लोकतंत्र में जनता/ नागरिकों का शासन होता है|बड़े देश में शासन के कोई भी निर्णय लेने में सभी नागरिक प्रत्यक्ष रूप से भाग नहीं ले सकते। अतः लोग अपने प्रतिनिधियों को चुनते हैं। चुकी ये प्रतिनिधि हमारा शासन चलाते हैं इसलिए, चुनाव महत्त्वपूर्ण हो जाता है। इस आधार पर हम लोकतंत्र को दो भागों में बाटते हैं- 1. प्रत्यक्ष और 2. अप्रत्यक्ष लोकतंत्र।
शासन और प्रशासन को चलाने में सक्रिय रूप से भाग लेने वाले प्रतिनिधियों को चुनने की विधि को चुनाव या निर्वाचन कहते हैं। अतः महत्त्वपूर्ण निर्णय लेने और प्रशासन चलाने में नागरिक अप्रत्यक्ष रूप से, अपने निर्वाचित प्रतिनिधियों के माध्यम से सम्मिलित होते हैं। जिस व्यवस्था में सभी प्रमुख निर्णय निर्वाचित प्रतिनिधियों के माध्यम से लिए जाएँ उसमें प्रतिनिधियों के निर्वाचन का तरीका बहुत महत्त्वपूर्ण हो जाता है। सभी चुनाव लोकतांत्रिक नहीं होते। बहुत सारे गैर-लोकतांत्रिक देशों में भी चुनाव होते हैं। वास्तव में गैर-लोकतांत्रिक शासक स्वयं को लोकतांत्रिक साबित करने के लिए बहुत आतुर रहते हैं। इसके लिए वे चुनावों को ऐसे ढंग से कराते हैं कि उनके शासन को कोई खतरा न हो।
चुनाव या निर्वाचन के बिंदु पर संविधान की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। एक लोकतांत्रिक देश के संविधान में चुनावों के लिए कुछ मूलभूत नियम होते है, और इस संबंध में विस्तृत नियम-कानून बनाने का कार्य विधायिका द्वारा किया जाता है। ये मूलभूत नियम सामान्यतः मतदान करनेवाले, चुनाव लड़नेवाले, चुनाव की देख-रेख करनेवाले, चुनाव की प्रक्रिया, मतगणना के तरीके और प्रतिनिधियों के चुनाव के विधि से संबंधित होते हैं| सामान्यत: दो प्रकार की चुनाव की व्यवस्था हमें देखने को मिलाती है -1. 'सर्वाधिक वोट पाने वाले की जीत' और 2. 'समानुपातिक प्रतिनिधित्व'
'सर्वाधिक वोट पाने वाले की जीत' और 'समानुपातिक प्रतिनिधित्व' चुनाव प्रणाली की तुलना
सर्वाधिक वोट पाने वाले की जीत
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समानुपातिक प्रतिनिधित्व
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भारत में चुनाव व्यवस्था
भारत में एक ओर जहाँ प्रत्यक्ष चुनावों में फस्ट- पास्ट-द-पोस्ट सिस्टम का प्रयोग देखने को मिलता है वही दूसरी ओर अप्रत्यक्ष चुनावों में समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली देखने को मिलती है|
फस्ट- पास्ट-द-पोस्ट सिस्टम
लोकतांत्रिक चुनाव में जनता वोट देती है और उसकी इच्छा ही प्रतिनिधियों की जीत निश्चित करती है| भारत के चुनाव में 'जो सबसे आगे वही जीते' प्रणाली (फस्ट- पास्ट-द-पोस्ट सिस्टम) का पालन करते हैं। इस व्यवस्था के तहत वर्तमान में पूरे देश को 543 निर्वाचन क्षेत्रों में बाँट दिया गया है; प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र से एक प्रतिनिधि चुना जाता है| जिस प्रत्याशी को अन्य सभी प्रत्याशियों से अधिक वोट मिल जाते हैं उसे ही निर्वाचित कर दिया जाता है। विजयी प्रत्याशी के लिए यह जरूरी नहीं कि उसे कुल मतों का बहुमत मिले। चुनावी दौड़ में जो प्रत्याशी अन्य प्रत्याशियों के मुकाबले सबसे आगे निकल जाता है वहीं विजयी होता है। इसे बहुलवादी व्यवस्था भी कहते हैं। सामान्य/ प्रत्यक्ष चुनाव के लिए संविधान इसी विधि को स्वीकार करता है। सभी हारने वाले प्रत्याशियों के वोट बेकार चले जाते हैं। क्योंकि इन वोटों के आधार पर उन प्रत्याशियों या दलों को कोई सीट नहीं मिलती। यदि किसी पार्टी को प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र में 25 प्रतिशत वोट मिलते हैं लेकिन अन्य प्रत्याशियों को उससे भी कम वोट मिलते हैं। उस स्थिति में केवल 25 प्रतिशत या उससे भी कम वोट पाकर कोई दल सभी सीटें जीत सकता है।
समानुपातिक प्रतिनिधित्त्व
भारत में समानुपातिक प्रतिनिधित्त्व प्रणाली को केवल अप्रत्यक्ष चुनावों के लिए ही सीमित रूप में अपनाया है। हमारा संविधान राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, राज्य सभा और विधान परिषदों के चुनावों के लिए समानुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली का एक तीसरा और जटिल स्वरूप प्रस्तावित करता है।
राज्य सभा के चुनावों में समानुपातिक प्रतिनिधित्व की प्रणाली - समानुपातिक प्रतिनिधित्व का एक तीसरा स्वरूप हमें भारत में राज्य सभा चुनावों में देखने को मिलता है| इसे 'एकल संक्रमणीय मत प्रणाली' कहते हैं। प्रत्येक राज्य को राज्य सभा में सीटों का निश्चित कोटा प्राप्त है। राज्यों की विधान सभा के सदस्यों द्वारा इन सीटों के लिए चुनाव किया जाता है। इसमें राज्य के विधायक ही मतदाता होते हैं। मतदाता चुनाव में खड़े सभी प्रत्याशियों को अपनी पसंद के अनुसार एक वरीयता क्रम में मत देता है। जीतने के लिए किसी प्रत्याशी को मतों का एक कोटा प्राप्त करना पड़ता है। जो निम्नलिखित फार्मूले के आधार पर निकाला जाता है।
कुल मतदान कुल रिक्त सदस्यों की संख्या +1
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+1 |
उदाहरण के लिए यदि राजस्थान के 200 विधायकों को राज्य सभा के लिए चार सदस्य चुनना है तो विजयी उम्मीदवार को (200/ 4+1) +1=200/5 + 1= 40 +1 = 41 वोटों की जरुरत पड़ेगी| जब मतगणना होती है तब उम्मीदवारों को प्राप्त 'प्रथम वरीयता' वोट गिना जाता है। प्रथम वरीयता वोटों की गणना के बाद, यदि प्रत्याशियों की वांछित संख्या वोटों का कोटा नहीं प्राप्त कर पाती तो पुनः मतगणना की जाती है। ऐसे उस प्रत्याशी को मतगणना से निकाल दिया जाता है जिसे प्रथम वरीयता वाले सबसे कम वोट मिले हों। उसके वोटों को अन्य प्रत्याशियों में बाँट दिया जाता है; ऐसा करने में प्रत्येक मत पत्र पर अंकित द्वितीय वरीयता वाले प्रत्याशी को वह मत हस्तांतरित कर दिया जाता है। इस प्रक्रिया को तब तक जारी रखा जाता है जब तक वांछित संख्या के बराबर प्रत्याशियों को विजयी घोषित नहीं कर दिया जाता।
सामान्य चुनावों में भारत में फस्ट- पास्ट-द-पोस्ट सिस्टम/'सर्वाधिक वोट से जीत की प्रणाली अपनाने के कारण
संविधान का अब तक का कामकाज संविधान निर्माताओं की अपेक्षाओं को प्रमाणित करता है। संविधान निर्माताओं की उम्मीदों को संविधान की कार्यप्रणाली से प्राप्त अनुभव प्रमाणित करता है। सर्वाधिक मत से जीत वाली प्रणाली आम मतदाता के लिए सरल और सुपरिचित सिद्ध है। इसने केंद्र और राज्यों में बड़े दलों को स्पष्ट बहुमत प्राप्त करने में मदद की है। इस प्रणाली ने उन दलों को भी हतोत्साहित किया है जो किसी एक जाति या समुदाय से ही अपने सभी वोट प्राप्त करते हैं। समान्यतः सर्वाधिक मत से जीत वाली प्रणाली से द्विदलीय व्यवस्था उभरती है। इसका मतलब है कि सत्ता के लिए दो प्रमुख प्रतियोगी हैं और यही दोनों बारी-बारी से सत्ता प्राप्त करते हैं। नये दलों या किसी तीसरी पार्टी को इस प्रतियोगिता में सम्मिलित होने और सत्ता प्राप्त करने में कठिनाई होती है। इस संदर्भ में भारत में इस प्रणाली का अनुभव कुछ अलग है।
स्वतंत्रता के बाद, यद्यपि हमने सर्वाधिक मत से जीत वाली प्रणाली अपनायी, फिर भी एक दल का वर्चस्व उभर कर सामने आया इसके साथ-साथ अनेक छोटे दल भी अस्तित्व में रहे। 1989 के बाद भारत में बहुदलीय गठबंधनों की कार्यप्रणाली को देखा जा सकता है। इसी के साथ, अनेक राज्यों में धीरे-धीरे द्वि-दलीय प्रतियोगिता उभर रही है। लेकिन भारतीय दलीय प्रणाली की प्रमुख विशेषता यह है कि गठबंधन सरकारों के आने से नये और छोटे दलों को सर्वाधिक मत से जीत वाली प्रणाली के बावजूद चुनावी प्रतियोगिता में प्रवेश करने का मौका मिला है।
निर्वाचन क्षेत्रों का आरक्षण
सर्वाधिक मत से जीत वाली प्रणाली में किसी निर्वाचन क्षेत्र में जिस किसी उम्मीदवार को सबसे अधिक वोट मिल जाता है उसे ही चुना हुआ घोषित कर दिया जाता है। इससे छोटे-छोटे सामाजिक समूहों का अहित हो जाता है। यह भारतीय सामाजिक परिवेश में और अधिक महत्त्वपूर्ण है। हमारे यहाँ जाति आधारित भेदभाव का इतिहास रहा है। ऐसी सामाजिक व्यवस्था में, सर्वाधिक मत से जीत वाली प्रणाली का परिणाम यह होगा कि दबंग सामाजिक समूह और जातियाँ हर जगह जीत जायेंगी और अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति जैसे उत्पीड़ित सामाजिक समूहों को कोई प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं हो पायेगा। हमारे संविधान निर्माता इस कठिनाई से वाकिफ़ थे और ऐसे अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति जैसे उत्पीड़ित सामाजिक समूहों के लिए उचित और न्यायपूर्ण प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने की आवश्यकता समझते थे।
