया और इनके लिए कार्यकर्त्ता तैयार किए। यहीं से अखिलभारतीय स्तर पर कार्य किया जाता था। एक बिहार प्रान्तीय आजाद दस्ता का भी निर्माण हुआ था, जिसका नेतृत्व सूरजनारायण सिंह के जिम्मे था।
आजाद दस्ता का गठन विशेष रूप से सरकार के विरुद्ध तोड़-फोड़ की कार्रवाईयों के लिए किया गया था ताकि युद्ध में सरकार को बाधा पहुँचे। 1943 ई० के मार्च-अप्रैल में नेपाल के रासविलास जंगल में आजाद दस्ता के पहले प्रशिक्षण-शिविर का गठन हुआ, जिसमें बिहार के पचीस युवकों को अस्त्र चलाने की शिक्षा दी गयी। इसके प्रमुख नित्यानन्द सिंह थे। आजाद दस्ता के सदस्यों को तोड़-फोड़ के लिए तीन तरह की कार्रवाईयों की शिक्षा दी जाती थी-
इसके लिए तीन तरह के उपाये थे
इन कार्यों के लिए दो तरह के दल तैयार किये गये थे। एक ओर वे लोग थे, जो गुप्त ढंग से तोड़ फोड़ की इन कार्रवाइयों को चला रहे थे और दूसरी ओर वे लोग थे, जो व्यापक जन-आन्दोलन का एक अंग बनकर हिंसात्मक संघर्ष को आगे बढ़ा रहे थे। कि राममनोहर लोहिया ने स्पष्ट किया था कि ऐसे संगठन की आवश्यकता दो कारणों से महसूस की गई थी। एक तो इसलिए कि युवकों में जो हिंसा और संघर्ष की भावना बन रही थी, उसे एक सही और सुनियोजित दिशा प्रदान की जाय। दूसरे इसलिए कि दुवारा किसी जनक्रांति के विस्फोट के समय क्रांतिकारियों के पास ऐसे साधन और संगठन हों, जिनसे वह सरकर के नृशंस और राज्य द्वारा हिंसा के प्रयोग का भरपूर मुकाबला कर सकें।
बिहार में सूरज नारायण सिंह के नेतृत्व में आजाद दस्ता की स्वतंत्रत परिषद् स्थापित की गई। इस परिषद् में बिहार के लिए तीन सैनिक शिविर खोले जाने का निर्णय लिया गया। अनेक नवयुवक इन दस्तों में सम्मिलित हुए। केवल दो महीने बाद ही अंग्रेज सरकार के निर्देश पर नेपाल सरकार ने जयप्रकाश नारायण आदि नेताओं को हनुमान नगर जेल में डाल दिया। नित्यानन्द के नेतृत्व में 35 क्रांतिकारियों ने जयप्रकाश एवं अन्य नेताओं को कैद से छुड़वा लिया । जयप्रकाश जी अपने सहयोगियों के साथ भागते हुए कलकत्ता पहुँचे, जहाँ उन्होंने नेताजी सुभाषचन्द्र बोस से सम्पर्क बनाने का प्रयास किया, परन्तु इसमें वे असफल रहे। इस दौरान पुलिस उनका लगातार पीछा करती रही।
नेपाल में आयोजित आजाद दस्ता की कार्रवाइयों से प्रेरित होकर बाद में बिहार में भागलपुर और पूर्णिया में भी इसी ढंग के संगठनों की स्थापना की गयी। इसके बाद आजाद दस्ता ने संपूर्ण बिहार में क्रांतिकारी गतिविधियों का संचालन किया। आजाद दस्ता की पूर्णिया जिले में पहली बैठक सिमैली में हुई जिसमें सैन्य और असैन्य विभाग अलग कर दिए गए। आजाद दस्तों के गुप्तचरों ने अपना काम इतनी कुशलता से किया कि सरकार के प्रयास असफल हो जाते थे। महेशपुर, खजूरी और संझाघाट इनकी गतिविधियों के प्रमुख केन्द्र थे ।
18 दिसम्बर, 1943 ई० को पुलिस अधिकारियों ने जयप्रकाश नारायण को मुगलपुरा के पास गिरफ्तार कर लिया। इस समय तक अन्य नेता, यथा बसावन सिंह, रामनन्दन आदि गिरफ्तार हो चुके थे। 7 जुलाई, 1944 ई० को कार्त्तिक प्रसाद सिंह भी गिरफ्तार कर लिये गए। इन गिरफ्तारियों ने 'आजाद दस्ता' के कार्य को मन्द कर दिया। इस प्रकार आजाद दस्तों ने बिहार में भारत छोड़ों आन्दोलन में उल्लेखनीय भूमिका का निर्वाह किया ।
