मैक्समुलर और विंटरनिज ने 1500 ई0 पूर्व से 600 ई0 पूर्व के काल को वैदिक काल प्रमाणित किया|
संबद्ध पुरातात्विक संस्कृति – BRW, OCP, PGW
संस्कृति के निर्माता आर्य
भारत में आर्यों की जानकारी ऋग्वेद से मिलती है।
ऋग्वेद में 'आर्य' शब्द 36 बार आया है
आर्य
अर्थ – अच्छे परिवार के लोग
सामान्यतः एक सांस्कृतिक समुदाय जो भारत मे वैदिक संस्कृत लेकर आए
मैक्समूलर - आर्य शब्द का कोई तालुक नस्ल(Race) से नहीं है इसका संबंध भाषा से है और सिर्फ भाषा से है |
आर्य का प्रारंभिक जीवन मुख्यतः पशुचारी था। कृषि उनका गौण धंधा था।
आयों का समाज पुरुष प्रधान (Male-dominated) था।
आर्यों ने कई प्रकार के पशुओं का इस्तेमाल किया लेकिन उनके जीवन में घोड़े का महत्व सर्वाधिक था।
आर्यों के उद्भव के विभिन्न सिद्धांत –
भारतीय उदगम
सप्त सैन्धव सिद्धान्त
A C Das
अमान्य
साउथ रसिया की राका, रासा, आशुनीति नदी की चर्चा /
पीपल, हाथी का उल्लेख नहीं/
घोड़े का उपयोग
ईरान एशिया माइनर के बोगजगोई से मिट्टी प्लेट पर लेख प्राप्त जिसमे इंद्र, मित्र, वरुण, नासत्य आदि वैदिक देवताओं का उल्लेख
मध्य देश
R B Pandey
कश्मीर हिमालय
Dr Kalla
ब्रह्मर्षि देश
Dr G N Jha
पामीर तिब्बत मूल स्थान
1. पार्जिटर'
2. ओल्डेनवर्ग
3. दयानन्द सरस्वती
अमान्य
साउथ रसिया की राका, रासा, आशुनीति नदी की चर्चा / बोगजगोई से मिट्टी प्लेट पर लेख
उत्तरी ध्रुव उद्गम सिद्धान्त
बाल गंगाधर तिलक
Orion/ The Arctic home in the Vedas
Arctic the Original land of Aryans
छ: महीने का दिन रात, दीर्घ कालीन ऊषा, भयंकर ठण्ड/ नदियों का जमजाना/ ज्योतिष नक्षत्र के आधारतक बताया कि आर्य 8000BC तक उत्तरी ध्रुव पर, 6000BC तक भारत आए एवं 4500BC में ऋग्वेद की रचना
अमान्य
Neolithic काल में रखे जाने एवं अन्य कारण
यूरोपीय सिद्धांत
जर्मन सिद्धान्त
डॉ पैका
रेसियल एंथ्रोपोलॉजी (मेडीटेरियन रेस) एवं वानस्पतिक समानता
अमान्य
रेसिज्म मिथ होने एवं अन्य कारणों से
हंगरी सिद्धान्त
डॉ गाइल्स
बाल्टिक सिद्धान्त
डॉ मैचो
आर्य के मूल निवास संबंधी विचार के लिए विभिन्न शाखाओं का उपयोग
उपरोक्त के आधार पर मूल निवास सम्बन्धी विचार
मैक्समूलर – सेंट्रल एशिया
सेओस - सेंट्रल एशिया कैस्पियन सागर क्षेत्र
मेओप – यूरेशिया
स्वीकार्य – Central Asia- South Russia – Asia minor
दो सागर अराल एवं कैस्पियन सागर के बीच
दो नदियों Oxus एवं Juxtras के बीच
बोगाजगोइ लेख – एशिया माइनर से विंकलर ने खोजा- 1400 BC का मिट्टी प्लेट पर कीलाक्षर लिपि में हित्ती और मित्तनी के बीच का संधिपत्र जिसमे गबाह के रूप में इन्द्र, मित्र, वरुण नासत्य वैदिक देवता
कीकुली का ग्रन्थ रथ आवर्तन 1400 BC का मिट्टी प्लेट- वैदिक संस्कृत से मेल खाते संख्याबाचक शव्दों का प्रयोग- वैदिक संस्कृत बोलनेबाले एवं प्राचीन ईरानी बोलनेबाले काफी समय तक साथ रहे
ईरानी भाषा का प्राचीनतम ग्रंथ 'अवेस्ता' और ऋग्वेद में अनेक देवताओं एवं सामाजिक वर्गों के लिए समान नाम का प्रयोग जिससे यह निष्कर्ष कि आर्य ईरान होते हुए 1500 BC के कुछ पहले भारत आए
ऋग्वेदिक काल
ऋग्वेद
वेद स्वत: प्रमाण है जो स्वीकार करते हैं आस्तीक जिसके संकलनकर्ता – कृष्ण द्वैपायन- वेदव्यास| वेद के लिए श्रुति, छन्दस, निगम, आम्नाय, संहिता, त्रयी (अथर्ववेद को छोरकर)
8 मंडल – मिश्रित 50% कण्व + 50% पुरुष एवं महिला रचनाकार (लोपामुद्रा, पौलेमी, साची, घोषा, अपाला, विश्ववारा)
9 मंडल – एक देवता सोम को समर्पित –पवमानी मंडल
1 एवं 10 वा मंडल सबसे नया 100 शब्द वाले मंत्र के कारण शचर्चिन मंडल
पुरुष सूक्त, हिरण्यगर्भ सूक्त, नासदीय सूक्त
स्थानीय लोग दास, दस्यु आदि से संघर्ष
स्थानीय लोग – दास
स्थानीय लोग – दस्यु
पूर्ववर्ती आर्यों की ही एक शाखा प्राचीन (ईरानी साहित्य में उल्लेख )
ऋग्वेद में वर्णन है कि भरतवंश के एक राजा 'दिवोदास' ने 'शम्बर' को हराया।
आर्यों का राजा दासों के प्रति तो कोमल था पर दस्युओं का परम शत्रु था।
संभवतः इस देश के मूल निवासी
आर्यों के जिस राजा ने उन्हें पराजित किया वह ‘त्रसदस्यु' कहलाया।
'दस्युहत्या' शब्द का उल्लेख ऋग्वेद में बार-बार
शायद 'लिंगपूजक' और दुग्ध उत्पादक नहीं थे