स्वतंत्रता के पूर्व भी इस विषय पर बहस हुई थी और ब्रिटिश सरकार ने 'पृथक निर्वाचन मंडल' की शुरूआत की थी। इसका अर्थ यह था कि किसी समुदाय के प्रतिनिधि के चुनाव में केवल उसी समुदाय के लोग वोट डाल सकेंगे। सविधान सभा के अनेक सदस्यों को इस पर शंका थी। उनका विचार था कि यह व्यवस्था हमारे उद्देश्यों को पूरा नहीं करेगी। इसलिए आरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों की व्यवस्था को अपनाया गया। इस व्यवस्था के अंतर्गत, किसी निर्वाचन क्षेत्र में सभी मतदाता वोट तो डालेंगे लेकिन प्रत्याशी केवल उसी समुदाय या सामाजिक वर्ग का होगा जिसके लिए वह सीट आरक्षित है।
परिसीमन आयोग
परिसीमन आयोग एक स्वतंत्र संस्था है जिसका गठन राष्ट्रपति करते हैं। यह चुनाव आयोग के साथ मिल कर काम करता है। इसका गठन पूरे देश में निर्वाचन क्षेत्रों की सीमा खींचने के उद्देश्य से किया जाता है। प्रत्येक राज्य में आरक्षण के लिए निर्वाचन क्षेत्रों का एक कोटा होता है जो उस राज्य में अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति की संख्या के अनुपात में होता है। परिसीमन के बाद, परिसीमन आयोग प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र में जनसंख्या की संरचना देखता है। जिन निर्वाचन क्षेत्रों में अनुसूचित जनजातियों की जनसंख्या सबसे ज्यादा होती है उसे उनके लिए आरक्षित कर दिया जाता है। अनुसूचित जातियों के मामले में, परिसीमन आयोग दो बातों पर ध्यान देता है। आयोग उन निर्वाचन क्षेत्रों को चुनता है जिसमें अनुसूचित जातियों का अनुपात ज़्यादा होता है। लेकिन यह इन निर्वाचन क्षेत्रों को राज्य के विभिन्न भागों में फैला भी देता है। ऐसा इसलिए कि अनुसूचित जातियों का पूरे देश में बिखराव समरूप है। जब कभी भी परिसीमन का काम होता है, इन आरक्षित निर्वाचन क्षेत्रों में कुछ परिवर्तन कर दिया जाता है। संविधान अन्य उपेक्षित या कमजोर वर्गों के लिए इस प्रकार के आरक्षण की कोई व्यवस्था नहीं करता। इधर, लोकसभा और राज्यों की विधान सभाओं में महिलाओं के लिए आरक्षण की जोरदार माँग उठी है। यह देखते हुये कि प्रतिनिधि संस्थाओं में बहुत कम महिलाएँ चुनी जाती हैं, उनके लिए एक तिहाई सीटें आरक्षित करने की बात हो रही है। शहरी और ग्रामीण स्थानीय सरकारों में महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित कर दी गई हैं। लोकसभा और विधान सभा में ऐसी ही व्यवस्था करने के लिए संविधान का संशोधन करना पड़ेगा। इसके लिए लोकसभा में कई बार संशोधन प्रस्ताव लाया गया, पर उसे पारित नहीं किया जा सका।
भारतीय चुनाव प्रक्रिया की कुछ समस्याएँ हैं जिन्हें निम्नरूपेण वर्णित किया जा सकता है : -
सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार और चुनाव लड़ने का अधिकार
चुनाव का तरीका निर्धारित करने के अतिरिक्त संविधान चुनावों के बारे में दो अन्य मूल बिन्दुओं मतदाता एवं चुनाव लड़ने के लिए अर्हता भी बताता है| इन दोनों बिंदुओं पर हमारा संविधान पूर्ण रूप से स्थापित लोकतांत्रिक परंपराओं का पालन करता है।
लोकतांत्रिक चुनावों में देश के सभी वयस्क नागरिकों को चुनाव में वोट देने का अधिकार होना जरूरी है। इसी को सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के नाम से जानते हैं। अनेक देशों में नागरिकों को इस अधिकार को प्राप्त करने के लिए अपने शासकों से बहुत लंबी लड़ाई लड़नी पड़ी। बहुत से देशों में तो महिलाओं को यह अधिकार काफी देर से और बड़े संघर्ष के बाद मिला। भारतीय संविधान निर्माताओं ने एक महत्वपूर्ण निर्णय के द्वारा प्रत्येक वयस्क भारतीय नागरिक को वोट देने का अधिकार प्रदान किया। 1989 तक, 21 वर्ष से ऊपर के भारतीय नागरिकों को वयस्क भारतीय माना जाता था। 1989 में संविधान के 61वें संशोधन अधिनियम के तहत अनुच्छेद 326 का संशोधन करके मतदान की आयु 21 से घटाकर 18 वर्ष की गई। वयस्क मताधिकार सभी नागरिकों को अपने प्रतिनिधियों की चयन प्रक्रिया में भाग लेने का अवसर प्रदान करता है। यह समानता और गैर-भेदभाव के सिद्धांत के अनुरूप है। अनेक लोग पहले और आज भी ऐसा मानते हैं कि बिना शैक्षणिक योग्यता के सभी को वोट देने का अधिकार देना सही निर्णय नहीं था। लेकिन हमारे संविधान निर्माताओं को सभी नागरिकों की योग्यता और महत्त्व में समान रूप से विश्वास था कि वे समाज, देश और अपने निर्वाचन क्षेत्र के हित में निर्णय ले सकते हैं।
सभी नागरिकों को चुनाव में खड़े होने और जनता का प्रतिनिधि होने का अधिकार है। लेकिन विभिन्न पदों पर चुनाव लड़ने की न्यूनतम आयु अर्हता भिन्न-भिन्न होती है। उदाहरण के लिए लोक सभा या विधान सभा चुनाव में खड़े होने के लिए उम्मीदवार को कम से कम 25 वर्ष का होना चाहिए। कुछ और भी प्रतिबंध हैं। जैसे एक कानूनी प्रतिबंध यह है कि यदि किसी व्यक्ति को किसी अपराध के लिए दो या दो से अधिक वर्षों के लिए जेल हुई हो, तो वह चुनाव लड़ने के योग्य नहीं है। लेकिन चुनाव लड़ने के लिए आय, शिक्षा, वर्ग या लिंग के आधार पर कोई प्रतिबंध नहीं है। इस रूप में, हमारी चुनाव व्यवस्था सभी नागरिकों के लिए खुली हुई है।
स्वतंत्र निर्वाचन आयोग
भारत में चुनाव प्रक्रिया को स्वतंत्र और निष्पक्ष बनाने के लिए कई प्रयास किए गए हैं। एक स्वतंत्र निर्वाचन आयोग की स्थापना इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण कदम है, जो चुनावों के संचालन और देख-रेख के लिए बनाया गया है। अनुच्छेद 324(1) - "इस संविधान के अधीन संसद और प्रत्येक राज्य के विधान मंडल के लिए कराये जाने वाले सभी निर्वाचनों के लिए तथा राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के पदों के निर्वाचनों के लिए निर्वाचक नामावली तैयार कराने का और उन सभी निर्वाचनों के संचालन का अघीक्षण, निर्देशन और नियंत्रण एक आयोग में निहित होगा ।" इसे ही संविधान में निर्वाचन आयोग कहा गया है|
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 324 'निर्वाचनों के लिए मतदाता सूची तैयार कराने और चुनाव के संचालन का अधीक्षण, निर्देशन और नियंत्रण' का अधिकार एक स्वतंत्र निर्वाचन आयोग को देता है। संविधान के ये शब्द बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं। क्योंकि ये निर्वाचन आयोग को चुनावों से संबंधित हर बात पर अंतिम निर्णय करने की भूमिका सौंपते हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने भी संविधान की इस व्याख्या से सहमति व्यक्त की है।
निर्वाचन आयोग की संरचना
भारत का निर्वाचन आयोग एक सदस्यीय या बहुसदस्यीय भी हो सकता है। 1989 तक, निर्वाचन आयोग एक सदस्यीय था। 1989 के आम चुनावों के ठीक पहले दो अन्य निर्वाचन आयुक्तों को नियुक्त कर इसे बहु-सदस्यीय बना दिया गया। चुनावों के बाद उसे फिर एक सदस्यीय बना दिया गया। 1993 में पुनः दो निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति हुई और निर्वाचन आयोग बहु-सदस्यीय हो गया; तब से यह बहु-सदस्यीय बना हुआ है। शुरू में बहु-सदस्यीय निर्वाचन आयोग को लेकर तरह-तरह की शंकाएँ थीं। मुख्य निर्वाचन आयुक्त और अन्य आयुक्तों के बीच इस बात पर घोर मतभेद था कि किसको कितनी शक्ति प्राप्त हैं। इसका समाधान सर्वोच्च न्यायालय को करना पड़ा। अब इस बात पर सामान्य सहमति है कि बहु-सदस्यीय निर्वाचन आयोग ज्यादा उपयुक्त है क्योंकि इससे आयोग की शक्तियों में साझेदारी हो गई है और आयोग पहले से कहीं ज्यादा जवाबदेह हो गया है।
मुख्य निर्वाचन आयुक्त निर्वाचन आयोग की अध्यक्षता करता है, लेकिन अन्य दोनों निर्वाचन आयुक्तों की तुलना में उसे अधिक शक्तियां प्राप्त नहीं हैं। एक सामूहिक संस्था के रूप में चुनाव संबंधी सभी निर्णय में मुख्य निर्वाचन आयुक्त और अन्य दोनों निर्वाचन आयुक्तों की शक्तियों समान हैं। उनकी नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा मंत्रिपरिषद के परामर्श पर की जाती है। ऐसे में संभव है कि सरकार के द्वारा किसी ऐसे हितैषी की नियुक्ति निर्वाचन आयोग में कर दी जाए जो चुनावों में सरकार का समर्थन करे। इस शंका के चलते अनेक लोगों ने इस प्रक्रिया को बदलने का सुझाव दिया है। उनका सुझाव है कि इसके लिए एक भिन्न प्रक्रिया का पालन किया जाना चाहिये, जिसमें मुख्य निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति में विपक्ष के नेता और भरत के मुख्य न्यायाधीश से परामर्श करना जरूरी होना चाहिए।