भारत छोड़ो आंदोलन (1942) के दौरान जब प्रमुख नेताओं की गिरफ्तारी के बाद आंदोलन भूमिगत हो गया, तब 'आजाद दस्ता' ने बिहार में स्वतंत्रता संग्राम को क्रांतिकारी रूप से सक्रिय रखा। यह दस्ता ब्रिटिश शासन के खिलाफ छापामार युद्ध की रणनीतियों और विध्वंसक गतिविधियों के माध्यम से भारत छोड़ो आंदोलन का महत्वपूर्ण अंग बना। इसका गठन और संचालन स्वतंत्रता संग्राम के क्रांतिकारी चरित्र को प्रकट करता है।
गठन का समय और स्थान
मुख्य उद्देश्य
1. छापामार युद्ध और प्रशिक्षण शिविर
2. तोड़फोड़ की कार्रवाइयाँ
3. सैन्य और असैन्य विभाग का गठन
4. युवाओं को प्रेरित करना
बिहार में क्रांतिकारी गतिविधियाँ
जयप्रकाश नारायण का नेतृत्व
गुप्तचरों की भूमिका
उल्लेखनीय उपलब्धियाँ
'आजाद दस्ता' ने भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान ब्रिटिश शासन को चुनौती देने में ऐतिहासिक भूमिका निभाई। यह संगठन बिहार में क्रांतिकारी गतिविधियों का केंद्र बना और युवा पीढ़ी को स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय रूप से शामिल किया। भूमिगत गतिविधियों, छापामार युद्ध और विध्वंसक कार्यों के माध्यम से 'आजाद दस्ता' ने आंदोलन को जीवित रखा और स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में एक अमिट छाप छोड़ी।
सुभाषचंद्र बोस और आजाद हिंद फ़ौज
16 जनबरी, 1941 वे एक पठान मोहम्मद जियाउद्दीन के वेश में कलकत्ता से निकले और गोमो, पेशावर होते हुए काबुल पहुचे। वहाँ उन्होंने रूसी दूतावास में प्रवेश पाना चाहा। नाकामयाब रहने पर जर्मन एवं इटालियन दूतावास की मदद से आरलैंडो मैजोंटा नामक इटालियन व्यक्ति बनकर मास्को होते हुए जर्मनी (बर्लिन) पहुचे।बर्लिन में उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संघठन (फ्री इंडिया सेंटर) और आजाद हिन्द रेडियो की स्थापना की ।फ्री इंडिया सेंटर में ही सुभास ने पहली बार जयहिंद का नारा दिया।जर्मनी में ही उन्हें भारतीयों द्वारा नेताजी की उपाधि दी गयी ।29 मई, 1942 को वे हिटलर से मिले। भारतीय मामलो में उसकी अरुची के कारण कोई आश्वासन नहीं मिला। माईन काम्फ में भारत की बुराई वर्णित किये जाने की तरफ उन्होंने हिटलर का ध्यानाकृष्ट किया। अगले संस्करण में इसे हटाने का आश्वासन हिटलर द्वारा दिया गया ।वहां से वे मार्च, 1943 में जापान के लिए चल पड़े ताकि जापानी सहायता से वे ब्रिटिश शासन के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष चला सकें।
मार्च, 1942 में रासबिहारी बोस ने टोकियो में भारतीयों का एक सम्मलेन आयोजित किया जहाँ इंडियन इंडिपेंडेंस लीग की स्थापना की।ब्रिटिश भारत की सेना में कप्तान रहे जनरल मोहनसिंह के दिमाग में आजाद हिन्द फ़ौज के गठन का विचार आया।मोहन ने सिंगापुर में आजाद हिंद फौज की स्थापना की। जून, 1942 में इंडियन इंडिपेंडेंस लीग का सम्मलेन रास बिहारी बोस द्वारा बुलाया गया, जिसमें सुभाषचंद्र बोस को लीग एवं आजाद हिन्द फ़ौज का नेतृत्व सौपने का निर्णय लिया गया।7 जुलाई, 1943 को रासबिहारी बोस ने सुभाष चन्द्र बोस को आजाद हिन्द फ़ौज की कमान (सर्वोच्च सेनापति) सौपी। अपने अनुयायियों को उन्होंने "जय हिंद" का मूलमंत्र दिया।