अश्वचालित रथ, कवच और उत्कृष्ट अस्त्र (छेदवाली कुल्हाड़ी, कांसे की कटार और खड्ग) के कारण आर्य जीतते गए।
पूर्व-आर्य जनों एवं अपने ही लोगों से आर्यों की लड़ाई। आर्य समुदाय दीर्घकाल तक आंतरिक जातीय संघर्षों से जर्जर रहा।
प्रारम्भ मे आर्य सप्तसैंधव क्षेत्र मे पांच कबीलों-यदु, अनु, दुह्य, तुर्वस एवं पुरू जो 'पंचजन' में बटे हुए थे
सृञ्जय, क्रिवी, त्रित्सु, भरत- सरस्वती के पूरब एवं यमुना के पश्चिम बसा
कश्मीर मे गांधारी एवं द० पूर्वी राजस्थान मे चेदी
आपसी लड़ाई में आर्येत्तर जनों का भी सहारा | वशिष्ठ 'भरत' और 'त्रित्सु' दोनों के पुरोहित थे।
इस देश का नाम 'भारतवर्ष' ऋग्वेद में वर्णित भरत कबीले के 'दसराज्ञ युद्ध' में जीत के कारण
भरत
दस राजा (पुरु +चार आर्य जन और शेष आर्य भिन्न)
वशिष्ट के मार्गदर्शन में नेता सुदास
विश्वामित्र के मार्गदर्शन में नेता संबरण
युद्ध 'परुण्णी नदी वर्त्तमान 'रावी नदी' के तट पर हुआ
'दसराज्ञ युद्ध' में सुदास की जीत हुई और 'भरत जन की प्रभुता कायम हुई
कालांतर में 'भरतों' और 'पुरुओं' ने मिलकर एक नया शासक कुल कुरु बनाया
कुरु जनों ने पंचालों के साथ मिलकर उच्च गंगा घाटी में अपना संयुक्त राज्य स्थापित किया।
भौगोलिक सीमा
ऋग्वेदिक आर्यों की भौगोलिक जानकारी ऋग्वेद मे वर्णित नदी के आधार पर
नदी सूक्त- वितस्ता (झेलम), असकिनी (चेनाव), परुषणी (रावी), शतुद्री (सतलज), सरस्वती (घघर), द्रश्द्वती इसके अतिरिक्त विपासा (व्यास)
ऋग्वेद में अफगानिस्तान की 'कुभा' (KUBHA) आदि कुछ नदियों का तथा सिंधु और उसकी सहायक पांच नदियों का उल्लेख है।
सिंधु आर्यों की सबसे प्रमुख नदी -बार-बार उल्लेख – सिंधु माता
ऋग्वेद में दूसरी नदी 'सरस्वती' को 'नदीतमा' (Naditama) या नदियों में सर्वोत्तम कहा गया है। इसकी पहचान हरियाणा और राजस्थान के 'घघ्घर-हकरा नदी' से
भारत में आर्य लोग जहां पहली बार बसे वह सारा प्रदेश 'सप्तसिंधु' (सात नदियों का प्रदेश) कहलाता है।
स्वतंत्र रूप से यमुना एवं गंगा का एक बार प्रयोग|वैसे यमुना का 3बार एवं गंगा का 2 बार उल्लेख
पर्वत – हिमवंत (कश्मीर हिमालय), मुजवंत (कश्मीर हिमालय की शृंखला)सोम देव/ वनस्पति का निवास, शीलवन्त (सुलेमान पर्वत )
समुद्र की चार वार सीधे तौर पर चर्चा (शव्द - समुद्र एवं अर्णाव )
ऋग्वैदिक आर्य मरुस्थल /भारतीय समुद्र से परिचित नहीं
आरंभिक आर्यों का निवास स्थान पूर्वी अफगानिस्तान, पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत, पंजाब तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सीमावर्ती भू-भागों में था।
भौतिक जीवन
ऋग्वैदिक लोग शायद कभी-कभी गायों को चराने, खेती करने और बसने के लिए जमीन पर कब्जा करते रहे होगें परन्तु भूमि निजी सम्पत्ति के रूप में स्थापित परम्परा नहीं थी।
भारत में आर्यों की सफलता के कारण -घोड़े, रथ, स्पोक वाले चक्के (Spoked wheel) और कांसे के कुछ बेहतर हथियार,
आर्य को राजस्थान की खेतरी खानों से तांबा मिलता रहा
ऋग्वैदिक लोगों को खेती की बेहतर जानकारी (फाल - लकड़ी का का उल्लेख)
उन्हें बुआई, कटाई और दावनी (Threshing) का ज्ञान था।
विभिन्न ऋतुओं के बारे में भी उन्हें जानकारी थी।
ऋग्वेद में गाय और बैल की चर्चा के कारण ऋग्वैदिक आर्य मुख्यत: पशुचारक
गाय सबसे उत्तम धन
लड़ाईयां गायों को लेकर/ऋग्वेद में युद्ध का पर्याय 'गविष्टि' (गाय की खोज)
पुरोहितों की दी जाने वाली दक्षिणा - गायें और दासियां/ भूमि कभी नहीं
ऋग्वेद में बढ़ई, रथकार, बुनकर, चर्मकार, कुम्हार आदि शिल्पियों के उल्लेख मिलते हैं।
धातुकर्म की जानकारी- तांबे या कांसे के अर्थ में 'अयस' शब्द का प्रयोग
नियमित व्यापार का कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं
आर्यजन भूमि मार्ग से ज्यादा परिचित ('समुद्र' शब्द जलराशि का वाचक)
आर्य लोग शहरों में नहीं संभवतः किसी न किसी तरह की गढ़ बनाकर मिट्टी के घरों वाले बस्तियों में रहते थे।
हरियाणा के 'भगवानपुरा' और पंजाब में तीन स्थलों
उत्तरकालीन हड़प्पा मृद्मांडों के साथ-साथ 'चित्रित घूसर मृद्मांड' पाए गए हैं।
प्राप्त वस्तुओं की तिथि ऋग्वेदिक काल के समकालीन 1600 ई.पू. से 1000 ई.पू.