संविधान मुख्य निर्वाचन आयुक्त और निर्वाचन आयुक्तों के कार्यकाल की सुरक्षा देता है। उन्हें 6 वर्षों के लिए, अथवा 65 वर्ष की आयु तक (जो पहले खत्म हो) के लिए नियुक्त किया जाता है। मुख्य निर्वाचन आयुक्त को कार्यकाल समाप्त होने के पूर्व राष्ट्रपति द्वारा हटाया जा सकता है; पर इसके लिए संसद के दोनों सदनों को विशेष बहुमत से पारित कर इस आशय का एक प्रतिवेदन राष्ट्रपति को भेजना होगा। ऐसा यह सुनिश्चित करने के लिए किया गया है कि कोई भी सरकार उस मुख्य निर्वाचन आयुक्त को न हटा सके जो चुनावों में उसकी तरफदारी करने से मना करे। निर्वाचन आयुक्तों को भारत का राष्ट्रपति हटा सकता है।
भारत के निर्वाचन आयोग की सहायता करने के लिए प्रत्येक राज्य में एक मुख्य निर्वाचन अधिकारी होता है। निर्वाचन आयोग स्थानीय निकायों के चुनाव के लिए ज़िम्मेदार नहीं होता। जैसा इसके लिए राज्यों में राज्य निर्वाचन आयुक्त होते हैं, जो निर्वाचन आयोग से अलग कार्य करते हैं। और इनमें से प्रत्येक का काम करने का अपना अलग दायरा है।
भारत के निर्वाचन आयोग के कार्य
विगत वर्षों में, निर्वाचन आयोग एक स्वतंत्र सत्ता के रूप में उभरा है जिसने चुनाव प्रक्रिया की निष्पक्षता सुनिश्चित करने के लिए अपनी शक्तियों का प्रयोग किया है। उसने चुनाव प्रक्रिया की गरिमा बनाये रखने के लिए निष्पक्ष और न्यायपूर्ण ढंग से काम किया है।
निर्वाचन आयोग का इतिहास इस बात का गवाह है कि संस्थाओं की कार्यप्रणाली में प्रत्येक सुधार के लिए कानूनी या संवैधानिक परिवर्तन आवश्यक नहीं। यह आम धारणा है कि 35 वर्ष पहले के मुकाबले आज निर्वाचन आयोग ज्यादा स्वतंत्र और प्रभावी है। ऐसा इसलिए नहीं कि निर्वाचन आयोग की शक्तियों या उसकी संवैधानिक सुरक्षा बढ़ा दी गई है। दरअसल निर्वाचन आयोग ने केवल उन शक्तियों का और प्रभावशाली ढंग से प्रयोग करना शुरू कर दिया है जो उसे संविधान में पहले से ही प्राप्त थीं।
पिछले 75 वर्षों में लोकसभा के सत्रह चुनाव हो चुके हैं। निर्वाचन आयोग के द्वारा विधान सभाओं के अनेक चुनाव और उप-चुनाव कराये गये। निर्वाचन आयोग को असम, पंजाब तथा जम्मू और कश्मीर जैसे हिंसाग्रस्त क्षेत्रों में चुनाव कराने में अनेक कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ा है। उसे 1991 में पूरी चुनाव प्रक्रिया को बीच में ही रोकना पड़ा क्योंकि चुनाव प्रचार के दौरान पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या कर दी गई। निर्वाचन आयोग को एक अन्य गंभीर समस्या का सामना करना पड़ा जब गुजरात विधान सभा भंग कर दी गई और चुनाव कराना पड़ा। लेकिन निर्वाचन आयोग ने पाया कि राज्य में अप्रत्याशित हिंसा के कारण स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराना तुरंत संभव न था। निर्वाचन आयोग ने राज्य में विधान सभा चुनावों को कुछ महीनों के लिए स्थगित करने का निर्णय लिया। सर्वोच्च न्यायालय ने निर्वाचन आयोग के इस निर्णय को वैध ठहराया।
चुनाव सुधार
चुनाव की कोई प्रणाली कभी आदर्श नहीं हो सकती। उसमें अनेक कमियाँ और सीमाएँ होती हैं । लोकतांत्रिक समाज को अपने चुनावों को और अधिक स्वतंत्र और निष्पक्ष बनाने के तरीकों को बराबर खोजते रहना पड़ता है। वयस्क मताधिकार, चुनाव लड़ने की स्वतंत्रता और एक स्वतंत्र निर्वाचन आयोग की स्थापना को स्वीकार कर भारत में चुनावों को स्वतंत्र और निष्पक्ष बनाने की कोशिश की गई है। लेकिन पिछले 75 वर्षों के अनुभवों के बाद हमारी चुनाव प्रणाली में सुधार के लिए अनेक सुझाव दिये गये हैं। चुनाव सुधारों के सुझाव निर्वाचन आयोग, विभिन्न राजनीतिक दलों, स्वतंत्र समूहों और अनेक विद्वानों द्वारा दिये गये हैं। इनमें से कुछ सुझाव संवैधानिक प्रावधानों को संशोधित करने के बारे में हैं।
कुछ सुझाव निम्नवत हैं:-
कुछ सुझावों पर कोई आम राय नहीं है। लेकिन यदि उन पर आम राय बन भी जाये तो भी कानून और औपचारिक प्रावधान एक सीमा तक ही कारगर हो सकते हैं। वास्तव में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव तभी हो सकते हैं जब सभी उम्मीदवार, राजनीतिक दल और वे सभी लोग जो चुनाव प्रक्रिया में भाग लेते हैं लोकतांत्रिक प्रतिस्पर्धा की भावना का सम्मान करें। कानूनी सुधारों के अतिरिक्त, दो और तरीके हैं जिनसे यह सुनिश्चित किया जा सकता है कि चुनाव जनता की अपेक्षाओं और लोकतांत्रिक आकांक्षाओं को व्यक्त करें। पहला तो यह कि जनता को स्वयं ही और अधिक सतर्क रहना चाहिये तथा राजनीतिक कार्यों में और सक्रियता से भाग लेना चाहिये। लेकिन आम आदमी के लिए नियमित रूप से राजनीति में भाग लेने की अपनी सीमाएँ हैं। इसलिए, यह जरूरी है कि अनेक राजनीतिक संस्थाओं और राजनीतिक संगठनों का विकास किया जाय जो स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित कराने के लिए पहरेदारी करें।
हाल के वर्षों में स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनावों हेतु चुनाव आयोग द्वारा किये गए कार्य
इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों के निर्माता, इलेक्ट्रानिक्स कॉरपोरेशन ऑफ इंण्डिया लिमिटेड , हैदराबाद और भारत इलेक्ट्रानिक्स लिमिटेड, बेंगलुरु ने कहा है कि ईवीएम पूर्ण विश्वसनीय हैं क्योंकि ईवीएम के लिए प्रोग्रामिंग ईसीआईएल और बीईएल में सुरक्षित विनिर्माण सुविधा में की जाती है (जहां इलेक्ट्रॉनिक रूप से संचालन लॉग होता है) और चिप निर्माताओं के साथ नहीं। ईवीएम और वोटर वैरिफाइड पेपर ऑडिट ट्रेल में नियंत्रण और बैलेट इकाइयों में एक छेड़छाड़-रोधी तंत्र होता है जिसके द्वारा अवैध रूप से खोले जाने पर वे गैर-क्रियाशील हो जाते हैं। ईवीएम स्टैंडअलोन मशीनें हैं, इनमें रेडियो फ्रीक्वेंसी ट्रांसमिशन डिवाइस की कोई सुविधा नहीं है, बैटरी पैक पर काम करते हैं और इन्हें दोबारा नहीं लगाया जा सकता है। ईवीएम की नियंत्रण इकाई में एक वास्तविक समय की घड़ी होती है जो उस समय हर घटना को सही समय पर लॉग ऑन करती है जिस समय इसे स्विच किया गया था। मशीन में एंटी-टैम्पर तंत्र 100-मिलीसेकंड भिन्नताओं का भी पता लगा सकता है।
तीन प्रकार की इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनें M1, M2 और M3 हैं। सबसे आधुनिक M3 ईवीएम, जो 2013 में इसकी शुरूआत के बाद से उपयोग में हैं, पीएसयू परिसर में ही चिप्स में मशीन कोड लिखने की अनुमति देता है- भारत इलेक्ट्रानिक्स लिमिटेड, बैंगलोर और इलेक्ट्रानिक्स कॉरपोरेशन ऑफ इंण्डिया लिमिटेड , हैदराबाद। भारत निर्वाचन आयोग ने ईवीएम ट्रैकिंग सॉफ्टवेयर (ईटीएस) को एक आधुनिक इन्वेंट्री प्रबंधन प्रणाली के रूप में पेश किया, जहां सभी ईवीएमएस / वोटर वैरिफायबल पेपर ऑडिट ट्रेल(वीवीपैट) की पहचान और भौतिक उपस्थिति को वास्तविक समय के आधार पर ट्रैक किया जाता है। एम 3 ईवीएम में प्रत्येक मशीन में डिजिटल सत्यापन प्रणाली कोडित है जो इसकी दो घटक इकाइयों के बीच संपर्क स्थापित करने के लिए आवश्यक है। यह सुनिश्चित करने के लिए सील की कई परतें हैं कि यह छेड़छाड़-प्रूफ है। भारतीय ईवीएम गैर-नेटवर्क मशीन हैं।
2018 में नोटा को भारत में पहली बार उम्मीदवारों के समकक्ष दर्जा मिला। हरियाणा में दिसंबर 2018 में पांच जिलों में होने वाले नगर निगम चुनावों के लिए हरियाणा चुनाव आयोग ने निर्णय लिया कि नोटा के विजयी रहने की स्थिति में सभी प्रत्याशी अयोग्य घोषित हो जाएंगे तथा चुनाव पुनः कराया जाएगा। हालांकि अभी भारत निर्वाचन आयोग ने इसे लागू नही किया है।
भारतीय आम चुनाव, 2019 में भारत में लगभग 1.04 प्रतिशत मतदाताओं ने उपरोक्त में से कोई नहीं (नोटा) के लिए मतदान किया, जिसमें बिहार 2.08 प्रतिशत नोटा मतदाताओं के साथ अग्रणी रहा।
भारत में, वेरिफाइड पेपर रिकार्ड का पहली बार इस्तेमाल सितंबर 2013 में नागालैंड के नाकसेन विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र के एक चुनाव में किया गया था। लोक सभा चुनाव, 2014 में एक पायलट परियोजना के रूप में 543 संसदीय निर्वाचन क्षेत्रों में से 8 लखनऊ, गांधीनगर, बैंगलोर दक्षिण, चेन्नई सेंट्रल, जादवपुर, रायपुर, पटना साहिब और मिजोरम निर्वाचन क्षेत्र में वोटर वैरिफायबल पेपर ऑडिट ट्रेल (वीवीपीएटी) प्रणाली की शुरुआत की गई थी। वीवीएपीएटी से भरा इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) 2017 विधानसभा चुनावों में संपूर्ण गोवा राज्य में इस्तेमाल किया गया|वीवीपीएटी प्रणाली जो इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीनों को ईवीएम स्लिप पैदा करके प्रत्येक वोट कास्ट दर्ज करने में सक्षम बनाती है, को भारतीय आम चुनाव, 2019 में सभी 543 लोक सभा निर्वाचन क्षेत्रों में उपयोग किया गया था।[