21 अक्टूबर, 1943 को सुभाष चंद्र बोस ने सिंगापुर (मुख्यालय-रंगून) में स्वतंत्र भारत की अस्थायी सरकार का गठन किया जिसके मंत्रियों में एच० सी० चटर्जी (वित्त), एम० ए० अय्यर (प्रचार) तथा लक्ष्मी स्वामीनाथन (स्त्रीयों के विभाग) शामिल थे। आजाद हिन्द फ़ौज के ब्रिगेड में सुभाष, नेहरु, गाँधी ब्रिगेड पुरुषों के लिए एवं रानी झांसी रेजिमेंट महिलाओं के बनाए गए। उन्होंने आजाद हिन्द फ़ौज को संबोधित करते हुए, तुम मुझे खून दो मै तुम्हे आजादी दूंगा नारा दिया।
6 नवम्बर, 1943 को जपानी सेना ने अंडमान और निकोवर द्वीप आजाद हिन्द फ़ौज को सौप दिया, जिसका नाम शहीद और स्वराजद्वीप रखा गया।18 मार्च, 1944 को आजाद हिन्द फ़ौज ने कोहिमा और नागालैंड पर घेरा डाला। 6 जुलाई, 1944 को आजाद हिन्द रेडियो के प्रसारण में बोस ने कहा- भारत की स्वाधीनता का आख़िरी युद्ध शुरू हो गया है राष्ट्रपिता (गाँधी जी के लिए पहली बार) भारत की मुक्ति के इस पवित्र युद्ध में हम आपका आशीर्वाद और शुभकामना चाहते हैं। वर्ष 1944-45 में युद्ध में जापान की पराजय के बाद आजाद हिंद फौज की भी हार हुई, और 18 अगस्त, 1945 को सुभाष चंद्र बोस ताइवान से टोकियो जाते हुए रास्ते में एक वायुयान दुर्घटना में मारे गए।
सरकार ने आजाद हिंद फौज के जनरल शाहनवाज, जनरल गुरदयाल सिंह ढिल्लों और जनरल प्रेम सहगल पर दिल्ली के लाल किले में मुकदमा चलाने का फैसला किया। ये लोग पहले ब्रिटिश भारतीय सेना के अधिकारी थे। उन पर ब्रिटिश सिंहासन के प्रति निष्ठा की शपथ भंग करने और इस प्रकार 'गद्दार' होने का आरोप लगाया गया। नवंबर, 1945 में आजाद हिंद फौज के कैदियों की रिहाई की मांग को लेकर कलकत्ता में लाखों लोगों ने प्रदर्शन किया। तीन दिन तक नगर में सरकार नाम की कोई चीज रहो हो नहीं थी। फिर 12 फरवरी, 1946 को भी आजाद हिंद फौज के एक और बंदी, अब्दुल रशीद की रिहाई की मांग को लेकर नगर में एक और जन-प्रदर्शन हुआ। हालांकि कोर्ट मार्शल में आजाद हिंद फौज के इन बंदियों को दोषी पाया गया, मगर सरकार ने उन्हें छोड़ देने में ही भलाई समझी।
राजेन्द्र प्रसाद और उनके योगदान
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद (1884-1963) भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महान नेता और स्वतंत्र भारत के पहले राष्ट्रपति थे। वे अपनी सादगी, विनम्रता, और सेवा-भाव के लिए प्रसिद्ध थे। भारतीय इतिहास में उनका योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण और बहुआयामी है।
1. भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भूमिका
2. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में नेतृत्व
3. भारतीय संविधान सभा के अध्यक्ष
4. भारत के पहले राष्ट्रपति (1950-1962)
5. शिक्षा और सामाजिक सुधार
6. भूदान आंदोलन का समर्थन
7. सादगी और नैतिकता का प्रतीक
8. लेखन और साहित्य में योगदान
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने अपनी सादगी, विनम्रता और नेतृत्व क्षमता से भारतीय राजनीति और समाज में आदर्श स्थापित किया।
वे भारतीय जनता के लिए सेवा और समर्पण का प्रतीक थे। उनका जीवन हमें सत्य, ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा के मूल्यों को अपनाने की प्रेरणा देता है।
उनकी विरासत भारतीय लोकतंत्र और सांस्कृतिक परंपराओं में अमिट छाप छोड़ती है।
