राष्ट्रवाद
राष्ट्रवाद एक मनोवैज्ञानिक अवधारणा है जहाँ लोग अपने को इतिहास, परंपरा, भाषा, जातीयता और संस्कृति के आधार पर एकीकृत करते हैं। अस्तित्व की चिंता इस एकता के लिए महत्वपूर्ण शर्त है। अंग्रेजो के शासन एवं शोषण के कारण भारतीयों की अस्मिता बड़े पैमाने पर खंडित हुई और भारतीयों का अस्तित्व ही संकट में आ गया। फलस्वरूप चरणबद्ध ढ़ंग से भारतीयों ने अपने को राष्ट्र के रूप में एकीकृत किया। इस एकीकरण का लक्ष्य अंग्रेजों के शासन एवं शोषण से भारत की मुक्ति थी। जिसका व्यवहारिक रूप संगठित आन्दोलन था, जिसके परिणाम स्वरूप भारत अंग्रेजों के शासन एवं शोषण से मुक्त होकर एक लोकतंत्र के रूप में स्थापित हो सका। इस कारण ही अंग्रेजों से मुक्ति के इस आन्दोलन को राष्ट्रवादी आन्दोलन कहते हैं। इस राष्ट्रवादी आन्दोलन के निरंतर विकास को निम्न तीन चरणों में बाँट कर देखा जाता है -
राष्ट्रवाद के उदय के पूर्व ब्रिटिश शोषण के विभिन्न आयाम
राष्ट्रवाद के उदय से पहले भारत में ब्रिटिश शोषण के विभिन्न आयाम गहराई और व्यापकता में फैले हुए थे। ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन ने राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में शोषण की संरचना तैयार की, जिसने भारतीय जनता में आक्रोश और असंतोष को जन्म दिया। इन शोषणकारी नीतियों और कार्यों ने अंततः भारतीय राष्ट्रवाद के उदय में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
1. आर्थिक शोषण
ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन का सबसे बड़ा प्रभाव भारत की अर्थव्यवस्था पर पड़ा।
(क) धन का निष्कासन (Drain of Wealth)
- दादाभाई नौरोजी ने दिखाया कि भारत से ब्रिटिश खजाने में बड़ी मात्रा में धन का निष्कासन हो रहा है।
- भारत से कच्चा माल ले जाया गया और तैयार माल भारत में बेचा गया।
(ख) कृषि संकट
- भूमि राजस्व प्रणाली (जमींदारी, रैयतवाड़ी और महालवाड़ी) ने किसानों को भारी कर के बोझ तले दबा दिया।
- किसानों से 50-60% तक उत्पादन कर के रूप में लिया गया।
- अकालों के दौरान भी कर वसूली जारी रही, जिससे लाखों किसानों की मृत्यु हुई।
(ग) औद्योगिक विनाश
- भारतीय कुटीर उद्योगों और हस्तशिल्प को समाप्त कर ब्रिटिश उत्पादों के लिए बाजार तैयार किया गया।
- बंगाल के बुनकरों और शिल्पकारों की आजीविका खत्म हो गई।
- ब्रिटिश मशीनों से तैयार कपड़ों ने भारतीय वस्त्र उद्योग को पूरी तरह से बर्बाद कर दिया।
(घ) रेलवे और अन्य बुनियादी ढाँचे का उपयोग
- रेलवे और अन्य सुविधाओं का विकास भारतीय जनता के लिए नहीं, बल्कि ब्रिटिश व्यापार और शोषण के लिए किया गया।
2. राजनीतिक शोषण
(क) भारतीय शासन का समाप्ति
- 1857 के विद्रोह के बाद भारत का शासन ब्रिटिश क्राउन के अधीन आ गया।
- भारतीय राजाओं और रियासतों की स्वतंत्रता समाप्त कर उन्हें अंग्रेजों के अधीन कर दिया गया।
(ख) प्रशासनिक भेदभाव
- भारतीयों को प्रशासन में उच्च पदों से वंचित रखा गया।
- लॉर्ड लिटन और कर्जन जैसे वायसरायों ने भारतीयों के प्रति तिरस्कारपूर्ण नीतियाँ अपनाईं।
(ग) सामाजिक सुधारों का दिखावटी प्रयास
- ब्रिटिश शासन ने खुद को "सभ्य बनाने वाली शक्ति" (Civilizing Mission) के रूप में प्रस्तुत किया, लेकिन उनकी प्राथमिकता शोषण ही थी।
3. सामाजिक और सांस्कृतिक शोषण
(क) पश्चिमी संस्कृति का वर्चस्व
- भारतीय समाज और संस्कृति को "पिछड़ा" और "असभ्य" बताकर नीचा दिखाया गया।
- शिक्षा और प्रशासन में अंग्रेजी को प्रमुखता देकर भारतीय भाषाओं और सांस्कृतिक धरोहरों को कमजोर किया गया।
(ख) सामाजिक विभाजन
- "फूट डालो और राज करो" की नीति ने भारतीय समाज में धार्मिक, जातीय और क्षेत्रीय विभाजन को बढ़ावा दिया। 1881 की जनगणना में जाति, धर्म, भाषा, और अन्य सामाजिक समूहों की पहचान को दर्ज कर विभेद के लिए वर्गीकृत करने का पहला औपचारिक प्रयास किया गया।
- सांप्रदायिक दंगों को उकसाकर और अलगाववादी राजनीति को समर्थन देकर सामाजिक एकता को कमजोर किया गया।
(ग) भारतीय परंपराओं का दमन
- भारतीय कला, शिल्प और वास्तुकला की अवहेलना कर उन्हें पश्चिमी शैली में बदलने का प्रयास किया गया।
- धार्मिक स्वतंत्रता पर भी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से हमले किए गए।
4. प्राकृतिक संसाधनों का शोषण
(क) खनिज और कच्चे माल का दोहन
- भारत के खनिज संसाधनों का भारी मात्रा में ब्रिटिश उद्योगों के लिए दोहन किया गया।
- कृषि उत्पादों को ब्रिटेन के उद्योगों के लिए कच्चे माल के रूप में निर्यात किया गया।
(ख) वनों और जल संसाधनों पर कब्जा
- ब्रिटिश सरकार ने वनों और जल संसाधनों को नियंत्रित किया, जिससे आदिवासियों और ग्रामीणों की आजीविका प्रभावित हुई।
5. श्रम और मानव संसाधन का शोषण
(क) बंधुआ मजदूरी और कड़ी श्रम शर्तें
- चाय बागानों और अन्य औपनिवेशिक परियोजनाओं में भारतीय मजदूरों का शोषण किया गया।
- उन्हें कम वेतन और अत्यंत खराब कार्य स्थितियों में काम करने के लिए मजबूर किया गया।
(ख) मजदूरों का पलायन
- भारतीय मजदूरों को अनुबंध के तहत विदेशों में ले जाकर कठिन परिस्थितियों में काम कराया गया। समुद्र पारयिता एवं इंडेंचर पद्धति के माध्यम से शोषण|
6. प्रेस और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला
- वर्नाक्युलर प्रेस एक्ट (1878) के माध्यम से भारतीय भाषाओं में प्रकाशित होने वाले समाचार पत्रों पर सेंसरशिप लागू की गई।
- ब्रिटिश शासन की आलोचना करने वाले लेखकों और संपादकों को दंडित किया गया।
निष्कर्ष
ब्रिटिश शोषण ने भारतीय समाज के सभी पहलुओं को प्रभावित किया। आर्थिक शोषण ने गरीबी और असमानता को बढ़ावा दिया, सामाजिक और सांस्कृतिक दमन ने भारतीय आत्मसम्मान को ठेस पहुँचाई, और राजनीतिक दमन ने स्वतंत्रता और समानता की अवधारणाओं को कमजोर किया। इन शोषणकारी नीतियों ने भारतीय जनता में ब्रिटिश शासन के खिलाफ आक्रोश पैदा किया और भारतीय राष्ट्रवाद के उदय के लिए जमीन तैयार की।
19वीं सदी के ब्रिटिशकालीन भारत में समुद्र पारयिता पारंगत/इंडेंचर पद्धति
19वीं सदी में ब्रिटिश साम्राज्य ने अपने उपनिवेशों के विस्तार और आर्थिक उद्देश्यों के लिए भारतीयों को समुद्र पार भेजने की प्रक्रिया को व्यवस्थित किया। इसे औपनिवेशिक प्रशासन और वैश्विक श्रम बाजार के विकास से जोड़ा जा सकता है। भारत से श्रमिकों को मुख्यतः गन्ने के खेतों, चाय बागानों, और अन्य कृषि गतिविधियों के लिए ब्रिटिश उपनिवेशों में भेजा गया। इसे इंडेंचर पद्धति (Indenture System) कहा गया, जो एक प्रकार की अनुबंधित श्रम प्रणाली थी।
समुद्र पार जाने के कारण
1. आर्थिक कारण
- बढ़ती गरीबी: स्थायी बंदोबस्त और ब्रिटिश कर व्यवस्था ने किसानों को अत्यधिक करों के बोझ तले दबा दिया।
- भुखमरी और अकाल: 19वीं सदी में बिहार और बंगाल जैसे क्षेत्रों में बार-बार आए अकालों ने लोगों को रोजगार के लिए बाहर जाने पर मजबूर किया।
- रोजगार का लालच: ब्रिटिश एजेंटों ने विदेश में बेहतर रोजगार और वेतन के वादे किए, जो भारतीयों को आकर्षित करता था।
2. औपनिवेशिक नीतियाँ
- ब्रिटिश उपनिवेशों में श्रमिकों की भारी कमी थी।
- चीनी बागानों और अन्य कृषि कार्यों के लिए भारतीय श्रमिकों को दक्षिण अफ्रीका, फिजी, गुयाना, और मॉरीशस जैसे स्थानों पर भेजा गया।
- ब्रिटिश प्रशासन ने इस प्रक्रिया को कानूनी और संस्थागत स्वरूप दिया।
3. सामाजिक कारण
- भारत में जातिगत भेदभाव और सामाजिक असमानता ने लोगों को विदेश जाकर नई संभावनाओं की तलाश करने के लिए प्रेरित किया।
- समाज में निम्न जातियों और वर्गों के लोगों ने विदेश में सम्मानजनक रोजगार के अवसरों की आशा में समुद्र पार यात्रा की।
4. प्राकृतिक आपदाएँ और कुप्रबंधन
