किसान – आंदोलन और बिहार
भारतीय कृषि व्यवस्था में अंग्रेजों द्वारा व्यापक परिवर्तन किये गये जिससे देश की कृषि अलाभकर हो गयी तथा भारतीय कृषक निर्धनता की बेड़ियों से जकड़े गये। उपनिवेशवादी शासन के अधीन भारतीय कृषि के पिछड़ेपन के निम्न प्रमुख कारण थे –
यदा-कदा किसानों ने अपने अत्याचारों का विरोध भी किया तथा शीघ्र ही वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि उनका मुख्य शत्रु उपनिवेशवादी शासन है। कभी-कभी उत्पीड़न की पराकाष्ठा हो जाने पर किसानों ने आपराधिक कार्य भी किये। इन अपराधों में डकैती, लूट एवं हत्यायें जैसी घटनायें शामिल थीं।
गांधी का चंपारण सत्याग्रह
भारतीय स्वतंत्रता के इतिहास में चंपारण का एक अनूठा महत्व है। यहीं पर महात्मा गांधी ने अफ्रीका से लौटने के बाद भारतीय धरती पर पहली बार सत्याग्रह के नए हथियार का एक साहसिक और सफल प्रयोग किया था। गाँधी जी इसे सेवा और बलिदान के माध्यम से विकसित आत्म-शक्ति कहना पसंद करते थे। सत्य और अहिंसा इसके अभिन्न अंग थे। इसका उद्देश्य 'सभी मानवीय बीमारियों को ठीक करना', दलित जनता की जागृति और मुक्ति, आर्थिक असमानताओं का उन्मूलन और समाज की शुद्धि करना था। 1949 में डॉ राजेंद्र प्रसाद ने ठीक ही कहा था: ... चंपारण में जो हुआ, उसे पूरे देश में बड़े पैमाने पर दोहराया गया है, जैसा कि मैंने आशा की थी, आज भारत विदेशी शासन से मुक्त है।'
गांधीजी के आगमन से इस क्षेत्र के लोगों में चेतना और नैतिक विश्वास का संचार हुआ, जिसने एक क्रांति की प्रगति और सफल समापन के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण कारक बना। उत्तरी बिहार में यूरोपीय नील बागान मालिकों ने दो प्रणालियों जेरैत और असमीवार के तहत नील की खेती की। जेरैत प्रणाली के तहत, नील की खेती उनके प्रत्यक्ष प्रबंधन के अधीन थी। उन्होंने मजदूरों को काम पर रखा जिन्हें वे हमेशा खराब भुगतान करते थे जिस कारण मजदूर असंतुष्ट रहते थे। असमीवार प्रणाली में काश्तकारों द्वारा खेती की जाने वाली भूमि पर नील की भी खेती की अनिवार्यता थी। इस प्रणाली के तहत सबसे प्रचलित विधि तिनकठिया के रूप में जानी जाती थी। तिनकठिया पद्धति के तहत, एक काश्तकार को अपनी प्रति बीघा जोत के तीन कट्टे पर एक लंबी अवधि (20 वर्ष, 25 वर्ष या 30 वर्ष) के दौरान नील की खेती करनी पड़ती थी और औपचारिक रूप से इसके लिए वह एक मूल्य प्राप्त करने का हकदार था। सट्टा या लिखित समझौते के अनुसार बागान मालिकों के अधिकतम हितों को बढ़ावा देने के लिए यह पद्धति लाइ गई थी।
अपनी भूमि को नील-उत्पादक क्षेत्रों में बदलने के लिए किसानों पर जबरदस्ती करना, उनसे जबरन श्रम कराना, बेहद कम भुगतान और कभी-कभी कोई भुगतान भी नहीं करना, किसी भी कारण से नील उगाने में विफलता के लिए भारी जुर्माना लेना चम्पारण के इलाके में सामान्य घटना हो गयी थी। इस दमनकारी और पीसने वाली प्रणाली का विरोध करने पर बागान मालिकों के कठोर व्यवहार का सामना करना पड़ता था । अंत में महात्मा गांधी और उनके कुछ बिहारी सहकर्मियों के प्रयासों से उनका उद्धार हुआ।
राज कुमार शुक्ल द्वारा गांधीजी को चंपारण बुलाने के लिए अथक प्रयास किये गए। उन्होंने दिसंबर 1916 में कांग्रेस के लखनऊ अधिवेशन के समय गांधीजी से मुलाकात की और उनके सामने अपनी शिकायतें रखीं। साथ ही गांधीजी से रैयतों के दुखों को देखने के लिए चंपारण आने का आग्रह किया। गांधीजी ने अगले मार्च या अप्रैल के बारे में चंपारण का दौरा करने का वादा किया। राज कुमार शुक्ल महात्मा गांधी से कलकत्ता में मिले। 9 अप्रैल 1917 को वे शुक्ल के साथ कलकत्ता से रवाना हुए और अगले दिन की सुबह पटना पहुँचे। उसी रात दोनों मुजफ्फरपुर के लिए रवाना हो गए।
अंग्रेज सरकार को यह पसंद नहीं था कि गांधी जी दलित किसानों की कठिनाइयों की जांच करें। मजिस्ट्रेट ने उन्हें गांवों में प्रवेश न करने का आदेश दिया। उन्होंने जसौली गाँव का दौरा करने का फैसला किया, जहाँ एक पट्टेदार के साथ दुर्व्यवहार किया गया था। जब वे रास्ते में ही थे तब एक सब-इंस्पेक्टर ने आकर उन्हें सूचित किया कि धारा 144 के तहत एक आदेश जारी किया गया है और उनसे वापस आने और ज़िला मजिस्ट्रेट से मिलने का अनुरोध किया । गांधीजी रास्ते से लौट आए लेकिन उन्होंने नोटिस का पालन करने से इंकार कर दिया। उन्होंने मजिस्ट्रेट को लिखा कि वे चंपारण से नहीं जाएंगे और वे इस अवज्ञा का दंड भुगतने के लिए तैयार हैं। परिणामस्वरूप, गांधीजी पर भारतीय दंड संहिता की धारा 188 के तहत भी आरोप लगाए गए और 18 अप्रैल को मुकदमे के लिए बुलावा भेजा गया। मुकदमे की सुनवाई का दिन चंपारण के इतिहास में सबसे यादगार क्षणों में से एक है। न्यायालय के सामने किसानों की भारी भीड़ जमा हो गई थी। मुकदमा शुरू हुआ और सरकारी वकील ने गांधीजी के विरुद्ध मामला पेश किया। अपनी बारी आने पर, गांधीजी ने अपना बयान पढ़ा जिसमें उन्होंने दोबारा कहा कि उनका किसी भी प्रकार का आंदोलन शुरू करने का इरादा नहीं है। बल्कि, उनका उद्देश्य केवल संकट-ग्रस्त किसानों के लिए मानवीय और राष्ट्रीय सेवा था जिसे वह आधिकारिक सहायता के साथ हासिल करना चाहत थे। उन्होंने कोई बचाव पेश नहीं किया, बल्कि जेल जाने की स्वेच्छा व्यक्त की।