भारतीय आम चुनाव 2014 के दौरान, महाराष्ट्र के पूर्व उपमुख्यमंत्री अजीत पवार ने कथित तौर पर मतदाताओं को धमकी दी थी कि उनकी पार्टी को वोट नही देने बालों को भुगतना पड़ेगा| इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन रीडिंग से वोटिंग पैटर्न का पता लगाया जा सकता है| 2014 में सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की गई है जिसमें किसी ख़ास क्षेत्र के मतदाताओं के प्रत्यासी के चुनाव से सम्बंधित वोटिंग पैटर्न के प्रकटन को रोकने के लिए चुनाव आयोग को निर्देश देने की मांग की गई थी। चुनाव आयोग ने शुरू में 2008 में यूपीए सरकार को इस उपाय का सुझाव दिया था। फरवरी 2017 में, एनडीए सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में अपने हलफनामे में टोटलाइजर का विरोध किया, जबकि भारतीय कानून आयोग और भारतीय चुनाव आयोग ने टोटलाइजर की शुरुआत का समर्थन किया था। कांग्रेस, राकांपा और बसपा ने "स्पष्ट रूप से" 'टोटलाइजर' मशीन का इस्तेमाल करने के प्रस्ताव का समर्थन किया, जबकि भाजपा, तृणमूल कांग्रेस और पीएमके ने टोटलाइजर का विरोध किया।
लैंगिक मसले और राजनीति
मनुष्य जाति की आबादी में औरतों का हिस्सा आधा है पर सार्वजनिक जीवन में, खासकर राजनीति में उनकी भूमिका नगण्य ही है। यह बात अधिकतर समाजों पर लागू होती है। पहले सिर्फ़ पुरुषों को ही सार्वजनिक मामलों में भागीदारी करने, वोट देने या सार्वजनिक पदों के लिए चुनाव लड़ने की अनुमति थी। धीरे-धीरे राजनीति में लैंगिक मुद्दे उभरे। दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में औरतों ने अपने संगठन बनाए और बराबरी के अधिकार हासिल करने के लिए आंदोलन किए। विभिन्न देशों में महिलाओं को वोट का अधिकार प्रदान करने के लिए आंदोलन हुए। समान मज़दूरी से संबंधित अधिनियम में कहा गया है कि समान काम के लिए समान मजदूरी दी जाएगी। बहरहाल, काम के हर क्षेत्र में यानी खेल-कूद की दुनिया से लेकर सिनेमा के संसार तक और कल-कारखानों से लेकर खेत-खलिहान तक महिलाओं को पुरुषों की तुलना में कम मज़दूरी मिलती है, भले ही दोनों ने समान काम किया हो। भारत के अनेक हिस्सों में माँ-बाप को सिर्फ़ लड़के की चाह होती है। लड़की को जन्म लेने से पहले ही खत्म कर देने के तरीके इसी मानसिकता से पनपते हैं। इससे देश का लिंग अनुपात [प्रति हज़ार लड़कों पर लड़कियों की संख्या] गिरकर 943 रह गया है। हरियाणा में यह अनुपात गिरकर 879 चला गया है। महिलाओं के उत्पीड़न, शोषण और उन पर होने वाली हिंसा की खबरें हमें रोज़ पढ़ने को मिलती हैं। शहरी इलाके तो महिलाओं के लिए खास तौर से असुरक्षित हैं। वे अपने घरों में भी सुरक्षित नहीं हैं क्योंकि वहाँ भी उन्हें मारपीट तथा अनेक तरह की घरेलू हिंसा झेलनी पड़ती है।
महिलाओं का राजनीतिक प्रतिनिधित्व
ये कोई छुपी हुई बात नहीं है कि औरतों की भलाई या उनके साथ समान व्यवहार वाले मुद्दों पर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जाता। इसी के चलते विभिन्न नारीवादी समूह और महिला आंदोलन इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि जब तक औरतों का सत्ता पर नियंत्रण नहीं होगा तब तक इस समस्या का निपटारा नहीं हो सकता। इस लक्ष्य को हासिल करने का एक तरीका यह है कि जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों में महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़ाई जाए।
भारत की विधायिका में महिला प्रतिनिधियों का अनुपात बहुत ही कम है। जैसे, लोकसभा में महिला सांसदों की संख्या कभी कुल सदस्यों की दस फीसदी तक भी नहीं पहुँची है। राज्यों की विधान सभाओं में उनका प्रतिनिधित्व 5 फीसदी से भी कम है। इस मामले में भारत का नंबर दुनिया के देशों में काफ़ी नीचे है। भारत इस मामले में अफ्रीका और लैटिन अमरीका के कई विकासशील देशों से भी पीछे है। कभी-कभार कोई महिला प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री की कुर्सी तक आ गई है पर मंत्रिमंडलों में पुरुषों का ही वर्चस्व रहा है।
इस समस्या को सुलझाने का एक तरीका तो निर्वाचित संस्थाओं में महिलाओं के लिए, कानूनी रूप से एक उचित हिस्सा तय कर देना है। भारत में पंचायती राज के अंतर्गत कुछ ऐसी ही व्यवस्था की गई है। स्थानीय सरकारों यानी पंचायतों और नगरपालिकाओं में एक तिहाई पद महिलाओं के लिए आरक्षित कर दिए गए हैं। आज भारत के ग्रामीण और शहरी स्थानीय निकायों में निर्वाचित महिलाओं की संख्या 14,54,488 से ज्यादा है, बिहार में भी निर्वाचित महिलाओं की संख्या 71,046 है।
महिला संगठनों और कार्यकर्त्ताओं की माँग है कि लोक सभा और राज्य विधान सभाओं की भी एक तिहाई सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित कर देनी चाहिए। संसद में इस आशय का एक विधेयक पेश भी किया गया था पर दस वर्षों से ज्यादा अवधि से वह लटका पड़ा है। सभी राजनीतिक पार्टियाँ इस विधेयक को लेकर एकमत नहीं हैं और यह पास नहीं हो सका है।
धर्म, सांप्रदायिकता और राजनीति
विश्व में धार्मिक विभिन्नता आज बड़ी व्यापक हो चली है। भारत समेत अनेक देशों में अलग-अलग धर्मों को मानने वाले लोग रहते हैं पर जैसा कि हमने उत्तरी आयरलैंड के मामले में देखा, अगर लोग एक धर्म को मानें लेकिन उनकी पूजा-पद्धति और मान्यताएँ अलग-अलग हों तब भी गंभीर मतभेद पैदा हो जाते हैं। लैंगिक विभाजन के विपरीत धार्मिक विभाजन अक्सर राजनीति के मैदान में अभिव्यक्त होता है। गांधी जी कहा करते थे कि धर्म को कभी भी राजनीति से अलग नहीं किया जा सकता। धर्म से उनका मतलब हिंदू या इस्लाम जैसे धर्म से न होकर नैतिक मूल्यों से था जो सभी धर्मों से जुड़े हैं। उनका मानना था कि राजनीति धर्म द्वारा स्थापित मूल्यों से निर्देशित होनी चाहिए। अपने देश के मानवाधिकार समूहों का कहना है कि इस देश में सांप्रदायिक दंगों में मरने वाले ज़्यादातर लोग अल्पसंख्यक समुदायों के हैं। उनकी माँग है कि सरकार अल्पसंख्यकों की रक्षा के लिए विशेष कदम उठाए।
महिला - आंदोलन का कहना है कि सभी धर्मों में वर्णित पारिवारिक कानून महिलाओं से भेदभाव करते हैं। इस आंदोलन की माँग है कि सरकार को इन कानूनों को समतामूलक बनाने के लिए उनमें बदलाव करने चाहिए । ये सभी मामले धर्म और राजनीति से जुड़े हैं पर ये बहुत गलत या खतरनाक भी नहीं लगते। विभिन्न धर्मों से निकले विचार, आदर्श और मूल्य राजनीति में एक भूमिका निभा सकते हैं। लोगों को एक धार्मिक समुदाय के तौर पर अपनी ज़रूरतों, हितों ओर माँगों को राजनीति में उठाने का अधिकार होना चाहिए। जो लोग राजनीतिक सत्ता में हों उन्हें धर्म के कामकाज पर नज़र रखनी चाहिए और अगर वह किसी के साथ भेदभाव करता है या किसी के दमन में सहयोगी की भूमिका निभाता है तो इसे रोकना चाहिए। अगर शासन सभी धर्मों के साथ समान बरताव करता है तो उसके ऐसे कामों में कोई बुराई नहीं है।
सांप्रदायिकता
समस्या तब शुरू होती है जब धर्म को राष्ट्र का आधार मान लिया जाता है। उत्तरी आयरलैंड का उदाहरण राष्ट्रवाद की ऐसी ही अवधारणा से जुड़े खतरों को दिखाता है। समस्या तब और विकराल हो जाती है जब राजनीति में धर्म की अभिव्यक्ति एक समुदाय की विशिष्टता के दावे और पक्षपोषण का रूप लेने लगती है तथा इसके अनुयायी दूसरे धर्मावलंबियों के खिलाफ़ मोर्चा खोलने लगते हैं। ऐसा तब होता है जब एक धर्म के विचारों को दूसरे से श्रेष्ठ माना जाने लगता है और कोई एक धार्मिक समूह अपनी माँगों को दूसरे समूह के विरोध में खड़ा करने लगता है। इस प्रक्रिया में जब राज्य अपनी सत्ता का इस्तेमाल किसी एक धर्म के पक्ष में करने लगता है तो स्थिति और विकट होने लगती है। राजनीति से धर्म को इस तरह जोड़ना ही सांप्रदायिकता है।
सांप्रदायिक राजनीति इस सोच पर आधारित होती है कि धर्म ही सामाजिक समुदाय का निर्माण करता है। इस मान्यता के अनुकूल सोचना सांप्रदायिकता है। इस सोच के अनुसार एक खास धर्म में आस्था रखने वाले लोग एक ही समुदाय के होते हैं। उनके मौलिक हित एक जैसे होते हैं तथा समुदाय के लोगों के आपसी मतभेद सामुदायिक जीवन में कोई अहमियत नहीं रखते इस सोच में यह बात भी शामिल है कि किसी अलग धर्म को मानने वाले लोग दूसरे सामाजिक समुदाय का हिस्सा नहीं हो सकते; अगर विभिन्न धर्मों के लोगों की सोच में कोई समानता दिखती है तो यह ऊपरी और बेमानी होती है। अलग-अलग धर्मों के लोगों के हित तो अलग-अलग होंगे ही और उनमें टकराव भी होगा। सांप्रदायिक सोच जब ज्यादा आगे बढ़ती है तो उसमें यह विचार जुड़ने लगता है कि दूसरे धर्मों के अनुयायी एक ही राष्ट्र में समान नागरिक के तौर पर नहीं रह सकते। इस मानसिकता के अनुसार या तो एक समुदाय के लोगों को दूसरे समुदाय के वर्चस्व में रहना होगा या फिर उनके लिए अलग राष्ट्र बनाना होगा।
यह मान्यता बुनियादी रूप से गलत है। एक धर्म के लोगों के हित और उनकी आकांक्षाएँ हर मामले में एक जैसी हो- यह संभव नहीं है। हर व्यक्ति कई तरह की भूमिका निभाता है। उसकी हैसियत और पहचान अलग-अलग होती है। हर समुदाय में तरह-तरह के विचार के लोग होते हैं। इन सभी को अपनी बात कहने का अधिकार है इसलिए एक धर्म से जुड़े सभी लोगों को किसी गैर-धार्मिक संदर्भ में एक करके देखना उस समुदाय की विभिन्न आवाजों को दबाना है।