- 19वीं सदी में बिहार, बंगाल, और उत्तर प्रदेश जैसे क्षेत्रों में बार-बार आए अकाल और बाढ़ ने किसानों की आजीविका को समाप्त कर दिया।
- इसने ग्रामीण श्रमिकों को विदेश जाने पर मजबूर किया।
5. धार्मिक और सांस्कृतिक बदलाव
- प्राचीन समय में समुद्र पार यात्रा को "असंगत" या "धार्मिक निषेध" माना जाता था।
- 19वीं सदी तक यह विचार धीरे-धीरे बदल गया, विशेष रूप से निम्न वर्गों और श्रमिक समुदायों में।
इंडेंचर पद्धति: बिहार के विशेष संदर्भ में
1. इंडेंचर पद्धति का स्वरूप
- इंडेंचर प्रणाली के तहत श्रमिकों से एक अनुबंध कराया जाता था, जिसमें उन्हें एक निश्चित अवधि (आमतौर पर 5 वर्षों) के लिए काम करना होता था।
- इन श्रमिकों को बहुत कम मजदूरी पर काम करना पड़ता था और उनके साथ दुर्व्यवहार आम बात थी।
- यह प्रणाली "नया गुलामी" या "दासता का आधुनिक रूप" मानी जाती है।
2. बिहार से श्रमिकों की आपूर्ति
- बिहार, विशेष रूप से भोजपुर, गया, और सारण जिलों से बड़ी संख्या में श्रमिक मॉरीशस, फिजी, गुयाना, और अन्य देशों में भेजे गए।
- बिहार के श्रमिक कड़ी मेहनत करने के लिए जाने जाते थे, और औपनिवेशिक सरकार ने इनकी भर्ती को प्राथमिकता दी।
3. भर्तीकर्ता (Recruiters) और धोखाधड़ी
- श्रमिकों को आकर्षित करने के लिए एजेंट (भर्तीकर्ता) गांवों में जाते और बेहतर जीवन का झूठा वादा करते।
- कई बार श्रमिकों को उनकी मर्जी के खिलाफ या धोखे से जहाज पर चढ़ा दिया जाता था।
4. समुद्री यात्रा की कठिनाइयाँ
- जहाजों में श्रमिकों को बेहद खराब परिस्थितियों में यात्रा करनी पड़ती थी।
- लंबी समुद्री यात्रा के दौरान बीमारी और मृत्यु सामान्य थीं।
5. औपनिवेशिक क्षेत्रों में जीवन
- अनुबंधित श्रमिकों को गन्ने के खेतों और अन्य कृषि कार्यों में लगाया गया।
- इन श्रमिकों के साथ भेदभाव और दुर्व्यवहार होता था।
- अनुबंध की समाप्ति के बाद भी, अधिकांश श्रमिक अपने मूल देश लौटने में असमर्थ रहे।
बिहार के समाज पर प्रभाव
1. ग्रामीण समाज में बदलाव
- बिहार के ग्रामीण समाज में श्रमिक वर्गों के पारिवारिक ढांचे पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा।
- बड़ी संख्या में पुरुषों के विदेश जाने से महिलाओं पर पारिवारिक जिम्मेदारियाँ बढ़ीं।
2. आर्थिक प्रभाव
- कुछ श्रमिकों ने अनुबंध की समाप्ति के बाद धन अर्जित कर बिहार लौटकर भूमि खरीदी।
- हालांकि, अधिकांश श्रमिक गरीबी के चक्र से बाहर नहीं निकल सके।
3. सांस्कृतिक प्रभाव
- बिहार से बाहर गए श्रमिकों ने विदेशी भूमि पर अपनी भाषा, धर्म, और परंपराओं को बनाए रखा।
- इससे मॉरीशस, फिजी, और गुयाना जैसे देशों में भोजपुरी भाषा और संस्कृति का प्रचार हुआ।
4. मनोवैज्ञानिक और सामाजिक प्रभाव
- विदेश में कठिनाइयों और अलगाव ने श्रमिकों को मानसिक और सामाजिक रूप से प्रभावित किया।
- वापस लौटने वाले श्रमिकों को अक्सर समाज में उपेक्षा और अपमान का सामना करना पड़ता था।
इंडेंचर पद्धति की आलोचना
- इंडेंचर प्रणाली ने भारतीय श्रमिकों के शोषण को कानूनी स्वरूप दिया।
- इस प्रणाली ने भारतीय श्रमिकों को विदेशों में "दूसरी श्रेणी के नागरिक" बना दिया।
- उनके श्रम का उपयोग ब्रिटिश उपनिवेशों की अर्थव्यवस्था को समृद्ध करने के लिए किया गया, जबकि उन्हें बदले में बहुत कम लाभ मिला।
निष्कर्ष
19वीं सदी में समुद्र पार यात्रा और इंडेंचर प्रणाली ने बिहार और अन्य क्षेत्रों के श्रमिकों की आर्थिक और सामाजिक परिस्थितियों पर गहरा प्रभाव डाला। यह प्रणाली ब्रिटिश उपनिवेशों के लिए श्रम आपूर्ति का साधन थी, लेकिन भारतीय श्रमिकों के लिए यह एक शोषणकारी अनुभव साबित हुई। बिहार के श्रमिकों ने विदेशों में अपनी मेहनत और जीवटता से अपनी पहचान बनाई, लेकिन इस प्रक्रिया ने उनकी मूल सामाजिक संरचना को तोड़ने का काम भी किया। इंडेंचर प्रणाली ने भारतीय राष्ट्रवाद और श्रमिक आंदोलनों को एक नई दिशा देने का भी काम किया, जिसने आगे चलकर औपनिवेशिक शासन के खिलाफ व्यापक विरोध का आधार तैयार किया।
1881 की जनगणना का जाति और धर्म से जुड़ी पहचान पर प्रभाव
1881 में ब्रिटिश भारत में पहली बार नियमित जनगणना का आयोजन किया गया। यह जनगणना जाति, धर्म, भाषा, और अन्य सामाजिक समूहों की पहचान को दर्ज करने और वर्गीकृत करने का पहला औपचारिक प्रयास था। इस जनगणना का भारतीय समाज पर गहरा प्रभाव पड़ा, विशेष रूप से जाति और धर्म से जुड़ी पहचान के संदर्भ में।
प्रमुख प्रभाव
1. जाति व्यवस्था का संस्थानीकरण
- ब्रिटिश अधिकारियों ने भारतीय समाज को "वर्गीकृत" करने के लिए जातियों की सूची बनाई।
- जातियों को क्रमबद्ध (hierarchical) करने का प्रयास किया गया, जिससे जातिगत भेदभाव और कठोर हो गया।
- जातिगत पहचान को औपचारिक दर्जा मिलने से सामाजिक गतिशीलता बाधित हुई।
2. धर्म के आधार पर विभाजन
- धर्म के आधार पर जनसंख्या के आंकड़े इकट्ठा किए गए, जिसने हिंदू और मुस्लिम समुदायों के बीच विभाजन को बढ़ावा दिया।
- इसने औपनिवेशिक शासन के "फूट डालो और राज करो" नीति को सशक्त किया।
3. सांख्यिकीय पहचान और राजनीतिकरण
- जनगणना ने समुदायों को उनकी जनसंख्या संख्या के आधार पर राजनीतिक ताकत का एहसास कराया।
- बड़े धर्म और जातियों ने अपने हितों के लिए संगठित होना शुरू किया।
- धार्मिक और जातिगत आधार पर सामाजिक आंदोलनों को बल मिला।
4. सामाजिक और सांस्कृतिक प्रभाव
- जिन जातियों को निम्न स्थान दिया गया, उन्होंने अपने सामाजिक स्तर को सुधारने के लिए संगठित प्रयास शुरू किए।
- जाति और धर्म आधारित समूहों ने अपनी सांस्कृतिक पहचान को पुनः परिभाषित करने का प्रयास किया।
निष्कर्ष
1881 की जनगणना ने भारतीय समाज में जाति और धर्म की पहचान को औपचारिक और सांख्यिकीय रूप में मजबूत किया। हालांकि यह जनगणना प्रशासनिक जरूरतों के लिए की गई थी, लेकिन इसके दीर्घकालिक प्रभाव भारतीय समाज में सामाजिक ध्रुवीकरण और सामुदायिक राजनीतिकरण के रूप में देखे गए। यह औपनिवेशिक शासन की एक रणनीति बन गई, जिसने सामाजिक एकता को कमजोर किया।
19 वीं सदी के उत्तरार्ध से भारतीय राष्ट्रवाद का विकास : आलोचनात्मक समीक्षा
19वीं सदी के उत्तरार्ध से भारतीय राष्ट्रवाद के विकास की प्रक्रिया जटिल और बहुआयामी थी। यह समय भारतीय समाज में आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक जागरण का युग था। इस काल में भारतीय राष्ट्रवाद का विकास विभिन्न घटनाओं, आंदोलनों और विचारधाराओं से प्रभावित था। इसकी आलोचनात्मक समीक्षा निम्नलिखित बिंदुओं में की जा सकती है:
1. भारतीय राष्ट्रवाद के उदय के कारण
(क) आर्थिक शोषण और दमन:
- ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के तहत भारतीय किसानों, श्रमिकों और व्यापारियों का आर्थिक शोषण हुआ। भूमि कर और औद्योगिक नीति ने भारतीय अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुँचाया।
- दादाभाई नौरोजी जैसे नेताओं ने "भारत से धन निकासी" (Drain of Wealth) की नीति को उजागर किया।
(ख) पश्चिमी शिक्षा और जागरूकता:
- ब्रिटिश शिक्षा प्रणाली ने भारतीयों में आधुनिक विचारधारा का प्रसार किया। इसने स्वतंत्रता, समानता और राष्ट्रीयता के विचारों को जन्म दिया।
- बुद्धिजीवी वर्ग ने अपने अधिकारों और स्वतंत्रता के प्रति जागरूकता विकसित की।
(ग) सामाजिक और सांस्कृतिक जागृति:
- राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर और स्वामी विवेकानंद जैसे सुधारकों ने सामाजिक कुरीतियों को समाप्त करने और भारतीय गौरव को पुनर्स्थापित करने के प्रयास किए।
- भारतीय संस्कृति और सभ्यता की महानता के विचार ने राष्ट्रवाद को प्रेरित किया।
(घ) प्रेस और संगठनों की भूमिका:
