मौलिक अधिकार, कर्तव्य एवं राज्य के नीतिनिर्देशक सिद्धांत
मौलिक अधिकार
मनुष्यों के व्यक्तित्व के विकास के लिए परमावश्यक दावे जिन्हें समाज अथवा राज्य मान्यता प्रदान करे अधिकार कहलाता है । संविधान में वर्णित तथा राज्य द्वारा मान्यता प्राप्त अधिकारों को मौलिक अधिकार कहते है। मौलिक अधिकार वे अधिकार हैं जिन्हें न्यायालय द्वारा लागू किया जाता है। इन अधिकारों का उल्लंघन होने पर भारत के सर्वोच्च न्यायालय तथा राज्यों के उच्च न्यायालयों को यह अधिकार है कि ऐसे किसी विधायी या कार्यकारी कृत्य को असंवैधानिक और शून्य घोषित कर सकें। इसके व्यापक परिभाषा के अनुसार न केवल संघीय एवं राज्य सरकारों की विधायिका एवं कार्यपालिका स्कंधों बल्कि स्थानीय प्रशासनिक प्राधिकारियों तथा सार्वजनिक कार्य करने वाली या सरकारी प्रकृति की अन्य एजेंसियों व संस्थाओं के विरुद्ध बड़े पैमाने पर प्रवर्तनीय हैं।
राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम के क्रम में राष्ट्रीय राजनेताओं ने स्वतंत्र भारत में नागरिकों के लिए कुछ मौलिक अधिकार के संकेत दिए थे। 1925 के कॉमनवेल्थ ऑफ इंडिया बिल, 1928 की नेहरू कमेटी रिपोर्ट, 1932-33 में भारतीय संवैधानिक सुधारों से संबद्ध संयुक्त समिति के सम्मुख नेशनल ट्रेड यूनियन फेडरेशन का स्मरण पत्र, सप्रू कमेटी के सम्मुख एम. वैंकटरंगैया का मेमोरेण्डम तथा स्वयं सप्रू कमेटी द्वारा प्रस्तुत प्रस्तावों में इन विभिन्न मौलिक अधिकारों का उल्लेख है।
सर्व प्रथम, ये बुनियादी मानव अधिकार हैं। मनुष्य होने के नाते हमें इन अधिकारों के उपभोग का अधिकार है। द्वितीय, ये अधिकार हमें संविधान द्वारा दिये गए हैं और इस प्रकार इनकी सुरक्षा का आश्वासन भी प्राप्त है। संविधान यह मानता है कि नागरिकों के समुचित आचरण तथा लोकतांत्रिक जीवन के लिये इन अधिकारों का दिया जाना आवश्यक है। तीसरे, इन मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन के लिये प्रभावशाली प्रक्रिया के अनुसार इनकी सुरक्षा का आश्वासन स्वयं संविधान द्वारा दिया गया है। यदि इन अधिकारों का खण्डन किया जाता है तो नागरिकों को न्यायालय की शरण में जाने का अधिकार है। इस प्रकार नागरिकों को इन अधिकारों की गारंटी संविधान प्रदान करता है।
मौलिक अधिकारों का प्रावधान भारतीय संविधान के तीसरे भाग में किया गया है। हमारे संविधान में मूल रूप से सात मौलिक अधिकार दिए गए थे, परन्तु वर्त्तमान में छः मौलिक अधिकारों का उल्लेख किया गया है -
समता का अधिकार
सामाजिक और आर्थिक असमानताओं वाले हमारे समाज के लिए समानता का अधिकार बहुत महत्वपूर्ण है। संविधान के अनुसार सभी नागरिकों को कानून का संरक्षण एवं अनुदान समान रूप से जाति, लिंग, जन्मस्थान, वर्ण अथवा धर्म के आधार पर बिना भेदभाव के प्राप्त होगा। यह भी उल्लेखनीय है कि राज्य सरकारी नौकरियों में कोई भेदभाव नहीं करेगा। सभी नागरिक सरकारी नौकरी के लिये आवेदन पत्र दे सकते हैं तथा योग्यता के आधार पर नौकरियाँ प्राप्त कर सकते हैं।
प्रत्येक मौलिक अधिकार के कुछ अपवाद भी होते हैं। विशेष संरक्षण प्रदान करने हेतु समता के अधिकार के अंतर्गत राज्य स्त्रियों, बच्चों, अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों तथा पिछड़ी जातियों के लिये विशेष प्रावधान कर सकेगा क्योंकि प्रायः ये लोग ही असमान व्यवहार के शिकार होते हैं। उन्हें विशेष संरक्षण प्रदान करना समता के अधिकार के विरुद्ध नहीं है। इसी प्रकार अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जन जातियों तथा पिछड़े वर्ग के लिये नौकरियों में स्थान आरक्षित किये जाने का एक विशेष प्रावधान है। हाल ही में आर्थिक रूप से कमजोड़ वर्गों के लिये नौकरियों में स्थान आरक्षित किये गए हैं, जो अवसर की समानता के अधिकार को पूरा करने के लिए यह जरुरी है |