सांप्रदायिकता राजनीति में अनेक रूप धारण कर सकती है
धर्मनिरपेक्ष शासन
सांप्रदायिकता हमारे देश के लोकतंत्र के लिए एक बड़ी चुनौती रही है। हमारे संविधान निर्माता इस चुनौती के प्रति सचेत थे। इसी कारण उन्होंने धर्मनिरपेक्ष शासन का मॉडल चुना और इसी आधार पर संविधान में अनेक प्रावधान किए गए हैं। भारतीय राज्य ने किसी भी धर्म को राजकीय धर्म के रूप में अंगीकार नहीं किया है। श्रीलंका में बौद्ध धर्म, पाकिस्तान में इस्लाम और इंग्लैंड में ईसाई धर्म का जो दर्जा रहा है उसके विपरीत भारत का संविधान किसी धर्म को विशेष दर्जा नहीं देता। संविधान सभी नागरिकों और समुदायों को किसी भी धर्म का पालन करने और प्रचार करने की आज़ादी देता है। संविधान धर्म के आधार पर किए जाने वाले किसी तरह के भेदभाव को अवैधानिक घोषित करता है। इसके साथ ही संविधान धार्मिक समुदाय में समानता सुनिश्चित करने के लिए शासन को धार्मिक मामलों में दखल देने का अधिकार देता है। जैसे, यह छुआछूत की इजाजत नहीं देता।
धर्मनिरपेक्षता कुछ पार्टियों या व्यक्तियों की एक विचारधारा भर नहीं है। यह विचार हमारे संविधान की बुनियाद है। सांप्रदायिकता भारत में सिर्फ कुछ लोगों के लिए ही एक खतरा नहीं है। यह भारत की बुनियादी अवधारणा के लिए एक चुनौती है, एक खतरा है। हमारी तरह का धर्मनिरपेक्ष संविधान जरूरी चीज है पर अकेले इसी के बूते सांप्रदायिकता का मुकाबला नहीं किया जा सकता। हमें अपने दैनंदिन जीवन में सांप्रदायिक पूर्वाग्रहों और दुष्प्रचारों का मुकाबला करना होगा तथा धर्म पर आधारित गोलबंदी का मुकाबला राजनीति के दायरे में करने की जरूरत है।
जाति और राजनीति
जातिगत असमानताएँ
लिंग और धर्म पर आधारित विभाजन तो दुनिया भर में हैं पर जाति पर आधारित विभाजन सिर्फ़ भारतीय समाज में ही देखने को मिलता है। सभी समाजों में कुछ सामाजिक असमानताएँ और एक न एक तरह का श्रम का विभाजन मौजूद होता है। अधिकतर समाजों में पेशा परिवार की एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में जाता है। लेकिन जाति व्यवस्था इसका एक अतिवादी और स्थायी रूप है। अन्य समाजों में मौजूद असमानताओं से यह एक खास अर्थ में भिन्न है। इसमें पेशा के वंशानुगत विभाजन को रीति-रिवाजों की मान्यता प्राप्त है। एक जाति समूह के लोग एक या मिलते-जुलते पेशों के तो होते ही हैं साथ ही उन्हें एक अलग सामाजिक समुदाय के रूप में भी देखा जाता है। उनमें आपस में ही बेटी-रोटी अर्थात शादी और खानपान का संबंध रहता है। अन्य जाति समूहों में उनके बच्चों की न तो शादी हो सकती है न महत्वपूर्ण पारिवारिक और सामुदायिक आयोजनों में उनकी पाँत में बैठकर दूसरी जाति के लोग भोजन कर सकते हैं।
वर्ण-व्यवस्था अन्य जाति-समूहों से भेदभाव और उन्हें अपने से अलग मानने की धारणा पर आधारित है। इसमें 'अंत्यज' जातियों के साथ छुआछूत का व्यवहार किया जाता था। यही कारण है कि ज्योतिबा फुले, महात्मा गांधी, डॉ. अंबेडकर और पेरियार रामास्वामी नायकर जैसे राजनेताओं और अन्य समाज सुधारकों ने जातिगत भेदभाव से मुक्त समाजिक व्यवस्था बनाने की बात की और उसके लिए काम किया। इन महापुरुषों के प्रयासों और सामाजिक-आर्थिक बदलावों के चलते आधुनिक भारत में जाति की संरचना और जाति व्यवस्था में भारी बदलाव आया है। आर्थिक विकास, शहरीकरण, साक्षरता और शिक्षा के विकास, पेशा चुनने की आजादी और गाँवों में जमींदारी व्यवस्था के कमजोर पड़ने से जाति व्यवस्था के पुराने स्वरूप और वर्ण व्यवस्था पर टिकी मानसिकता में बदलाव आ रहा है। संविधान में किसी भी तरह के जातिगत भेदभाव का निषेध किया गया है। संविधान ने जाति व्यवस्था से पैदा हुए अन्याय को समाप्त करने वाली नीतियों का आधार तय किया है। समकालीन भारत से जाति प्रथा विदा नहीं हुई है। जाति व्यवस्था के कुछ पुराने पहलू अभी भी बरकरार हैं। अभी भी ज़्यादातर लोग अपनी जाति में ही शादी करते हैं। स्पष्ट संवैधानिक प्रावधान के बावजूद छुआछूत की प्रथा अभी पूरी तरह समाप्त नहीं हुई है। जाति व्यवस्था के अंतर्गत सदियों से कुछ समूहों को लाभ की स्थिति में तो, कुछ समूहों को दबाकर रखा गया है। इसका प्रभाव सदियों बाद आज तक नज़र आता है। जिन जातियों में पहले से ही पढ़ाई-लिखाई का चलन मौजूद था और जिनकी शिक्षा पर पकड़ थी, आधुनिक शिक्षा व्यवस्था में भी उन्हीं का बोलबाला है। जिन जातियों को पहले शिक्षा से वंचित रखा जाता था, उनके सदस्य अभी भी स्वाभाविक तौर पर पिछड़े हुए हैं। यही कारण है कि शहरी मध्यम वर्ग में अगड़ी जाति के लोगों का अनुपात असामान्य रूप से काफ़ी ज्यादा है।
राजनीति में जाति
सांप्रदायिकता की तरह जातिवाद भी इस मान्यता पर आधारित है कि जाति ही सामाजिक समुदाय के गठन का एकमात्र आधार है। इस चिंतन पद्धति के अनुसार एक जाति के लोग एक स्वाभाविक सामाजिक समुदाय का निर्माण करते हैं और उनके हित एक जैसे होते हैं तथा दूसरी जाति के लोगों से उनके हितों का कोई मेल नहीं होता। जैसा कि हमने सांप्रदायिकता के मामले में देखा है, यह मान्यता हमारे अनुभव से पुष्ट नहीं होती। हमारे अनुभव बताते हैं कि जाति हमारे जीवन का एक पहलू ज़रूर है लेकिन यही एकमात्र या सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण पहलू नहीं है। राजनीति में जाति अनेक रूप ले सकती है:-
राजनीति में जाति पर जोर देने के कारण कई बार यह धारणा बन सकती है कि चुनाव जातियों का खेल है, कुछ और नहीं। परन्तु यह सर्वथा सच नहीं है क्योंकि –
स्पष्ट है कि चुनाव में जाति की भूमिका महत्वपूर्ण होती है किंतु दूसरे कारक भी इतने ही असरदार होते हैं। मतदाता अपनी जातियों से जितना जुड़ाव रखते हैं अक्सर उससे ज़्यादा गहरा जुड़ाव राजनीतिक दलों से रखते हैं। एक जाति या समुदाय के भीतर भी अमीर और गरीब लोगों के हित अलग-अलग होते हैं। एक ही समुदाय के अमीर और गरीब लोग अक्सर अलग-अलग पार्टियों को वोट देते हैं। सरकार के कामकाज के बारे में लोगों की राय और नेताओं की लोकप्रियता का चुनावों पर अक्सर निर्णायक असर होता है।
जाति के अंदर राजनीति
जाति और राजनीति के बीच सिर्फ़ एकतरफ़ा संबंध नहीं होता है। राजनीति भी जातियों को राजनीति के अखाड़े में लाकर जाति व्यवस्था और जातिगत पहचान को प्रभावित करती है। इस तरह, सिर्फ़ राजनीति ही जातिग्रस्त नहीं होती जाति भी राजनीतिग्रस्त हो जाती है। यह चीज अनेक रूप लेती है:
इस प्रकार जाति राजनीति में कई तरह की भूमिकाएँ निभाती है और एक तरह से यही चीजें दुनिया भर की राजनीति में चलती हैं। दुनिया भर में राजनीतिक पार्टियाँ वोट पाने के लिए सामाजिक समूहों और समुदायों को गोलबंद करने का प्रयास करती हैं। कुछ खास स्थितियों में राजनीति में जातिगत विभिन्नताएँ और असमानताएँ वंचित और कमज़ोर समुदायों के लिए अपनी बातें आगे बढ़ाने और सत्ता में अपनी हिस्सेदारी माँगने की गुंजाइश भी पैदा करती हैं। इस अर्थ में जातिगत राजनीति ने अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति और पिछड़ी जातियों के लोगों के लिए सत्ता तक पहुँचने तथा निर्णय प्रक्रिया को बेहतर ढंग से प्रभावित करने की स्थिति भी पैदा की है। अनेक पार्टियाँ और गैर-राजनीतिक संगठन खास जातियों के खिलाफ़ भेदभाव समाप्त करने, उनके साथ ज़्यादा सम्मानजनक व्यवहार करने, उनके लिए ज़मीन-जायदाद और अवसर उपलब्ध कराने की माँग को लेकर आंदोलन करते रहे हैं। पर, इसके साथ ही यह भी सच है कि सिर्फ़ जाति पर जोर देना नुकसानदेह हो सकता है। जैसा कि धर्म के मसले से स्पष्ट होता है, सिर्फ़ जातिगत पहचान पर आधारित राजनीति लोकतंत्र के लिए शुभ नहीं होती। इससे अक्सर गरीबी, विकास, भ्रष्टाचार जैसे ज़्यादा बड़े मुद्दों से लोगों का ध्यान भी भटकता है। कई बार जातिवाद तनाव, टकराव और हिंसा को भी बढ़ावा देता है।
बिहार की राजनीति में जाति
आज बिहार केन्द्रीय राजनीति (दिल्ली) का गलियारा बन चुका है क्योंकि ऐसा माना जाता है कि बिहार की राजनीतिक गतिविधियाँ आगामी लोकसभा चुनाव के नए समीकरण तो बनाएंगे ही, साथ ही चुनावी रणनीतियों को प्रभावित भी करेंगे। वैसे तो भारत में किसी भी प्रान्त के चुनाव में जातीय समीकरण की अहम भूमिका होती है लेकिन बिहार के मामले कहा जा सकता है कि सिर्फ जातीय समीकरण की ही भूमिका होती है।
बिहार की राजनीति जातिवाद आधारित है जिसको लेकर हर दल सभी जातियों को ध्यान में रखते हुए ही कोई फैसला करते हैं। यहां यही एक मात्र फैक्टर है जो सरकार बनाता भी है और बिगाड़ता भी है।