- भारतीय भाषाओं में अखबारों और पत्रिकाओं के माध्यम से राष्ट्रीय चेतना का प्रचार हुआ।
- 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना ने एक राजनीतिक मंच प्रदान किया।
2. भारतीय राष्ट्रवाद के स्वरूप
(क) प्रारंभिक चरण (1885-1905):
- कांग्रेस का उदारवादी चरण सुधारवादी था।
- नरमपंथी नेताओं जैसे दादाभाई नौरोजी, सुरेंद्रनाथ बनर्जी और गोपालकृष्ण गोखले ने ब्रिटिश शासन से संवैधानिक सुधारों और स्वराज की मांग की।
- आलोचना: यह चरण ब्रिटिश सरकार से "याचना" तक सीमित रहा, और जनसाधारण से इसका जुड़ाव कमजोर था।
(ख) गरमपंथी चरण (1905-1919):
- बंगाल विभाजन (1905) के बाद राष्ट्रवादी आंदोलन अधिक उग्र हुआ।
- बाल गंगाधर तिलक, बिपिन चंद्र पाल और लाला लाजपत राय ने स्वदेशी आंदोलन, बहिष्कार और स्वराज की वकालत की।
- आलोचना: गरमपंथी आंदोलन जनआकांक्षाओं को जोड़ने में सफल रहा, लेकिन यह स्थानीय स्तर पर सीमित था और इसे ग्रामीण भारत में पर्याप्त समर्थन नहीं मिला।
धार्मिक और सांप्रदायिक चुनौतियाँ:
- राष्ट्रवाद ने शुरुआत में सामुदायिक एकता पर जोर दिया, लेकिन धीरे-धीरे यह धार्मिक और सांप्रदायिक विभाजन का शिकार हो गया।
- 1906 में मुस्लिम लीग की स्थापना ने अलगाववादी राजनीति को बल दिया।
- आलोचना: राष्ट्रवाद का यह पक्ष धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान के सवालों पर एक व्यापक दृष्टिकोण अपनाने में असफल रहा।
(ग) जनआंदोलन का चरण (1919-1947 ):
- 1919-1947 का चरण भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का निर्णायक समय था।
- इन आंदोलनों ने भारतीय जनता को जागरूक और संगठित किया।
- यह चरण भारतीय इतिहास में संघर्ष, बलिदान और राष्ट्रीय एकता का प्रतीक है।
- आलोचना : हालांकि, आंदोलनों की असंगति, सांप्रदायिक विभाजन, और वर्गीय समस्याओं के समाधान की कमी इसकी सीमाएँ थीं। फिर भी, इन आंदोलनों ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद की जड़ें कमजोर कर दीं और भारत को स्वतंत्रता की ओर अग्रसर किया।
प्रारंभिक चरण (1885-1905)के राष्ट्रवाद के विकास में सीमाएँ और आलोचना
(क) जनता से सीमित जुड़ाव:
- प्रारंभिक राष्ट्रवादी आंदोलन मुख्य रूप से शहरी मध्यम वर्ग और बुद्धिजीवी वर्ग तक सीमित था।
- ग्रामीण भारत, जो जनसंख्या का बड़ा हिस्सा था, इससे अछूता रहा।
(ख) महिलाओं और श्रमिकों की भागीदारी:
- राष्ट्रवादी आंदोलन में महिलाओं और श्रमिक वर्ग की भागीदारी सीमित रही।
- महिलाओं ने स्वदेशी और अन्य आंदोलनों में योगदान दिया, लेकिन उन्हें नेतृत्व की भूमिकाओं से वंचित रखा गया।
(ग) ब्रिटिश दमन और विभाजन की नीति:
- "फूट डालो और राज करो" की नीति ने भारतीय समाज को विभाजित किया।
- बंगाल विभाजन और सांप्रदायिक संगठनों को समर्थन ने राष्ट्रवादी आंदोलन को कमजोर किया।
(घ) नेतृत्व की कमजोरियाँ:
- प्रारंभिक नेतृत्व ने बड़े पैमाने पर जनांदोलन का नेतृत्व करने की जगह सुधारों और याचिकाओं पर जोर दिया।
- आंदोलन के विभिन्न गुटों (नरमपंथी-गरमपंथी) के बीच समन्वय की कमी दिखी।
4. सकारात्मक योगदान
- भारतीय राष्ट्रवाद ने एक राष्ट्रीय पहचान और चेतना को स्थापित किया।
- औपनिवेशिक शासन के खिलाफ विरोध की नींव रखी गई।
- स्वदेशी आंदोलन और प्रेस ने भारतीयों को संगठित होने और आत्मनिर्भरता की ओर प्रेरित किया।
- राजनीतिक संगठन और जागरूकता के माध्यम से स्वतंत्रता संग्राम की दिशा सुनिश्चित की गई।
निष्कर्ष
19वीं सदी के उत्तरार्ध में भारतीय राष्ट्रवाद का विकास एक महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक प्रक्रिया थी। यह आंदोलन औपनिवेशिक शोषण के खिलाफ भारतीयों की प्रतिक्रिया थी, लेकिन इसे कई सीमाओं और चुनौतियों का सामना करना पड़ा। इसकी सबसे बड़ी उपलब्धि यह रही कि इसने स्वतंत्रता संग्राम की नींव रखी और भारतीयों में आत्मसम्मान और राष्ट्रीयता का बोध कराया। हालांकि, इसकी आलोचना भी उचित है कि यह आंदोलन शुरुआती दौर में व्यापक जनसमूह तक नहीं पहुँच सका और सांप्रदायिक विभाजन से पूरी तरह मुक्त नहीं रह पाया।
गरमपंथी /कट्टरपंथी राष्ट्रवाद (1905-1919) के विकास की आलोचनात्मक समीक्षा
कट्टरपंथी राष्ट्रवाद (Extremist Nationalism) 20वीं सदी की शुरुआत में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक महत्वपूर्ण चरण था। यह 19वीं सदी के उत्तरार्ध में नरमपंथी (Moderate) राष्ट्रवाद की याचना और सुधारवादी दृष्टिकोण से असंतोष का परिणाम था। कट्टरपंथी राष्ट्रवाद ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ आक्रामक और उग्र दृष्टिकोण अपनाया। इस चरण को बाल गंगाधर तिलक, बिपिन चंद्र पाल और लाला लाजपत राय (लाल-बाल-पाल) जैसे नेताओं ने दिशा दी। हालांकि इसने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक नई ऊर्जा दी, लेकिन इसकी आलोचना भी की गई।
कट्टरपंथी राष्ट्रवाद का विकास
- नरमपंथी दृष्टिकोण से असंतोष
- नरमपंथियों का ब्रिटिश सरकार से सुधारों की याचना पर आधारित दृष्टिकोण असफल साबित हो रहा था।
- 1905 में बंगाल विभाजन ने ब्रिटिश सरकार की "फूट डालो और राज करो" नीति को उजागर किया, जिससे उग्र नेताओं का उदय हुआ।
- स्वदेशी और बहिष्कार आंदोलन
- कट्टरपंथियों ने विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार और स्वदेशी वस्तुओं के उपयोग का आह्वान किया।
- इसने भारतीय अर्थव्यवस्था को आत्मनिर्भर बनाने और ब्रिटिश व्यापार को कमजोर करने का प्रयास किया।
- संपूर्ण स्वराज्य की मांग
- कट्टरपंथियों ने ब्रिटिश शासन से पूर्ण स्वतंत्रता (Complete Independence) की मांग की, जो नरमपंथियों के सुधारवादी दृष्टिकोण से अलग थी।
- बाल गंगाधर तिलक का प्रसिद्ध नारा "स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है, और मैं इसे लेकर रहूँगा" इसी विचारधारा का प्रतीक है।
कट्टरपंथी राष्ट्रवाद की उपलब्धियाँ
- राष्ट्रवादी भावना को उभारना
- कट्टरपंथियों ने भारतीय जनता, विशेषकर युवाओं और मध्यम वर्ग में स्वतंत्रता के प्रति उत्साह और राष्ट्रीय गर्व को प्रेरित किया।
- जन आंदोलनों का विस्तार
- इस दौर के आंदोलनों, जैसे स्वदेशी आंदोलन और ब्रिटिश वस्त्रों के बहिष्कार, ने जनता को राष्ट्रवादी आंदोलन से जोड़ने का प्रयास किया।
- ब्रिटिश शासन के प्रति प्रतिरोध
- कट्टरपंथियों ने ब्रिटिश शासन के अन्यायपूर्ण कानूनों और नीतियों के खिलाफ प्रतिरोध को बढ़ावा दिया।
- हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रयास
- शुरुआती चरण में कट्टरपंथियों ने सभी समुदायों को जोड़ने की कोशिश की।
कट्टरपंथी राष्ट्रवाद की सीमाएँ और आलोचना
1. अति-भावनात्मकता और सामरिक कमजोरियाँ
- कट्टरपंथियों ने अधिक भावनात्मक अपील की बजाय ठोस और संगठित रणनीति पर कम ध्यान दिया।
- जनता को जोड़ने के प्रयास प्रभावी थे, लेकिन यह ग्रामीण और पिछड़े वर्गों को आंदोलन में पूरी तरह शामिल करने में असफल रहे।
2. सांप्रदायिक विभाजन
- कट्टरपंथी राष्ट्रवाद ने भारतीय संस्कृति और धर्म (विशेषकर हिंदू प्रतीकों) का व्यापक उपयोग किया।
- "गणपति उत्सव" और "शिवाजी उत्सव" जैसे आयोजनों ने हिंदू जनता को संगठित किया, लेकिन यह मुस्लिम समुदाय को अलग-थलग करने का कारण बना।
- 1906 में मुस्लिम लीग की स्थापना के पीछे यह एक प्रमुख कारक था।
3. नेतृत्व में समन्वय की कमी
- गरमपंथी और नरमपंथी गुटों के बीच वैचारिक मतभेद 1907 के सूरत विभाजन में स्पष्ट हो गए।
- इस विभाजन ने राष्ट्रीय आंदोलन को कमजोर किया और ब्रिटिश सरकार को फायदा पहुँचाया।
4. ब्रिटिश दमन के आगे असफलता
- 1905-1911 के बीच ब्रिटिश सरकार ने दमनकारी नीतियाँ अपनाईं। तिलक को निर्वासित किया गया और आंदोलनकारियों पर कड़े कानून लगाए गए।