संविधान द्वारा प्रदत्त समता के अधिकार ने अस्पृश्यता का उन्मूलन कर दिया है। अब अस्पृश्यता को अपराध माना गया है। यदि कोई व्यक्ति अस्पृश्यता के आधार पर आचरण करेगा, तो उसे कानून के अनुसार दंडित किया जा सकता है। सेना और शिक्षा संबंधी उपाधियों के अतिरिक्त अन्य सभी उपाधियों का भी संविधान द्वारा अन्त कर दिया गया है।
स्वतंत्रता का अधिकार
स्वतंत्रता का अर्थ है चिंतन, अभिव्यक्ति और कार्य करने की स्वतंत्रता, इसका यह अर्थ नहीं कि हम जैसा चाहे वैसा करने लगे| बिना किसी अन्य की स्वतंत्रता को नुकसान पहुँचाए और बिना कानून- व्यवस्था को ठेस पहुँचाये, प्रत्येक व्यक्ति अपनी –अपनी स्वतंत्रता का आनंद ले सके| ये स्वतंत्रताएँ निम्नलिखित हैं-
संविधान द्वारा इन अधिकारों के प्रयोग की भी कुछ सीमाएँ हैं। देश की स्वतंत्रता, संप्रभुता और अखंडता के हित में सरकार इन अधिकारों पर प्रतिबन्ध लगा सकती है। सरकार देश की अखण्डता के निमित्त, नैतिकता तथा सार्वजनिक शान्ति एवं व्यवस्था के हित में भी स्वतंत्रता के अधिकार पर प्रतिबन्ध लगा सकती है।
संविधान का अनुच्छेद 21 व्यक्तियों को प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण प्रदान करता है। किसी व्यक्ति को उसके प्राण या दैहिक स्वतंत्रता से विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जाएगा, अन्यथा नहीं। यह मौलिक अधिकार व्यक्ति के प्राण और दैहिक स्वतंत्रता के संरक्षण के लिए है।
समय के साथ एवं परिस्थितियों के अनुसार माननीय उच्चतम न्यायालय की भुमिका के कारण इस अनुच्छेद का दायरा बढ़ता गया है। सामान्यतया इसका अर्थ जीने के अधिकार से लिया जाता है। प्रत्येक व्यक्ति को जीवन जीने का अधिकार है। केवल जीवन जीने ही नहीं बल्कि सम्मानजनक, मानवीय गरिमा से युक्त जीवन जीने का अधिकार है।
माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा खड़क सिंह बनाम स्टेट ऑफ़ उत्तर प्रदेश के मामले में स्पष्ट किया गया है कि जीने के अधिकार से अभिप्राय केवल पशुवत्त जीने से नहीं है, बल्कि सम्मानजनक एवं मानव गरिमा युक्त जीवन जीने से है। माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा मेनका गांधी बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के मामले में जीवन के अधिकार को में केवल भौतिक अस्तित्व ही नहीं है, वरन मानवीय गरिमा को भी समाहित किया गया है।
समय समय पर माननीय उच्चतम न्यायालय के निर्णयों से इस अधिकार में मानव गरिमा से जुड़े कई विषय सम्मिलित होते रहे हैं| परमानंद कटारा बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के माध्यम से चिकित्सा का अधिकार, कुमारी मोहिनी जैन बनाम स्टेट ऑफ कर्नाटक के माध्यम से शिक्षा का अधिकार, ला सोसाइटी ऑफ इंडिया बनाम फर्टिलाइजर्स एंड केमिकल्स त्रावणकोर के माध्यम से पर्यावरण संरक्षण का अधिकार, विशाका बनाम स्टेट ऑफ राजस्थान के माध्यम से कामकाजी महिलाओं का यौन शोषण से संरक्षण का अधिकार जीवन के अधिकार में सम्मलित किया गया है |
इसके अतिरिक्त एकान्तता का अधिकार, त्वरित विचारण का अधिकार, निशुल्क विधिक सहायता का अधिकार, लावारिस मृतकों का शिष्टता एवं शालीनता से दाह संस्कार का अधिकार, भिखारियों के पुनर्वास का अधिकार, धूम्रपान से संरक्षण का अधिकार, विद्यार्थियों का रैगिंग से संरक्षण का अधिकार, सौंदर्य प्रतियोगिताओं में नारी गरिमा को बनाए रखने का अधिकार, बिजली एवं पानी का अधिकार, हथकड़ी, बेडी, एवं एकांतवास से संरक्षण का अधिकार, प्रदूषण रहित जल एवं हवा का उपयोग करने का अधिकार आदि विभिन्न न्यादेशों के माध्यम से इसमें जुड़ते रहे हैं| सारांशत: विभिन्न व्याख्याओं के माध्यम से माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा सम्मानजनक एवं मानवीय गरिमा युक्त जीवन जीने के अधिकार को अधिक से अधिक परिभाषित किया गया है और भविष्य में भी अधिक स्पष्टता की आवश्यकता होने पर इसकी और अधिक व्याख्या हमारे सामने आ सकती है। संसद द्वारा भी 86 वां संशोधन अधिनियम (2002) के द्वारा देश के 6 से 14 वर्ष तक के बच्चों के लिए अनिवार्य एवं निःशुल्क शिक्षा को मौलिक अधिकार के रूप में मान्यता देने के लिए अनुच्छेद 21 (क) के अंतर्गत इसे संविधान में जोड़ा गया है|