परन्तु लौहे का वस्तु नहीं
भगवानपुरा में तेरह कमरों वाला एक मिट्टी का घर एवं घोड़े की हड्डी प्राप्त
राजनैतिक प्रशासनिक ईकाई
परिवार गृहपति/ज्येष्ठ
ग्राम- ग्रामीनी
विश- विश्पति
जन – गोप्ता/गोप/कुलप
क़बायली राजव्यवस्था
तंत्र 'राजन' - कबीले के प्रधान के पास जिसके लिए गोप्ता/गोप/कुलप शब्द
युद्ध का सफल नेतृत्वकर्ता / पद आनुवंशिक
राजन के पास असीमित अधिकार नहीं कबायली संगठनों की सलाह आवश्यक
कबीले की आम सभा- 'समिति' 'राजा' का चुनाव करती थी।
राजा अपने कबीले एवं मवेशी रक्षक, युद्ध नेतृत्वकर्ता और देवताओं की प्रार्थना करने वाला
कबीलों या कुलों के आधार पर बने सभा, समिति, विदध, गण जैसे संगठनों का उल्लेख
संगठन का विचारात्मक, सैनिक और धार्मिक कार्य
ऋग्वैदिक काल के में 'सभा' और 'विदथ में महिलाओं की भागीदारी
'सभा' और 'समिति' का समर्थन प्राप्त करने के लिए राजा भी सदैव तत्पर
पुरोहित
राजा का सबसे महत्वपूर्ण अधिकारी 'पुरोहित'
ऋग्वेद काल में 'वशिष्ट' और 'विश्वामित्र' दो महान पुरोहित हुए थे। वशिष्ठ जहां कट्टर थे वही विश्वामित्र उदार थे।
विश्वामित्र ने प्रसिद्ध 'गायत्री मंत्र' (तीसरे मंडल में) की रचना की।
पुरोहित राजा को कर्तव्य का उपदेश देते थे, उनका गुणगान करते थे और बदले में गायों और दासियों के रूप में प्रचुर दान-दक्षिणा पाते थे।
सेनानी
पुरोहित के बाद 'सेनानी' का स्थान था जो भाला, कुठार, तलवार आदि शस्त्र का प्रयोग करता था।
स्पश
समाज विरोधी हरकतों को रोकने के लिए 'गुप्तचर'
'व्रजपति' - चारागाह का अधिकारी
कर संग्रह अधिकारी का पता नहीं चलता। संभवतः प्रजा स्वयं राजा को उसका अंश - 'बलि' स्वेच्छा से देती थी
ऋग्वेद में किसी तरह के न्यायाधिकारी का उल्लेख नहीं है।
वैदिक समाज में चोरी और सेंधमारी होती थी और विशेष रूप गाय की चोरी
भेंट और युद्ध में प्राप्त लूट की वस्तुएं का संगठनों में बंटवारा
लड़ाकू दलों के प्रधानों -'ग्रामणी' (युद्ध के नेतृत्वकर्ता)
राजा के पास नियमित या स्थायी सेना नहीं युद्ध के समय वह एक नागरिक सेना संगठित करता था जिसका सैनिक कार्य व्रात, गण, ग्राम, शर्ग आदि विभिन्न कबायली समूह करते थे।
प्रबल सैनिक तत्व के साथ कबायली ढंग का शासन
निरंतर स्थान बदलते और फैलते रहने के कारण नागरिक शासन या प्रादेशिक प्रशासन का अस्तित्व नहीं
क़बीला और परिवार
परिवार के अर्थ में 'गृह' शब्द
परिवारों के प्रधान- 'कुलप'
व्यक्ति की पहचान उसके 'कुल' से
'कुल' का प्रयोग विरल । इसमें केबल माता, पिता, पुत्र, दास आदि ही नहीं आते थे बल्कि और भी बहुत से लोग आते थे।
सामाजिक संगठन का आधार "गोत्र'
पारिवारिक संबंधों का विभेदीकरण बहुत अधिक नहीं हुआ था और कुटुम्ब एक बड़ी सम्मिलित इकाई था।
लोगों की प्राथमिक निष्ठा अपने कबीले - 'जन' के प्रति
ऋग्वेद में 'जन' शब्द लगभग 275 बार परन्तु 'जनपद' का नहीं
कबीले के अर्थ में दूसरा महत्वपूर्ण शब्द 'विश' ऋग्वेद में इसका 170 बार
संभवतः लड़ाई के उद्देश्य से 'ग्राम' का समूह 'विश'
'वैश्य' नामक बहुसंख्यक वर्ण का उदय इसी 'विश' या कबायली जनसमूह से हुआ है।
समाज/परिवार पितृसत्तात्मक (पिता मुखिया)
परिवार की अनेक पीढ़ियां एक घर में साथ-साथ
निरंतर युद्ध में लगे लोगों की वीर पुत्रों की प्राप्ति की कामना
ऋग्वेद में बेटी के लिए कामना व्यक्त नहीं जबकि देवता से प्रजा और पशु की कामना
स्त्रियां सभा-समितियों में भाग ले सकती थीं और वे पतियों के साथ यज्ञों में आहुतियां दे सकती थीं।
'सूक्तों की रचना करने वाली पांच महिलाओं के उदाहरण हमें प्राप्त होते हैं हालांकि बाद के ग्रंथों में ऐसी स्त्रियों की संख्या 20 बताई गई
माता के नाम पर कुछ पुत्रों के नामाकरण का उदाहरण - मामतेय।
स्पष्टतः सूक्तों की रचना मौखिक होती थी और उस काल का कोई लेख नहीं मिला है।
विवाह-संस्था कायम
कुछ आदिम प्रथाओं के अवशेष -'यमी' ने अपने जुड़वां भाई 'यम' से विवाह का प्रस्ताव रखा था जिसे यम ने अस्वीकार कर दिया
बहुपति प्रथा के भी कुछ संकेत मिलते - मरूतों ने रोदसी को मिलकर भोगा और सूर्य की पुत्री 'सूर्या' दो अश्विन भाईयों के साथ रहती थी।