बिहार की राजनीति जातिवाद आधारित है। इसी के चलते लगभग सभी दल सभी जातियों को ध्यान में रखते हुए ही कोई फैसला करते हैं। यहां जातिवाद कितना प्रबल है इसका सबसे बड़ा उदाहरण है कि बिहार ही में आजादी के पहले जनेऊ आंदोलन हुआ और इसी राज्य में जयप्रकाश नारायण ने संपूर्ण कांति आंदोलन में 'जाति छोड़ो, जनेऊ तोड़ो' का नारा लगवाया था। जातिगत राजनीति की पहचान वाले बिहार में रोजगार, गरीबी उन्मूलन, शिक्षा जैसे मुद्दे शायद ही जनमत को प्रभावित करते हैं|
पिछड़ों को नेतृत्व देने वाली बिहार सरकार के नेता कर्पूरी ठाकुर को नेता बनाने वाले राममनोहर लोहिया ने पहली बार पिछड़ों के आरक्षण की मांग की थी। 1967 में बिहार विधानसभा और लोकसभा चुनाव एक साथ हुआ। इस चुनाव में जाति रूत्ता स्थानांतरण की मुख्य वजह रही| यहीं से बिहार में राजनीतिक अस्थिरता का दौर भी शुरू हो गया था। इसी तरह 1990 में मंडल कमीशन रिपोर्ट लागू होने के बाद से ही बिहार में जातीय समीकरण तेजी से बदले और पिछड़े वर्ग में बढ़ती राजनीतिक जागरूकता के चलते मतदाताओं में जाति आधारित क्षेत्रीय दलों के प्रति प्रतिबद्धता बढ़ने लगी।
NSSO (नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गेनाइज़ेशन) के अनुमान के मुताबिक, बिहार की आधी जनसंख्या पिछड़े वर्ग से आती है। इसी तरह राज्य में दलित और मुसलमान भी बड़े समुदाय हैं। बिहार में मुसलमान भी सामाजिक आधार पर वह कई हिस्सों में बंटे हैं, जिनमें पिछड़े मुसलमानों की संख्या अधिक है। यही कारण है कि बिहार का राजनैतिक इतिहास देखें तो पता चलता है कि 1990 के बाद हुए विधानसभा चुनावों के नतीजों से स्पष्ट है कि यहां गठजोड़ की राजनीति क्यों हावी है। यदि सभी राजनैतिक दल अकेले चुनाव लड़ें तो बिहार में खंडित जनादेश ही आएगा और कोई सरकार नहीं बना पाएगा।
बिहार राजनीतिक इतना अस्थिर रहा है कि यहां अब तक 8 बार राष्ट्रपति शासन लग चुका है। बिहार में सामाजिक परिवर्तन के साथ-साथ होने वाले राजनीतिक बदलाव की एक बानगी यह भी है कि यहां अब तक 12 सवर्ण, 6 पिछड़े वर्ग से, 3 दलित वर्ग से और एक मुस्लिम मुख्यमंत्री रहे हैं। इस प्रदेश में 5 दिन के मुख्यमंत्री से लेकर 16 वर्ष से भी अधिक मुख्यमंत्री बने रहने के रिकॉर्ड भी दर्ज हैं।
राजनीतिक दल
राजनीतिक दल को लोगों के एक ऐसे संगठित समूह के रूप में समझा जा सकता है जो चुनाव लड़ने और सरकार में राजनीतिक सत्ता हासिल करने के उद्देश्य से काम करता है। समाज के सामूहिक हित को ध्यान में रखकर यह समूह कुछ नीतियाँ और कार्यक्रम तय करता है। सामूहिक हित एक विवादास्पद विचार है। इसे लेकर सबकी राय अलग-अलग होती है। इसी आधार पर दल लोगों को यह समझाने का प्रयास करते हैं कि उनकी नीतियाँ दुसरे से बेहतर हैं। वे लोगों का समर्थन पाकर चुनाव जीतने के बाद उन नीतियों को लागू करने का प्रयास करते हैं। इस प्रकार दल किसी समाज के बुनियादी राजनीतिक विभाजन को भी दर्शाते हैं। पार्टी समाज के किसी एक हिस्से से संबंधित होती है इसलिए उसका नज़रिया समाज के उस वर्ग / समुदाय विशेष की तरफ़ झुका होता है। किसी दल की पहचान उसकी नीतियों और उसके सामाजिक आधार से तय होती है। राजनीतिक दल के तीन प्रमुख हिस्से हैं :
राजनीतिक दल के कार्य
मूलतः राजनीतिक दल राजनीतिक पदों को भरते हैं और राजनीतिक सत्ता का इस्तेमाल करते हैं। दल इस काम को कई तरह से करते हैं;-
राजनीतिक दल की ज़रूरत
राजनीतिक दलों का उदय प्रतिनिधित्व पर आधारित लोकतांत्रिक व्यवस्था के उभार के साथ जुड़ा है। बड़े समाजों के लिए प्रतिनिधित्व आधारित लोकतंत्र की ज़रूरत होती है। जब समाज बड़े और जटिल हो जाते हैं तब उन्हें विभिन्न मुद्दों पर अलग-अलग विचारों को समेटने और सरकार की नज़र में लाने के लिए किसी माध्यम या एजेंसी की ज़रूरत होती है। विभिन्न जगहों से आए प्रतिनिधियों को साथ करने की ज़रूरत होती है ताकि एक ज़िम्मेवार सरकार का गठन हो सके। उन्हें सरकार का समर्थन करने या उस पर अंकुश रखने, नीतियाँ बनवाने और नीतियों का समर्थन अथवा विरोध करने के लिए उपकरणों की ज़रूरत होती है। प्रत्येक प्रतिनिधि- सरकार की ऐसी जो भी ज़रूरतें होती हैं, राजनीतिक दल उनको पूरा करते हैं। इस तरह हम कह सकते हैं कि राजनीतिक दल लोकतंत्र की एक अनिवार्य शर्त हैं।
अगर दल न हों तो सारे उम्मीदवार स्वतंत्र या निर्दलीय होंगे। तब, इनमें से कोई भी बड़े नीतिगत बदलाव के बारे में लोगों से चुनावी वायदे करने की स्थिति में नहीं होगा। सरकार बन जाएगी पर उसकी उपयोगिता संदिग्ध होगी। निर्वाचित प्रतिनिधि सिर्फ अपने निर्वाचन क्षेत्रों में किए गए कामों के लिए जवाबदेह होंगे। लेकिन, देश कैसे चले इसके लिए कोई उत्तरदायी नहीं होगा।
गैर- दलीय आधार पर होने वाले पंचायत चुनावों का उदाहरण से हम पाते हैं कि चुनाव के अवसर पर पूरा गाँव कई खेमों में बँट जाता है और हर खेमा सभी पदों के लिए अपने उम्मीदवारों का 'पैनल' उतारता है। राजनीतिक दल भी ठीक यही काम करते हैं। यही कारण है कि हमें दुनिया के लगभग सभी देशों में राजनीतिक दल नज़र आते हैं।
संख्या के आधार पर राजनीतिक दल
लोकतंत्र में नागरिकों का कोई भी समूह राजनीतिक दल बना सकता है। इस औपचारिक अर्थ में सभी देशों में बहुत से राजनीतिक दल हैं। भारत में ही वर्ष 2019 तक चुनाव आयोग में नाम पंजीकृत कराने वाले दलों की संख्या 2293 है। लेकिन, हर दल चुनाव में गंभीर चुनौती देने की स्थिति में नहीं होता । चुनाव जीतने और सरकार बनाने की होड़ में आमतौर पर कुछेक पार्टियाँ ही सक्रिय होती हैं।
कई देशों में सिर्फ़ एक ही दल को सरकार बनाने और चलाने की अनुमति है। इस कारण उन्हें एकदलीय शासन-व्यवस्था कहा जाता है। चीन में सिर्फ़ कम्युनिस्ट पार्टी को शासन करने की अनुमति है। हालाँकि कानूनी रूप से वहाँ भी लोगों को राजनीतिक दल बनाने की आज़ादी है पर वहाँ की चुनाव प्रणाली सत्ता के लिए स्वतंत्र प्रतिद्वंद्विता की अनुमति नहीं देती इसलिए लोगों को नया राजनीतिक दल बनाने का कोई लाभ नहीं दिखता और इसलिए कोई नया दल नहीं बन पाता। एकदलीय व्यवस्था को अच्छा विकल्प नहीं माना जा सकता क्योंकि यह लोकतांत्रिक विकल्प नहीं है। किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में कम से कम दो दलों को राजनीतिक सत्ता के लिए चुनाव में प्रतिद्वंद्विता करने की अनुमति तो होनी ही चाहिए। साथ ही उन्हें सत्ता में आ सकने का पर्याप्त अवसर भी रहना चाहिए।
कुछ देशों में सत्ता आमतौर पर दो मुख्य दलों के बीच ही बदलती रहती है। वहाँ अनेक दूसरी पार्टियाँ हो सकती हैं, वे भी चुनाव लड़कर कुछ सीटें जीत सकती हैं पर सिर्फ़ दो ही दल बहुमत पाने और सरकार बनाने के प्रबल दावेदार होते हैं। अमरीका और ब्रिटेन में ऐसी ही दो दलीय व्यवस्था है।
जब अनेक दल सत्ता के लिए होड़ में हों और दो दलों से ज्यादा के लिए अपने दम पर या दूसरों से गठबंधन करके सत्ता में आने का ठीक-ठाक अवसर हो तो इसे बहुदलीय व्यवस्था कहते हैं। भारत में भी ऐसी ही बहुदलीय व्यवस्था है। इस व्यवस्था में कई दल गठबंधन बनाकर भी सरकार बना सकते हैं। जब किसी बहुदलीय व्यवस्था में अनेक पार्टियाँ चुनाव लड़ने और सत्ता में आने के लिए आपस में हाथ मिला लेती हैं तो इसे गठबंधन या मोर्चा कहा जाता है। जैसे, 2019 के आम चुनाव में, चार मुख्य राष्ट्रीय चुनाव पूर्व गठबंधन बने। इनमें भाजपा की अगुवाई वाले राजग (एनडीए), कांग्रेस की अगुवाई वाले संप्रग (यूपीए), क्षेत्रीय दलों का महागठबंधन और कम्युनिस्ट-झुकाव वाले दलों का वाम मोर्चा शामिल हैं। अक्सर बहुदलीय व्यवस्था बहुत जटिल लगती है और देश को राजनीतिक अस्थिरता की तरफ़ ले जाती है पर इसके साथ ही इस प्रणाली में विभिन्न हितों और विचारों को राजनीतिक प्रतिनिधित्व मिल जाता है।
दलीय व्यवस्था का चुनाव करना किसी देश के हाथ में नहीं है। यह एक लंबे दौर के कामकाज के बाद खुद विकसित होती है और इसमें समाज की प्रकृति, इसके राजनीतिक विभाजन, राजनीति का इतिहास और इसकी चुनाव प्रणाली - सभी चीजें अपनी भूमिका निभाती हैं। इसे बहुत जल्दी बदला नहीं जा सकता। हर देश अपनी विशेष परिस्थितियों के अनुरूप दलीय व्यवस्था विकसित करता है। जैसे, अगर भारत में बहुदलीय व्यवस्था है तो उसका कारण यह है कि दो-तीन पार्टियाँ इतने बड़े मुल्क की सारी सामाजिक और भौगोलिक विविधताओं को समेट पाने में अक्षम हैं। हर मुल्क और हर स्थिति में कोई एक ही आदर्श प्रणाली चले यह संभव नहीं है।
भारत में राजनीतिक दल
विश्व के संघीय व्यवस्था वाले लोकतंत्रों में दो तरह के राजनीतिक दल हैं : संघीय इकाइयों में से सिर्फ़ एक इकाई में अस्तित्व रखने वाले दल और अनेक या संघ की सभी इकाइयों में अस्तित्व रखने वाले दल।