स्वतंत्रता का अधिकार कुछ अन्य अधिकारों की भी गारंटी देता है। किसी को भी अपराध करते समय प्रचलित कानून द्वारा निश्चित दण्ड से अधिक दण्ड नहीं दिया जायेगा। किसी व्यक्ति को कानून द्वारा निर्धारित प्रक्रिया को छोड़ कर अन्य किसी प्रकार से प्राण और शारीरिक स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जायेगा। बिना कारण बतलाए किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार नहीं किया जायेगा। यदि किसी व्यक्ति को बन्दी बनाया जाता है तो उसे अपनी पसन्द के वकील द्वारा अपना बचाव पक्ष प्रस्तुत करने का अधिकार होगा। इसके अतिरिक्त बन्दी बनाए जाने पर नागरिक को चौबीस घंटे के अन्दर मैजिस्ट्रेट के सम्मुख प्रस्तुत किया जाना आवश्यक है। भारतीय नागरिक को ये अधिकार यह सुनिश्चित करने के लिये दिये गए हैं कि कोई भी सरकार अन्याय पूर्ण ढंग से उनका न तो दमन कर सके ओर न उनकी स्वतंत्रता का अपहरण कर सके। इस सामान्य प्रावधान का एक महत्त्वपूर्ण अपवाद भी है। न्यायालय के सम्मुख बिना प्रस्तुत किये भी "निवारक निरोध कानून" के तहत सरकार किसी व्यक्ति को कुछ समय के लिये बन्दी बना सकती है। "निवारक निरोध" के तहत कानून और व्यवस्था अथवा देश की एकता और अखंडता के लिए संभावित खतरे को रोकने के लिये सरकार सन्देह के आधार पर खतरनाक व्यक्ति को अधिकतम तीन माह के लिए नज़रबंद अथवा गिरफ्तार कर सकती है। तीन माह के बाद निवारक निरोध के मामले को पुनरावलोकन के लिये सलाहकार बोर्ड के सम्मुख प्रस्तुत करना होगा।
शोषण के विरुद्ध अधिकार
हमारे संविधान ने मानव व्यापार अर्थात् मनुष्यों के क्रय-विक्रय पर प्रतिबंध लगा दिया है। पहले कभी-कभी ज़मींदारों अथवा स्थानीय शक्तिशाली व्यक्तियों द्वारा मनुष्यों से बिना पारिश्रमिक दिये हुए काम करवाया जाता था। इस प्रथा को "बलात् श्रम" अथवा "बेगार" कहा जाता था, क्योंकि इस श्रम के बदले में कोई पारिश्रामिक नहीं दिया जाता था। संविधान द्वारा "बेगार" को अपराध घोषित किया गया है जो कानून द्वारा दण्डनीय है। संविधान में यह भी कहा गया है कि 14 वर्ष से कम आयु वाले बच्चों से कारखानों अथवा खानों में काम न करवाया जाये। उन्हें किसी अन्य खतरनाक काम में भी न लगाया जाये। इसके पीछे विचार यह है कि बच्चे समाज की संपत्ति हैं। अतः जब तक वे छोटे हैं तब तक उन्हें शिक्षा प्राप्त करने और प्रमुदित बचपन बिताने की छूट होनी चाहिए। यदि उन्हें खतरे वाले कामों में कमाने के लिये लगाया जाता है तो इससे अन्ततः समाज को ही हानि पहुँचेगी। यदि बच्चों से काम कराया जाता है और इस प्रकार के शोषण से उनका समुचित विकास नहीं हो पाता तो भावी समाज की क्षति होगी। अतः बच्चों का शोषण नहीं किया जाना चाहिए। परन्तु इस प्रावधान का पालन बहुत ही सीमित अर्थ में हो रहा था। निस्सन्देह बड़े-बड़े कारखाने जो सरकार द्वारा पंजीकृत थें, उनमें बच्चा से काम नहीं लिया जाता । परन्तु अन्य स्थानों में बच्चों को काम करते हुए प्राय: देखा जा सकता था, क्योंकि बच्चों को इस आधार पर कम पारिश्रमिक दिया जाता था कि वे कम काम कर पाते हैं। यह संविधान की भावना की घोर अवहेलना थी। इसलिए 2016 में बाल श्रम (निषेध और विनियमन) अधिनियम-1986 का संशोधन अधिनियम 14 वर्ष से कम उम्र के बच्चों के रोजगार पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगाता है। संशोधन 14 से 18 वर्ष की आयु के किशोरों के खतरनाक व्यवसायों और प्रक्रियाओं में रोजगार पर भी रोक लगाते हैं और उनकी कार्य परिस्थितियों को नियंत्रित करते हैं जहां उन्हें प्रतिबंधित नहीं किया जाता है। लेकिन इसके उलंघन की भी सुचनाये मिलती रहती है|बच्चों के इस शोषण को तभी समाप्त किया जा सकता है, जब इसके विरुद्ध जनमत निर्मित हो तथा समाज में ऐसे सतर्क और जागरूक नागरिक हों जो न केवल अपने अधिकारों के प्रति वरन् दूसरों के अधिकारों के प्रति भी सचेत हों। केवल इस प्रकार की चेतना ही बच्चों के अधिकारों की रक्षा कर सकती है।
धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार
संविधान द्वारा सभी भारतीय नागरिकों को अपने धर्म के पालन की स्वतंत्रता दी गई है। राज्य की दृष्टि में सभी धर्म समान होंगे और किसी धर्म को अन्य धर्मों पर वरीयता नहीं दी जायेगी। धार्मिक समुदाय अपनी परोपकारी संस्थाएँ चला सकते हैं। किंतु धार्मिक समुदायों के ऐसे कार्य जो धर्म से संबंधित नहीं होते, सरकारी नियमों के अनुसार ही शासित होते हैं। किंतु सरकार द्वारा चलाई जाने वाली संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा नहीं दी जा सकती है क्योंकि यदि वहाँ धर्मशिक्षा की अनुमति दे दी जाये तो पंथ निरपेक्षता के सिद्धांत की अवहेलना हो जायेगी।
संस्कृति और शिक्षा का अधिकार
भारत अनेक धर्मो, भाषाओं और संस्कृतियों का देश है, इसलिये संविधान में अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा के लिये विशेष प्रावधान किया गया है। किसी भी समुदाय को अपनी भाषा तथा लिपि की रक्षा करने तथा उसको विकसित करने का अधिकार है। सरकारी तथा सरकार द्वारा अनुरक्षित संस्थाओं में किसी नागरिक के प्रवेश में भाषा अथवा धर्म के आधार पर भेदभाव नहीं किया जायेगा। भाषा या धर्म के आधार पर अल्पसंख्यक माने जाने वाले समुदाय अपनी शैक्षिक संस्थाएँ स्थापित कर सकते हैं। यह कार्य उनकी अपनी संस्कृति के संरक्षण में सहायक हो सकता है।
संवैधानिक उपचारों का अधिकार
नागरिकों को अधिकार की रक्षा हेतु यह आवश्यक है सरकार द्वारा उन कानूनों का सम्मान भी किया जाये। यदि सरकार किसी नागरिक के विरुद्ध अन्यायपूर्वक अपनी शक्ति का प्रयोग करती है अथवा उसे गैरकानूनी ढंग से बिना किसी कारण दण्डित करती है अथवा बन्दी बना लेती है, तो इस समस्या के लिये संवैधानिक उपचारों का अधिकार दिया गया है। इसका अर्थ है कि यदि सरकार कोई ऐसा कार्य करती है जिससे नागरिकों के मौलिक अधिकारों का हनन होता हो तो नागरिक को न्यायालय के माध्यम से न्यायिक उपचार प्राप्त करने का अधिकार है। वह अपने मौलिक अधिकार के विरुद्ध सरकार द्वारा किये गए कार्य को न्यायालय में चुनौती दे सकता है।
नागरिक के मौलिक अधिकारों की रक्षा एवं संरक्षण के लिये न्यायालय में आवेदन करने की प्रक्रिया कई प्रकार से अपनाई जा सकती है। इस संबंध में न्यायालय द्वारा जो आदेश सरकार को दिये जाते हैं, उन्हें "रिट" कहा जाता । न्यायालय विभिन्न प्रकार के "रिट" - बन्दी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, प्रतिषेध, अधिकार-पृच्छा तथा उत्प्रेक्षण निर्गत कर सकता है। यदि देश में आपातकाल की घोषाण की जाती है तो केंद्रीय सरकार द्वारा संवैधानिक उपचारों के अधिकारों को स्थगित किया जा सकता है। जब आपातकाल की समाप्ति घोषित हो जाती है तो यह अधिकार पुनः प्रवर्तित हो जाता है।
9 मार्च, 1979 को उच्चतम न्यायालय द्वारा हुसैनारा खातून और अन्य में एक ऐतिहासिक निर्णय था, जिसने अनुच्छेद 21 को व्यापक अर्थ दिया और कहा कि सभी को त्वरित परीक्षण का अधिकार है। यह भारतीय कैदियों के मानवाधिकारों से जुड़ा सबसे प्रसिद्ध मामला है।
संपत्ति का अधिकार