ऋग्वेद में नियोग-प्रथा और विधवा-विवाह के प्रचलन का भी आभास
बाल विवाह का उदाहरण प्राप्त नहीं होता है।
ऋग्वैदिक काल में विवाह की आयु 16-17 वर्ष
सामाजिक वर्गीकरण
'वर्ण' शब्द का प्रयोग रंग के अर्थ में (आर्य गौर और मूलवासी काले रंग के)
वर्गों के सृजन का सबसे मुख्य कारण मूलवासियों पर आधिपत्य
आर्यों द्वारा जीते गए 'दास' और 'दस्यु' क्रमश: 'गुलाम' और 'शूद्र' हो गए
ऋग्वेद में 'आर्य वर्ण' और 'दास वर्ण' का उल्लेख है।
धीरे-धीरे कबायली समाज तीन वर्गों में बंट गया- योद्धा, पुरोहित और सामान्य लोग। चौथा वर्ग, जो शूद्र कहलाया, ऋग्वेद काल के अंत में प्रकट हुआ (सर्वप्रथम उल्लेख ऋग्वेद के दसम् मंडल में जो सबसे बाद में जोड़ा गया)
पुरोहितों को दक्षिणा में मुख्य रूप से स्त्री-दासों' को दिया जाता था जो घरेलू कार्य करती थीं।
ऋग्वेद-काल में 'दास' प्रत्यक्षतः खेती काम में या अन्य उत्पादनात्मक कार्य में नहीं लगाए जाते थे।
व्यवसाय के आधार पर समाज में विभेदीकरण आरंभ- विभाजन सख्त नहीं
ऋग्वेद में किसी परिवार का एक सदस्य कहता है- मैं कवि हूं, मेरे पिता वैद्य हैं और मेरी माता चक्की चलाने वाली हैं भिन्न-भिन्न व्यवसायों से जीविकोपार्जन करते हुए हम एक साथ रहते हैं।
गायें, रथ, घोड़े, दास-दासियों आदि दान में दिए जाते थे।
युद्ध में प्राप्त सम्पत्ति का असमान वितरण होने के कारण समाज में असमानता आई और राजाओं तथा पुरोहितों को आगे बढ़ने में सहायता मिली।
मुख्य आर्थिक आधार पशुचारण था इसलिए प्रजा से नियमपूर्वक 'कर‘ वसूलने की गुंजाइश बहुत कम थी।
दान में भूमि मिलने का उल्लेख नहीं मिलता/अन्नदान का Rare वर्णन
समाज में कबायली तत्व प्रबल कर-संग्रह और भूमि संपदा के स्वामित्व पर आश्रित सामाजिक वर्गीकरण नहीं
ऋगवैदिक धर्म
प्राकृतिक शक्तियों को दैहिक रूप मे देखा और इनमें मानव और पशु के गुण आरोपित किए
'ऋग्वेद' में देवताओं की स्तुति में विभिन्न ऋषियों के रचे सूक्त
सबसे अधिक प्रतापी देवता – इन्द्र (250 सूक्त समर्पित)
पुरंदर अर्थात् किले को तोड़ने वाला
आर्य के शत्रुओं को बार-बार पराजित किया
आर्यों के युद्ध नेता के रूप में चित्रित
बादल का देवता माना गया है जो वर्षा कराता है।
दूसरा मत्वपूर्ण देवता – अग्नि (200 सूक्त समर्पित)
उपासना का प्रचलन भारत और ईरान में है।
अग्नि ने देवताओं और मानवों के बीच मध्यस्थता की भूमिका निभाई
तीसरा मत्वपूर्ण देवता – वरुण ( 47 सूक्त समर्पित)
'जल का देवता' माना गया
7वे मंडल मे पहला भक्ति परक मंत्र समर्पित
'ॠत' अर्थात प्राकृतिक व्यवस्था का रक्षक
जगत में जो भी घटित होता है वह उसी की इच्छा का परिणाम
'सोम'
वनस्पतियों का अधिपति
ऋग्वेद में मादक रस 'सोमरस' बनाने की विधि बताई गई है।
'मरुत ' आंधी के देवता थे।
कुछ देवियां भी जैसे-अदीति, उषा आदि। परन्तु, पितृसत्तात्मक समाज में देवियों की प्रमुखता नहीं थी।
उपासना रीति
देवताओं की उपासना की मुख्य रीति - प्रार्थना और यज्ञ बलि अर्पित करना
स्तुतिपाठ पर अधिक जोर था। स्तुतिपाठ सामूहिक और व्यक्तिगत दोनों रूप में होता था।
हर कबीले या गोत्र का अपना अलग देवता
'इन्द्र' और 'अग्नि' समस्त जन द्वारा दी गई बलि में आहूत होते थे।
यज्ञाहुति में सब्जियां (Vegetables), जौ आदि वस्तुएं दी जाती थीं। ये वस्तुएं अर्पित करते समय कोई आनुष्ठानिक बलि या याज्ञिक मंत्रों का उपयोग नहीं किया जाता था।
पूजा का उद्देश्य
आध्यात्मिक उत्थान या जन्म-मृत्यु के कष्टों से मुक्ति के लिए पूजा नहीं
देवताओं से संतति (बच्चे), पशु, अन्न, धन, आरोग्य आदि की कामना
उत्तर वैदिक काल (Later VedicAge)
1000 ई0 पूर्व से 600 ई0 पूर्व का काल
विशुद्ध साहित्यिक संस्कृति
ऋग्वेदोत्तर साहित्य
अतिरिक्त 3 वेद
8 ब्राह्मण ग्रंथ
6 आरण्यक
13 उपनिषद
ऐतरेय ब्राह्मण
कौशितकी ब्राह्मण
ऐतरेय आरण्यक
कौशितकी आरण्यक
ऐतरेय उपनिषद
कौशितकी उपनिषद
यजुर्वेद
शतपथ ब्राह्मण
तैतरीय ब्राह्मण
वृहदारण्यक आरण्यक
तैतरीय आरण्यक
वृहदारण्यक उपनिषद
ईशोपनिषद
कठ उपनिषद
श्वेताश्वर उपनिषद
मैत्रायिनी उपनिषद
तैतरीय उपनिषद