गांधीजी के रुख ने अधिकारियों को चकित कर दिया। भ्रम की स्थिति को देखते हुए सज़ा सुनाने की प्रक्रिया को स्थगित करने का निर्णय लिया गया। इस बीच, उप-राज्यपाल ने हस्तक्षेप किया और गांधीजी के विरुद्ध अपर्याप्त साक्ष्य और धारा 144 लागू करने की संदिग्ध वैधता के आधार पर स्थानीय प्रशासन को मामला वापस लेने का आदेश दिया। इसके अतिरिक्त, उन्होंने गांधीजी को जाँच करने की अनुमति भी दी। इस प्रकार, सिविल डिसओबीडिय्न्स और सत्याग्रह के आदर्श, जो बाद में भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की विशेषता बन गए, चंपारण से शुरू हुए ।
इसके बाद, पहले मोतिहारी और फिर बेतिया में गांधीजी ने अपनी जाँच को आगे बढ़ाया। इस पूरे समय में उन्हें अपने सहकर्मियों द्वारा सहायता प्रदान की गई, जिन्होंने पूछताछ के संचालन में स्वयंसेवकों के रूप में काम किया। इनमें राजेंद्र प्रसाद, ब्रजकिशोर प्रसाद, मज़हर उल हक़, जे.बी. कृपलानी, रामनवमी प्रसाद आदि कई हस्तियां शामिल थीं। कई गाँवों से हज़ारों किसान नील खेती प्रणाली के प्रति अपनी शिकायतों के बारे में अपने बयान देने के लिए आए । इस सब के बीच, गांधीजी किसानों के लिए एक वीर नायक बन गए थे। वे उन्हें अपना उद्धारकर्ता मानते थे और उनके दर्शन की प्रतीक्षा करते थे।
बिहार प्लांटर्स एसोसिएशन ने इस आधार पर जाँच का ज़ोरदार विरोध किया कि इससे एक पक्षपातपूर्ण तस्वीर पेश होती है और इसमें उनके खिलाफ किसानों द्वारा दंगों को भड़काने की क्षमता थी। उन्होंने मांग की कि गांधीजी की जांच को रोक दिया जाना चाहिए और यदि आवश्यकता हो तो सरकार द्वारा ही निष्पक्ष जाँच शुरू की जानी चाहिए। इसके अलावा, कुछ यूरोपीय अधिकारी भी स्थिति से आशंकित थे और उनका मानना था कि गांधीजी की जाँच एक यूरोपीय-विरोधी आंदोलन बन सकता था ।जैसे ही यह विरोध तेज़ हुआ, सरकार ने मामले में हस्तक्षेप किया। गांधीजी को बिहार और उड़ीसा सरकार के कार्यकारी परिषद के सदस्य डब्ल्यू. मौड के साथ साक्षात्कार के लिए बुलाया गया, जिन्होंने गांधीजी को अब तक की जाँच की प्रारंभिक रिपोर्ट भेजने का निर्देश दिया। उन्होंने यह भी सुझाव दिया कि इस बीच गांधीजी के साथियों द्वारा बयानों का अभिलेखबद्ध करना रोक दिया जाना चाहिए और केवल उन्हें शांतिपूर्ण ढंग से पूछताछ करनी चाहिए। गांधीजी ने 13 मई को रिपोर्ट सौंपी, परन्तु उन्होंने अपने सहकर्मियों की सेवाओं के न लेने के अनुरोध के अनुपालन से इंकार कर दिया। "मुझे यह स्वीकार करना पड़ेगा कि इस अनुरोध ने मुझे गहरी चोट पहुँचाई है ...। मैं अपना सौभाग्य मानता हूँ कि इन कठिन कार्यों में मुझे इन योग्य, ईमानदार और सम्माननीय व्यक्तियों का सहयोग मिला। मुझे ऐसा लगता है कि मेरे लिए उन्हें छोड़ देना अपना काम छोड़ देने के बराबर है। ”
धीरे-धीरे, सरकार द्वारा एक जाँच आयोग की संस्था की मांग बढ़ गई। इस संबंध में, गांधीजी को 4 जून को उप-राज्यपाल, सर ई.ए. गेट द्वारा उनकी जाँच की प्रारंभिक रिपोर्ट प्रस्तुत करने के संबंध में एक बैठक के लिए राँची बुलाया गया। कुछ दिनों बाद, उप-राज्यपाल ने, परिषद सहित, चंपारण में कृषि स्थितियों की जाँच करने और उसका विवरण देने के लिए एक जाँच समिति नियुक्त करने का निर्णय लिया। 'चंपारण कृषि-समिति (Champaran Agrarian Committee) के अध्यक्ष मध्यप्रदेश के आयुक्त एफ० जी० स्लाई थे। गाँधी जी भी इस समिति के सदस्य थे। अन्य सदस्यों में एल० सी० अदायी, राजा हरिहरप्रसाद नारायण सिंह, डी० जे० रीड एवं सी० रैनी थे। गांधीजी को इसके सदस्यों में से एक के रूप में नियुक्त किया गया । जैसे ही यह गठित कि गई, गांधीजी ने व्यक्तिगत रूप से किसानों के बयान लेने बंद कर दिए। 10 जून को समिति का प्रस्ताव प्रकाशित किया गया, जिसमें उनके कर्तव्य इस प्रकार निम्नलिखित थे: ज़मींदार और पट्टेदार के बीच संबंधों की जाँच करना, इस विषय पर पहले से ही मौजूद साक्ष्यों की जाँच करना और इसमें शामिल सभी लोगों की शिकायतें दूर करने की सिफारिश देना।
समिति ने जुलाई के मध्य से अपना काम शुरू किया और तीन महीने की अवधि के बाद, 4 अक्टूबर 1917 को सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपी। इसमें मुख्य रूप से निम्नलिखित सिफ़ारिशें थीं:
सरकार ने जाँच समिति की लगभग सभी सिफारिशों को स्वीकार कर लिया । सिफारिशों को लागू करने के लिए सरकार ने एक प्रस्ताव भी जारी किया। इस रिपोर्ट के आधार पर, डब्ल्यू. मौड ने 29 नवंबर 1917 को विधान परिषद में चंपारण कृषि बिल पेश किया और उसी दिन एक उल्लेखनीय भाषण भी दिया। 1918 में, अंततः, विधेयक पारित किया गया और यह चंपारण कृषि अधिनियम बन गया। गांधीजी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है, “तिनकठिया प्रणाली, जो लगभग एक सदी से अस्तित्व में थी, इस तरह समाप्त कर दी गई और इसके साथ ही प्लांटरों का राज भी समाप्त हो गया।’’