मौलिक अधिकारों और नीति-निर्देशक तत्त्वों के मध्य संबंधों पर उठे विवाद के पीछे एक महत्त्वपूर्ण कारण था मूल संविधान में संपत्ति अर्जन, स्वामित्व और संरक्षण का मौलिक अधिकार दिया गया था। लेकिन संविधान में स्पष्ट कहा गया था कि सरकार लोक-कल्याण के लिए संपत्ति का अधिग्रहण कर सकती है। 1950 से ही सरकार ने अनेक ऐसे कानून बनाए जिससे संपत्ति के अधिकार पर प्रतिबंध लगा। मौलिक अधिकारों और नीति-निर्देशक तत्त्वों के मध्य विवाद के केंद्र में यही अधिकार था। आखिरकार 1973 में सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में संपत्ति के अधिकार को 'संविधान के मूल-ढाँचे' का तत्त्व नहीं माना और कहा कि संसद को संविधान का संशोधन करके इसे प्रतिबंधित करने का अधिकार है। 1978 में जनता पार्टी की सरकार ने 44वें संविधान संशोधन के द्वारा संपत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकारों की सूची से निकाल दिया और संविधान के अनुच्छेद 300 (क) के अंतर्गत उसे एक सामान्य कानूनी अधिकार बना दिया।
मानवाधिकार आयोग
किसी भी संविधान द्वारा प्रदान किए गए अधिकारों की असली पहचान तब होती है जब उन्हें लागू किया जाता है। समाज के गरीब, अशिक्षित और कमजोर तबके के लोगों को अपने अधिकारों को प्रयोग करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज़ (पी.यू.सी.एल.) या पीपुल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स (पी.यू.डी.आर.) जैसी संस्थाएँ अधिकारों के हनन के विरुद्ध चौकसी करती हैं। इस परिप्रेक्ष्य में वर्ष 2000 में सरकार ने राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का गठन किया।
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग में सर्वोच्च न्यायालय का एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश, किसी उच्च न्यायालय का एक पूर्व मुख्य न्यायाधीश तथा मानवाधिकारों के संबंध में ज्ञान या व्यावहारिक अनुभव रखने वाले दो और सदस्य होते हैं।
मानवाधिकारों के उल्लंघन की शिकायतें मिलने पर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग स्वयं अपनी पहल पर या किसी पीड़ित व्यक्ति की याचिका पर जाँच कर सकता है। जेलों में बंदियों की स्थिति का अध्ययन करने जा सकता है: मानवाधिकार के क्षेत्र में शोध कर सकता है या शोध को प्रोत्साहित कर सकता है।
आयोग को प्रतिवर्ष हजारों शिकायतें मिलती हैं। इनमें से अधिकतर हिरासत में मृत्यु, हिरासत के दौरान बलात्कार, लोगों के गायब होने, पुलिस की ज्यादतियों, कार्यवाही न किये जाने, महिलाओं के प्रति दुर्व्यवहार आदि से संबंधित होती हैं। मानवाधिकार आयोग का सबसे प्रभावी हस्तक्षेप पंजाब में युवकों के गायब होने तथा गुजरात दंगों के मामले में जाँच के रूप में रहा। आयोग को स्वयं मुकदमा सुनने का अधिकार नहीं है। यह सरकार या न्यायालय को अपनी जाँच के आधार पर मुकदमें चलाने की सिफारिश कर सकता है।
राज्य के नीति निदेशक तत्व
भारतीय संविधान के चौथे भाग में राज्य की नीति के निदेशक तत्वों का उल्लेख है। इस अनुपम विशेषता के कारण भारतीय संविधान आस्ट्रिया, स्पेन, ब्राजील, फ्रांस, इटली, वर्मा तथा पश्चिमी जर्मनी जैसे विश्व के कुछ गिने चुने देशों के संविधानों की श्रेणी में आता है। किंतु भारतीय संविधान में निर्माताओं को इन नीति निदेशक तत्वों को संविधान में सम्मिलित करने की प्रेरणा आयरलैण्ड से प्राप्त हुई। सरकारों के पथ-प्रदर्शन के लिए कुछ सिद्धांत निर्धारित करने के प्रयोजन से संविधान निर्माताओं इस प्रकार की व्यवस्था को संविधान में रखना चाहते थे। सरकारों से यह आशा की जाती है कि अपनी नीतियाँ निर्धारित करते समय वे इन निदेशक तत्वों को ध्यान में रखें।