सामवेद
पंचविश ब्राह्मण
षडविश ब्राह्मण
जैमिनीय ब्राह्मण
5. छान्दोग्य आरण्यक
6. जैमिनीय आरण्यक
छान्दोग्य उपनिषद
जैमिनीय उपनिषद
अथर्ववेद
गोपथ ब्राह्मण
प्रश्न उपनिषद
मुण्डक उपनिषद
माण्डुक्य उपनिषद
सामवेद- ऋग्वैदिक सूक्तों को गाने के लिए धुन में पिरोकर पुनसंकलित ग्रंथ
'यजुर्वेद' - गाते समय किए जाने वाले अनुष्ठान
अथर्ववेद' - विपत्तियों और व्याधियों के निवारण के लिए मंत्र तंत्र
- आयेंत्तर लोगों के विश्वासों और प्रचलित रीतियों पर प्रकाश
वैदिक संहिताओं के बाद ब्राह्मण ग्रंथों' की रचना हुई |
ब्राह्मण ग्रंथों में वैदिक अनुष्ठान की विधिया संग्रहीत हैं और उन अनुष्ठानों की सामाजिक एवं धार्मिक व्याख्या भी
उत्तरकालीन वैदिक ग्रंथ लगभग 1000-500 ई०पू० में उत्तरी गंगा के मैदान में रचे गए।
इस काल और क्षेत्र के लगभग 700 स्थल प्रकाश में आए हैं, जहां सबसे पहले बस्तियां कायम हुई। इन्हें 'चित्रित धूसर मृद्भाड' (PGW Painted Grey Ware) स्थल कहते हैं।
PGW -स्थल के निवासी मिट्टी के चित्रित और भूरे रंग के कटोरों और थालियो तथा लोह के हथियारों का प्रयोग करते थे
उत्तर वैदिक काल में लोग पकाई हुई ईंट का प्रयोग शायद ही जानते थे।
उत्तरकालीन वैदिक ग्रंथ और 'चित्रित-धूसर-मृद्मांड लौह अवस्था के पुरातत्व ईसा पूर्व प्रथम सहस्राब्दी के पूर्वाद्ध में पश्चिमी उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा तथा राजस्थान के संलग्न क्षेत्रों में बसने वाले लोगों के जीवन के बारे में प्रकाश डालते है।
आर्यलोग पंजाब से गंगा-यमुना दोआब के अंतर्गत सम्पूर्ण पश्चिमी उत्तर प्रदेश में फैल गए।
'भरत' और 'पुरू' कबीला मिलकर 'कुरू' हो गए। आरंभ में वे दोआब के किनारे 'सरस्वती' और 'दृषद्वति' नदियों के प्रदेश में बसे। शीघ्र ही कुरूओं ने दिल्ली क्षेत्र और दोआब के ऊपरी भाग पर अधिकार कर लिया जो 'कुरूक्षेत्र' के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
धीरे-धीरे 'कुरु' पंचालों से भी मिल गए जो दोआब के मध्य भाग पर काबिज थे। इन्होंने हस्तिनापुर को अपनी राजधानी बनाई जो मेरठ जिले में पड़ता है
विस्तार में वैदिक लोग लोहे के हथियार और अश्व चालित रथ के कारण सफल
कुरु की राजधानी हस्तिनापुर यमुना तट पर
'कुरु' - महाभारत युद्ध
- युद्ध संभवतः 950 ई.पू. के
- कुरु' कुल के कौरवों और पांडवों के बीच
- हस्तिनापुर में मिली सामग्रियों का काल 900 ई.पू. से 500 ई०पू० के बीच
- किन्तु, 'महाभारत' के हस्तिानापुर से इसका कोई मेल नहीं
- 'महाभारत' की रचना बहुत बाद में ईसा की चौथी सदी के आसपास हुई
- प्राचीन कथाओं के अनुसार हस्तिनापुर बाढ़ में बह गया
- कुरुवंश में जो जीवित रहे वे इलाहाबाद के पास कौशाम्बी में जाकर बस गए।
यमुना बेहद लोकप्रिय नदी
गंगा सबसे अधिक प्रशंसित नदी
शतपथ ब्राह्मण की 'विदेह माधव' कथा मे सरस्वती से सदानीरा (गंडक) का उल्लेख
रेवोत्तरा नदी (नर्मदा) का उल्लेख
अर्थव्यवस्था
उत्तर वैदिक काल लोगों की जीविका
मुख्यत: खेती
वैदिक गथा में यह आठ बारह और चौबीस तक बैल के हल को जोते जाने की चर्चा
यज्ञों में पशु-वलि के प्रचलन के कारण बैल पर्याप्त संख्या में उपलब्ध नहीं रहे होंगे
'शतपथ ब्राह्मण' में हल संबंधी अनुष्ठान का लम्बा वर्णन है।
राजा और राजकुमार के शारीरिक श्रम के उदाहरण - विदेह के राजा जनक /कृष्ण का भाई बलराम 'हलघर'
कालांतर में हल चलाना उच्च वर्णों के लिए वर्जित हो गया।
मुख्य फसलें
वैदिक काल के लोग जौ उपजाते रहे पर
चावल और गेहूं उनकी मुख्य फसलें हो गई
चावल से परिचय सबसे पहले दोआब में (चावल -'व्रीहि‘)
ई.पू. आठवीं सदी का चावल हस्तिानापुर/ अंतरंजीखेड़ा से
वैदिक अनुष्ठानों में चावल के प्रयोग का विधान है, पर गेहूं का प्रयोग कदाचित ही होता था।
उत्तर वैदिक काल के लोग कई प्रकार के तिलहन भी पैदा करते थे।
चूल्हों और अनाजों (चावल) से प्रकट होता है कि वे लोग कृषिजीवी और स्थिरवासी थे
किसान लोग सामान्यतः काठ के फाल वाले हल से खेती करते थे इसलिए वे इतना अन्न नहीं उपजा सकते थे कि खेती से भिन्न व्यवसायों में लगे लोगों की भी आवश्यकता पूरी कर सकें। अतः किसान नगरों के उदय में अधिक हाथ नहीं बटा सके।