चंपारण के सफल अभियान के बाद गांधी जी लोगों के आदर्श बन गए। उनके साथ सहयोग करने वाले सभी उनके समर्पित शिष्य बन गए और अंत तक ऐसे ही बने रहे। बाद के सभी अखिल भारतीय अभियानों के दौरान बिहार को पूरे भारत में 'गांधी-प्रांत' के रूप में जाना जाने लगा। स्वतंत्रता के लिए सभी छह प्रमुख राजनीतिक संघर्ष पर चम्पारण के प्रभाव स्पष्ट है।
चंपारण सत्याग्रह की विशिष्टताएं
1. गांधीजी का भारत में पहला सत्याग्रह
चंपारण सत्याग्रह महात्मा गांधी का भारत में पहला आंदोलन था, जहां उन्होंने सत्य और अहिंसा के सिद्धांतों का प्रयोग किया।
यह आंदोलन उनके नेतृत्व में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का प्रारंभिक उदाहरण बना।
2. तीनकठिया प्रथा के खिलाफ लड़ाई
यह आंदोलन बिहार के चंपारण जिले के किसानों को तीनकठिया प्रथा (किसानों को अपनी जमीन के 3/20 हिस्से पर जबरन नील की खेती करनी होती थी) से मुक्ति दिलाने के लिए किया गया।
इस प्रथा के कारण किसानों को आर्थिक और सामाजिक रूप से बर्बाद होना पड़ता था।
3. अहिंसक प्रतिरोध का प्रयोग
चंपारण सत्याग्रह में अहिंसा का सशक्त और संगठित रूप में प्रयोग हुआ।
यह पहली बार था जब गांधीजी ने भारतीय परिप्रेक्ष्य में सत्याग्रह की शक्ति को दिखाया।
आंदोलन ने यह सिद्ध किया कि शांतिपूर्ण और अहिंसक तरीके से अन्याय का मुकाबला किया जा सकता है।
4. किसानों का संगठित होना
यह आंदोलन किसानों को संगठित करने का पहला प्रयास था, जिसमें उन्होंने अपने अधिकारों के लिए आवाज उठाई।
चंपारण सत्याग्रह ने किसानों को यह सिखाया कि वे ज़मींदारों और ब्रिटिश प्रशासन के शोषण का विरोध कर सकते हैं।
5. जन-आंदोलन का स्वरूप
यह आंदोलन केवल किसानों तक सीमित नहीं था, बल्कि इसमें समाज के विभिन्न वर्गों का सहयोग प्राप्त हुआ।
इसमें वकील, बुद्धिजीवी, और ग्रामीण जनता ने एकजुट होकर भाग लिया।
6. कानूनी और नैतिक दृष्टिकोण का समावेश
गांधीजी ने चंपारण में न केवल किसानों के अधिकारों की लड़ाई लड़ी, बल्कि इसे कानूनी और नैतिक आधार पर भी प्रस्तुत किया।
उन्होंने प्रशासन को सत्य और न्याय के आधार पर अपनी नीतियां बदलने के लिए मजबूर किया।
7. कानूनी अवज्ञा का प्रयोग
गांधीजी ने ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा जिले से बाहर जाने के आदेश का उल्लंघन किया और अदालत में पेश हुए।
यह कानूनी अवज्ञा सत्याग्रह का एक महत्वपूर्ण हिस्सा था, जिसने अहिंसक प्रतिरोध के महत्व को स्थापित किया।
8. किसानों की समस्याओं का दस्तावेजीकरण
गांधीजी ने गांव-गांव जाकर किसानों की समस्याओं को सुना और उनके दुःखों का दस्तावेजीकरण किया।
उनकी तथ्यों और साक्ष्यों पर आधारित रणनीति ने प्रशासन पर दबाव बनाया।
9. सामाजिक सुधारों का समावेश
चंपारण सत्याग्रह केवल राजनीतिक आंदोलन तक सीमित नहीं था, बल्कि इसमें सामाजिक सुधारों को भी महत्व दिया गया।
गांधीजी ने चंपारण में स्वच्छता, स्वास्थ्य, और शिक्षा पर जोर दिया। उन्होंने अपने साथियों के साथ गांवों में स्कूल और प्राथमिक चिकित्सा केंद्र स्थापित किए।
10. स्थानीय संघर्ष से राष्ट्रीय पहचान
चंपारण सत्याग्रह ने स्थानीय समस्या को राष्ट्रीय मंच पर लाकर उसे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का हिस्सा बनाया।
यह आंदोलन गांधीजी को राष्ट्रीय नेता के रूप में स्थापित करने वाला पहला बड़ा कदम था।
11. असामान्य राजनीतिक दृष्टिकोण
आंदोलन के दौरान गांधीजी ने अधिकारियों और ज़मींदारों के साथ संवाद बनाए रखा, लेकिन किसानों के हितों से समझौता नहीं किया।
उन्होंने समस्या को हल करने के लिए शांतिपूर्ण और न्यायसंगत समाधान की वकालत की।
12. ब्रिटिश प्रशासन पर प्रभाव
चंपारण सत्याग्रह ने ब्रिटिश प्रशासन को अहिंसक आंदोलन के प्रभाव का एहसास कराया।
आंदोलन के परिणामस्वरूप तीनकठिया प्रथा समाप्त की गई, और किसानों की स्थिति में सुधार हुआ।
चंपारण सत्याग्रह की उपलब्धियां
किसानों को नील की जबरन खेती से मुक्ति मिली।
गांधीजी के नेतृत्व में अहिंसा और सत्याग्रह के सिद्धांत की पहली सफलता मिली।
किसानों ने अन्याय के खिलाफ संगठित होकर लड़ना सीखा।
इस आंदोलन ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को संगठित और व्यापक बनाया।
निष्कर्ष
चंपारण सत्याग्रह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक अनूठा और ऐतिहासिक आंदोलन था। यह न केवल गांधीजी के नेतृत्व क्षमता का परिचय था, बल्कि भारतीय जनता के लिए सत्याग्रह और अहिंसा के महत्व को समझने का पहला अनुभव भी था। इस आंदोलन ने किसानों के अधिकारों की रक्षा की और भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक नई दिशा दी। इसकी विशिष्टता इसमें निहित है कि यह आंदोलन अहिंसक तरीकों से लड़ा गया और सफलता प्राप्त की गई।
चंपारण सत्याग्रह: स्वतंत्रता संग्राम का परिवर्तनीय बिंदु क्यों?
