स्वतंत्र न्यायपालिका
हर समाज में व्यक्तियों, समूहों तथा सरकार के बीच सृजित हुए विवादों का धनी और गरीब, स्त्री और पुरुष तथा अगड़े और पिछड़े के भेदभाव के बिना एक स्वतंत्र संस्था द्वारा हल किया जाना आदर्श होता है। लोगों पर एक समान कानून लागू होना ही 'कानून के शासन' का भाव है । न्यायपालिका की प्रमुख भूमिका 'कानून के शासन' की रक्षा और कानून की सर्वोच्चता को सुनिश्चित करनी होती है। न्यायपालिका व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा करती है, विवादों को कानून के अनुसार हल करती है और यह सुनिश्चित करती है कि लोकतंत्र की जगह किसी एक व्यक्ति या समूह की तानाशाही न ले ले। इसके लिए ज़रूरी है कि न्यायपालिका पर किसी भी प्रकार का राजनीतिक दबाव ना हो ।
न्यायपालिका की स्वतंत्रता का अर्थ है कि विधायिका और कार्यपालिका न्यायपालिका के कार्यों में किसी प्रकार की बाधा न पहुँचाए ताकि 'कानून के शासन' स्थापित रहे । सरकार के अन्य अंग न्यायपालिका के निर्णयों में हस्तक्षेप न करें। न्यायाधीश बिना भय या भेदभाव के अपना कार्य कर सकें। न्यायपालिका की स्वतंत्रता का अर्थ स्वेच्छाचारिता या उत्तरदायित्त्व का अभाव नहीं है। न्यायपालिका देश की लोकतांत्रिक राजनीतिक संरचना का एक हिस्सा है। न्यायपालिका देश के संविधान, लोकतांत्रिक परंपरा और जनता के प्रति जवाबदेह है।
भारतीय संविधान ने अनेक उपायों के द्वारा न्यायपालिका की स्वतंत्रता सुनिश्चित की है। न्यायाधीशों की नियुक्तियों के मामले में विधायिका को सम्मिलित नहीं किया गया है। इससे यह सुनिश्चित किया गया कि इन नियुक्तियों में दलगत राजनीति की कोई भूमिका नहीं रहे। न्यायाधीश के रूप में नियुक्त होने के लिए किसी व्यक्ति को वकालत का अनुभव या कानून का विशेषज्ञ होना चाहिए। उस व्यक्ति के राजनीतिक विचार या निष्ठाएँ उसकी नियुक्ति का आधार नहीं बनना चाहिए।
न्यायाधीशों का कार्यकाल निश्चित होता है। वे सेवानिवृत्त होने तक पद पर बने रहते हैं। केवल अपवाद स्वरूप विशेष स्थितियों में ही न्यायाधीशों को हटाया जा सकता है। इसके अलावा, उनके कार्यकाल को कम नहीं किया जा सकता। कार्यकाल की सुरक्षा के कारण न्यायाधीश बिना भय या भेदभाव के अपना काम कर पाते हैं। संविधान में न्यायाधीशों को हटाने के लिए बहुत कठिन प्रक्रिया निर्धारित की गई है। संविधान निर्माताओं का मानना था कि हटाने की प्रक्रिया कठिन हो, तो न्यायपालिका के सदस्यों का पद सुरक्षित रहेगा।
न्यायपालिका, विधायिका या कार्यपालिका पर वित्तीय रूप से निर्भर नहीं है। संविधान के अनुसार न्यायाधीशों के वेतन और भत्ते के लिए विधायिका की स्वीकृति नहीं ली जाएगी। न्यायाधीशों के कार्यों और निर्णयों की व्यक्तिगत आलोचना नहीं की जा सकती। अगर कोई न्यायालय की अवमानना का दोषी पाया जाता है, तो न्यायपालिका को उसे दंडित करने का अधिकार है। माना जाता कि इस अधिकार से न्यायाधीशों को सुरक्षा मिलेगी और कोई उनकी गलत आलोचना नहीं कर सकेगा। संसद न्यायाधीशों के आचरण पर केवल तभी चर्चा कर सकती है जब वह उनके विरुद्ध महाभियोग प्रस्ताव पर विचार कर रही हो। इससे न्यायपालिका आलोचना के भय से मुक्त होकर स्वतंत्र रूप से निर्णय करती है|
न्यायाधीशों की नियुक्ति
उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश की नियुक्ति राजनीतिक प्रक्रिया का एक हिस्सा है। किसी न्यायाधीश की नियुक्ति से संविधान की व्याख्या पर फर्क पड़ सकता है। इस कारण न्यायाधीशों की नियुक्ति के साथ राजनीतिक विवाद भी रहते हैं। मंत्रिमंडल, राज्यपाल, मुख्यमंत्री और भारत के मुख्य न्यायाधीश–ये सभी न्यायिक नियुक्ति की प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं।
भारत के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति के मामले में वर्षों से परंपरा बन गई है कि सर्वोच्च न्यायालय के सबसे वरिष्ठ न्यायाधीश को इस पद पर नियुक्त किया जाएगा। लेकिन इस परंपरा को दो बार तोड़ा भी गया है। 1973 में तीन वरिष्ठ न्यायाधीशों को छोड़कर न्यायमूर्ति ए एन रे को भारत का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया गया। फिर 1977 में न्यायमूर्ति एच आर खन्ना को पीछे छोड़ते हुए न्यायमूर्ति एम एच वेग की नियुक्ति की गई|
सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति राष्ट्रपति भारत के मुख्य न्यायाधीश की सलाह से करता है। इसका अर्थ यह हुआ कि नियुक्तियों के संबंध में वास्तविक शक्ति मंत्रिपरिषद् के पास है| 1982 से 1998 के बीच मुख्य न्यायाधीश से सलाह का विषय बार-बार सर्वोच्च न्यायालय के सामने आया। शुरू में न्यायालय का विचार था कि मुख्य न्यायाधीश की भूमिका पूरी तरह से सलाहकार की है। लेकिन बाद में न्यायालय ने माना कि मुख्य न्यायाधीश की सलाह राष्ट्रपति को जरूर माननी चाहिए। आखिरकार सर्वोच्च न्यायालय ने एक नई व्यवस्था की। इसके अनुसार सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश अन्य चार वरिष्ठतम् न्यायाधीशों की सलाह से कुछ नाम प्रस्तावित करेगा और इसी में से राष्ट्रपति नियुक्तियाँ करेगा। इस प्रकार सर्वोच्च न्यायालय ने नियुक्तियों की सिफारिश के संबंध में सामूहिकता का सिद्धांत स्थापित किया। इसी कारण आजकल नियुक्तियों के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ न्यायाधीशों के समूह यानी एक कॉलेजियम का ज्यादा प्रभाव है। इस तरह न्यायपालिका की नियुक्ति में सर्वोच्च न्यायालय और मंत्रिपरिषद् महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इसका उपयोग उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की नियुक्तियों एवं स्थानांतरण के लिये किया जाता है। भारत के संविधान में कॉलेजियम का कोई उल्लेख नहीं है। 99वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम, 2014 के माध्यम से न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिये कॉलेजियम प्रणाली को बदलने हेतु राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम (NJAC) की स्थापना की गई थी। हालाँकि सर्वोच्च न्यायालय ने कॉलेजियम प्रणाली को बरकरार रखा और NJAC को इस आधार पर असंवैधानिक ठहराया कि न्यायिक नियुक्ति में राजनीतिक कार्यपालिका की भागीदारी "मूल संरचना के सिद्धांतों" अर्थात् "न्यायपालिका की स्वतंत्रता" के खिलाफ थी।
न्यायाधीशों को पद से हटाना
सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को उनके पद से हटाना काफी कठिन है। कदाचार साबित होने अथवा अयोग्यता की दशा में ही उन्हें पद से हटाया जा सकता है। न्यायाधीश के विरुद्ध आरोपों पर संसद के एक विशेष बहुमत की स्वीकृति ज़रूरी होती है। न्यायाधीश को हटाने की प्रक्रिया अत्यंत कठिन है और जब तक संसद के सदस्यों में आम सहमति न हो तब तक किसी न्यायाधीश को हटाया नहीं जा सकता। उनकी नियुक्ति में कार्यपालिका की महत्त्वपूर्ण भूमिका है वहीं उनको हटाने की शक्ति विधायिका के पास है। इसके द्वारा सुनिश्चित किया गया है कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता बची रहे और शक्ति-संतुलन भी बना रहे। अब तक संसद के पास किसी न्यायाधीश को हटाने का केवल एक प्रस्ताव विचार के लिए आया है। इस मामले में हालाँकि दो-तिहाई सदस्यों ने प्रस्ताव के पक्ष में मत दिया, लेकिन न्यायाधीश को हटाया नहीं जा सका क्योंकि प्रस्ताव पर सदन की कुल सदस्य संख्या का बहुमत प्राप्त न हो सका।
न्यायपालिका की संरचना
भारतीय संविधान एकीकृत न्यायिक व्यवस्था की स्थापना करता है। भारत में न्यायपालिका की संरचना पिरामिड की तरह है जिसमें सबसे ऊपर सर्वोच्च न्यायालय फिर उच्च न्यायालय तथा सबसे नीचे जिला और अधीनस्थ न्यायालय है। नीचे के न्यायालय अपने ऊपर के न्यायालयों की देखरेख में काम करते हैं।
सर्वोच्च न्यायालय का क्षेत्राधिकार
भारत का सर्वोच्च न्यायालय विश्व के सर्वाधिक शक्तिशाली न्यायालयों में से एक है। लेकिन वह संविधान द्वारा तय की गई सीमा के अंदर ही काम करता है। सर्वोच्च न्यायालय के कार्य और उत्तरदायित्व संविधान में दर्ज हैं। भारत के सर्वोच्च न्यायालय का क्षेत्राधिकार निम्न हैं:-
विभिन्न मुद्दों पर राष्ट्रपति द्वारा सर्वोच्च न्यायालय के सलाह की मांग की गयी है, जिसमे दिल्ली विधि अधिनियम, पंजाब जल समझौता समाप्ति अधिनियम, 2004, 2G स्पेक्ट्रम मामला, 2012 इत्यादि कुछ प्रमुख उदाहरण हैं|
न्यायिक सक्रियता