भारत में भी यही स्थिति है। कई पार्टियाँ पूरे देश में फैली हुई हैं और उन्हें राष्ट्रीय पार्टी कहा जाता है। इन दलों की विभिन्न राज्यों में इकाइयाँ हैं। पर कुल मिलाकर देखें तो ये सारी इकाइयाँ राष्ट्रीय स्तर पर तय होने वाली नीतियों, कार्यक्रमों और रणनीतियों को ही मानती हैं।
देश की हर पार्टी को चुनाव आयोग में अपना पंजीकरण कराना पड़ता है। आयोग सभी दलों को समान मानता है पर यह बड़े और स्थापित दलों को कुछ विशेष सुविधाएँ देता है। इन्हें अलग चुनाव चिह्न दिया जाता है जिसका प्रयोग पार्टी का अधिकृत उम्मीदवार ही कर सकता है। इस विशेषाधिकार और कुछ अन्य लाभ पाने वाली पार्टियों को 'मान्यता प्राप्त' दल कहते हैं। चुनाव आयोग ने स्पष्ट नियम बनाए हैं कि कोई दल कितने प्रतिशत वोट और सीट जीतकर 'मान्यता प्राप्त' दल बन सकता है।
राष्ट्रीय दल
यदि कोई पंजीकृत दल निम्न शर्तों में कोई एक शर्त पूरी करता है तो उसे राष्ट्रीय स्तर की मान्यता भारतीय चुनाव आयोग देता है ;
चुनाव आयोग के 23 सितम्बर, 2021 की अधिसूचना के अनुसार आठ दलों को देश में राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता प्रदान की गयी है।
वे दल जिनके पास एक राज्य में पर्याप्त वोट या सीटें हों, उन्हें चुनाव आयोग द्वारा राज्य पार्टी के रूप में अधिकृत किया जा सकता है। संबंधित राज्य में राज्य दल के रूप में मान्यता मिलने से दल को एक विशेष चुनाव चिन्ह आरक्षित करने का विकल्प मिल सकता है। एक पार्टी को एक या अधिक राज्यों में मान्यता प्राप्त हो सकती है। चार राज्यों में मान्यता प्राप्त पार्टी को स्वतः ही एक राष्ट्रीय पार्टी के रूप में मान्यता प्राप्त हो जाती है। राज्य स्तर की मान्यता के लिए चुनाव आयोग में पंजीकृत दल को निम्न में किसी एक शर्त को पूरा करना होगा:
आम चुनावों में राजनीतिक दलों के प्रदर्शन के आधार पर
आठ राष्ट्रीय दल के अलावा अन्य सभी प्रमुख दलों को चुनाव आयोग ने 'प्रांतीय दल' के रूप में मान्यता दी है। आमतौर पर इन्हें क्षेत्रीय दल कहा जाता है पर यह जरूरी नहीं है कि अपनी विचारधारा या नज़रिए में ये पार्टियाँ क्षेत्रीय ही हों। इनमें से कुछ अखिल भारतीय दल हैं पर उन्हें कुछ प्रांतों में ही सफलता मिल पाई है। समाजवादी पार्टी, जनता दल युनाइटेड और राष्ट्रीय जनता दल का राष्ट्रीय स्तर पर राजनीतिक संगठन है और इनकी कई राज्यों में इकाइयाँ हैं। बीजू जनता दल, सिक्किम लोकतांत्रिक मोर्चा और मिजो नेशनल फ्रंट जैसी पार्टियाँ अपनी क्षेत्रीय पहचान को लेकर सचेत हैं।
पिछले पाँच दशकों में प्रांतीय दलों की संख्या और ताकत में वृद्धि हुई है। इससे भारतीय संसद विविधताओं से और भी ज़्यादा संपन्न हुई है। किसी एक राष्ट्रीय दल का लोकसभा में बहुमत नहीं है। परिणामस्वरूप राष्ट्रीय दल प्रांतीय दलों के साथ गठबंधन करने को मजबूर हुए हैं। 1996 के बाद से लगभग प्रत्येक प्रांतीय दल को एक या दूसरी राष्ट्रीय स्तर की गठबंधन सरकार का हिस्सा बनने का अवसर मिला है। इससे हमारे देश में संघवाद और लोकतंत्र मज़बूत हुए हैं।
गठबंधन सरकार
गठबंधन का अंग्रेजी शब्द ‘कोअलिशन’ (Coalition) है जिसे लैटिन भाषा से लिया गया है, जिसका मतलब होता है साथ चलना या बढ़ना| ‘कोएलिशन’ का राजनीतिक संदर्भ में भी इस्तेमाल किया जाता है, जिसका अर्थ है राजनीतिक सत्ता को हासिल करने के लिए अलग-अलग राजनीतिक पार्टी का समूहन|
जनता के जनादेश पर लगातार लगभग तीस साल पूरे देश में ‘कांग्रेस' का एकछत्र राज रहा| इंदिरा सरकार द्वारा लगाई गयी इमरजेंसी की वजह से, उन्हें और उनकी पार्टी को जनता ने नकार दिया| ऐसे में भारत में 1977 में पहली बार दूसरी पार्टी या फिर पहली गठबंधन की सरकार सत्ता में आई| लेकिन गठबंधन की शुरुआत 1967 में राज्यों से शुरू हो गयी थी| वर्तमान समय में भी भारत में गठबंधन की सरकार राजनीतिक सच है| भारत में आमतौर पर गठबंधन एकदम अलग रहीं या फिर आपस में प्रतिद्वंदी रही दो या दो से अधिक पार्टियों के बीच का गठजोड़ बनता है, जिसे सरकार या प्रशासन चलाने और राजनीतिक पद आपस में बांटकर सत्ता चलाने के लिए बनाया गया होता है|
गठबंधन सरकार के लाभ:
भारत में गठबंधन की राजनीति की शुरुआत कांग्रेस से मोहभंग, प्रजातांत्रिक मूल्यों की स्थापना एवं क्षेत्रीय मांगों की अनदेखी के कारण हुई है| धीरे-धेरे आम जनता व लोगों में जागरूकता ने भी भारतीय राजनीति को एक नया आयाम दिया है| आज वर्तमान में न सिर्फ चुनाव प्रक्रिया अधिक कुशल तरीके से संचालित की जाती है बल्कि प्रत्येक मतदाता अपने मत मूल्य, उससे जुड़ी उसका भविष्य और परिणामों से बेहतर रूप में अवगत दिखता है | कहीं न कहीं ये गठबंधन की राजनीति की ही देन है| मोटे तौर पर गठबंधन की राजनीति ने भारतीय राजनीति में महत्त्वपूर्ण सकारत्मक सुधार लाये हैं जैसे –
गठबंधन सरकार की कमजोरियाँ
राजनीतिक दलों के लिए चुनौतियाँ
राजनीतिक दल ही लोकतंत्र का सबसे ज्यादा प्रकट रूप हैं, इसलिए यह स्वाभाविक है, कि लोकतंत्र के कामकाज की गड़बड़ियों के लिए लोग राजनीतिक दलों को ही दोषी ठहराएँ। पूरी दुनिया में लोग इस बात से नाराज़ रहते हैं कि राजनीतिक दल अपना काम ठीक ढंग से नहीं करते। हमारे लोकतंत्र के साथ भी यही बात लागू होती है। आम जनता की नाराज़गी और आलोचना राजनीति दलों के कामकाज के चार पहलुओं पर ही केंद्रित रही है। लोकतंत्र का प्रभावी उपकरण बने रहने के लिए राजनीतिक दलों को इन चुनौतियों का सामना करना चाहिए और इन पर जीत हासिल करनी चाहिए।
चुनौतियों से निपटने के उपाय
उपरोक्त चुनौतियों का सामना करने के लिए जरूरी है कि राजनीतिक दलों में सुधार हो । देश में राजनीतिक दलों और इसके नेताओं के सुधार के प्रयास एवं सुझाव निम्न हैं :-
राजनीतिक दलों ने अभी तक इन सुझावों को नहीं माना है। अगर इन्हें मान लिया गया तो संभव है कि इनसे कुछ सुधार हो । लेकिन हर राजनीतिक समस्या के लिए महज़ कानूनी समाधान की बात करते हुए हमें सावधान रहना चाहिए। दलों को ज़रूरत से ज़्यादा नियमों से जकड़ना नुकसानदेह भी हो सकता है। इससे सभी दल कानून को दरकिनार करने का तरीका ढूँढ़ने लगेंगे। इसके अलावा राजनीतिक दल खुद भी ऐसा कानून पास करने पर सहमत नहीं होंगे जिसे वे पसंद नहीं करते।
दल-बदल
आजादी के कुछ ही वर्षों के बाद से भारत में जनादेश की अनदेखी कर जनप्रतिनिधियों (विधायकों और सांसदों) के जोड़-तोड़ से सरकारें बनने और गिरने लगी| 1967 में हरियाणा के एक विधायक गया लाल ने 15 दिनों के भीतर 3 बार दल बदलकर राजनीति में ‘आया राम गया राम’ मुहाबरा लोकप्रिय बना दिया| दल बदल की बढ़ती घटनाओं के साथ ही राजनीतिक अस्थिरता में भी तेज़ी आई। सदन के प्रति लोगों की आस्था में कमी दिखने लगी। राजनीतिक दलों को मिले जनादेश का उल्लंघ करने वाले जनप्रतिनिधियों (विधायकों और सांसदों) को चुनाव में भाग लेने से रोकने तथा अयोग्य घोषित करने की आवश्यकता महसूस होने लगी। अंततः वर्ष 1985 में संविधान संशोधन के माध्यम से दल-बदल विरोधी कानून लाया गया।
वर्ष 1985 में 52 वें संविधान संशोधन के माध्यम से देश में ‘दल-बदल विरोधी कानून’ पारित किया गया। 52वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1985 द्वारा सांसदों तथा विधायकों द्वारा एक राजनीतिक दल से दूसरे दल में दल-परिवर्तन के आधार पर अयोग्यता के बारे में प्रावधान किया गया है। इसके लिए संविधान के चार अनुच्छेदों (अनुच्छेद 101, 102 और अनुच्छेद 190, 191) में परिवर्तन किया गया है तथा संविधान में एक नयी अनुसूची ”दसवीं अनुसूची” जोड़ी गई है। इस अधिनियम को सामान्यतया ‘दल-बदल कानून (anti defection law)’ कहा जाता है। खासकर के अनुच्छेद 102(2) और 191(2) दसवीं अनुसूची से सम्बद्ध है, जिसमें सांसदों एवं विधायकों को राजनीतिक लाभ और पद के लालच में दल बदल के आधार पर अयोग्य घोषित करने का प्रावधान है। भारतीय संविधान की 10वीं अनुसूची ‘दल-बदल क्या है’और दल-बदल करने वाले सांसदों तथा विधायकों को अयोग्य ठहराने संबंधी प्रावधानों को परिभाषित करता है।
दल-बदल विरोधी कानून के मुख्य प्रावधान:
भारत की संसद ने दल-बदल पर रोक लगाने के लिए 52 वां संविधान संशोधन एक्ट (1985) सर्वसम्मति से पारित किया। इस अधिनियम में निम्नलिखित प्रावधान दिए गए हैं:
निम्न परिस्थितियों में संसद/विधानसभा के सदस्य की सदस्यता समाप्त हो जाएगी (Disqualification):
कानून में कुछ ऐसी विशेष परिस्थितियों का उल्लेख किया गया है, जिनमें दल-बदल पर भी अयोग्य घोषित नहीं किया जा सकेगा :
91वें संविधान संशोधन, 2003 के तहत दल-बदल कानून 1985 में निम्नलिखित बदलाव किये गए हैं;
जनप्रतिनिधि को अयोग्य घोषित करने की शक्ति / स्पीकर (अध्यक्ष) का अधिकार
दल बदल कानून का लाभ/ पक्ष
दल बदल कानून की आलोचना / विपक्ष