चंपारण सत्याग्रह (1917) भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक ऐसा महत्वपूर्ण और परिवर्तनीय बिंदु था, जिसने न केवल ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ संघर्ष को एक नई दिशा दी, बल्कि स्वतंत्रता आंदोलन के स्वरूप को भी बदल दिया। यह आंदोलन किसानों की समस्याओं से जुड़ा था, लेकिन इसके प्रभाव ने राष्ट्रीय राजनीति में गहरे बदलाव लाए जिन्हें निम्न बिंदुओं से समझा जा सकता है:
1. महात्मा गांधी के नेतृत्व का उदय
चंपारण सत्याग्रह गांधीजी का भारत में पहला सफल आंदोलन था, जिसने उन्हें राष्ट्रीय राजनीति में स्थापित किया।
उनके सत्याग्रह और अहिंसा के सिद्धांत ने स्वतंत्रता संग्राम को एक नई दिशा दी। यह आंदोलन गांधीजी के "जननेता" बनने की शुरुआत थी।
2. अहिंसा और सत्याग्रह का पहला प्रयोग
चंपारण में अहिंसा और सत्याग्रह के प्रयोग ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को एक नैतिक और वैचारिक आधार प्रदान किया।
यह सिद्ध हो गया कि अहिंसक तरीके से भी अन्याय और शोषण का विरोध प्रभावी ढंग से किया जा सकता है।
इस रणनीति ने भविष्य के आंदोलनों, जैसे असहयोग आंदोलन, सविनय अवज्ञा आंदोलन, और भारत छोड़ो आंदोलन के लिए एक ठोस नींव रखी।
3. स्थानीय मुद्दे से राष्ट्रीय आंदोलन
चंपारण सत्याग्रह ने दिखाया कि स्थानीय समस्याओं को राष्ट्रीय मंच पर उठाया जा सकता है।
किसानों की तीनकठिया प्रथा जैसी स्थानीय समस्या को राष्ट्रीय पहचान मिली और यह संघर्ष स्वतंत्रता संग्राम का हिस्सा बन गया।
4. किसानों का स्वतंत्रता संग्राम से जुड़ना
चंपारण सत्याग्रह में किसानों ने पहली बार संगठित होकर ब्रिटिश साम्राज्य के शोषण के खिलाफ आवाज उठाई।
इससे किसानों को यह विश्वास हुआ कि वे भी स्वतंत्रता संग्राम का हिस्सा बन सकते हैं।
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को ग्रामीण भारत और किसानों का समर्थन प्राप्त हुआ।
5. ब्रिटिश शासन की नैतिक हार
गांधीजी के नेतृत्व में शांतिपूर्ण प्रतिरोध ने ब्रिटिश सरकार को झुकने पर मजबूर किया।
किसानों को तीनकठिया प्रथा से मुक्ति मिली, जो ब्रिटिश शासन के खिलाफ नैतिक विजय थी।
यह घटना ब्रिटिश शासन की कमजोरियों को उजागर करती है और यह संदेश देती है कि संगठित जनशक्ति किसी भी अत्याचार को खत्म कर सकती है।
6. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का नया दृष्टिकोण
चंपारण सत्याग्रह के बाद कांग्रेस पार्टी ने गांधीजी के नेतृत्व को स्वीकार किया।
गांधीजी के नेतृत्व में कांग्रेस ने स्वतंत्रता संग्राम में जन-सामान्य को शामिल करने की नीति अपनाई।
यह आंदोलन कांग्रेस के भीतर व्यापक जनाधार तैयार करने की दिशा में महत्वपूर्ण साबित हुआ।
7. सामाजिक सुधार और राजनीतिक आंदोलन का मेल
चंपारण सत्याग्रह केवल एक राजनीतिक आंदोलन नहीं था, बल्कि इसमें सामाजिक सुधारों को भी प्राथमिकता दी गई।
गांधीजी ने चंपारण में स्वच्छता, स्वास्थ्य, और शिक्षा जैसे मुद्दों पर भी काम किया।
इसने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को एक व्यापक सामाजिक आंदोलन का स्वरूप दिया।
8. भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का अहिंसक चरित्र
चंपारण सत्याग्रह ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को हिंसक विद्रोह के रास्ते से हटाकर अहिंसक आंदोलन की दिशा में स्थापित किया।
यह आंदोलन एक वैचारिक परिवर्तन का प्रतीक था, जिसने स्वतंत्रता संग्राम को नैतिक और वैश्विक समर्थन दिलाया।
9. राष्ट्रीय एकता का प्रतीक
चंपारण सत्याग्रह ने जाति, धर्म, और क्षेत्रीय मतभेदों को मिटाकर जनता को एकजुट किया।
इस आंदोलन ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को "जन आंदोलन" का स्वरूप दिया।
10. ब्रिटिश शासन के खिलाफ जागरूकता
चंपारण सत्याग्रह ने भारतीय जनता को ब्रिटिश शासन के शोषणकारी चरित्र के प्रति जागरूक किया।
यह आंदोलन ब्रिटिश सरकार के प्रति लोगों के मन में असंतोष को बढ़ाने में सहायक हुआ।
चंपारण सत्याग्रह के दीर्घकालिक प्रभाव
यह आंदोलन भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में जनभागीदारी की आवश्यकता और महत्व को स्थापित करने वाला पहला प्रयास था।
गांधीजी के नेतृत्व में सत्याग्रह और अहिंसा स्वतंत्रता संग्राम की मुख्य रणनीति बन गई।
इस आंदोलन के बाद स्वतंत्रता संग्राम में किसानों और ग्रामीण भारत का योगदान तेजी से बढ़ा।
स्वतंत्रता संग्राम में सामाजिक सुधारों को शामिल करने का गांधीजी का दृष्टिकोण चंपारण सत्याग्रह से शुरू हुआ।
निष्कर्ष
चंपारण सत्याग्रह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक परिवर्तनकारी बिंदु था। इसने भारतीय आंदोलन को अहिंसक, जनआधारित और व्यापक सामाजिक सुधारों के साथ जोड़ा। गांधीजी के नेतृत्व में इस आंदोलन ने न केवल किसानों को उनका अधिकार दिलाया, बल्कि भारतीय जनता को ब्रिटिश शासन के खिलाफ संगठित और जागरूक करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसने स्वतंत्रता संग्राम को एक नई दिशा और रणनीति प्रदान की, जिससे भारत को स्वतंत्रता प्राप्त करने की प्रक्रिया तेज हुई।