हमारे नेताओं ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान स्वतंत्र होने के उपरान्त नागरिकों को दिए जाने वाले मौलिक अधिकारों के संबंध में कुछ वायदे किए थे। उन मौलिक अधिकारों में सामाजिक और आर्थिक अधिकारों का भी उल्लेख था। किंतु जब भारत स्वतंत्र हुआ तो हमारे नेताओं को ऐसा लगा कि इन अधिकारों को तत्काल देना संभव नहीं होगा। इसका समुचित समाधान हेतु यह कार्य उन्होंने संविधान सभा की एक उपसमिति को सौंपा। उपसमिति के सुझाव पर मौलिक अधिकारों को दो वर्गों - तत्काल दिए जाने बाले तथा भविष्य में (जब देश उन्हें देने में समर्थ हो तब) दिये जाने बाले में बांटा । इसके प्रतिफल में हीं संविधान का तीसरा भाग मौलिक अधिकारों से संबद्ध है जब कि चौथे भाग में राज्य की नीति के निदेशक तत्वों की व्यवस्था की गई है।
ये सिद्धान्त वस्तुतः संविधान द्वारा केंद्र और राज्य की सरकारों को दिये गए निर्देश हैं जिनके आधार पर ये सरकारें अपनी नीतियाँ बनाएँगी। इन नीतियों द्वारा देश में न्यायोचित समाज की स्थापना में सहायता मिलेगी। इन सिद्धान्तों का उद्देश्य ऐसी आर्थिक और सामाजिक दशाओं का सृजन करना है. जिनके अन्तर्गत यहाँ के नागरिक श्रेष्ठ जीवन बिता सकें।
लोकतंत्र की विचारधारा केवल राजनीतिक नहीं है। इस में जनता का सामाजिक और आर्थिक जीवन भी सन्निहित है। इनमें से कुछ सिद्धान्त सामाजिक और आर्थिक अधिकारों के रूप में हैं। उदाहरण स्वरूप, काम पाने का अधिकार, चौदह तक के बच्चों के लिये निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा, समान कार्य के लिये समान वेतन, जीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त करना आदि ऐसे ही सामाजिक व आर्थिक अधिकार है। सरकार को उन दशाओं को उपलब्ध कराने की चेष्टा करनी चाहिए, जिनके अंतर्गत नागरिक के ये अधिकार वैधानिक अधिकार वन सकें।
संविधान में कहा गया है कि सरकार नागरिकों के काम पाने का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, बेरोजगारी, बीमारी, बुढ़ापा, सेवा निवृत्ति तथा असहाय अवस्था में सरकार द्वारा सहायता पाने का अधिकार आदि को उपलब्ध कराने के लिये प्रयास करेगी सरकार निर्धनों को निःशुल्क न्यायिक सहायता भी देगी ताकि गरीव लोग, जो समाज में अपेक्षाकृत अधिक अन्याय के शिकार होते हैं, न्यायालय में जा सके और अपने अधिकारों की रक्षा कर सके।
सभी नीति निदेशक तत्व सामाजिक और आर्थिक नहीं हैं। उनमें से कुछ तत्व अन्य मामलों में सरकार को निर्देशित करते हैं। उदाहरण के लिये, संविधान में उल्लेख है कि राज्य संपत्ति के केंद्रीकरण को रोकने का प्रयास करेगा। यह इस बात को भी सुनिश्चित करेगा कि कारखानों के निर्णयों में मजदूरों की भी भागदारी हो । संविधान में पंचायत राज संस्थाओं के विकास के लिए भी निर्देश दिए गए हैं। संविधान में सार्वजनिक स्वास्थ्य, पशुपालन, गोवध तथा अन्य दुधारू पशुओं के वध की रोकथाम तथा मद्य निषेध की उन्नति के लिये भी सरकार को निर्देश दिये गए हैं। राज्य को कुटीर उद्योगों के विकास के लिये भी निर्देशित किया गया है। उसे वनों, वन्य जीवन तथा प्राचीन स्मारकों के संरक्षण के लिय भी निर्देश दिये गए हैं। अन्ततः संविधान में यह भी कहा गया है कि राज्य सदैव ऐसी नीतियाँ अपनाएगा, जो विश्व शान्ति को बनाए रखने में सहायक हो।
मौलिक अधिकारों की भाँति ये अधिकार न्यायालय द्वारा प्रवर्तनीय नहीं हैं। संविधान में उनके उल्लेख का आशय यह है कि सरकारें नीति का निर्माण करते समय इस दूरगामी उद्देश्य को भूलें नहीं और इन्हें यथार्थ रूप में परिणित कराने की चेष्टा करें। यदि सरकार इन सिद्धान्तों के प्रवर्तन के लिये कानून बनाती है तो उसे न्यायालय में इस आधार पर चुनौती नहीं जा सकेगी कि वह कानून मौलिक अधिकारों के प्रतिकूल है।
मौलिक अधिकारों और राज्य की नीति के निदेशक तत्वों में अंतर
मौलिक अधिकार |
राज्य की नीति के निदेशक तत्व |
इनका क्रियान्वयन न्यायालयों की सहायता से किया जा सकता है |
इनके लिए यह साधन सुलभ नहीं है। |
यह राज्य को कुछ कार्यों से विरत रहने के आदेश देते हैं |
यह राज्य को कुछ सकारात्मक कार्य करने की सलाह देते है। |
इसके अंतर्गत प्रधानतया नागरिक और राजनैतिक अधिकारों का समावेश है |