मतदान के समय किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह जिस मनोभाव से मतदान करते हैं उसे मतदान व्यवहार कहा जाता है। सार्वजनिक चुनाव में लोग किस प्रकार वोट देते हैं, इससे संबंधित अध्ययन क्षेत्र ही मतदान व्यवहार है और इसमें वे कारक भी शामिल हैं जिनके कारण ये प्रभावित होते हैं।
प्लानो एण्ड रिग्स ने मतदान व्यवहार को ऐसे व्यवहार के रुप में परिभाषित किया जा सकता है जो कि मतदाता की पसंद, प्राथमिकता, विकल्पों, विचारधाराओं, चिंताओं, समझौतों तथा कार्यक्रमों को साफ-साफ प्रतिबिम्बित करता है जो कि विभिन्न मुद्दों से जुड़े होते हैं और समाज तथा राष्ट्र से संबन्धित प्रश्नों से संबन्धित होते है।
भारतीय समाज की सांस्कृतिक संरचना विविधताओं से भरा है। फलत: भारत में मतदान व्यवहार (voting behavior) को प्रभावित करने वाले अनेक कारक हैं| इसके मुख्य कारक निम्न हैं-
चुनाव एवं मतदान व्यवहार में मीडिया की भूमिका
हालांकि मीडिया को खुद कुछ जरूरी नियम-कानून को मानना पड़ता है और उसी के अनुसार अपना काम पड़ता है। जैसे कि जन-प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा 126A के तहत मीडिया एक्ज़िट पोल तथा परिणामों को प्रथम चरण के चुनाव शुरू होने के पहले और अंतिम चुनाव के सम्पन्न होने के आधा घंटा के बाद तक प्रसारित नहीं कर सकता है।
भारत के निर्वाचन आयोग द्वारा निष्पक्ष और शांतिपूर्ण चुनाव कराने के लिए सभी राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों के लिए चुनाव से सम्बंधित दिशा-निर्देश बनाये जाते हैं| इन नियमों को चुनाव आदर्श आचार संहिता भी कहा जाता है| आदर्श आचार संहिता में राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों और अधिकारियों के लिए स्पष्ट दिशा निर्देश होते हैं कि उनको चुनाव आचार संहिता लागू होने के बाद कौन से कार्य करने हैं और कौन से नहीं| चुनाव आयोग के द्वारा चुनाव कराने की तिथि की घोषणा के साथ आदर्श चुनाव आचार संहिता लागू हो जाती है|
सभी राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों के लिए कुछ सामान्य आचार निम्नवत हैं;
किसी भी चुनाव प्रणाली की कसौटी यह है कि यह एक स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव प्रक्रिया सुनिश्चित कर सके। यदि हम लोकतंत्र को एक जमीनी हकीकत बनाना चाहते हैं, तो यह जरूरी है कि चुनाव प्रणाली निष्पक्ष और पारदर्शी हो। चुनाव प्रणाली ऐसी होनी चाहिये जिससे मतदाताओं की आकांक्षाएँ चुनाव परिणामों में न्यायपूर्ण ढंग से व्यक्त हो सकें।
दबाव समूह
दबाव समूह, समान हित वाले लोगों के संघ या संगठन होते हैं। उनका उद्देश्य अपने संगठित प्रयासों के द्वारा अपने सदस्यों के लिए अधिक सुविधाएँ सुनिश्चित करना है। ये अपने पक्ष में कानून बनवाने और निर्णय करवाने के लिए विधायिका, कार्यपालिका तथा अन्य नीति-निर्धारकों और निर्णय करने वालों को प्रभावित करते हैं।
भारत में राजनीतिक दल सिद्धान्त और संगठन की दृष्टि से शक्तिशाली नहीं हैं। अतः भारत की राजनीति व्यवस्था में दबाव समूह महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। सरकार की संसदीय प्रणाली में यह मान्यता है कि विधायिका पर कार्यपालिका का नियंत्रण होता है, इसलिए दबाव समूह सामान्यतया कार्यपालिका पर दबाव डालकर उसे प्रभावित करने की चेष्टा करते हैं। कार्यपालिका से यहाँ हमारा अभिप्रायः राजनीतिक और स्थायी कार्यपालिका से ही है।
लोकतान्त्रिक देशों में दबाव समूह राजनीति के अध्ययन का एक महत्वपूर्ण आयाम होते हैं, क्योंकि प्रत्येक दबाव समूह का मूलभूत उद्देश्य किसी विशिष्ट सार्वजनिक नीति से संबंधित मुद्दे अथवा समस्या पर सरकार को प्रभावित करना होता है। दबाव समूह चुनावों में भाग नहीं लेते हैं अर्थात् उनके सदस्य चुनाव नहीं लड़ते हैं। दबाव समूह तो किसी सार्वजनिक मुद्दे - पर, जिसमें उनके हित निहित होते हैं सरकार को अनौपचारिक रूप से प्रभावित करने के प्रयत्न करते हैं।
सभी लोकतान्त्रिक व्यवस्थाओं में सामान्यतः संघ बनाने की स्वतन्त्रता होती है। यह इसलिए आवश्यक होती है ताकि सामूहिक कार्रवाई के द्वारा लोगों के सामान्य हितों की पहचान की जा सकें तथा उन हितों की अभिवृद्धि करवाई जा सके। यह दबाव समूहों की स्थापना का मूल कारण होता है। अतः हित-निर्धारण और हित अभिव्यक्ति में दबाव समूह अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं| दबाव समूह जनता और सरकार के बीच मध्यस्थ की भूमिका भी निभाते हैं। वे व्यक्ति के हितों और राष्ट्र के हितों में संतुलन स्थापित करते हैं। सामान्यतया व्यक्तियों के हित संगठित नहीं होते हैं। दबाव समूह, लोगों के हितों को सुनिश्चित आकर देने में योगदान करते हैं। अतः उन हितों का संगठन और उनकी अभिव्यक्ति का कार्य दबाव समूह करते हैं। लोगों की कठिनाइयों और शिकायतों को यह सरकार तक पहुँचाते हैं। लोगों की प्रतिक्रियाओं के फलस्वरूप भी हितों का निर्धारण होता है। कुछ ऐसे विषय जिन पर लोगों की तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त हो सकती है उनमें शामिल है, गैट (GATT), परमाणु परीक्षण, आरक्षण नीति, पर्यावरण सम्बन्धी मुद्दे मूल्य वृद्धि क्षेत्रीय असंतुलन, ग्राम विकास कार्यक्रम इत्यादि ।
दबाव समूहों के प्रकार
विभिन्न देशों में विभिन्न दबाव समूहों की स्थापना के कारक तथा उनके द्वारा अपनाए गए तरीकों में मूल रूप से कोई भिन्नता नहीं होती है। कुछ सामान्य कारक और तरीके हैं जो सामान्यतया सभी दबाव समूहों पर लागू होते हैं। दबाव समूहों की उत्पत्ति अलग-अलग परिस्थितियों में होती है। उनके हित आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक, किसी भी आयाम विशेष से सम्बद्ध हो सकते हैं। कुछ विशेष हितों की अभिव्यक्ति, उनकी सुरक्षा अथवा अभिवृद्धि करना ही दबाव समूहों का उद्देश्य होता है।
दबाव समूहों को मोटे तौर पर निम्नलिखित श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता है:
1) व्यापारिक समूह
2) श्रमिक संगठन:
3) कृषक समूह,
4) व्यावसायिक संगठन
5) जातीय संगठन तथा
5) धार्मिक संगठन।
दबाव समूह तथा राजनीतिक दल
प्रत्येक राजनीतिक व्यवस्था की संरचना में राजनीतिक दलों और दबाव समूहों का महत्वपूर्ण स्थान है। राजनीतिक दल तथा दबाव समूह दोनों ही ऐसी संस्थाएँ हैं जिनका प्रावधान संविधान में नहीं होता है। राजनीतिक प्रक्रिया में उनकी भूमिका महत्वपूर्ण होती है। कभी-कभी दबाव समूह आगे चलकर राजनीतिक दलों में परिवर्तित भी हो सकते हैं। महाराष्ट्र में शिव सेना एक दबाव समूह था, जो अब एक राजनीतिक दल बन चुका है। इसी प्रकार कर्नाटक राज्य संघ भी पहले एक दबाव समूह ही था। कुछ समय पश्चात् इसने राजनीतिक दल का रूप ले लिया।
कुछ दबाव समूह राजनीतिक दलों की स्थापना में सहायक हो सकते हैं। 'राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ' नामक सांस्कृतिक एवं धार्मिक संगठन ने 1951 में भारतीय जनसंघ की स्थापना में महत्वपूर्ण योगदान दिया। जनसंघ आगे चलकर 1980 में भारतीय जनता पार्टी की स्थापना का अग्रणी सिद्ध हुआ। अनेक भारतीय राजनीतिक दलों के छात्र संगठन भी हैं, जैसे 'अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् (A.B.V.P.) स्टूडेन्ट्स फेडेरेशन ऑफ इंडिया (SFI) अखिल भारतीय स्टूडेन्ट्स फेडेरेशन (AISF) तथा नेशनल स्टूडेंट्स यूनियन ऑफ इंडिया (NSUI) इत्यादि। ये सभी किसी न किसी राजनीतिक दल से सम्बद्ध दबाव समूह है। कुछ राजनीतिक दलों के भीतर भी दबाव समूह होते हैं। स्वतन्त्रता से पूर्व सेवा दल कांग्रेस पार्टी का एक दबाव समूह था। स्वतन्त्रता के पश्चात् भी सेवा दल एक दबाव समूह बना रहा, परन्तु अब वह उतना प्रभावी नहीं है जितना पहले था।
राजनीतिक दल प्रायः विशाल राजनीतिक संगठन होते हैं, जबकि दबाव समूह आकार में छोटे छोट हैं। राजनीतिक दलों का मुख्य उद्देश्य सत्तारूढ़ होकर सरकार चलाना होता है, जबकि दबाव समूहों का उद्देश्य अपने हितों की अभिवृद्धि के लिए सरकार पर दबाव डालना होता है। परन्तु राजनीतिक दल विभिन्न वर्गों के सामूहिक हितों की अभिव्यक्ति करते हैं। इसीलिए दबाव समूहों को गैर राजनीतिक समूह कहा जाता है। चुनावों में राजनीतिक दल अपने उम्मीदवार खड़े करते है. चुनाव अभियान चलाते है, विधायिका में अधिक से अधिक सीट प्राप्त करने की चेष्टा करते है और यदि संभव हो तो सरकार बनाते हैं। दबाव समूह स्वयं प्रत्यक्ष रूप से, इनमें से कोई भी कार्य नहीं करते है।
प्रत्येक राजनीतिक दल की अपनी स्पष्ट विचारधारा होती है जिससे उसकी पहचान बनती है। दबाव समूहों को किसी विचारधारा की आवश्यकता नहीं होती। कभी-कभी वे किसी विचारधारा के प्रभाव में आने के लिए बाध्य हो जाते हैं।
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