चंपारण सत्याग्रह में गांधीजी की भूमिका
चंपारण सत्याग्रह में गांधीजी की भूमिका को निम्न बिंदुओं में प्रदर्शित किया जा सकता है:-
गांधीजी ने चंपारण आने से पहले किसानों की समस्याओं को गहराई से समझा।
ब्रिटिश नील उत्पादकों ने किसानों को तीनकठिया प्रथा के तहत मजबूर किया था, जिसके अनुसार किसानों को अपनी जमीन के 3/20 भाग पर नील की खेती करनी होती थी।
किसानों को नील के लिए उचित मूल्य नहीं दिया जाता था, और जब वे नील की खेती से इनकार करते, तो उन्हें अत्यधिक कर और जुर्माना देना पड़ता।
गांधीजी ने चंपारण में अहिंसक प्रतिरोध और सत्याग्रह का प्रयोग किया।
उन्होंने किसानों से हिंसा न करने और शांतिपूर्वक अपने अधिकारों की मांग करने का आह्वान किया।
उनका उद्देश्य था कि किसानों को न्याय और अधिकार अहिंसक तरीके से दिलाया जाए।
गांधीजी ने चंपारण में रहकर किसानों की समस्याओं को व्यक्तिगत रूप से सुना और उनकी दुर्दशा का दस्तावेजीकरण किया।
उन्होंने गांव-गांव जाकर किसानों से उनके अनुभव और ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा किए गए अत्याचारों के बारे में साक्ष्य जुटाए।
गांधीजी ने प्रशासन के सामने किसानों की व्यथा को तथ्यों और प्रमाणों के साथ प्रस्तुत किया।
चंपारण पहुंचने पर स्थानीय ब्रिटिश अधिकारियों ने गांधीजी को जिले से बाहर जाने का आदेश दिया।
गांधीजी ने इस आदेश को मानने से इनकार कर दिया और घोषणा की कि वह किसानों की समस्याओं को हल करने तक चंपारण में ही रहेंगे।
इसके लिए उन्होंने अदालत में अपने खिलाफ चलाए जा रहे मुकदमे का सामना किया।
गांधीजी के साहस और शांतिपूर्ण प्रतिरोध के कारण उन्हें समर्थन मिला, और ब्रिटिश सरकार को उनके खिलाफ कार्रवाई रोकनी पड़ी।
गांधीजी ने किसानों के अधिकारों की मांग की, जिसमें नील की खेती से उनकी मुक्ति, अत्यधिक करों की समाप्ति, और ज़मींदारों के अन्यायपूर्ण शोषण को रोकना शामिल था।
उनके नेतृत्व में, किसानों ने पहली बार संगठित होकर अपनी समस्याओं के खिलाफ आवाज उठाई।
गांधीजी ने केवल राजनीतिक संघर्ष तक अपनी भूमिका सीमित नहीं रखी, बल्कि चंपारण में सामाजिक सुधार के कार्य भी किए।
उन्होंने चंपारण में स्वच्छता, स्वास्थ्य और शिक्षा पर ध्यान दिया।
अपनी टीम के साथ, उन्होंने चंपारण के गांवों में स्कूल और स्वास्थ्य केंद्र स्थापित किए।
यह उनके "रचनात्मक कार्य" की विचारधारा का हिस्सा था।
गांधीजी ने किसानों को आत्मनिर्भर बनने की प्रेरणा दी।
उन्होंने किसानों को यह सिखाया कि वे अपने अधिकारों के लिए संगठित हों और अपने संघर्ष को शांतिपूर्ण तरीके से लड़ें।
चंपारण सत्याग्रह के माध्यम से गांधीजी ने किसानों के संघर्ष को राष्ट्रीय आंदोलन का हिस्सा बना दिया।
यह सत्याग्रह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के लिए एक आदर्श बन गया और गांधीजी की अहिंसक आंदोलन की रणनीति का पहला सफल प्रयोग साबित हुआ।
चंपारण सत्याग्रह की उपलब्धियाँ
सत्याग्रह के बाद, ब्रिटिश सरकार ने तीनकठिया प्रथा को समाप्त कर दिया।
किसानों को उनकी भूमि पर नील की खेती करने की बाध्यता से मुक्ति मिली।
किसानों पर अत्यधिक कर और जुर्माने को भी कम किया गया।
चंपारण सत्याग्रह ने यह साबित किया कि अहिंसा और सत्याग्रह के माध्यम से अन्याय के खिलाफ लड़ाई लड़ी जा सकती है।
चंपारण सत्याग्रह के बाद गांधीजी को एक राष्ट्रीय नेता के रूप में पहचाना गया।
गांधीजी की भूमिका का महत्व
निष्कर्ष
चंपारण सत्याग्रह में गांधीजी की भूमिका किसान आंदोलन के साथ-साथ भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में एक नए अध्याय की शुरुआत थी। उनकी अहिंसक और सत्याग्रह की नीति ने किसानों को न केवल उनका अधिकार दिलाया, बल्कि उन्हें शोषण और अन्याय के खिलाफ खड़े होने की शक्ति भी दी। यह आंदोलन गांधीजी की नेतृत्व क्षमता और उनके सामाजिक-राजनीतिक दृष्टिकोण का अद्वितीय उदाहरण है।
बिहार में किसान - आंदोलन
उपनिवेशवादी आर्थिक नीतियाँ, प्रशासनिक एवं न्यायिक व्यवस्था, उद्योग-धंधे का हास, भूमि पर जनसंख्या का बढ़ता बोझ, बागवान मालिको के बढ़ते अत्याचार इत्यादि के फलस्वरूप कृषि अर्थ व्यवस्था ठप्प पड़ गई और किसान निर्धन हो गए। वे जमीदारों की दया पर छोड़ दिए गए, जो उनसे मनमाना लगान, अववाब, भेंट-उपहार और बेगार लेते थे। अधिकांश किसान जमीन से बेदखल होने पर बटाईदार और भूमिहीन मजदूर बन गए। उनकी जमीन और माल मवेशी जमीन्दारों, साहूकारों तथा धनिक कृषकों के हाथ चले गए। जब किसान अपनी जमीन और माल-मवेशी को वापस पाने में असमर्थ रहे तब वे अंग्रेजों तथ उनके भारतीय सहयोगियों के विरूद्ध विद्रोह पर उतर आए ।