न्यायिक सक्रियता अथवा जनहित याचिका ने न्यायपालिका के कार्यों में क्रांतिकारी परिवर्तन कर उन्हें पहले से अधिक जनोन्मुखी बना दिया है। भारत में न्यायिक सक्रियता का मुख्य साधन जनहित याचिका या सामाजिक व्यवहार याचिका (Social Action Litigation) रही है।
कानून की सामान्य प्रक्रिया में कोई व्यक्ति तभी अदालत जा सकता है जब उसका कोई व्यक्तिगत नुकसान हुआ हो। इसका मतलब यह है कि अपने अधिकार का उल्लंघन होने पर या किसी विवाद में फँसने पर कोई व्यक्ति इंसाफ पाने के लिए अदालत का दरवाजा खटखटा सकता है। 1979 में इस अवधारणा में बदलाव आया। 1979 में इस बदलाव की शुरुआत करते हुए न्यायालय ने एक ऐसे मुकदमे की सुनवाई करने का निर्णय लिया, जिसे पीड़ित लोगों ने नहीं बल्कि उनकी ओर से दूसरों ने दाखिल किया था। चूँकि इस मामले में जनहित से संबंधित एक मुद्दे पर विचार हो रहा था, अतः इसे और ऐसे ही अन्य अनेक मुकदमों को जनहित याचिकाओं का नाम दिया गया। उसी समय सर्वोच्च न्यायालय ने कैदियों के अधिकार से संबंधित मुकदमे पर भी विचार किया। इससे ऐसे मुकदमों की बाढ़ सी आ गई, जिसमें जन सेवा की भावना रखने वाले नागरिकों तथा स्वयंसेवी संगठनों ने अधिकारों की रक्षा, गरीबों के जीवन को और बेहतर बनाने, पर्यावरण की सुरक्षा और लोकहित से जुड़े अनेक मुद्दों पर न्यायपालिका से हस्तक्षेप की माँग की। जनहित याचिका न्यायिक सक्रियता का सबसे प्रभावी साधन हो गई है। न्यायपालिका ने अखबार में छपी खबरों और डाक से प्राप्त शिकायतों को आधार बना कर उन पर विचार करना शुरू कर दिया। इस तरह न्यायपालिका की यह नई भूमिका न्यायिक सक्रियता के रूप में लोकप्रिय हुई।
इन जनहित याचिकाओं में कुछ प्रमुख निम्न हैं –
जनहित याचिकाओं के माध्यम से न्यायालय ने अधिकारों का दायरा बढ़ा दिया।। शुद्ध हवा-पानी और अच्छा जीवन पाना पूरे समाज का अधिकार है। न्यायालय का मानना था कि समाज के अधिकारों के उल्लंघन पर व्यक्तियों को इंसाफ की गुहार लगाने का अधिकार है।
इसके अतिरिक्त 1980 के बाद जनहित याचिकाओं और न्यायिक सक्रियता के द्वारा न्यायपालिका ने उन मामलों में भी रूचि दिखाई जहाँ समाज के कुछ वर्गों के लोग आसानी से अदालत की शरण नहीं ले सकते। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए न्यायालय ने जन सेवा की भावना से भरे नागरिक, सामाजिक संगठन और वकीलों को समाज के जरूरतमंद और गरीब लोगों की ओर से याचिकाएँ दायर करने की इजाजत दी।
न्यायिक सक्रियता का हमारी राजनीतिक व्यवस्था पर बहुत प्रभाव पड़ा है। इससे न केवल व्यक्तियों बल्कि विभिन्न समूहों को भी अदालत जाने का अवसर मिला। इसने न्याय व्यवस्था को लोकतांत्रिक बनाया और कार्यपालिका उत्तरदायी बनने पर बाध्य हुई| चुनाव प्रणाली को भी इसने ज्यादा मुक्त और निष्पक्ष बनाने का प्रयास किया। न्यायालय ने चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशियों को अपनी संपत्ति, आय और शैक्षणिक योग्यताओं के संबंध में शपथपत्र देने का निर्देश दिया, जिससे लोग सही जानकारी के आधार पर अपने प्रतिनिधियों का चुनाव कर सकें।
जनहित याचिकाओं की बढ़ती संख्या और सक्रिय न्यायपालिका के विचार का एक नकारात्मक पहलू भी है। इससे न्यायालयों में काम का बोझ बढ़ा है। दूसरे, न्यायिक सक्रियता से विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के कार्यों के बीच का अंतर धुँधला हो गया है। न्यायालय उन समस्याओं में उलझ गया जिसे कार्यपालिका को हल करना चाहिए। उदाहरण के लिए, वायु और ध्वनि प्रदूषण दूर करना, भ्रष्टाचार के मामलों की जाँच करना या चुनाव सुधार करना वास्तव में न्यायपालिका के काम नहीं है। ये सभी कार्य विधायिका की देखरेख में प्रशासन को करना चाहिए। इसलिए कुछ लोगों का मानना है कि न्यायिक सक्रियता से सरकार के तीनों अंगों के बीच पारस्परिक संतुलन रखना बहुत मुश्किल हो गया है। लोकतान्त्रिक शासन का आधार यह है कि सरकार का हर अंग एक-दूसरे की शक्तियों और क्षेत्राधिकार का सम्मान करें। न्यायिक सक्रियता से इस लोकतांत्रिक सिद्धांत को आघात पहुँच सकता है।
न्यायपालिका और मौलिक अधिकार/ न्यायिक पुनरावलोकन