मैदानों में बसने वाले किसान अपने निर्वाह से अधिक अनाज पैदा करते थे।
वैदिक काल में लुहारों और धातुकारों के बारे में जानकारी मिलती हैं। अवश्य ही वे लोग. 1000 ई-पू- के आस-पास कुछ-न-कुछ लोहे का काम करते रहे होंगे।
लोहे का प्रयोग
उत्तर वैदिक ग्रंथों में लोहे के लिए 'श्याम या कृष्ण अयस' का प्रयोग
लगभग 1000 ई.पू. में ही पूर्वी पंजाब, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, राजस्थान और मध्य प्रदेश में खुदाई से ज्ञात
तीर के नौक, बरछ के फाल आदि लौहास्त्रों का प्रयोग लगभग 800 ई.पू. से पश्चिमी उत्तर प्रदेश में
वैदिक काल के अंतिम दौर (ईसा पूर्व सातवीं सदी) में लोहे का ज्ञान पूर्वी उत्तर प्रदेश और विदेह में फैला
तांबे का प्रयोग
वैदिक लोगों द्वारा सर्वप्रथम प्रयोग किये जाने वाले धातुओं में तांबा भी एक था।
तांबे की वस्तुएं 'चित्रित धूसर मृद्भांड' स्थलों से पाई गई हैं। इन वस्तुओं का उपयोग मुख्यत: लड़ाई और शिकार तथा आभूषण के रूप में किया जाता था।
1000 ई०पू० के पहले के तांबे के बहुत सारे औजारों के जखीरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश और बिहार से मिले हैं। इससे प्रकट होता है कि वैदिकेत्तर (Non-Vedie) समाज में भी ताम्रशिल्पी थे।
राजस्थान के खेत्री के तांबे की खानों का उपयोग
बुनाई केवल स्त्रियां करती थीं, किन्तु यह काम बड़े पैमाने पर होता था।
चमड़े, मिट्टी और लकड़ी के शिल्पों में भारी प्रगति हुई।
उत्तर वैदिक काल के लोग ‘खेती' और 'विविध शिल्प' की बदौलत स्थायी जीवन अपनाने में समर्थ हो गए।
उत्तर वैदिक काल के लोग चार प्रकार के मुद्धांडों से परिचित
काला व लाल मृद्भांड,
काली पॉलिशदार मृद्मांड
चित्रित-धूसर मृद्भांड (सर्वोपरि वैशिष्ट्य सूचक) और
लाल मृद्भांड। (सबसे अधिक प्रचलित)
लगभग सम्पूर्ण पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पाया गया है।
चित्रित धूसर मृद्भांड वाले स्तरों में जो कांच की निधियां और चूड़ियां मिली हैं उनका उपयोग प्रतिष्ठा सूचक वस्तुओं के रूप में इने-गिने लोग ही करते होंगे।
उत्तर वैदिक ग्रंथों में आभूषण निर्माताओं का भी उल्लेख है।
'चित्रित धूसर मृद्भांड' स्थल प्राप्त हुए हैं कुरु-पंचाल क्षेत्र (पश्चिमी उत्तर प्रदेश और दिल्ली का क्षेत्र), मद्र क्षेत्र (पंजाब और हरियाणा का क्षेत्र), मत्स्य क्षेत्र (राजस्थान का क्षेत्र) आदि थे- हस्तिनापुर, अतरंजीखेड़ा, नोह का उत्खनन
PGW स्थल के लोग कच्ची ईंटों और लकड़ी के खंभों पर टिक टट्टी घरों में रहते थे
विविध शिल्पों और कलाओं से सम्पूर्ण होकर वैदिक लोग ऊपरी गंगा के मैदानों में स्थिर रूप से बस गए
उत्तर वैदिक काल के अंतिम दौर में आकर हम नगरों के आरंभ का मंद आभास
'हस्तिनापुर' और 'कौशाम्बी' (इलाहाबाद के पास) - आद्य-नगरीय स्थल‘
भौतिक जीवन में भारी उन्नति /वैदिक ग्रंथों में समुद्र और समुद्र यात्रा की भी चर्चा
राजनीतिक संघठन
उत्तर वैदिक काल में जन से बड़ा जनपद का आगमन
कुल 10 जनपद
सबसे बड़ा जनपद - कुरु
दूसरा बड़ा जनपद – पांचाल
बिहार मे एक जनपद – मिथिला
मिथिला के राजा जनक – महान दार्शनिक
आर्य भिन्न समूह का सर्वप्रथम वर्णन
मगध – शतपथ ब्राह्मण
अंग – अथर्ववेद
बंग – शतपथ ब्राह्मण
प्रशासनिक व्यवस्था (ऐतरेय ब्राह्मण)
उत्तर वैदिक काल में विदध' पूरी तरह समाप्त हो गया।
'सभा' और 'समिति' के चरित्र मे बदलाव
-कुलीनों तथा ब्राह्मणों का प्रभुत्व
-'सभा' में स्त्रियों का प्रवेश निषिद्ध
- कुलीनों तथा ब्राह्मणों का प्रभुत्व
बड़े राज्यों के उदय के कारण राजा अधिकाधिक शक्तिशाली
जनजातीय सत्ता धीरे-धीरे प्रादेशिक होती गई।
राष्ट्र' शब्द, जिसका अर्थ प्रदेश या क्षेत्र है, पहली बार इसी समय प्रकट हुआ।
उत्तर वैदिक ग्रंथों से शारीरिक और अन्य गुणों में सर्वश्रेष्ठ राजा के निर्वाचन के प्रमाण
राजा सामान्यजनों या 'विश्' से भेंट- 'बलि' प्राप्त करता था
राजा का पद आनुवांशिक हो गया सामान्यतः ज्येष्ठ पुत्र को
विभिन्न अनुष्ठानों के चलते राजा के प्रभाव में काफी वृद्धि हुई।