बिहार के किसान भी इन्हीं कारणों से त्रस्त थे। राजकुमार शुक्ल के प्रयास से गाँधी जी चम्पारण आए और बिहार के किसानों ने गांधीजी के नेतृत्व में चंपारण में सफल सत्याग्रह किया। उन्होंने सरकार को कृषक समस्या की जाँच पड़ताल के लिए एक समिति नियुक्त करने के लिए बाध्य किया। समिति की अनुशंसाओं को चंपारण कृषक अधिनियम (1918 ई०) को अमली जामा पहनाया गया । इस सत्याग्रह ने बिहार के अन्य किसानों को भी शोषण और अत्याचार को विरुद्ध लड़ने के लिए प्रेरित किया। दरभंगा राज के किसान लगान की बोझ से दबे थे। उन्हें अपने आसपास के जगलों के कोई उत्पाद लेने का भी हक़ नहीं था। राज के गुमाश्ता कई प्रकार से उनका शोषण कर रहे थे। दरभंगा राज के विरुद्ध जून, 1919 ई० में स्वामी विद्यानन्द ने मधुवनी के किसानों को आन्दोलन के लिए संगठित किया। इस आन्दोलन में लगान वसूली के क्रम में राजा के गुमाश्तों का विरोध किया गया एवं जंगल से फूल और लकड़ियाँ प्राप्त करने के अधिकार के लिए संघर्ष किया गया। आन्दोलनकारियों ने भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस से भी समर्थन प्राप्त करने के प्रयास किये। दरभंगा महाराज का काँग्रेस पर प्रभाव था, इसलिए काँग्रेस इस आन्दोलन के प्रति उदासीन रही। फलत: हताश किसानों ने हिंसा का रास्ता अपनाया। मधुबनी से यह आन्दोलन फैलता हुआ पूर्णिया, सहरसा, भागलपुर और मुंगेर जिलों तक पहुच गया। दरभंगा महाराज ने इस आन्दोलन को समाप्त करने के लिए 1922 ई० में एक प्रान्तीय सभा का गठन कराया और इसे किसानों के मुख्य प्रवक्ता के रूप में मान्यता दी। बाद में दरभंगा महाराज ने किसानों की कुछ माँगें स्वीकार कर लीं और यह आन्दोलन शिथिल पड़ गया ।
शाह मोहम्मद जुबैर और श्रीकृष्ण सिंह द्वारा मुंगेर में 1922-23 ई० में 'किसान सभा' का गठन किया गया। 4 मार्च, 1928 ई० को स्वामी सहजानन्द सरस्वती ने इस आन्दोलन को निर्णायक मोड़ देते हुए औपचारिक रूप से 'किसान-सभा की स्थापना की। इस सभा द्वारा 1929 ई० में काफी बड़े पैमाने गतिविधियों की शुरुआत की गयी। 1929 ई० में ही सरदार वल्लभभाई पटेल ने किसानों में चेतना जगाने के लिए बिहार की यात्रा की। किसान हित की लड़ाई लड़ रहे स्वामी सहजानंद सरस्वती ने भी जब एक सशक्त किसान संगठन की आवश्यकता महसूस की तो उन्होंने इसके लिए हरिहरक्षेत्र मेले का ही चयन किया। सन 1929 में 17 नवंबर को उन्होंने इसी मेले में वृहद किसान सम्मेलन का आयोजन किया।
इसमें बिहार प्रांतीय किसान सभा की स्थापना हुई। इसके प्रथम अध्यक्ष स्वामी सहजानंद सरस्वती और महामंत्री डॉ श्रीकृष्ण सिंह चुने गए थे। वहीं देश के प्रथम राष्ट्रपति रहे डॉ राजेंद्र प्रसाद, बिहार विधानसभा के प्रथम अध्यक्ष रहे रामदयालू सिंह, वरिष्ठ कांग्रेसी अनुग्रह नारायण सिंह आदि इसके कार्यकारिणी सदस्य बने। इस सम्मेलन में तत्कालीन ब्रिटिश शासन के किसान विरोधी काश्तकारी बिल पर मुख्य वक्ता रामवृक्ष बेनीपुर ने जमकर प्रहार किया था और यहीं से इसके खिलाफ व्यापक आंदोलन का आगाज हुआ। स्वामी जी ने खुद अपनी पुस्तक 'मेरा जीवन मेरा संघर्ष' में भी इसकी चर्चा की है। उन्होंने लिखा है कि मेले से शुरू आंदोलन का असर यह रहा कि तत्कालीन शासन ने किसानों के लिए इस खतरनाक बिल को वापस ले लिया।
किसान आन्दोलन की लोकप्रियता बहुत तेजी से बढ़ने लगी। कांग्रेस ने भी इस आंदोलन का समर्थन किया। बढ़ती लोकप्रियता के कारण जमींदारों का वर्ग काफी चिंतित हुआ और सरकार पर आंदोलन को कुचलने के लिए दबाव डालने की कोशिश भी आरम्भ हुई। इस उद्देश्य से एक राजनीतिक दल युनाइटेड पॉलिटिकल पार्टी के नाम से संगठित हुआ।
1933 ई० में एक जाँच समिति का गठन 'किसान सभा' द्वारा किया गया, जिसने किसानों की दयनीय दशा की ओर ध्यान आकर्षित करने का काम किया। इस काल में ही 'किसान सभा' की लोकप्रियता में निर्णायक वृद्धि हुई। 1936 ई० तक इसकी सदस्यों की संख्या लाख से काफी अधिक पहुँच गयी। फलत: भारतीय राष्ट्रीय कॉंग्रेस और किसान सभा के बीच नजदीकियां रहीं। 1937 ई० के चुनावों के पूर्व दोनों में समझौता हुआ। कॉंग्रेस ने अपने एक चुनावी घोषणा-पत्र में किसानों की समस्याओं पर चर्चा की। चुनावों के बाद जब बिहार में कॉंग्रेसी मंत्रिमंडल की स्थापना हुई तो किसानों की समस्याओं का समाधान करने में इस मंत्रिमण्डल ने कोई अभिरुचि नहीं ली। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि इस प्रान्तीय सरकार की शक्ति नाम मात्र की थी। फलत: किसान सभा एवं काँग्रेस के बीच मतभेद प्रारंभ हो गये । इस तनाव के कारण चम्पारण, सारण और मुंगेर की जिला काँग्रेस-समितियों ने अपने सदस्यों को किसान-सभा के जुलूसों में भाग लेने से रोक दिया।
सविनय अवज्ञा आन्दोलन के क्रम में मई, 1930 ई० में पूरे बिहार में चौकीदारी-विरोधी अभियान चलाया गया जो बड़ा सफल रहा। 1931 ई० में जहानाबाद में आयोजित किसानों के एक सम्मेलन में जमींदारों द्वारा किसानों के दमन की निन्दा की गई। बिहार में कॉंग्रेस ने राजेन्द्र प्रसाद की अध्यक्षता में एक कृषक-जाँच-समिति की स्थापना की, जिसके अन्य सदस्य श्रीकृष्ण सिंह, अब्दुल बारी, विपिनबिहारी वर्मा, बलदेव सहाय, राजेन्द्र मिश्र, राधागोविन्द प्रसाद और कृष्णा सहाय थे।