न्यायपालिका को व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा करने का दायित्व सौंपा गया है। संविधान ऐसी दो विधियों का वर्णन करता है, जिससे सर्वोच्च न्यायालय अधिकारों की रक्षा कर सके-
ये दोनों प्रावधान एक ओर सर्वोच्च न्यायालय को नागरिकों के मौलिक अधिकार के संरक्षक तथा दूसरी ओर संविधान के व्याख्याकार के रूप में स्थापित करते हैं। उपर्युक्त प्रावधानों में दूसरा प्रावधान न्यायिक पुनरावलोकन की व्यवस्था करता है।
सर्वोच्च न्यायालय की सबसे महत्त्वपूर्ण शक्ति संभवतया न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति है। न्यायिक पुनरावलोकन का अर्थ है कि सर्वोच्च न्यायालय किसी भी कानून की संवैधानिकता जाँच सकता है और यदि वह संविधान के प्रावधानों के विपरीत हो, तो न्यायालय उसे गैर-संवैधानिक घोषित कर सकता है। संविधान में कहीं भी न्यायिक पुनरावलोकन शब्द का प्रयोग नहीं किया गया है। लेकिन भारत में संविधान लिखित है और इसमें दर्ज है कि मूल अधिकारों के विपरीत होने पर सर्वोच्च न्यायालय किसी भी कानून को निरस्त कर सकता है। इन तथ्यों के कारण भारत के संविधान में 'न्यायिक पुनरावलोकन' शब्द का प्रयोग न होने पर यह शक्ति सर्वोच्च न्यायालय को प्राप्त है।
इसके अलावा संघीय संबंधों के मामले में भी सर्वोच्च न्यायालय अपनी न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति का प्रयोग कर सकता है। ऐसा करके वह किसी भी कानून को संविधान में निहित शक्ति के बँटवारे की योजना के विरुद्ध होने से रोकता है। इस प्रकार सर्वोच्च न्यायालय न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति के द्वारा ऐसे किसी भी कानून का परीक्षण कर सकता है, जो मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता हो या संविधान में शक्ति-विभाजन योजना के प्रतिकूल हो। न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति राज्यों की विधायिका द्वारा बनाए कानूनों पर भी लागू होती है।
रिट जारी करने की और न्यायिक पुनरावलोकन की शक्तियाँ सर्वोच्च न्यायालय को अत्यंत शक्तिशाली बना देती है। न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति का मतलब यह हुआ कि न्यायपालिका विधायिका द्वारा पारित कानूनों की और संविधान की व्याख्या कर सकती है। अनेक लोगों का मानना है कि इसके द्वारा न्यायपालिका प्रभावी ढंग से संविधान की रक्षा करती है और नागरिकों के अधिकारों की भी रक्षा करती है। जनहित याचिकाओं ने नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करने की न्यायपालिका की शक्ति में बढ़ोत्तरी की है।
न्यायपालिका और संसद
न्यायपालिका ने अधिकार के मुद्दे पर तो सक्रियता दिखाई ही है, संविधान से परे राजनैतिक व्यवहार की प्रवृत्ति पर भी अंकुश लगाया है। इसी कारण जो विषय पहले न्यायिक पुनरावलोकन के दायरे में नहीं थे, उन्हें भी अब इस दायरे में ले लिया गया है, जैसे- राष्ट्रपति और राज्यपाल की शक्तियाँ| सर्वोच्च न्यायालय ने न्याय की स्थापना के लिए कार्यपालिका की संस्थाओं को निर्देश भी दिए हैं । जैसे उसने हवाला मामले, नरसिंह राव मामले और पेट्रोल पंपों के अवैध आवंटन जैसे अनेक मामलों में सीबीआई (केंद्रीय जाँच ब्यूरो) को निर्देश दिया कि वह भ्रष्ट राजनेताओं और नौकरशाहों के विरुद्ध जाँच करें।
भारतीय संविधान में सरकार के प्रत्येक अंग का एक स्पष्ट कार्य क्षेत्र है। संसद कानून बनाने और संविधान का संशोधन करने में सर्वोच्च है, कार्यपालिका उन्हें लागू करने तथा न्यायपालिका विवादों को सुलझाने और बनाए गए कानून की संविधान से अनुकूलन सुनिश्चित करने के लिए है। इस स्पष्ट कार्य विभाजन के बावजूद विधायिका (संसद) और न्यायपालिका तथा कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच टकराव भारतीय राजनीति की विशेषता रही है।
संविधान लागू होने के तुरंत बाद संपत्ति के अधिकार पर रोक लगाने की संसद की शक्ति पर विवाद खड़ा हो गया। संसद संपत्ति रखने के अधिकार पर कुछ प्रतिबंध लगाना चाहती थी, जिससे भूमि सुधारों को लागू किया जा सके। न्यायालय ने निर्णय दिया कि संसद मौलिक अधिकारों को सीमित नहीं कर सकती। संसद ने तब संविधान को संशोधित करने का प्रयास किया। लेकिन न्यायालय ने कहा कि संविधान के संशोधन के द्वारा भी मौलिक अधिकारों को सीमित नहीं किया जा सकता।