- नेतृत्व के प्रमुख व्यक्तियों की गिरफ्तारी और आंदोलन की बिखराव ने इसे कमजोर किया।
5. सांस्कृतिक और क्षेत्रीय सीमाएँ
- कट्टरपंथी राष्ट्रवाद शहरी और शिक्षित वर्ग तक अधिक सीमित था।
- यह ग्रामीण भारत और श्रमिक वर्ग को संगठित करने में असफल रहा।
6. संपूर्ण स्वराज्य के साधनों की अस्पष्टता
- कट्टरपंथी नेताओं ने स्वतंत्रता की मांग की, लेकिन इसे प्राप्त करने के लिए ठोस रणनीति का अभाव था।
- आंदोलन भावनात्मक और प्रतीकात्मक बनकर रह गया।
निष्कर्ष
कट्टरपंथी राष्ट्रवाद ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को ऊर्जा और गति प्रदान की। इसने भारतीय जनता के भीतर आत्मसम्मान और स्वतंत्रता की भावना को प्रोत्साहित किया। हालांकि, इसकी कमजोरियों और रणनीतिक असफलताओं ने इसे सीमित कर दिया। यह आंदोलन जनसाधारण को पूरी तरह से संगठित करने और व्यापक सांप्रदायिक एकता स्थापित करने में विफल रहा। इसके बावजूद, कट्टरपंथी राष्ट्रवाद ने स्वतंत्रता संग्राम के लिए एक ठोस नींव रखी और इसे महात्मा गांधी के नेतृत्व में आगे बढ़ने का मार्ग प्रशस्त किया।
जनआंदोलन का चरण (1919-1947): विशेषताएँ एवं आलोचना
1919 से 1947 का दौर भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का सबसे महत्वपूर्ण चरण था। इस अवधि में महात्मा गांधी के नेतृत्व में बड़े पैमाने पर जन आंदोलन शुरू हुए, जिसने भारतीय जनता को स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय रूप से भाग लेने के लिए प्रेरित किया। इस चरण को असहयोग आंदोलन, सविनय अवज्ञा आंदोलन, और भारत छोड़ो आंदोलन जैसे व्यापक जनांदोलनों के लिए जाना जाता है। हालांकि, इन आंदोलनों की कुछ सीमाएँ और आलोचनाएँ भी थीं।
जनआंदोलन की मुख्य विशेषताएँ
1. महात्मा गांधी का नेतृत्व
- महात्मा गांधी ने अहिंसा और सत्याग्रह को स्वतंत्रता संग्राम का प्रमुख माध्यम बनाया।
- गांधीजी ने आंदोलनों को जनता के करीब लाने का प्रयास किया। उन्होंने स्वदेशी, खादी और ग्रामोद्योग को बढ़ावा दिया।
2. आंदोलनों का जनाधार
- स्वतंत्रता संग्राम अब केवल शिक्षित वर्गों तक सीमित नहीं रहा।
- किसानों, मजदूरों, महिलाओं और युवाओं सहित समाज के हर वर्ग ने आंदोलनों में भाग लिया।
- यह चरण राष्ट्रीय संघर्ष के व्यापक विस्तार और गहराई का प्रतीक था।
3. असहयोग आंदोलन (1920-1922)
- ब्रिटिश संस्थानों, अदालतों, सरकारी सेवाओं और विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार किया गया।
- आंदोलन ने भारतीय जनता में ब्रिटिश शासन के प्रति असहयोग की भावना को बढ़ाया।
4. सविनय अवज्ञा आंदोलन (1930-1934)
- नमक सत्याग्रह (1930) के माध्यम से अंग्रेजी कानूनों को चुनौती दी गई।
- विदेशी वस्त्रों का बहिष्कार, करों का भुगतान न करना, और अन्य ब्रिटिश नीतियों का विरोध इस आंदोलन के प्रमुख हिस्से थे।
5. भारत छोड़ो आंदोलन (1942)
- "करो या मरो" (Do or Die) के नारे के साथ भारत से ब्रिटिश शासन को पूरी तरह समाप्त करने की मांग की गई।
- यह आंदोलन अधिक व्यापक, तीव्र और जुझारू था।
6. धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक सुधार का प्रयास
- राष्ट्रीय आंदोलनों में हिंदू-मुस्लिम एकता का आह्वान किया गया।
- अस्पृश्यता उन्मूलन और महिला सशक्तिकरण जैसे सामाजिक मुद्दे भी स्वतंत्रता संग्राम का हिस्सा बने।
7. आंदोलनों का अंतरराष्ट्रीय प्रभाव
- भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन ने वैश्विक स्तर पर उपनिवेशवाद विरोधी आंदोलनों को प्रेरित किया।
- द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान भारत की स्थिति और भारतीय सैनिकों की भूमिका ने ब्रिटिश शासन की नींव को कमजोर किया।
आंदोलनों की आलोचना और सीमाएँ
1. आंदोलनों में रुकावट और असंगति
- आंदोलनों को बार-बार स्थगित किया गया। जैसे, असहयोग आंदोलन को 1922 में चौरी-चौरा की घटना के बाद अचानक वापस ले लिया गया।
- इससे जनता में भ्रम और निराशा उत्पन्न हुई।
2. हिंदू-मुस्लिम एकता का टूटना
- 1920 के दशक में शुरू की गई हिंदू-मुस्लिम एकता जल्द ही सांप्रदायिक राजनीति और ब्रिटिश "फूट डालो और राज करो" नीति के कारण कमजोर हो गई।
- 1940 में मुस्लिम लीग द्वारा पाकिस्तान की मांग ने स्वतंत्रता संग्राम को सांप्रदायिक विभाजन की ओर धकेल दिया।
3. ग्रामीण जनता की सीमित भागीदारी
- यद्यपि आंदोलनों ने ग्रामीण जनता को आकर्षित किया, लेकिन उनका नेतृत्व और निर्णय मुख्य रूप से शहरी मध्यम वर्ग के हाथ में रहा।
- ग्रामिण किसान और मजदूर अपने आर्थिक मुद्दों के समाधान से अधिक प्रेरित थे।
4. महात्मा गांधी की रणनीतियों की आलोचना
- गांधीजी की अहिंसा और सत्याग्रह की नीति को कुछ वर्गों, विशेषकर क्रांतिकारियों ने प्रभावी नहीं माना।
- भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद जैसे क्रांतिकारी नेताओं ने सशस्त्र संघर्ष को अधिक प्रभावी मानते हुए गांधी की नीतियों की आलोचना की।
5. सांप्रदायिक विभाजन और विभाजन की त्रासदी
- ब्रिटिश सरकार की सांप्रदायिक राजनीति ने 1947 में भारत के विभाजन की नींव रखी।
- स्वतंत्रता के साथ ही सांप्रदायिक दंगों और जनसंख्या के बड़े पैमाने पर पलायन ने भारत और पाकिस्तान दोनों को गंभीर नुकसान पहुँचाया।
6. शोषित वर्गों का अपर्याप्त प्रतिनिधित्व
- आंदोलन में दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों की समस्याओं को पर्याप्त प्राथमिकता नहीं दी गई।
7. ब्रिटिश सरकार की दमनकारी नीतियाँ
- आंदोलनों को कुचलने के लिए ब्रिटिश सरकार ने दमन का सहारा लिया। जैसे रॉलेट एक्ट (1919), जलियांवाला बाग हत्याकांड (1919), और भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान नेताओं की गिरफ्तारी।
- आंदोलन कई बार दमनकारी उपायों के कारण कमजोर हो गए।
निष्कर्ष
1919-1947 का चरण भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का निर्णायक समय था। इन आंदोलनों ने भारतीय जनता को जागरूक और संगठित किया। हालांकि, आंदोलनों की असंगति, सांप्रदायिक विभाजन, और वर्गीय समस्याओं के समाधान की कमी इसकी सीमाएँ थीं।
फिर भी, इन आंदोलनों ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद की जड़ें कमजोर कर दीं और भारत को स्वतंत्रता की ओर अग्रसर किया। यह चरण भारतीय इतिहास में संघर्ष, बलिदान और राष्ट्रीय एकता का प्रतीक है।
भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के उदय के कारक
भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का उदय 19वीं सदी के उत्तरार्ध में हुआ, जो एक सुदृढ़ और संगठित स्वतंत्रता संग्राम में परिणत हुआ। यह आंदोलन विभिन्न राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, और सांस्कृतिक कारकों के प्रभाव से विकसित हुआ। ये कारक न केवल भारतीय जनता को स्वतंत्रता के लिए प्रेरित करते थे, बल्कि उन्होंने इस आंदोलन को एक दिशा और उद्देश्य भी प्रदान किया।
1. राजनीतिक कारक
(i) ब्रिटिश साम्राज्य की दमनकारी नीतियाँ
- ब्रिटिश प्रशासन की दमनकारी नीतियों, जैसे उच्च कर, भूमि राजस्व प्रणाली, और जनता पर कठोर नियंत्रण, ने लोगों में असंतोष फैलाया।
- डिवाइड एंड रूल (फूट डालो और राज करो) की नीति ने सांप्रदायिक एकता को कमजोर किया और भारतीय समाज में अलगाव की भावना पैदा की।
(ii) 1857 का विद्रोह और उसके प्रभाव
- 1857 का विद्रोह ब्रिटिश शासन के खिलाफ पहला संगठित प्रयास था, जिसने भारतीय जनता को ब्रिटिश शासन के असली स्वरूप से परिचित कराया।
- हालांकि यह सफल नहीं हुआ, लेकिन इसने राष्ट्रीय आंदोलन के लिए एक नींव तैयार की।
(iii) कांग्रेस की स्थापना (1885)
- भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना ने एक संगठित राजनीतिक मंच प्रदान किया।
- शुरुआती दौर में कांग्रेस ने मांगों के माध्यम से राजनीतिक चेतना जागृत की और बाद में स्वतंत्रता की ओर देश को अग्रसर किया।
2. आर्थिक कारक
(i) औपनिवेशिक शोषण
- ब्रिटिश शासन ने भारत की अर्थव्यवस्था को अपने हित में बदला।
- भारतीय कुटीर उद्योगों का विनाश और ब्रिटिश औद्योगिक उत्पादों का आयात भारतीय समाज में बेरोजगारी और गरीबी का कारण बना।
(ii) कृषि संकट
- स्थायी बंदोबस्त और रैयतवाड़ी जैसे भूमि राजस्व सिस्टम ने किसानों की स्थिति को बदतर बना दिया।
- किसानों ने अत्यधिक कर और आर्थिक शोषण के खिलाफ आवाज उठाई।
(iii) आर्थिक असमानता
- भारतीय अर्थव्यवस्था का अधिकांश भाग ब्रिटिश साम्राज्य के लाभ के लिए काम करता था।
- भारतीयों के लिए नौकरियों और संसाधनों की कमी ने जनता में असंतोष उत्पन्न किया।
3. सामाजिक और सांस्कृतिक कारक
(i) पुनर्जागरण और सुधार आंदोलन
- राजा राममोहन राय, स्वामी विवेकानंद, और दयानंद सरस्वती जैसे नेताओं ने सामाजिक सुधार आंदोलनों का नेतृत्व किया।
- इन आंदोलनों ने सामाजिक कुरीतियों को दूर करने और आधुनिक विचारधारा को अपनाने का मार्ग प्रशस्त किया।
(ii) पश्चिमी शिक्षा का प्रभाव
- ब्रिटिश शासन के दौरान पश्चिमी शिक्षा के प्रसार ने भारतीय युवाओं को आधुनिक विचारधारा, लोकतंत्र, और स्वतंत्रता की अवधारणा से अवगत कराया।
- अंग्रेजी भाषा ने भारत के विभिन्न क्षेत्रों के लोगों को आपस में जोड़ने का कार्य किया।
(iii) सांस्कृतिक पुनर्जागरण
- भारत के गौरवशाली अतीत की पहचान ने सांस्कृतिक पुनर्जागरण को प्रेरित किया।
- साहित्य और कला के माध्यम से राष्ट्रीयता और स्वाभिमान का प्रचार हुआ।
4. अंतरराष्ट्रीय कारक
(i) विदेशी आंदोलनों से प्रेरणा
- अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम (1776) और फ्रांसीसी क्रांति (1789) ने भारतीय नेताओं को स्वतंत्रता और समानता के आदर्शों से प्रेरित किया।
- रूस और आयरलैंड जैसे देशों के स्वतंत्रता संघर्षों ने भारतीय आंदोलनकारियों को प्रेरणा दी।
(ii) द्वितीय विश्व युद्ध का प्रभाव
- द्वितीय विश्व युद्ध ने ब्रिटिश शासन की आर्थिक और प्रशासनिक शक्ति को कमजोर कर दिया।
- इसने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को तेज करने में सहायता की।
5. प्रेस और संचार के माध्यम
(i) प्रेस का प्रभाव
- भारतीय प्रेस ने स्वतंत्रता संग्राम के विचारों का प्रचार-प्रसार किया।
- अमृत बाजार पत्रिका, केसरी, और बंगाल गजट जैसे अखबारों ने जनता को जागरूक किया।
(ii) संचार के साधनों का विस्तार
- रेल और तार जैसी आधुनिक संचार व्यवस्थाओं ने विभिन्न क्षेत्रों के लोगों को आपस में जोड़ा।
- इससे आंदोलन को संगठित करना आसान हुआ।
भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन ने स्वतंत्रता संग्राम को कैसे दिशा दी?
(i) राष्ट्रीय चेतना का विकास
- भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन ने देश में राजनीतिक और सामाजिक चेतना का विकास किया।
- जनता ने पहली बार राष्ट्रीय स्तर पर स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करना शुरू किया।
(ii) एक संगठित नेतृत्व का उदय
- कांग्रेस और अन्य संगठनों के नेतृत्व ने आंदोलन को संगठित और प्रभावशाली बनाया।
- महात्मा गांधी, सुभाष चंद्र बोस, और बाल गंगाधर तिलक जैसे नेताओं ने विभिन्न विचारधाराओं के माध्यम से आंदोलन को दिशा दी।
(iii) सर्वधर्म समभाव और जनसहयोग
- आंदोलन ने सभी वर्गों और समुदायों को स्वतंत्रता के लिए एकजुट किया।
- इसने किसानों, मजदूरों, महिलाओं, और छात्रों को संगठित कर उनके योगदान को बढ़ाया।
(iv) अहिंसा और सत्याग्रह की अवधारणा
- गांधीजी के नेतृत्व में आंदोलन ने अहिंसा और सत्याग्रह को एक सशक्त हथियार बनाया।
- इसने आंदोलन को जन-आधारित और व्यापक बनाया।
(v) ब्रिटिश शासन की कमजोरियाँ उजागर करना
- आंदोलन ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद की कमजोरियों को उजागर किया।
- अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी ब्रिटिश शासन के प्रति असंतोष बढ़ा।
निष्कर्ष
भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के उदय के विभिन्न कारकों ने इसे केवल एक राजनीतिक आंदोलन तक सीमित नहीं रखा, बल्कि इसे सामाजिक, सांस्कृतिक, और आर्थिक संघर्ष का एक व्यापक रूप दिया। इन कारकों ने भारतीय जनता को स्वतंत्रता संग्राम के लिए प्रेरित किया और उसे एक संगठित और सशक्त दिशा प्रदान की। यह आंदोलन भारतीय इतिहास का सबसे बड़ा संघर्ष बनकर सामने आया और अंततः 15 अगस्त 1947 को भारत की स्वतंत्रता का मार्ग प्रशस्त किया।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के लिए उत्तरदायी कारक
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना (1885) भारतीय राष्ट्रवाद के विकास में एक महत्वपूर्ण घटना थी। इसके लिए कई सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और बौद्धिक कारक उत्तरदायी थे।
1. ब्रिटिश शासन के दमनकारी प्रभाव
- आर्थिक शोषण: ब्रिटिश औपनिवेशिक नीतियों ने भारतीय किसानों, कारीगरों और व्यापारियों को भारी नुकसान पहुँचाया।
- धन का निष्कासन (Drain of Wealth): दादाभाई नौरोजी ने ब्रिटिश शोषण के आर्थिक प्रभाव को उजागर किया।
- कृषि संकट और अकाल: कृषि संकट, उच्च कर और बार-बार पड़ने वाले अकालों ने जनता को प्रभावित किया।
2. ब्रिटिश नीतियों से असंतोष
- भेदभावपूर्ण शासन: ब्रिटिश शासकों ने भारतीयों को द्वितीय श्रेणी का नागरिक समझा। सरकारी नौकरियों और प्रशासन में भारतीयों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया।
- सामाजिक असमानता: अंग्रेजी शासकों ने भारतीय समाज में जातीय और सांप्रदायिक भेदभाव को बढ़ावा दिया।
- वर्नाक्युलर प्रेस एक्ट (1878) और आर्म्स एक्ट (1878) जैसे कानूनों ने भारतीयों की स्वतंत्रता को सीमित किया।
3. पश्चिमी शिक्षा और विचारधारा
- अंग्रेजों द्वारा लागू की गई पश्चिमी शिक्षा प्रणाली ने भारतीय बुद्धिजीवियों में स्वतंत्रता, समानता और लोकतंत्र जैसे आधुनिक विचारों को बढ़ावा दिया।
- इंग्लैंड और अन्य देशों में अध्ययन करने वाले भारतीयों ने ब्रिटिश लोकतंत्र और नागरिक स्वतंत्रता की अवधारणाओं से प्रेरणा ली।
4. पूर्ववर्ती संगठनों का योगदान
- 19वीं सदी में भारतीय बुद्धिजीवियों ने विभिन्न संगठनों की स्थापना की, जैसे इंडियन एसोसिएशन (सुरेंद्रनाथ बनर्जी, 1876), पूनम सार्वजनिक सभा और बॉम्बे प्रेसिडेंसी एसोसिएशन।
- इन संगठनों ने भारतीयों को एक मंच पर लाने की नींव रखी।
5. ब्रिटिश शासकों का समर्थन
- ब्रिटिश अधिकारी ए.ओ. ह्यूम ने कांग्रेस की स्थापना में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। वे भारतीयों के बीच बढ़ते असंतोष को संगठित रूप से शांतिपूर्ण दिशा में मोड़ना चाहते थे।
- लॉर्ड डफरिन ने कांग्रेस को एक "सुरक्षित वाल्व" (Safety Valve) के रूप में देखा, ताकि भारतीयों के आक्रोश को नियंत्रित किया जा सके।
6. राष्ट्रीय चेतना का उदय
- सामाजिक और धार्मिक सुधार आंदोलन: राजा राममोहन राय, स्वामी विवेकानंद और दयानंद सरस्वती जैसे सुधारकों ने भारतीय संस्कृति और राष्ट्रीयता को पुनर्जीवित किया।
- संचार और प्रेस: रेलवे, डाक व्यवस्था और प्रेस के विकास ने राष्ट्रीय चेतना फैलाने में सहायता की।
प्रारंभिक राष्ट्रवादियों के प्रति ब्रिटिश नीतियाँ
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रारंभिक नेता, जिन्हें नरमपंथी कहा जाता है, ने ब्रिटिश शासन के खिलाफ सुधारवादी और संवैधानिक दृष्टिकोण अपनाया। लेकिन ब्रिटिश सरकार ने उनकी याचिकाओं और माँगों को गंभीरता से नहीं लिया।