राजसूय यज्ञ' द्वारा राजा सर्वोच्च शक्ति प्राप्त करता था।
'अश्वमेध यज्ञ' में राजा द्वारा छोडा गया घोड़ा जिन-जिनक्षेत्रों से बेरोक गुजरता था उन सभी क्षेत्रों पर राजा का एकछत्र राज्य माना जाता था।
'वाजपेय यज्ञ' (रथदौड़) में राजा का रथ अन्य सभी बंधुओं से आगे निकलता था।
विषमात्ता – राजा जनता का भक्षक अर्थात निर्भर
वलि – भूमी कृषि कर
'कर' और 'नजराना के संग्रह के लिए एक अधिकारी - संग्रोहित् / भागदुग
राजा अपने कर्त्तव्यों के संपादन में पुरोहित, सेनापति, प्रधान रानी और कई अन्य उच्चकोटि के अधिकारियों की सहायता लेता था जिसे रत्निन कहा गया
रत्निन की संख्या – 12 (शतपथ ब्राह्मण /तैतरीय ब्राह्मण)
रत्निन मे सभी वर्णों की भागीदारी
उत्तर वैदिक काल में भी राजा कोई स्थायी सेना नहीं रखता था
युद्ध के समय कबीले के इकाइयों को इकट्ठा किया जाता था।
एक अनुष्ठान के अनुसार युद्ध में विजय पाने की कामना से राजा को एक थाली में अपने भाई बंधुआ (विश्) के साथ खाना पड़ता था।
सामाजिक संघठन
उत्तर वैदिक काल का समाज चार वणों में विभक्त था ब्राह्मण, राजन्य या क्षत्रिय, वैश्य और शूद
यज्ञ के अनुष्ठान के अत्यधिक बढ़ जाने के कारण ब्राह्मणों की शक्ति में अपार वृद्धि हुई।
ब्राह्मण लोग यजमानों के लिए धार्मिक अनुष्ठान और यज्ञ करते थे कृषि कार्यों से जुड़े पर्वो को सम्पन्न कराते थे और राजा की जीत के लिए प्रार्थना करते थे। बदले में राजा उन्हें कोई नुकसान नहीं पहुंचाने का वचन देता था।
उत्तर वैदिक काल के अंत से इस बात पर बल दिया जाने लगा कि ब्राह्मणों और क्षत्रियों के बीच परस्पर सहयोग रहना चाहिए ताकि समाज के शेष भागों में उनका प्रभुत्व बना रहे।
वैश्य को उत्पादन संबंधी काम सौंपा गया, जैसे कृषि, पशुपालन आदि। इनमें से कुछ शिल्पी का काम भी करते थे। वैदिक काल का अंत होते-होत व व्यापार करने लगे।
उत्तर वैदिक काल में केवल वैश्य ही राजस्व चुकाते थे
ऊपर के तीन वर्ण उपनयन संस्कार के अधिकारी थे अर्थात् वे वैदिक मंत्रों के साथ जनेऊ धारण का अनुष्ठान करा सकते थे।
चौथा वर्ण यानि शुद्र 'उपनयन संस्कार का अधिकारी नहीं था, वह 'गायत्री मंत्र' का उच्चारण नहीं कर सकता था।
उत्तर वैदिक कालीन 'ऐतरेय ब्राह्मण' में कहा गया है कि ब्राह्मण जीविका का खोज करने वाला और दान लेने वाला है। लेकिन, राजा जब चाहे उसे पद से हटा सकता था।
वैश्य को राजस्व अदा करने वाला कहा गया है और राजा जब चाहे उसकी पिटाई और उसका दमन कर सकता था।
सबसे बुरी स्थिति शूद्रों की थी। शूद्र को अन्य वर्णों का सेवक बतलाया गया है। वह दूसरों की इच्छानुसार काम करता था और पिटा जाता था।
राज्याभिषेक-संबंधी ऐसे कई सार्वजनिक अनुष्ठान होते थे जिनमें शूद्र मूल आर्य कबीले के सदस्य की हैसियत से भाग लेता था।
शिल्पियों में 'रथकार' आदि जैसे कुछ वर्गों का स्थान ऊंचा था और उन्हें यज्ञोपवीत पहनने का अधिकार प्राप्त था।
उत्तर वैदिक काल में भी वर्णभेद अधिक प्रखर नहीं हुआ था।
परिवार में पिता का अधिकार बढ़ता गया। वह अपने पुत्र को उत्तराधिकार से भी वंचित कर सकता था।
राजपरिवारों में ज्येष्ठाधिकार का प्रचलन प्रबल होने लगा।
अव पूर्व पुरुषों की पूजा भी होने लगी।
इस समय स्त्रियों का दर्जा सामान्यतः गिरा यद्यपि कुछ महिलाओं ने शास्त्रार्थ में भाग लिया और कुछ रानियां पति के राज्याभिषेक अनुष्ठानों के साथ रहीं, पर सामान्यतः स्त्रियों का स्थान पुरुषों के नीचे और अधीनस्थ माना जाने लगा।
उत्तर वैदिक काल में 'गोत्र-प्रथा' स्थापित हुई।
'गोत्र' शब्द का मूल अर्थ है गोष्ठ या वह स्थान जहां समूचे कुल का गोधन पाला जाता था। परन्तु बाद में इसका अर्थ एक ही मूल पुरुष से उत्पन्न लोगों का समुदाय हो गया।
लोग अब गोत्र से बाहर विवाह करने लगे। एक ही गोत्र और मूल पुरुष वाले लोगों के बीच आपस में विवाह निषिद्ध हो गया।
वैदिक काल में 'आश्रम' या जीवन के चार अवस्था सुप्रतिष्ठित नहीं हुए थे।
वैदिकोत्तर काल के ग्रंथों में हमें चार आश्रम स्पष्ट दिखाई देते हैं-
ब्रह्मचर्य या छात्रावस्था