संसद और न्यायपालिका के बीच विवाद के केंद्र में निजी संपत्ति के अधिकार का दायरा, मौलिक अधिकारों को सीमित, प्रतिबंधित और समाप्त करने की संसद की शक्ति का दायरा, संसद द्वारा संविधान संशोधन करने की शक्ति का दायरा तथा संसद की मौलिक अधिकारों को प्रतिबंधित करने वाले नीति निर्देशक तत्त्वों को लागू करने के लिए ऐसे कानून बनाने की शक्ति आदि रही है|
1967 से 1973 के बीच यह विवाद काफी गहरा गया। भूमि सुधार कानूनों के अतिरिक्त निवारक नज़रबंदी कानून, नौकरियों में आरक्षण संबंधी कानून, सार्वजनिक उद्देश्य के लिए निजी संपत्ति के अधिग्रहण संबंधी नियम और अधिग्रहीत निजी संपत्ति के मुआवजे संबंधी कानून आदि ऐसे कुछ उदाहरण हैं, जिन पर विधायिका और न्यायपालिका के बीच विवाद हुए।
1973 में सर्वोच्च न्यायालय ने केशवानंद भारती मुकदमे में एक निर्णय दिया जो संसद और न्यायपालिका के संबंधों के नियमन में बहुत ही महत्त्वपूर्ण हो गया है। इस मुकदमें में न्यायालय ने निर्णय दिया कि संविधान का एक मूल ढाँचा है और संसद सहित कोई भी उस मूल ढाँचे से छेड़-छाड़ नहीं कर सकता। संविधान संशोधन द्वारा भी इस मूल ढाँचे को नहीं बदला जा सकता। न्यायालय ने दो और काम किए। संपत्ति के अधिकार के विवादास्पद मुद्दे के बारे में न्यायालय ने कहा कि यह मूल ढाँचे का हिस्सा नहीं है और इसलिए उस पर समुचित प्रतिबंध लगाया जा सकता है। दूसरा, न्यायालय ने यह निर्णय करने का अधिकार अपने पास रखा कि कोई मुद्दा मूल ढाँचे का हिस्सा है या नहीं। यह निर्णय न्यायपालिका द्वारा संविधान की व्याख्या करने की शक्ति का सर्वोत्तम उदाहरण है। इस निर्णय ने विधायिका और न्यायपालिका के बीच विवादों की प्रकृति ही बदल दी।
संसदीय व्यवस्था में संसद को अपना संचालन खुद करने तथा अपने सदस्यों का व्यवहार नियंत्रित करने की शक्ति है। संसदीय व्यवस्था में विधायिका को विशेषाधिकार के हनन का दोषी पाए जाने पर अपने सदस्य को दंडित करने का अधिकार है। सदन के किसी सदस्य के विरुद्ध स्वयं सदन द्वारा यदि कोई अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाती है तो क्या वह सदस्य न्यायालय से सुरक्षा प्राप्त कर सकता है? ये मुद्दे अभी भी सुलझ नहीं पाए हैं और दोनों के बीच विवाद का विषय बने रहते हैं।
इसी प्रकार संविधान यह व्यवस्था करता है कि न्यायाधीशों के आचरण पर संसद में चर्चा नहीं हो सकती। लेकिन अनेक अवसरों पर संसद और राज्यों की विधान सभाओं में न्यायपालिका के आचरण पर अंगुली उठाई गई। इसी प्रकार न्यायपालिका ने भी अनेक अवसरों पर विधायिका की आलोचना की है और उन्हें उनके विधायी कार्यों के संबंध में निर्देश दिए हैं। विधायिका इसे संसदीय संप्रभुता के सिद्धांत के उल्लंघन के रूप में देखती है।
सारांशत: कहा जा सकता है कि सरकार के विभिन्न अंगों के बीच संतुलन, संवेदनशीलता और एक अंग का दूसरे अंग की सत्ता के प्रति सम्मान लोकतंत्र के लिए आवश्यक है।
संविधान संशोधन
हमारे संविधान निर्माता संविधान को एक संतुलित दस्तावेज बनाने के पक्षधर थे। संविधान को इतना लचीला होना हो चाहिए कि उसमें आवश्यकता के अनुसार बदलाव किए जा सकें। लेकिन साथ ही इसे अनावश्यक और अक्सर होने वाले बदलावों से बचाया जाना चाहिए। दूसरे शब्दों में संविधान निर्माता संविधान को एक ही साथ 'लचीला' और 'कठोर' बनाने के पक्ष में थे। यहाँ लचीले का मतलब है परिवर्तनों के प्रति खुली दृष्टि और कठोर का अर्थ है अनावश्यक परिवर्तनों के प्रति सख्त रवैया। लचीला संविधान वह होता है जिसमें आसानी से संशोधन किया जा सकें जिन संविधानों में संशोधन करना बहुत मुश्किल होता है ऐसे संविधानों को कठोर कहा जाता है। भारतीय संविधान में इन दोनों ही तत्त्वों का समावेश किया गया है।
संविधान में ऐसे कई अनुच्छेद हैं जिनमें संसद सामान्य कानून बनाकर संशोधन कर सकती हैं। ऐसे मामलों में कोई विशेष प्रक्रिया अपनाने की जरूरत नहीं होती। इस प्रकार के संशोधन और सामान्य कानून में कोई अंतर नहीं होता। संविधान के इन हिस्सों को काफ़ी लचीला बनाया गया है। संविधान के अनेक अनुच्छेदों में संसद इसी सरल तरीके से संशोधन कर सकती है।