1. नरमपंथियों की माँगें
- संवैधानिक सुधार: भारतीयों को विधान परिषदों में अधिक प्रतिनिधित्व दिया जाए।
- आर्थिक राहत: करों में कमी और कृषि संकट से राहत।
- धन निष्कासन का विरोध: भारत से ब्रिटिश धन निकासी पर रोक।
- समान अवसर: सरकारी नौकरियों में भारतीयों को समान अवसर दिया जाए।
- स्वतंत्रता और प्रेस की आजादी: प्रेस पर लगे प्रतिबंध हटाए जाएँ।
2. ब्रिटिश सरकार की प्रतिक्रिया
- उपेक्षा और उपहास: ब्रिटिश सरकार ने कांग्रेस की माँगों को "फालतू की शिकायतें" कहकर खारिज कर दिया।
- सुधारों को अनदेखा करना: ब्रिटिश सरकार ने भारतीयों को विधान परिषदों और प्रशासन में पर्याप्त प्रतिनिधित्व देने से इनकार कर दिया।
- विभाजन और दमन: सरकार ने "फूट डालो और राज करो" की नीति अपनाई। हिंदू और मुस्लिम समुदायों के बीच विभाजन पैदा करने के प्रयास किए गए।
- विनम्र याचिकाओं का मजाक: ब्रिटिश नेताओं ने नरमपंथियों के संवैधानिक दृष्टिकोण का उपहास किया। लॉर्ड कर्जन ने कहा कि "भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस कुछ भी करने में सक्षम नहीं है।"
3. दमनकारी नीतियाँ
- ब्रिटिश सरकार ने प्रारंभिक राष्ट्रवादियों को कमजोर करने के लिए प्रेस पर सेंसरशिप लागू की।
- पुलिस और प्रशासनिक दमन के माध्यम से आंदोलनकारियों को डराने की कोशिश की गई।
निष्कर्ष
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना 19वीं सदी के उत्तरार्ध में बढ़ती राष्ट्रीय चेतना का परिणाम थी। प्रारंभिक राष्ट्रवादियों ने संवैधानिक और शांतिपूर्ण तरीकों से ब्रिटिश सरकार को सुधारों के लिए प्रेरित करने का प्रयास किया। लेकिन ब्रिटिश सरकार की उपेक्षात्मक और दमनकारी नीतियों ने इन प्रयासों को असफल बना दिया। यह असफलता बाद में कट्टरपंथी राष्ट्रवाद और जन आंदोलनों की नींव बनी।
कांग्रेस के शुरुआती दिन और बिहार
1885-1908 के बीच कांग्रेस को लेकर बिहार में काफी उत्साह हुआ करता था। कांग्रेस निकाय की बैठकों में बड़ी संख्या में प्रतिनिधि उपस्थित होते थे। कुछ वर्षों के बाद, बिहार में कांग्रेस के प्रति रुचि कम हो गई। लेकिन जल्द ही प्रांत के कुछ प्रबुद्ध और उदार नेताओं ने कांग्रेस को सक्रिय करने के लिए गंभीर प्रयास किए। 1908 में नवाब सरफराज हुसैन खान बहादुर की अध्यक्षता में हुई एक बैठक में बिहार प्रांतीय कांग्रेस कमेटी का गठन किया गया, जिसका मुख्यालय पटना में था और इसकी शाखाएँ जिलों में थीं।
बिहार प्रांतीय कांग्रेस कमेटी एक राजनीतिक सम्मेलन का आयोजित करती थी। बिहार प्रांतीय सम्मेलन का पहला सत्र 1908 में पटना में आयोजित किया गया जिसके अध्यक्ष सर अली इमाम थे। मौलाना मज़हरुल हक़ ने भी इसमें प्रमुख भूमिका निभाई। विदेशी सरकार अपने हितों के लिए, विशेष रूप से 1906 से, भारत में सांप्रदायिक दरार को तेज करने की कोशिश कर रही थी। इस समय सामान्य आदर्शों और आकांक्षाओं से प्रेरित होकर बिहार के मुसलमान और गैर-मुसलमान कंधे से कंधा मिलाकर काम करने का एक अनूठा मिशाल पेश किया।
बिहार के इतिहास में वर्ष 1912 दो कारणों से यादगार है। इस वर्ष स्थानीय लोगों की मांगों के आलोक में बिहार को एक अलग प्रांत बनाया गया। इसके साथ ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का 27वां (सत्ताईसवा) अधिवेशन भी माननीय आर.एन. मुधोलकर की अध्यक्षता में बांकीपुर (पटना) की ऐतिहासिक भूमि पर पहलीबार आयोजित किया गया। अध्यक्ष आर० एन० माधोलकर ने ह्यूम को काँग्रेस का पिता कहा। इसके स्वागत समिति के अध्यक्ष मौलाना मज़हरुल हक़ एवं सच्चिदानंद सिन्हा महासचिव थे। काँग्रेस की अखंडता में वृद्धि करने हेतु 1912 ई. में बाँकीपुर (बिहार) की सभा में डेलिगेट शुल्क घटाकर पाँच रुपए से एक रुपया किया गया। तब से बिहार भारतीय राष्ट्रवाद के विकास में सक्रिय भूमिका निभाने लगा। 1914 में बिहार के दो प्रख्यात नेता मौलाना मज़हरुल हक़ साहब और सच्चिदानंद सिन्हा को कांग्रेस द्वारा भूपेंद्र नाथ बसु, एम.ए. जिन्ना, एन.एम. समर्थ, बी.एन. शर्मा, और लाला लाजपत राय के साथ इंग्लैंड भेजा गया।
बंगाल के विभाजन और भारत के स्वतंत्रता संग्राम पर इसका प्रभाव
बंगाल का विभाजन 1905 में ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा किया गया था, और इसका भारतीय स्वतंत्रता संग्राम पर गहरा प्रभाव पड़ा। यह विभाजन औपनिवेशिक नीति का हिस्सा था, जिसका उद्देश्य भारतीय समाज को तोड़ना और विभाजित करना था। हालांकि, बंगाल के विभाजन ने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को एक नई दिशा में प्रेरित किया। इसके प्रभाव को निम्नलिखित बिंदुओं में समझा जा सकता है:
- विभाजन का उद्देश्य और प्रतिक्रिया: ब्रिटिश शासन ने बंगाल का विभाजन किया, ताकि हिन्दू और मुस्लिम समुदायों के बीच दरार पैदा की जा सके और इस तरह से भारतीयों की एकता को कमजोर किया जा सके। इसका उद्देश्य "divide and rule" नीति को बढ़ावा देना था। यह विभाजन हिंदू समाज में असंतोष और आक्रोश का कारण बना, क्योंकि बंगाल के विभाजन से हिन्दू बहुल क्षेत्रों को मुस्लिम बहुल क्षेत्रों से अलग कर दिया गया था।
- स्वदेशी आंदोलन का उदय: बंगाल के विभाजन ने भारतीयों को एकजुट होने का एक नया कारण दिया। इसके खिलाफ विरोधस्वरूप स्वदेशी आंदोलन शुरू हुआ, जिसमें भारतीय वस्त्रों का बहिष्कार, ब्रिटिश सामानों की निंदा और भारतीय उत्पादों को बढ़ावा देने की अपील की गई। बाल गंगाधर तिलक, अरविंद घोष और बिपिन चंद्र पाल जैसे नेताओं ने स्वदेशी आंदोलन को गति दी।
- हिन्दू-मुस्लिम एकता और विभाजन: इस विभाजन ने हिन्दू और मुस्लिम समुदायों के बीच एकता को प्रभावित किया, लेकिन इसने राष्ट्रीय आंदोलन को भी नया मोड़ दिया। हिन्दू-मुस्लिम एकता की भावना को पुनः प्रबल किया गया, और यह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के भीतर भी प्रकट हुआ। हालांकि, मुस्लिम लीग ने इसे अपने हितों के अनुसार देखा और अपने संगठन को मजबूत किया।
- आंदोलन का राष्ट्रीयकरण: बंगाल के विभाजन ने भारतभर में एक नया राष्ट्रीय आंदोलन खड़ा किया। पूरे देश में यह मुद्दा उठाया गया और विशेषकर बंगाल में लोगों ने इसे विरोध प्रदर्शन और आक्रोश के रूप में दिखाया। विभाजन के खिलाफ संघर्ष ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक नया तेवर दिया, और यह संघर्ष अब केवल एक राज्य तक सीमित नहीं रहा, बल्कि पूरे देश में फैल गया।
- संविधान में बदलाव की मांग: बंगाल के विभाजन के बाद भारतीयों ने यह समझा कि अगर ब्रिटिश शासन को चुनौती दी जाती है, तो उसे राजनीतिक और संविधानिक रूप से सही तरीके से किया जाना चाहिए। इस समय के दौरान कांग्रेस में कई ऐसे विचारधारा के लोग उभरे जिन्होंने ब्रिटिश शासन के खिलाफ और भारतीय स्वराज्य की ओर बढ़ने की बात की।
निष्कर्ष:
बंगाल का विभाजन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के लिए एक उत्प्रेरक बन गया। इसने भारतीयों को सामूहिक रूप से विरोध करने और अपनी एकता को बनाए रखने की प्रेरणा दी। हालांकि इसका उद्देश्य भारतीय समाज को बांटना था, लेकिन इसके परिणामस्वरूप भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में एक नया उत्साह और दिशा मिली।
होमरूल आंदोलन