जयप्रकाश नारायण और उनके योगदान
जयप्रकाश नारायण (1902-1979), जिन्हें "जेपी" के नाम से भी जाना जाता है, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक प्रमुख नेता, समाजसेवी और विचारक थे। वे गांधीवादी विचारधारा और समाजवादी आंदोलन के प्रमुख स्तंभों में से एक थे। उनका जीवन भारतीय राजनीति, समाज और स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में कई अहम बदलावों का प्रतीक है।
1. भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में योगदान
2. समाजवाद और ग्रामीण विकास
3. संपूर्ण क्रांति आंदोलन (1974-75)
4. लोकनायक की उपाधि
5. समाज सुधार और भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन
6. गांधीवादी दर्शन का प्रचार
जयप्रकाश नारायण का जीवन समाज और राजनीति में नैतिकता, ईमानदारी और सेवा का प्रतीक है। उनके योगदान ने भारतीय राजनीति और समाज को नई दिशा दी और आने वाली पीढ़ियों को प्रेरित किया।
राम मनोहर लोहिया एवं उनके योगदान
डॉ. राम मनोहर लोहिया (1910-1967) भारत के स्वतंत्रता संग्राम के प्रमुख समाजवादी नेता और विचारक थे। वे एक महान वक्ता, लेखक, और सामाजिक सुधारक थे, जिन्होंने भारतीय समाज और राजनीति में क्रांतिकारी बदलाव लाने के लिए संघर्ष किया। उनके योगदान को विभिन्न क्षेत्रों में देखा जा सकता है:
1. भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भूमिका
2. समाजवाद का प्रसार
3. जाति व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष
4. हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं का समर्थन
5. महिला सशक्तिकरण
6. ग्राम स्वराज और आर्थिक न्याय
7. आंतरराष्ट्रीयता और विश्व शांति
डॉ. लोहिया के विचार भारतीय समाजवादी आंदोलन के लिए मार्गदर्शक सिद्ध हुए। उनकी नीतियां आज भी सामाजिक न्याय, जाति व्यवस्था के उन्मूलन, और समतावादी समाज के निर्माण के संदर्भ में प्रासंगिक हैं।
उनका जीवन और कार्य उन लोगों के लिए प्रेरणा है, जो भारतीय समाज को अधिक समतावादी और न्यायपूर्ण बनाना चाहते हैं।
राम मनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण भारतीय समाजवाद के दो प्रमुख स्तंभ हैं। दोनों ने अपने विचारों और आंदोलनों से सामाजिक समानता और आर्थिक न्याय का मार्ग प्रशस्त किया। यद्यपि उनके दृष्टिकोण और कार्यशैली में कुछ भिन्नताएँ थीं, लेकिन उनका उद्देश्य भारतीय समाज और अर्थव्यवस्था को अधिक समतामूलक और आत्मनिर्भर बनाना था।
1. सामाजिक चिंतन
जाति उन्मूलन और सामाजिक समानता
भाषा और संस्कृति
सामाजिक समता
2. आर्थिक चिंतन
चौखंभा राज की अवधारणा
पंचायती राज और स्थानीय विकास
स्वदेशी और आत्मनिर्भरता
न्याय आधारित अर्थव्यवस्था
1. सामाजिक चिंतन
संपूर्ण क्रांति
सर्वोदय आंदोलन
सामाजिक समरसता
2. आर्थिक चिंतन
विकेंद्रित अर्थव्यवस्था
संपत्ति का पुनर्वितरण
सामुदायिक स्वावलंबन
समाजवाद और पूंजीवाद का समन्वय
समानता
भिन्नता
राम मनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण ने भारतीय समाज और अर्थव्यवस्था को एक समतामूलक दिशा देने में महत्वपूर्ण योगदान दिया। लोहिया ने सामाजिक न्याय और जाति उन्मूलन पर जोर दिया, जबकि जयप्रकाश नारायण ने समाज के समग्र सुधार और सम्पूर्ण क्रांति का मार्ग प्रशस्त किया। उनके विचार आज भी भारतीय समाज और राजनीति के लिए प्रेरणा का स्रोत हैं।