संविधान के शेष खंडों में संशोधन करने के लिए भी अनुच्छेद 368 में प्रावधान किया गया है। इस अनुच्छेद में संविधान में संशोधन करने के दो तरीके दिए गए हैं। ये तरीके संविधान के सभी अनुच्छेदों पर एकसमान रूप से लागू नहीं होते। एक तरीके के अंतर्गत संसद के दोनों सदनों के विशेष बहुमत द्वारा संशोधन करने की बात कही गई है। दूसरा तरीका ज्यादा कठोर है। इसके लिए संसद के विशेष बहुमत और राज्य विधानपालिकाओं की आधी संख्या की आवश्यकता होती है। संविधान संशोधन की प्रक्रिया में संसद के अलावे किसी और की भूमिका नहीं होती है। संशोधन के प्रश्न पर अंतिम राय जनता के निर्वाचित प्रतिनिधियों की ही होती है। इसका अर्थ यह है कि संशोधन की प्रक्रिया का आधार निर्वाचित प्रतिनिधियों (संसदीय संप्रभुता) में निहित है।
इसी प्रकार संसद या कुछ मामलों में राज्य विधान पालिकाओं में संशोधन पारित होने के पश्चात् इस संशोधन को पुष्ट करने के लिए किसी प्रकार के जनमत संग्रह की आवश्यकता नहीं होती। अन्य सभी विधेयकों की तरह संशोधन विधेयक को भी राष्ट्रपति के अनुमोदन के लिए भेजा जाता है परंतु इस मामले में राष्ट्रपति को पुनर्विचार करने का अधिकार नहीं है।
विशेष बहुमत
कतिपय संसोधनों हेतु विशेष बहुमत की आवश्यकता होती है। संविधान में संशोधन करने के लिए दो प्रकार के विशेष बहुमत की आवश्यकता होती है। सबसे पहले, संशोधन विधेयक के पक्ष में मतदान करने वाले सदस्यों की संख्या सदन के कुल सदस्यों की संख्या की कम से कम आधी होनी चाहिए। दूसरे, संशोधन का समर्थन करने वाले सदस्यों की संख्या मतदान में भाग लेने वाले सभी सदस्यों की दो तिहाई होनी चाहिए। संशोधन विधेयक को संसद के दोनों सदनों में स्वतंत्र रूप से पारित करने की आवश्यकता होती है। इसके लिए संयुक्त सत्र बुलाने का प्रावधान नहीं है। कोई भी संशोधन विधेयक विशेष बहुमत के बिना पारित नहीं किया जा सकता।
इसके अलावा, संशोधन विधेयक को संसद के दोनों सदनों में विशेष बहुमत के साथ स्वतंत्र रूप से पारित किया जाना चाहिए। इसका अर्थ यह है कि जब तक प्रस्तावित विधेयक पर पर्याप्त सहमति न बन पाए तब तक उसे पारित नहीं किया जा सकता। सत्तारूढ़ दल काफी कम बहुमत और विपक्ष के विरोध के बावजूद बजट या अपनी पसंद का विधेयक पारित करा सकता है, लेकिन अगर यह दल संविधान में संशोधन करना चाहता है तो उसे कुछ विपक्षी दलों को विश्वास में लेना पड़ेगा। इस तरह संशोधन प्रक्रिया के पीछे बुनियादी भावना यह है कि उसमें राजनीतिक दलों और सांसदों की व्यापक भागीदारी होनी चाहिए।
राज्यों द्वारा अनुमोदन- संविधान के कुछ अनुच्छेदों में संशोधन करने के लिए विशेष बहुमत पर्याप्त नहीं होता। राज्यों और केंद्र सरकार के बीच शक्तियों के वितरण से संबंधित या जन प्रतिनिधित्व से संबंधित अनुच्छेदों में संशोधन करने के लिए राज्यों से परामर्श करना और उनकी सहमति प्राप्त करना आवश्यक होता है। संघीय संरचना का अर्थ यह है कि राज्यों की शक्तियाँ केंद्र सरकार की दया पर निर्भर नहीं करती। संविधान में राज्यों की शक्तियों को सुनिश्चित करने के लिए यह व्यवस्था की गई है। कि जब तक आधे राज्यों की विधान पालिकाएँ किसी संशोधन विधेयक को पारित नहीं कर देती, तब तक वह संशोधन प्रभावी नहीं माना जाता। संघीय संरचना से संबंधित प्रावधानों के अलावा मौलिक अधिकारों के प्रावधानों को भी इसी प्रकार रक्षणीय बनाया गया है। इस अर्थ में यह कहा जा सकता है कि संविधान के कुछ हिस्सों के बारे में राजनीति दलों से एक व्यापक सहमति की अपेक्षा की जाती है। इस प्रावधान में राज्यों के अधिकारों को भी जगह दी गई है। इसके अंतर्गत राज्यों को संशोधन की प्रक्रिया में भाग लेने का अधिकार दिया गया है। उल्लेखनीय है कि संशोधन की प्रक्रिया के कठोर होने के बावजूद उसे फिर भी काफी हद तक लचीला बनाया गया है। संशोधन के लिए केवल आधे राज्यों के अनुमोदन और राज्य विधानपालिकाओं के साधारण बहुमत की आवश्यकता होती है।
निष्कर्षत: भारतीय संविधान में संशोधन करने के लिए व्यापक बहुमत की आवश्यकता पड़ती है। इस प्रक्रिया में राज्यों को सीमित भूमिका दी गई है। हमारे संविधान निर्माता इस बात को लेकर सचेत थे कि संविधान में संशोधन की प्रक्रिया को इतना आसान नहीं बना दिया जाना चाहिए कि उसके साथ जब चाहे परिवर्तन किया जा सके। लेकिन साथ ही उन्होंने इस बात का ख्याल भी रखा कि भावी पीढ़ियाँ अपने समय की जरूरतों के हिसाब से इसमें आवश्यक संशोधन कर सके।