होमरूल आंदोलन में बिहार की मत्वपूर्ण भूमिका देखी जाती है। 16 दिसंबर, 1916 को बांकीपुर में एक बैठक आयोजित हुई, जिसमें एक होम रूल लीग शुरू करने का निर्णय लिया गया। इसके अध्यक्ष मौलाना मज़हरुल हक़ ; उपाध्यक्ष सरफराज हुसैन खान और पूर्णेंदु नारायण सिन्हा; सचिव: चंद्रबंसी सहाय और बैजनाथ नारायण सिंह चुने गये। इसके बाद मौलाना मज़हरुल हक़ ने लीग के गठन की आवश्यकता पर बल देते हुए एक प्रेरक भाषण दिया। 17 फरवरी, 1918 को पटना में आयोजित एक अन्य बैठक में ग्राम अभियान आयोजित करने और सदस्यता एकत्र करने का निर्णय लिया गया। एनी बेसेंट 18 अप्रैल, 1918 को पटना आईं, और उन्हें 'आरती' के साथ विजयी जुलूस में स्टेशन से ले जाया गया। पूर्णेंदु नारायण सिन्हा के आवास के रास्ते में, अली मंजिल में आयोजित एक बैठक में, स्थानीय होमरूल नेताओं, हसन इमाम, पूर्णेंदु नारायण सिन्हा और सरफराज हुसैन खान ने नवीनतम घोषणापत्र पर हस्ताक्षर किए। यह सब पटना के आयुक्त के लिए बड़ी चिंता का कारण बना। श्रीमती बेसेंट ने राजनीतिक सुधारों के संबंध में स्थानीय स्वशासन के विचारों का पता लगाने के लिए 25 जुलाई, 1918 को फिर से पटना आयी और उन्होंने हसन इमाम और सच्चिदानंद सिन्हा से मुलाकात की।
क्रांतिकारी राष्ट्रवाद और बिहार
19वीं शताब्दी के अंतिम वर्षों में जब कांग्रेस स्वशासन की प्राप्ति के लिए उदारवादी साधनों का पालन कर रही थी, उस समय भारत में राष्ट्रवादियों के एक वर्ग ने क्रांतिकारी तरीकों का पालन किया। 1905 में रूस पर जापानियों की जीत ने एशिया के विभिन्न हिस्सों में मुक्ति की नई उम्मीदें जगाईं। लॉर्ड मिंटो ने जनवरी 1910 में एक भाषण में इसका उल्लेख किया। जी एफ एंड्रयूज ने अपने लेख 'भारत में पुनर्जागरण' में एशियाई दिमाग में स्वतंत्रता के लिए व्यापक आकांक्षा का वर्णन किया है। बंगाल के विभाजन (1905) और लॉर्ड कर्जन की नीति ने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन को प्रोत्साहित किया। सुरेंद्रनाथ बनर्जी के शब्दों में, विभाजन ने हमें 'अपमानित' किया, लेकिन ' अपमान के भेष में एक आशीर्वाद' के रूप में भी काम किया। इसने बहिष्कार और स्वदेशी आंदोलनों को तेज कर दिया, जिसने 'धार्मिक रंग' ग्रहण किया। 'वंदे मातरम' गीत अपने आप में 'धार्मिक मंत्र' बन गया। ऐसे समय में, बंगाल में राष्ट्रवादियों के एक चरम वर्ग ने बारीन्द्र कुमार घोष (अरविन्द घोष के छोटे भाई) और भूपेंद्र नाथ दत्ता के नेतृत्व में भूमिगत और गुप्त गतिविधियों के माध्यम से क्रांति लाने के लिए एक समिति का निर्माण किया। इस समिति द्वारा ‘युगांतर' और 'संध्या' बंगाली पत्रिकाएं निकाली गयीं । इस समिति ने बिहार को प्रभावित किया।30 अप्रैल, 1908 को मुजफ्फरपुर में एक बम फेंका गया, जिसमें दुर्भाग्य से कैनेडी की पत्नी और बेटी दो यूरोपीय महिलाओं की मौत हो गई। यह बम वास्तव में मुजफ्फरपुर के तत्कालीन जिला न्यायाधीश मिस्टर किंग्सफोर्ड के लिए था, जिन्होंने कलकत्ता के प्रेसीडेंसी मजिस्ट्रेट के रूप में राजनीतिक कार्यकर्ताओं पर भारी सजा देकर खुद को बेहद अलोकप्रिय बना लिया था। इस कृत्य के लिए सत्रह वर्षीय बंगाली युवक खुदीराम बोस को 11 अगस्त, 1908 को गिरफ्तार कर फाँसी पर लटका दिया गया, जबकि उसके सहयोगी प्रफुल्ल चाकी ने खुद को गोली मार ली थी। देवघर क्रांतिकारी गतिविधियों का एक और केंद्र था,जहाँ एक लॉज का उपयोग बम बनाने और सहयोगियों के प्रशिक्षण के लिए किया जाता था। संथाल परगना जिले के देवघर उपखंड में करुण के सखाराम गणेश देवस्कर एक उत्साही राष्ट्रवादी कार्यकर्ता थे। इन्होंने क्रांतिकारी श्रेणी के कार्यकर्ताओं के सांस्कृतिक मार्गदर्शन का कार्य किया। इन्दुनाथ पाण्डेय एवं कुछ अन्य लोगों ने जादुई लालटेन की मदद से बिहार के विभिन्न गांवों में इस क्रांतिकारी पंथ का प्रचार किया। पटना और कुछ अन्य स्थानों पर अनुशीलन समिति की शाखाएँ स्थापित की गईं।
दुमका के कुछ लोगों को रोडा आर्म्स मामले में फंसाया गया था। उस समय स्वामी सत्यदेव बिहार भ्रमण पर थे। सरकार ने उनके भाषणों को 'देशद्रोह' के रूप में माना। अधिकारियों को 'उसकी गतिविधियों पर नजर रखने' के लिए कहा गया था। राष्ट्रीय आंदोलन के बाद के चरणों के दौरान बिहार में कुछ कार्यकर्ता गुप्त और हिंसक तरीकों से क्रांति में विश्वास रखते थे। लेकिन बिहार के बहुसंख्यक लोग अहिंसक तरीकों से और गांधीजी के रचनात्मक कार्यक्रम को आगे बढ़ाने के पक्ष में थे।
रॉलेट एक्ट-सत्याग्रह, 1919
राष्ट्रवादी भारत ने रोटी मांगी और बदले में उन्हें पत्थर दिया गया। भारत को संतोषजनक राजनीतिक सुधार देने के बजाय, प्रथम विश्व युद्ध की सफल समाप्ति के बाद, खिलाफत के सवाल पर भारतीय मुसलमानों की भावनाओं को शांत करने के बजाय, सरकार ने मोंटेगू-चेम्सफोर्ड सुधार और रॉलेट बिल पेश किया। तथाकथित राजद्रोह को दबाने के लिए नौकरशाही को नई और मनमानी शक्तियां देने के लिए यह विधेयक लाया गया। गांधीजी ने अपना सत्याग्रह आंदोलन 30 मार्च, 1919 को शुरू किया था, जिसके अनुसार चुनिंदा व्यक्तियों ने सरकार को नोटिस देकर कुछ विरोधी कानूनों को तोड़ा। उन्होंने एक विरोध के रूप में एक राष्ट्रीय सप्ताह के पालन और पालन के लिए देशव्यापी हड़ताल और उपवास का आह्वान किया। पटना, मुजफ्फरपुर, छपरा, चंपारण, मुंगेर, भागलपुर, गया, झरिया और कटरा में हड़ताल, जुलूस और अन्य प्रदर्शन किए गए। पंजाब जाते समय पलवल में गांधीजी की गिरफ्तारी और 13 अप्रैल, 1919 को अमृतसर के जलियांवाला बाग में सैकड़ों निहत्थे लोगों के हत्याकांड ने बिहार के दिल को पूरी तरह से दहला दिया।
ब्रिटिश शासनकाल के दौरान बिहार के सामाजिक-आर्थिक परिदृश्य में परिवर्तन
ब्रिटिश शासनकाल में बिहार के सामाजिक और आर्थिक परिदृश्य में गहरे और बहुआयामी परिवर्तन हुए। ये परिवर्तन मुख्यतः औपनिवेशिक नीतियों, भूमि सुधारों, बुनियादी ढांचे के विकास, और पारंपरिक सामाजिक संरचनाओं के विघटन के परिणामस्वरूप हुए।
आर्थिक परिदृश्य में परिवर्तन
1. भूमि व्यवस्था और स्थायी बंदोबस्त
- स्थायी बंदोबस्त (1793): लॉर्ड कॉर्नवॉलिस द्वारा लागू की गई इस व्यवस्था ने जमींदारी प्रथा को संस्थागत रूप दिया।
- किसानों को उनके भूमि अधिकारों से वंचित कर दिया गया, और उन्हें जमींदारों का बंधुआ बना दिया गया।
- भूमि कर अत्यधिक बढ़ा, जिससे किसानों की गरीबी और कर्ज में डूबने की समस्या बढ़ गई।
2. कृषि का व्यावसायीकरण
- परंपरागत खाद्यान्न उत्पादन के स्थान पर नकदी फसलों (नील, अफीम, और गन्ना) की खेती को बढ़ावा दिया गया।
- किसानों पर ब्रिटिश नील कंपनियों का अत्यधिक शोषण हुआ, जो अंततः नील विद्रोह (1860) का कारण बना।
- खाद्यान्न की कमी और बार-बार आए अकालों ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था को बुरी तरह प्रभावित किया।
3. उद्योग और शिल्प का ह्रास
- पारंपरिक उद्योग, जैसे हथकरघा और हस्तशिल्प, ब्रिटिश औद्योगिक वस्त्रों के कारण समाप्त हो गए।
- बिहार के कुटीर उद्योगों का विनाश हुआ, जिससे शिल्पकारों और दस्तकारों की आर्थिक स्थिति खराब हो गई।
4. रेल और संचार नेटवर्क का विकास
- 19वीं सदी में रेलवे, डाक और टेलीग्राफ का विस्तार हुआ, जिससे बिहार औपनिवेशिक बाजार से जुड़ गया।
- हालांकि इसका मुख्य उद्देश्य ब्रिटिश व्यापारिक हितों को बढ़ावा देना था।
- रेल ने खनिज संपदा (कोयला, लोहा) के दोहन को तेज किया और सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण क्षेत्रों को जोड़ने में मदद की।
5. खनन और प्राकृतिक संसाधनों का शोषण
- छोटा नागपुर क्षेत्र (अब झारखंड) में कोयला और खनिज खनन शुरू हुआ।
- स्थानीय जनजातीय और ग्रामीण समुदायों को विस्थापन और पर्यावरणीय क्षति का सामना करना पड़ा।
6. अकाल और भुखमरी
- 19वीं सदी में बिहार ने कई अकालों का सामना किया, जैसे 1873-74 का अकाल।
- औपनिवेशिक नीतियों के कारण खाद्य आपूर्ति और वितरण प्रणाली में सुधार नहीं किया गया।
- अकालों ने कृषि और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को गंभीर रूप से प्रभावित किया।
सामाजिक परिदृश्य में परिवर्तन
1. शिक्षा का प्रसार