इसके अंतर्गत आर्थिक और सामाजिक अधिकारों का प्राधान्य है |
संविधान लागू होने के बाद नीति निदेशक तत्वों का महत्व / नीति निदेशक तत्वों की प्रकृति
राज्य की नीति के निदेशक तत्वों के क्रियान्वयन के लिए न्यायालय की सहायता सुलभ नहीं होने के कारण कुछ आलोचक इन्हें 'पवित्र विचार' अथवा 'नूतन वर्ष पर किए गए संकल्प' मात्र मानते हैं। यद्यपि ये तत्व न्यायालयों द्वारा क्रियान्वित नहीं किए जा सकते तथापि ये शासन के आधारभूत सिद्धांत हैं तथा शासन की तीनों शाखाओं: कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका, को इनकी महत्ता स्वीकार करनी पड़ती है। यथार्थ में, न्यायपालिका ने मौलिक अधिकारों और राज्य की नीति के निदेशक तत्वों के बीच अनुरूपता के सिद्धांत का अवलंबन किया है। इतना ही नहीं, न्यायपालिका ने संविधान के विभिन्न प्रावधानों की व्याख्या करते समय इन निदेशक तत्वों का सहारा भी लिया है। मिनर्वा मिल्स प्रकरण में उच्चतम न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश चंद्र चूड़ ने कहा कि भारतीय संविधान, अपने भाग 3 और 4 के संतुलन पर दृढ़ता पूर्वक आधारित है। इसमें किसी एक को प्रधानता देने का अर्थ संविधान की समरसता में विघ्न डालना है। मौलिक अधिकारों और राज्य की नीति के निदेशक तत्वों के बीच जो समरसता एवं संतुलन है, वह संविधान की मूल संरचना का एक परमावश्यक तत्व है।
कार्यपालिका ने भी अपने कार्यों के औचित्य के लिए राज्य की नीति के निदेशक तत्वों का सहारा लिया है। उदाहरणार्थ, चंपाकम दोराईराजन बनाम मद्रास राज्य के मुकदमे में मद्रास सरकार ने अपने सांप्रदायिक आदेश के औचित्य को सिद्ध करने के लिए समाज के दुर्बल वर्गों के हितों से संबद्ध संविधान के अनुच्छेद 46 में उल्लिखित राज्य की नीति के निदेशक तत्व का सहारा लिया।
बिहार जमींदारी प्रथा को समाप्त करनेवाले अग्रीणी राज्यों में रहा है| इस क्रम में बिहार लोक भूमि अतिक्रमण अधिनियम, 1956 एवं इसके संशोधन, चकबंदी कानून 1956, मंडल आयोग 1979 का सामाजिक या शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्ग की पहचान के लिए गठन, पिछड़ा वर्ग एवं अति पिछड़ा वर्ग का विभाजन एवं आरक्षण की व्यवस्था आदि भी नीति निदेशक तत्व का कार्यान्वयन है | बिहार सरकार द्वारा अनुच्छेद 38 एवं 46 में उल्लिखित प्रावधानों के तहत अनुसूचित जाति में भी सबसे दुर्बल वर्गों को विकास के लिए महादलित के रूप में चिन्हित करते हुए उनके सामाजिक आर्थिक विकास के लिए विशेष पैकेज की व्यवस्था की गयी है | हाल के वर्षों में शराबबंदी कानून, महिला आरक्षण, जल जीवन हरियाली कार्यक्रम भी नीति निदेशक तत्वों के कार्यान्वन हैं|
राज्य की नीति के निदेशक तत्व का सहारा संसद ने भी अपने विधायी कार्यों के निष्पादन में लिया है। उदाहरणार्थ, भारत सरकार ने संविधान के प्रथम संशोधन अधिनियम 1951 तथा संविधान के चतुर्थ संशोधन अधिनियम 1955 के औचित्य के संदर्भ में क्रमशः शंकरी प्रसाद तथा गोलकनाथ मुकदमों में न्यायालय के सम्मुख यह कहा कि ये दोनों अधिनियम राज्य की नीति के निदेशक तत्वों को व्यावहारिक रूप प्रदान करने के लिए बनाए गए हैं।
भारत में पंचायते ब्रिटिश शासन के समय से ही स्थानीय शासन के रूप में कार्य कर रहीं थी परन्तु इन संस्थाओं के लोकतांत्रिक स्वरूप पर ध्यान नहीं दिया गया था| इन कमियों के संवैधानिक समाधान के लिए प्रयास किये गये| सविधान के अनुच्छेद 40 में वर्णित प्रावधान कि – “राज्य ग्राम पंचायतों का संगठन करने के लिए कदम उठाएगा और उनको ऐसी शक्तियाँ और प्राधिकार प्रदान करेगा जो उन्हें स्वायत्त शासन की इकाइयों के रूप में कार्य करने योग्य बनाने के लिए आवश्यक हो”; को दृष्टिगत करते हुए भारतीय संसद द्वारा 73 वें एवं 74 वें संविधान संसोधन 1992 के माध्यम से पंचायती राज तथा नगरपालिकाओं को संवैधानिक दर्जा प्रदान करने का ऐतिहासिक कदम उठाया गया| पंचायती राज में प्रत्येक स्तर पर कुल सीटों की संख्या की एक तिहाई महिलाओं के लिए आरक्षित की गई हैं, बिहार के मामले में आधी सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित हैं। संविधान के अनुच्छेद 45 में उल्लिखित प्रावधान से प्राप्त नीति संबंधी निदेश के अनुपालन में शिक्षा का अधिकार कानून 2009 ने मूर्त रूप लिया है|