संशोधनों के विषय-वस्तु
यह कहा जाता है कि भारतीय संविधान में बहुत अधिक संशोधन किए गए हैं। विगत वर्षों की अवधि के दौरान संविधान में 104 संशोधन हुए है। संविधान के पहले दशक को छोड़कर शेष दशकों में संशोधनों की एक धारा-सी बहने लगती है। इसका अर्थ है कि संशोधनों के पीछे सत्ताधारी दल की राजनीतिक सोच बहुत मायने नहीं रखती थी बल्कि ये संशोधन समय की जरूरतों के अनुसार किए गए थे।
अब तक किए संशोधनों को तीन श्रेणियों में बाँटा जा सकता है-
भारतीय संविधान के विवादास्पद संशोधन
सत्तर से अस्सी के दशक में कई संशोधनों को लेकर विधि और राजनीति के दायरों में भारी बहस छिड़ी थी। 1971-1976 के काल में विपक्षी दल इन संशोधनों को संदेह की दृष्टि से देखते थे। उनका मानना था कि इन संशोधनों के माध्यम से सत्तारूढ़ दल संविधान के मूल स्वरूप को बिगाड़ना चाहता है। इस संबंध में, 38वाँ, 39वाँ और 42वाँ संशोधन विशेष रूप से विवादास्पद रहे हैं।
जून 1975 में देश में आपातकाल की घोषणा की गई। ये तीन संशोधन इसी पृष्ठभूमि से निकले थे। इन संशोधनों का लक्ष्य संविधान के कई महत्त्वपूर्ण हिस्सों में बुनियादी परिवर्तन करना था।
पिछले चार दशकों में संविधान की बुनियादी संरचना को लेकर देश की सभी संस्थाओं में सहमति पैदा हुई है। वास्तव में, संविधान का 42वाँ संशोधन एक बड़ा संशोधन है। इसने संविधान को गहरे स्तर पर प्रभावित किया। एक प्रकार से यह सर्वोच्च न्यायालय द्वारा केशवानंद मामले में दिए गए निर्णय को भी चुनौती थी। यहाँ तक कि इसके तहत लोकसभा की अवधि को भी 5 वर्ष से बढ़ाकर 6 वर्ष कर दिया गया। मूल कर्तव्यों को संविधान में इसी संशोधन द्वारा जोड़ा गया था। संविधान का 42वाँ संशोधन न्यायपालिका की समीक्षा शक्तियों पर भी प्रतिबंध लगाता है। यह कहा जाता है कि इस संशोधन के द्वारा संविधान के एक बड़े मौलिक हिस्से को नए सिरे से लिखा गया। इस संशोधन के द्वारा संविधान की प्रस्तावना, सातवीं अनुसूची तथा 53 अनुच्छेदों में परिवर्तन किए गए। जब यह संशोधन संसद में पास किया गया तो विरोधी दलों के बहुत से सांसद जेल में थे। इसी पृष्ठभूमि में 1977 के चुनाव हुए और सत्ताधारी दल (कांग्रेस) की हार हुई। नई सरकार ने इन विरोधाभासी संशोधनों पर पुनः विचार करना आवश्यक समझा और 38वें, 39वें तथा 42वें संशोधन के माध्यम से जो परिवर्तन किए गए थे उनमें से अधिकांश को 43वें, 44वें संशोधन के द्वारा निरस्त कर दिया। इन संशोधनों के माध्यम से संवैधानिक संतुलन को पुनः लागू किया गया
संविधान एवं संविधानवाद
संविधान उन नियमों के समूह या संग्रह को कहा जाता है, जिनके अनुसार किसी देश की सरकार का संगठन होता है। ये देश का सर्वोच्च कानून होता है। सरल शब्दों में संविधान किसी राज्य की शासन प्रणाली को विवेचित करने वाला कानून होता है। यह राज्य का सबसे महत्वपूर्ण अभिलेख होता है। एक संविधान में निम्नलिखित बातों का उल्लेख होना आवश्यक होता हैं--
संविधानवाद में उन सिद्धांतों का संकलन पाया जाता है जिनके आधार पर शासन शक्तियों और शासकों के अधिकारों के बीच संबंधों का समायोजन होता है। संविधानवाद (Constitutionalism) एक दर्शन है जो बताती है कि सरकार की सत्ता संविधान से उत्पन्न होती है तथा उसकी सीमा भी संविधान से ही तय होती है। यहां संविधान ही सर्वप्रमुख होता है| यहाँ विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका की शक्ति संविधान में वर्णित होती है तथा वे संविधान में वर्णित प्रक्रिया के तहत ही कार्य करते हैं | अत: किसी मनमाने निर्णय के स्थान पर 'कानून के राज्य' का पक्ष लेना ही संविधानवाद है। ऐतिहासिक प्रक्रिया के परिणाम स्वरूप राजसत्ता के अत्याचार/ दुरूपयोग से बचने के प्रयास में संविधानवाद का जन्म हुआ।
सारांशत: संविधान संविधानवाद के दर्शन की अभिव्यक्ति हैं।
संविधान की मूल संरचना तथा उसका विकास