1932 ई० में सविनय अवज्ञा आन्दोलन के क्रम में किसान अधिक हिंसक हो गये थे। स्वामी सहजानन्द सरस्वती, कार्यानन्द शर्मा, राहुल सांस्कृत्यायन, पंचानन शर्मा और यदुनंदन शर्मा-जैसे बहुत से बामपंथी नेताओं ने बिहार में किसान-सभा के संगठन को फैलाने में अपनी भूमिका निभाई। 1938 ई० में लगभग एक लाख किसानों ने पटना में एक बड़ा प्रदशन किया। किसान-सभा ने 1935 ई० में जमींदारी उन्मूलन का प्रस्ताव पारित कर चुकी थी। किसानों की दूसरी माँग थी-गैरकानूनी वसूलियों और काश्तकारों की बेदखली का अंत तथा बकाश्त जमीन की वापसी।
वकाश्त जमीन का मुद्दा किसान-सभा और काँग्रेसी मंत्रिमण्डल के बीच विवाद का मुद्दा बना फलस्वरूप बड़हिया टाल के इलाके के किसानों द्वारा जमींदारी-उन्मूलन की माँग को लेकर एक वृहत् आन्दोलन आरम्भ किया गया। इसमें कार्यानंद शर्मा की भूमिका काफी महत्त्वपूर्ण रही। गया के यदुनन्दन शर्मा एवं अन्नवारी में राहुल सांस्कृत्यायन ने किसान आन्दोलन को नेतृत्व प्रदान किया। काँग्रेस के उदासीन रहने के कारण अब किसानों का झुकाव साम्यवादी दल के प्रति हुआ। स्वयं स्वामी सहजानंद ने भी साम्यवाद में अभिरुचि दिखलायी। वकाश्त जमीन के सवाल पर आन्दोलन 1938-39 ई० तक अपनी शीर्ष पर पहुँच चुका था, लेकिन अगस्त, 1939 ई० में सरकार द्वारा घोषित अनेक सुविधाओं, नए कानूनों और लगभग 600 कार्यकर्त्ताओं की गिरफ्तारी से यह आन्दोलन थम सा गया। कुछ इलाकों में 1945 ई० में किसानों ने फिर आन्दोलन प्रारम्भ किया और यह आन्दोलन जमींदारी प्रथा खत्म होने तक जारी रहा।
किसान सभा आंदोलन की प्रकृति
1. सामाजिक-आर्थिक संघर्ष
किसान सभा आंदोलन का मुख्य उद्देश्य किसानों को ज़मींदारी प्रथा, अत्यधिक लगान, और आर्थिक शोषण से बचाना था।
किसानों की मांग थी कि उन्हें अपने उत्पादों पर अधिक स्वामित्व और कम लगान का अधिकार दिया जाए।
यह आंदोलन किसानों की आर्थिक स्थिति सुधारने पर केंद्रित था।
2. संगठित और सामूहिक प्रयास
किसान सभा आंदोलन ने किसानों को संगठित किया और उन्हें अपने अधिकारों के लिए सामूहिक रूप से लड़ने का रास्ता दिखाया।
इसमें छोटे और भूमिहीन किसानों को भी शामिल किया गया, जिससे यह आंदोलन व्यापक जनसमर्थन हासिल करने में सक्षम हुआ।
3. ज़मींदारी प्रथा का विरोध
ज़मींदारी प्रथा किसानों के शोषण का मुख्य कारण थी। किसान सभा आंदोलन की प्रकृति ज़मींदारों के अत्याचार और ब्रिटिश सरकार द्वारा समर्थित इस शोषणकारी व्यवस्था को समाप्त करने की थी।
स्वामी सहजानंद सरस्वती जैसे नेताओं ने इसे खत्म करने के लिए किसानों को संगठित किया।
4. राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़ाव
किसान सभा आंदोलन की प्रकृति भारतीय स्वतंत्रता संग्राम से गहराई से जुड़ी हुई थी।
इसे कांग्रेस पार्टी और वामपंथी विचारधारा वाले नेताओं का समर्थन मिला।
किसानों के अधिकारों की मांग के साथ-साथ यह आंदोलन ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ भी था।
5. सामाजिक न्याय और समानता की मांग
यह आंदोलन केवल आर्थिक मुद्दों तक सीमित नहीं था, बल्कि इसका उद्देश्य सामाजिक न्याय और समानता सुनिश्चित करना भी था।
किसान सभा आंदोलन में निचली जातियों और भूमिहीन किसानों की भागीदारी ने इसे सामाजिक सुधार का भी माध्यम बनाया।
6. अहिंसक और प्रतिरोधी दोनों स्वरूप
प्रारंभ में इस आंदोलन ने अहिंसक साधनों को अपनाया, जैसे रैलियां, सभाएं और पетиशन।
लेकिन ज़मींदारों और प्रशासन की दमनकारी नीतियों के कारण कई स्थानों पर यह आंदोलन प्रतिरोधी और संघर्षात्मक बन गया।
7. वामपंथी विचारधारा का प्रभाव
1930 और 1940 के दशक में किसान सभा आंदोलन पर वामपंथी विचारधारा का प्रभाव पड़ा।
आंदोलन ने वर्ग संघर्ष को मुख्य मुद्दा बनाया और सामंती प्रथाओं के उन्मूलन की मांग की।
8. स्थानीय से राष्ट्रीय स्तर तक विस्तार
किसान सभा आंदोलन की प्रकृति स्थानीय संघर्षों से शुरू होकर राष्ट्रीय स्तर पर एक बड़ा आंदोलन बनने की थी।
इसे "अखिल भारतीय किसान सभा" (AIKS) के माध्यम से संगठित किया गया, जिसकी स्थापना 1936 में हुई।
प्रमुख मांगें
आंदोलन के प्रमुख चरण
1936: अखिल भारतीय किसान सभा की स्थापना
स्वामी सहजानंद सरस्वती के नेतृत्व में इसकी शुरुआत हुई।
इसकी प्रकृति राजनीतिक और सामाजिक दोनों थी।
तेभागा आंदोलन (1946)
किसानों ने अपनी उपज का दो-तिहाई हिस्सा खुद रखने की मांग की।
यह आंदोलन बिहार और बंगाल में व्यापक स्तर पर हुआ।
कमीशनरी और ज़मींदारी प्रथा का विरोध
किसान सभा ने ज़मींदारों और कमीशनरी व्यवस्था के खिलाफ कई बार आंदोलन किया।
निष्कर्ष
किसान सभा आंदोलन की प्रकृति सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक संघर्षों का समन्वय थी। यह आंदोलन किसानों के अधिकारों के लिए एक व्यापक मंच बना, जिसमें ज़मींदारी प्रथा के उन्मूलन, आर्थिक शोषण के खिलाफ लड़ाई, और सामाजिक न्याय की स्थापना की दिशा में कार्य किया गया। इसकी सबसे बड़ी उपलब्धि यह थी कि इसने किसानों को संगठित किया और स्वतंत्रता संग्राम में उनका योगदान सुनिश्चित किया।