अनुग्रह नारायण सिन्हा और उनके योगदान
अनुग्रह नारायण सिन्हा (1887-1957), जिन्हें बिहार में "बाबू साहेब" के नाम से भी जाना जाता है, भारत के स्वतंत्रता संग्राम के एक प्रमुख नेता, शिक्षाविद, और समाज सुधारक थे। वे बिहार के प्रथम उपमुख्यमंत्री और वित्त मंत्री के रूप में प्रसिद्ध हैं। उनका जीवन भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन और स्वतंत्रता के बाद बिहार के सामाजिक और आर्थिक विकास के लिए समर्पित था।
1. स्वतंत्रता संग्राम में भूमिका:
2. शिक्षा के क्षेत्र में योगदान:
3. बिहार के उपमुख्यमंत्री और वित्त मंत्री के रूप में:
4. भूमि सुधार और समाज सुधार:
5. सादगी और ईमानदारी:
उनकी स्मृति में बिहार के कई संस्थानों और स्थानों का नाम रखा गया है, जैसे:
अनुग्रह नारायण सिन्हा का जीवन एक प्रेरणा है, जो यह सिखाता है कि देश और समाज के कल्याण के लिए निस्वार्थ सेवा और ईमानदारी कितनी महत्वपूर्ण है।
श्री कृष्ण सिंह और उनके योगदान
श्री कृष्ण सिंह (1887-1961), जिन्हें "श्रीबाबू" के नाम से भी जाना जाता है, बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री और स्वतंत्रता सेनानी थे। वे स्वतंत्रता संग्राम के अग्रणी नेता, समाज सुधारक, और आधुनिक बिहार के निर्माता माने जाते हैं। उनके प्रयासों ने बिहार के राजनीतिक, सामाजिक, और आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
1. स्वतंत्रता संग्राम में भूमिका:
2. बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री:
3. भूमि सुधार और कृषि सुधार:
4. औद्योगिक विकास:
5. शिक्षा में सुधार:
6. सामाजिक सुधार:
7. साहसिक निर्णय और नेतृत्व:
श्री कृष्ण सिंह ने अपने अद्वितीय नेतृत्व और निस्वार्थ सेवा से बिहार और भारत के विकास में अभूतपूर्व योगदान दिया। वे सच्चे अर्थों में "बिहार केसरी" थे, जिन्होंने समाज के हर वर्ग के उत्थान के लिए काम किया और बिहार को एक मजबूत और आत्मनिर्भर राज्य बनाने का सपना साकार किया।
बिहार में दलित आंदोलन भारतीय समाज में सामाजिक समानता और न्याय की मांग का एक महत्वपूर्ण हिस्सा रहा है। यह आंदोलन 20वीं सदी के दौरान राजनीतिक और सामाजिक चेतना के विस्तार, आर्थिक शोषण, और जातीय भेदभाव के खिलाफ उभरा। दलित आंदोलन ने समाज के वंचित वर्गों को उनके अधिकारों और पहचान के लिए संघर्ष का मंच प्रदान किया।
1. ब्रिटिश शासनकाल में दलित चेतना का उदय
2. स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान दलित आंदोलन
3. स्वतंत्रता के बाद का दौर
4. दलित राजनीतिक संगठन
5. दलित आंदोलन और भूमि सुधार
6. जाति आधारित अत्याचार और सामाजिक संघर्ष
7. वर्तमान में दलित आंदोलन
बिहार में दलित आंदोलन ने सामाजिक असमानता और भेदभाव के खिलाफ एक सशक्त आवाज प्रदान की। यह आंदोलन वंचित वर्गों को उनके अधिकारों के प्रति जागरूक करने और उनकी राजनीतिक, सामाजिक, और आर्थिक स्थिति में सुधार लाने का माध्यम बना। हालांकि, अभी भी जातिगत भेदभाव और हिंसा की चुनौतियाँ बनी हुई हैं, जिन्हें दलित आंदोलन के माध्यम से लगातार उठाया जा रहा है।
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