संविधान की मूल संरचना संविधानवाद के दर्शन पर आधारित है| यह वैसे किसी संवैधानिक परिवर्तन से रोकता है, जिससे नागरिकों के अधिकार बाधित होते हो या संविधान की भावना प्रभावित होती हो| भारतीय संविधान के विकास को जिस बात ने बहुत दूर तक प्रभावित किया है, वह है संविधान की मूल संरचना का सिद्धांत। इस सिद्धांत को न्यायपालिका ने केशवानंद भारती के प्रसिद्ध मामले में प्रतिपादित किया था। इसके माध्यम से यह स्पष्ट हुआ कि -
सर्वोच्च न्यायालय ने केशवानंद के मामले में 1973 में निर्णय दिया था। इसके बाद के दशकों में संविधान की सभी व्याख्याएँ इसको ध्यान में रखकर की गयी। मूल संरचना का सिद्धांत स्वयं में ही एक जीवंत संविधान का उदाहरण है। संविधान में इस अवधारणा का कोई उल्लेख नहीं मिलता। यह एक ऐसा विचार है जो न्यायिक व्याख्याओं से जन्मा है। विगत चार दशकों के दौरान बुनियादी संरचना के सिद्धांत को व्यापक स्वीकृति मिली है। इस तरह देखा जाए तो न्यायपालिका और उसकी व्याख्याओं के चलते भी संविधान में संशोधन हुए हैं।
सभी जीवंत संविधान बहस, तर्क-वितर्क, प्रतिस्पर्द्धा और व्यावहारिक राजनीति की प्रक्रिया से गुजर कर ही विकसित होते हैं। 1973 के बाद न्यायालयों ने कई मामलों में बुनियादी संरचना के तत्त्वों को निर्धारित करने का प्रयास किया है। एक अर्थ में, बुनियादी संरचना के सिद्धांत से संविधान की कठोरता और लचीलेपन का संतुलन और मजबूत ही हुआ है। संविधान के कुछ हिस्सों को संशोधन के दायरे से बाहर रखने और उसके कुछ हिस्सों को संशोधन प्रक्रिया के अंतर्गत लाने से कठोरता और लचीलेपन का संतुलन निश्चय ही पुष्ट हुआ है।
ऐसे कई और उदाहरण मौजूद हैं जिनसे स्पष्ट होता है कि संविधान की समझ को बदलने में न्यायिक व्याख्याओं की अहम भूमिका रही है। नौकरियों तथा शैक्षिक संस्थाओं में आरक्षण सीमा तय करने के संबंध में उच्चतम न्यायालय ने यह फ़ैसला दिया है कि आरक्षित सीटों की संख्या सीटों की कुल संख्या के आधे से अधिक नहीं होनी चाहिए। इस निर्णय को अब एक सिद्धांत के रूप में स्वीकार कर लिया गया है। इसी प्रकार अन्य पिछड़े वर्गों को आरक्षण नीति के अंतर्गत स्थान देते हुए उच्चतम न्यायालय ने क्रीमी लेयर का विचार सामने रखा और यह फ़ैसला दिया कि इस श्रेणी से संबंधित व्यक्तियों को आरक्षण के लाभ नहीं मिलने चाहिए। इसी तरह, न्यायपालिका ने शिक्षा, जीवन, स्वतंत्रता और अल्पसंख्यक समूहों की संस्थाओं की स्थापना और उनके प्रबंधन के अधिकारों के उपबंधों में अनौपचारिक रूप से कई संशोधन किए हैं। इन उदाहरणों से स्पष्ट होता है कि न्यायालय के आदेशों की भी संविधान के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है।
न्यायपालिका का योगदान
न्यायपालिका तथा संसद के विवाद के दौरान संसद का मानना था कि उसके पास गरीब, पिछड़े तथा असहाय लोगों के हितों की रक्षा के लिए कानून बनाने (संशोधन करने) की शक्ति मौजूद है। न्यायपालिका इस बात पर जोर दिया कि ये सब कार्यकलाप संवैधानिक ढाँचे के अंतर्गत किए जाने चाहिए और जनहित के उपाय विधिक सीमाओं के बाहर नहीं होने चाहिए क्योंकि एक बार कानून की सीमाओं से बाहर जाने की छूट मिलने पर सत्ताधारी उसका दुरुपयोग भी कर सकते हैं। प्रजातंत्र में जितना महत्त्व जनकल्याण को दिया जाता है उतना ही ध्यान इस बात पर देना पड़ता है कि सत्ता का दुरूपयोग न होने पाए।
भारतीय संविधान की सफलता इन तनावों को सुलझाने में ही निहित है। न्यायपालिका ने केशवानंद के मामले में संविधान की भाषा पर नहीं बल्कि उसकी आत्मा के आधार पर निर्णय दिया। संविधान में संविधान के मूल ढाँचे के बारे में उल्लेख नहीं है | संविधान में ऐसा कहीं भी नहीं कहा गया है कि उसका फलाँ भाग मूल संरचना का हिस्सा है। इस प्रकार मूल संरचना न्यायपालिका द्वारा स्वयं विकसित की गई अवधारणा है।
न्यायालय का यह मानना है कि किसी दस्तावेज़ को पढ़ते समय हमें उसके निहितार्थ पर ध्यान देना चाहिए। कानून की भाषा की अपेक्षा उस कानून या दस्तावेज़ के पीछे काम करने वाली सामाजिक परिस्थितियाँ तथा अपेक्षाएँ अधिक महत्त्वपूर्ण होती हैं। इसलिए न्यायालय ने संविधान को मूल संरचना पर विशेष ध्यान दिया क्योंकि इसके बिना संविधान की कल्पना ही नहीं की जा सकती।
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