इसके अतिरिक्त भी कई कानून का निर्माण इस निदेशक सिद्धांत के अनुपालन में किया गया है जिसके तहत 1948 का न्यूनतम मजदूरी अधिनियम सरकार को संपूर्ण आर्थिक क्षेत्र में काम कर रहे लोगों की न्यूनतम मजदूरी तय करने का अधिकार देता है। समान पारिश्रमिक अधिनियम 1976 महिलाओं और पुरुषों दोनों को समान कार्य के लिए समान वेतन प्रदान करता है। उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम 1986 उपभोक्ताओं को बेहतर सुरक्षा प्रदान करता है। अधिनियम का उद्देश्य उपभोक्ताओं की शिकायतों का सरल, त्वरित और सस्ता समाधान प्रदान करना और जहां उपयुक्त पाया जाए राहत और मुआवजा दिलाना अनुसूचित जातियों और जनजातियों को भेदभाव से बचाने के लिए, सरकार ने ऐसे कृत्यों के लिए कड़े दंडों का प्रावधान करते हुए 1995 में अत्याचार निवारण अधिनियम अधिनियमित किया था। हैं। जम्मू एवं काश्मीर तथा नागालैंड को छोड़ कर सभी राज्यों और प्रदेशों में न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग कर दिया गया है। भारत की विदेश नीति निदेशक सिद्धांतों से प्रभावित है। भारतीय सेना द्वारा संयुक्त राष्ट्र के शांति कायम करने के लगभग 49 अभियानों में भाग लेकर भारत ने संयुक्त राष्ट्र संघ के शांति प्रयासों में सहयोग दिया है।
समान नागरिक संहिता का कार्यान्वयन अभी लंबित है| शाह बानो मामले (1985-1986) में सर्वोच्च न्यायालय ने मुस्लिम महिला शाह बानो (जिसके पति ने उसे 1978 में तलाक दे दिया गया था) को सभी महिलाओं के लिए लागू भारतीय विधि के अनुसार अपने पूर्व पति से गुजारा भत्ता प्राप्त करने का हकदार बताया था। भारत के रूढ़िवादी मुसलमानों ने इस निर्णय को अपनी संस्कृति और विधानों पर अनाधिकार हस्तक्षेप मानते हुए इसका जमकर विरोध किया। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने उनकी मांगों को मानते हुए मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकार संरक्षण) अधिनियम 1986 पास किया, जिसमें शाह बानो मामले में उच्चतम न्यायालय के निर्णय को उलट दिया। कई न्यायविदों, आलोचकों और नेताओं ने आरोप लगाया कि धर्म या लिंग के बावजूद सभी नागरिकों के लिए समानता के मूल अधिकार की सरकार द्वारा अवहेलना किसी ख़ास वर्ग के तुष्टिकरण हेतु की गई थी। यह फैसला और कानून आज भी चर्चा के विषय हैं|
निष्कर्षत: निदेशक तत्व मूलतः राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक एवं सांस्कृतिक नीति से संबद्ध हैं।
मूल कर्तव्य
समाज के लिए व्यक्ति के दायित्वों की प्रतिपूर्ति हेतु मूल कर्तव्य की संकल्पना की गयी है| सरदार स्वर्ण सिंह समिति के सुझाव के आलोक में 1976 में पारित बयालीसवें संविधान संशोधन विधेयक द्वारा संविधान में मूल कर्तव्यों को समाविष्ट किया गया है। इसके लिए संविधान में एक नए भाग-4 (A) में अनुच्छेद 51 (A) शामिल किया गया, जिसमें मूल कर्तव्यों की व्यवस्था है |
मूल कर्तव्यों के माध्यम से नागरिकों से आशा की जाती है कि वे
आलोचकों द्वारा कुछ कर्तव्यों मे प्रयुक्त शब्दावली को भ्रामक एवं अस्पस्ट बताया जाता है| मानवतावाद, स्वतंत्रता आन्दोलन के आदर्श जैसी शब्दावलियाँ इसके उदाहरण हैं| कई ऐसे कर्तव्य भी हैं जो मात्र दुहराव लगते हैं| इसकी अवहेलना करने पर दंड का स्पष्ट प्रावधान के अभाव की तरफ भी आलोचक ध्यानाकृष्ट करते हैं|
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