गृहस्थ या गृहवासी
वानप्रस्थ या वनवास की अवस्था और
संन्यास या सांसारिक जीवन से विरत होकर रहने की अवस्था
उत्तर वैदिक ग्रंथों में केवल तीन आश्रमों का उल्लेख है।
अंतिम या चौथा आश्रम उत्तर वैदिक काल में प्रतिष्ठित नहीं हुआ था, हालांकि संन्यास अज्ञात नहीं था।
वैदिकोत्तर काल में भी केवल ग्रार्हस्थ्य आश्रम सभी वर्गों में सामान्यतः प्रचलित
वैदिक काल का पशुचारी समाज अव कृषि प्रधान हो गया।
'शूद्र' इस काल में भी छोटा सेवक वर्ग बना रहा।
कवायली समाज टूटकर वर्गों में विभक्त नया समाज बन गया। किन्तु, वर्णमूलक भेदभावों पर ज्यादा बल नहीं दिया जाता था
धर्म
उत्तर वैदिक काल में ऊपरी दोआव ब्राह्मणों के प्रभाव में आर्य संस्कृति का केन्द्र स्थल बन गया। लगता है कि सारा वैदिक साहित्य कुरु-पांचालों के इसी क्षेत्र में संकलित हुआ।
अब 'इन्द्र' और 'अग्नि' उतने प्रमुख नहीं रहे।
सृजन के देवता प्रजापति को सर्वोच्च स्थान मिला।
ऋग्वैदिक काल के कुछ अन्य गौण देवता भी प्रमुख हुए। पशुओं के देवता 'रुद्र' ने उत्तर वैदिक काल में महत्ता पाई। 'विष्णु' को लोग अपना पालक और रक्षक मानने लगे।
उपर्युक्त के अलावा, देवताओं के प्रतीक के रूप में कुछ वस्तुओं की पूजा भी प्रचलित हुई। उत्तर वैदिक काल में मूर्ति पूजा के आरंभ का कुछ आभास मिलने लगता है
इस समय कुछ वर्णों के अपने देवता भी हो गए। 'पूषन्' जो पशुओं की रक्षा करने वाला माना जाता था, शूद्रों का देवता हो गया।
देवताओं की पूजा विधि में अत्यधिक अंतर-
स्तुतिपाठ पहले की तरह चलते रहे, लेकिन प्रमुख रीति नहीं
यज्ञ में पशुओं की बलि ज्यादा महत्वपूर्ण
यज्ञ, सार्वजनिक तथा घरेलू दोनों रूप में प्रचलित हुए।
यज्ञ में बड़े पैमाने पर पशुबलि दी जाती थी जिससे पशुधन का ह्रास होता गया।
अतिथि को 'गोहना' (Goghna) कहा जाता था।
यज्ञ करने वाला यजमान' कहलाता था और यज्ञ का फल बहुत कुछ इस पर निर्भर माना जाता था कि यज्ञ में मंत्रों का उच्चारण कितनी शुद्धता से किया गया है।
ब्राह्मणों ने बहुत सारे अनुष्ठानों को चलाया जिनमें से कुछ आयेंत्तर लोगों से भी ग्रहण किया।
'राजसूय यज्ञ' कराने वाले पुरोहित को दक्षिणा में 240,000 गायें मिलती थीं। यज्ञ की दक्षिणा में सामान्यत: गायें और दासिया तो दी ही जाती थी साथ-साथ सोना, कपड़ा और घोड़े भी दिए जाते थे।
कभी-कभी पुरोहित दक्षिणा में राज्य का कुछ भाग भी मांगते थे किन्तु यज्ञ की दक्षिणा में भूमि का दिया जाना उत्तर वैदिक काल में प्रचलित नहीं हुआ था। 'शतपथ ब्राह्मण' में कहा गया है कि अश्वमेध यज्ञ में पुरोहित को उत्तर, दक्षिण पूर्व और पश्चिम चारों दिशाएं दे देनी चाहिए।
वैदिक काल के अंतिम दौर में पुरोहितों के प्रभुत्व तथा यज्ञ व कर्मकांडों के विरुद्ध प्रबल प्रतिक्रिया शुरू हुई।
यह प्रतिक्रिया पचालों और विदेह के राज्य में विशेषकर हुई जहां 600 ई.पू. के आस-पास उपनिषदों का संकलन हुआ था।
उपनिषदों में कहा गया है कि अपनी आत्मा का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए और ब्रह्म के साथ आत्मा का संबंध ठीक से जानना चाहिए।
'पंचाल' और 'विदेह' के कई क्षत्रिय राजाओं ने उपनिषदीय चिंतन को अपनाया और ब्राह्मण धर्म में सुधार लाने के लिए उपयुक्त वातावरण बनाया।
उत्तर वैदिक काल में 'क्षेत्राधारित राज्यों' (Territorial Kingdoms) की शुरुआत हुई। अब, युद्ध केवल पशुओं को हथियाने के लिए ही नहीं बल्कि राज्य क्षेत्र पर कब्जा करने के लिए भी होने लगे। महाभारत की लड़ाई उसका उदाहरण है।
ब्राह्मणों के सहयोग के बावजूद राजन्य या क्षत्रिय राजतंत्र की स्थापना नहीं कर पाए क्योंकि उस समय तक नियमित कर प्रणाली और वेतनभोगी सेना का संगठन नहीं हो सका था।
उस समय के खेती के प्रचलित तरीके में पर्याप्त कर और नजराने की गुंजाइश नहीं थी।
Imtihaan 68th BPSC Prelims Mock - 7 (Hindi) विवाद से विश्वास योजना संबंधित है -
(A) नागरिकों को सुविधाएं प्रदान करने से (B) कर मामले के सामाधान से (C) पंचायत प्रतिनिधियों से (D) केन्द्र- राज्य संबंध से
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