- ब्रिटिश काल में आधुनिक शिक्षा की शुरुआत हुई।
- पटना कॉलेज (1863) और अन्य शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना हुई।
- हालांकि, यह शिक्षा मुख्यतः उच्च वर्ग और शहरी आबादी तक सीमित थी।
- ग्रामीण और निम्न वर्ग शिक्षा से वंचित रहे।
2. जाति व्यवस्था का पुनर्गठन
- ब्रिटिश जनगणना और सामाजिक वर्गीकरण ने जाति व्यवस्था को संस्थागत रूप दिया।
- उच्च जातियों को प्रशासन और शिक्षा में प्राथमिकता दी गई, जबकि निम्न जातियों को हाशिए पर रखा गया।
- जातीय पहचान और भेदभाव अधिक कठोर हो गया।
3. जनसंख्या का पलायन और इंडेंचर प्रणाली
- गरीब किसानों और श्रमिकों को औपनिवेशिक बागानों में काम करने के लिए मॉरीशस, फिजी, और गुयाना जैसे देशों में भेजा गया।
- बिहार इंडेंचर श्रमिकों का एक बड़ा स्रोत बन गया।
4. महिलाओं की स्थिति
- ब्रिटिश शासन में महिलाओं की स्थिति में बहुत अधिक सुधार नहीं हुआ।
- बाल विवाह, सती प्रथा, और अन्य सामाजिक बुराइयाँ जारी रहीं।
- शिक्षा और सुधार आंदोलनों के जरिए महिलाओं में जागरूकता बढ़ी, लेकिन यह मुख्यतः शहरी वर्ग तक सीमित रहा।
5. धार्मिक और सांस्कृतिक परिवर्तन
- ईसाई मिशनरियों ने शिक्षा और चिकित्सा सेवाओं के माध्यम से समाज के निचले वर्गों तक अपनी पहुँच बनाई।
- इससे आदिवासी और निम्न जातियों के बीच धर्मांतरण की घटनाएँ बढ़ीं।
- पारंपरिक धार्मिक और सांस्कृतिक ढांचे में बदलाव आया।
6. सामाजिक सुधार आंदोलन
- 19वीं सदी के उत्तरार्ध में बिहार में सुधार आंदोलनों का उदय हुआ।
- सुधारक जैसे राजेंद्र प्रसाद और अनुग्रह नारायण सिन्हा ने जातिगत भेदभाव और अन्य सामाजिक बुराइयों के खिलाफ काम किया।
निष्कर्ष
ब्रिटिश शासनकाल में बिहार के सामाजिक-आर्थिक परिदृश्य में व्यापक बदलाव हुए। भूमि सुधारों और औपनिवेशिक नीतियों ने ग्रामीण अर्थव्यवस्था को कमजोर किया, जबकि आधुनिक शिक्षा और बुनियादी ढांचे ने नए अवसर प्रदान किए। सामाजिक स्तर पर जाति, धर्म, और आर्थिक असमानता बढ़ी। इन परिवर्तनों ने न केवल समाज को प्रभावित किया, बल्कि स्वतंत्रता संग्राम और राजनीतिक जागरूकता के लिए भी आधार तैयार किया।
बंगाल से बिहार का अलग होना एवं आधुनिक बिहार का उदय
बिहार और बंगाल का ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और प्रशासनिक संबंध प्राचीन काल से रहा है। ब्रिटिश शासन के दौरान बिहार बंगाल प्रेसीडेंसी का हिस्सा था, लेकिन बिहार की विशिष्ट सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक पहचान के कारण इसे बंगाल से अलग करने की मांग उठी। इस प्रक्रिया के परिणामस्वरूप 22 मार्च 1912 को बिहार को बंगाल से अलग कर एक स्वतंत्र प्रांत बनाया गया, जो आधुनिक बिहार के उदय का प्रतीक बना।
बंगाल से बिहार के अलग होने के कारण
1. प्रशासनिक उपेक्षा
- ब्रिटिश शासन के दौरान बिहार, बंगाल प्रेसीडेंसी का हिस्सा था, लेकिन प्रशासनिक निर्णयों में बिहार की अनदेखी की गई।
- पटना, गया और मुजफ्फरपुर जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में विकास और बुनियादी सुविधाओं की कमी बनी रही।
2. भाषाई और सांस्कृतिक भिन्नता
- बिहार की प्रमुख भाषाएँ (भोजपुरी, मैथिली, मगही) बंगाल की बंगाली भाषा से भिन्न थीं।
- सांस्कृतिक तौर पर भी बिहार की परंपराएँ बंगाल से अलग थीं, जिससे बिहारियों में अपनी पहचान की भावना जागृत हुई।
3. आर्थिक शोषण
- बिहार का राजस्व बंगाल प्रेसीडेंसी की आय का एक बड़ा हिस्सा था, लेकिन बिहार के विकास पर बहुत कम ध्यान दिया गया।
- कृषि प्रधान क्षेत्र होने के बावजूद औद्योगिक विकास और आधारभूत संरचनाओं का अभाव था।
4. शिक्षा और सामाजिक आंदोलन
- बंगाल प्रेसीडेंसी में कलकत्ता (अब कोलकाता) शिक्षा और प्रशासन का केंद्र था, जबकि बिहार के शैक्षिक संस्थानों और छात्रों को उचित प्रोत्साहन नहीं मिलता था।
- 19वीं सदी के अंत में बिहार में शिक्षित वर्ग ने बिहार के अधिकारों और अलग प्रांत की मांग उठाई।
- राजेंद्र प्रसाद, अनुग्रह नारायण सिन्हा, और महेश नारायण जैसे नेताओं ने इस आंदोलन को बल दिया।
5. राष्ट्रीय जागरूकता
- स्वतंत्रता संग्राम के दौरान बिहार के नेताओं ने क्षेत्रीय असमानता और प्रशासनिक उपेक्षा के खिलाफ आवाज उठाई।
- बिहार की जनता को यह एहसास हुआ कि उनकी विशिष्ट सांस्कृतिक और ऐतिहासिक पहचान को बंगाल प्रेसीडेंसी में दबाया जा रहा है।
बिहार का अलग होना: ऐतिहासिक घटनाएँ
- 1905 का बंगाल विभाजन: ब्रिटिश सरकार ने बंगाल प्रेसीडेंसी को विभाजित किया, जिससे बिहार और उड़ीसा नए प्रशासनिक इकाई का हिस्सा बने।
- 1911 में बंगाल विभाजन का रद्द होना: बंगाल का पुनः एकीकरण हुआ, लेकिन बिहार को प्रशासनिक दृष्टि से अलग करने की मांग जोर पकड़ने लगी।
- 22 मार्च 1912: ब्रिटिश सरकार ने बिहार और उड़ीसा को बंगाल से अलग कर एक स्वतंत्र प्रांत के रूप में स्थापित किया।
- पटना को बिहार और उड़ीसा प्रांत की राजधानी बनाया गया।
आधुनिक बिहार के उदय के पहलू
1. राजनीतिक चेतना
- बिहार का अलग प्रांत बनने से क्षेत्रीय नेतृत्व और राजनीतिक चेतना का विकास हुआ।
- स्वतंत्रता संग्राम में बिहार के नेताओं ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
2. शिक्षा और संस्कृति का पुनर्जागरण
- पटना विश्वविद्यालय (1917) जैसे संस्थानों की स्थापना से बिहार में शिक्षा का प्रसार हुआ।
- क्षेत्रीय साहित्य, कला और संस्कृति को बढ़ावा मिला।
3. आर्थिक विकास
- औपनिवेशिक काल में बिहार के खनिज संसाधनों (कोयला, लोहा) का दोहन शुरू हुआ।
- रेल और सड़क जैसे बुनियादी ढांचे का विस्तार हुआ।
- हालांकि, औद्योगिकीकरण का लाभ सीमित वर्ग तक ही पहुंचा।
4. सामाजिक परिवर्तन
- बिहार में जाति और धर्म आधारित आंदोलनों ने सामाजिक सुधार की दिशा में प्रयास किए।
- शिक्षा और जागरूकता ने समाज में प्रगतिशील विचारों को बढ़ावा दिया।
5. उड़ीसा से अलगाव एवं 1947 के बाद का विकास
- 1 अप्रैल 1936 में बिहार और उड़ीसा अलग-अलग राज्य बने, जिससे बिहार को नई दिशा मिली।
- स्वतंत्रता के बाद बिहार में कृषि और उद्योग के विकास पर ध्यान दिया गया।
- 1947 से बिहार में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं, फिर भी विकास असमान बना हुआ है। शुरुआत में एक प्रमुख कृषि केंद्र होने के बावजूद, बाढ़, वनों की कटाई और खराब बुनियादी ढांचे के कारण इसे असफलताओं का सामना करना पड़ा। औद्योगिक विकास सीमित था, और राज्य राजनीतिक अस्थिरता और भ्रष्टाचार से ग्रस्त था, जिससे प्रगति बाधित हुई। 2000 के बाद, झारखंड के विभाजन के साथ, बिहार ने अपनी अधिकांश खनिज संपदा खो दी। हालाँकि, हाल के दशकों में सड़क के बुनियादी ढाँचे, शिक्षा (विशेष रूप से लड़कियों की छात्रवृत्ति जैसी पहलों के माध्यम से) और स्वास्थ्य सेवा में सुधार हुआ है। ग्रामीण विद्युतीकरण और कौशल विकास को लक्षित करने वाले कार्यक्रमों ने गति पकड़ी है। फिर भी, बेरोजगारी, गरीबी और जाति-आधारित असमानता जैसी चुनौतियाँ बनी हुई हैं, जिसके लिए समावेशी विकास के लिए निरंतर प्रयासों की आवश्यकता है।
निष्कर्ष
बंगाल से बिहार का अलग होना एक ऐतिहासिक घटना थी, जिसने बिहार को अपनी विशिष्ट पहचान और विकास के अवसर प्रदान किए। हालांकि, प्रारंभिक दशकों में आर्थिक और सामाजिक समस्याएँ बनी रहीं, लेकिन स्वतंत्रता संग्राम और राष्ट्रीय आंदोलन में बिहार की भूमिका ने इसे भारतीय राजनीति और समाज में एक महत्वपूर्ण स्थान दिलाया। आधुनिक बिहार के निर्माण में यह विभाजन एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर साबित हुआ
स्वतंत्रता संग्राम का प्रारंभ और बिहार
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