किसान आंदोलन मे सहजानंद की भूमिका
स्वामी सहजानंद सरस्वती भारतीय किसान आंदोलन के प्रमुख नेता और संगठनकर्ता थे। उनका योगदान किसान आंदोलन के विकास में ऐतिहासिक महत्व रखता है। वे न केवल किसानों के अधिकारों की लड़ाई के प्रतीक बने, बल्कि उन्होंने उन्हें राजनीतिक रूप से संगठित किया और उनके आर्थिक तथा सामाजिक अधिकारों के लिए एक मजबूत आंदोलन खड़ा किया।
स्वामी सहजानंद की भूमिका
1. अखिल भारतीय किसान सभा की स्थापना
1936 में स्वामी सहजानंद सरस्वती ने अखिल भारतीय किसान सभा (AIKS) की स्थापना की।
इस संगठन ने किसानों के अधिकारों के लिए एक राष्ट्रीय मंच प्रदान किया।
सभा का उद्देश्य किसानों को शोषण से मुक्ति दिलाना और उनकी आर्थिक स्थिति को मजबूत करना था।
उन्होंने "जमींदारी प्रथा के उन्मूलन" को सभा का मुख्य उद्देश्य बनाया।
2. किसानों को संगठित करना
सहजानंद ने किसानों को जाति, धर्म और क्षेत्रीय मतभेदों से ऊपर उठकर संगठित किया।
उन्होंने किसानों को यह सिखाया कि उनका असली दुश्मन ज़मींदारी प्रथा और ब्रिटिश सरकार है।
उन्होंने गांव-गांव जाकर किसानों को जागरूक किया और उनके अधिकारों के प्रति उनकी चेतना को बढ़ाया।
3. ज़मींदारी प्रथा का विरोध
सहजानंद ज़मींदारी प्रथा के कट्टर विरोधी थे।
उन्होंने किसानों को भूमि पर अधिकार दिलाने और ज़मींदारों के शोषण के खिलाफ आवाज उठाई।
उनकी मांग थी कि किसान जोतने वाली जमीन का मालिक खुद होना चाहिए।
4. कमीशनरी और उच्च लगान के खिलाफ संघर्ष
किसानों पर लगने वाले अत्यधिक लगान और कर के खिलाफ उन्होंने बड़े पैमाने पर आंदोलन किए।
सहजानंद ने ब्रिटिश सरकार द्वारा किसानों से वसूले जाने वाले करों को अन्यायपूर्ण करार दिया।
5. तेभागा आंदोलन में योगदान
सहजानंद ने "तेभागा आंदोलन" का समर्थन किया, जिसमें किसानों ने अपनी उपज का दो-तिहाई हिस्सा खुद रखने की मांग की।
उन्होंने इसे किसानों के स्वाभाविक अधिकार की लड़ाई बताया।
6. वामपंथी विचारधारा का समर्थन
स्वामी सहजानंद पर वामपंथी विचारधारा का प्रभाव था।
उन्होंने किसानों के संघर्ष को वर्ग संघर्ष के रूप में देखा और सामाजिक समानता की मांग की।
उनकी राजनीति वंचितों और गरीब किसानों के अधिकारों के लिए थी।
7. आर्थिक नीतियों पर जोर
सहजानंद ने मांग की कि किसानों को उनकी उपज का सही मूल्य मिले।
उन्होंने कृषि सुधार और किसानों के लिए आर्थिक योजनाओं की वकालत की।
8. किसान आंदोलन का राजनीतिकरण
सहजानंद ने किसानों को राजनीतिक रूप से जागरूक किया और स्वतंत्रता संग्राम के साथ जोड़ा।
उन्होंने किसानों को यह समझाया कि उनकी समस्याओं का समाधान केवल राजनीतिक आजादी से संभव है।
किसान सभा के माध्यम से उन्होंने किसानों के मुद्दों को राष्ट्रीय स्तर पर उठाया।
9. 'किसान का लगान माफ हो' आंदोलन
सहजानंद ने "किसान का लगान माफ हो" जैसे नारों के माध्यम से किसानों के अधिकारों की मांग को मुखर किया।
उन्होंने सरकार और जमींदारों पर किसानों का शोषण बंद करने का दबाव बनाया।
10. साहित्य और लेखन के माध्यम से योगदान
सहजानंद ने अपने लेखन के माध्यम से किसानों की दुर्दशा को उजागर किया।
उन्होंने "किसान सभा" नामक पत्रिका निकाली, जो किसानों की समस्याओं और उनके समाधान पर केंद्रित थी।
मुख्य आंदोलन और भूमिका
सहजानंद ने इसे अपने जीवन का मुख्य लक्ष्य बनाया।
उनका नारा था, "जमीन जोतने वाले की होनी चाहिए।"
उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम के साथ किसानों के मुद्दों को जोड़ा।
किसान सभा ने भारत छोड़ो आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभाई।
उन्होंने भूमिहीन किसानों के पक्ष में संघर्ष किया और उन्हें संगठित किया।
उन्होंने किसानों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए सामंती शोषण के खिलाफ संगठित आंदोलन किया।
विशेषताएँ
सहजानंद ने आंदोलन को अहिंसक और लोकतांत्रिक रूप से चलाने की कोशिश की, लेकिन ज़मींदारों और प्रशासन के अत्याचारों के कारण कई बार संघर्ष ने उग्र रूप ले लिया।
उन्होंने जाति, धर्म और वर्ग के बंधनों को तोड़कर किसानों को एक मंच पर लाने का प्रयास किया।
किसान आंदोलन को उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन से जोड़कर इसे और मजबूत बनाया।
निष्कर्ष
स्वामी सहजानंद सरस्वती का किसान आंदोलन में योगदान अतुलनीय है। उन्होंने किसानों को शोषण के खिलाफ खड़ा किया और उनके अधिकारों की रक्षा के लिए अपनी पूरी ज़िंदगी समर्पित कर दी। उनकी भूमिका केवल किसान नेता तक सीमित नहीं रही, बल्कि उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। उनके प्रयासों ने न केवल बिहार, बल्कि पूरे देश में किसान आंदोलन को नई दिशा और शक्ति दी।
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